कैसे करूँ, अपने इस क्षुद्र
मन-प्राण को ही निर्मल
बहुत अवाँछित धूल-कचरा भरा
पड़ा है इसमें जब॥
नहीं छूटता है किंचित भी,
अन्य-निंदा का आस्वादन
चाहे न चाहे यह जिव्हा,
नश्तर चुभा ही देती है निज।
हालाँकि यह देती है, अपने मन
को भी कष्टक-व्यथा
परन्तु मन तो निज अल्पत्व
प्रदर्शित कर ही है देता॥
न तो छूटा मन लोभ से, स्वाँग
चाहे ऊपर से लूँ कर
कहीं न कहीं स्व हेतु
ज्यादा, करता ही तो कोशिश।
वह भी तो नहीं मैं शायद उतना
बुरा, जितना हूँ अंदर
सुस्ती-अनियमितता, कार्य
टालना आदि उसी ही में॥
पर लोभ की किञ्चित एक अति
विस्तृत परिभाषा है
जब कष्ट होता `वसुधैव-कुटुंबकम'
सूत्र अपनाने में।
जब स्वार्थ पूर्ण हावी हैं,
न प्राथमिकता सर्वजन हित
जब सूर्य-चन्द्र-पवन-धरती
सम, न है प्रवृत्ति-बाँटन॥
किंचित हमारे स्वार्थ-स्तेय
व लोभ ही संकुचा हैं देते
व्यापक-दृष्टिकोण से हटा, बस
स्व-साधन सिखाते।
अति लघु बनाते, संभावना
नर-विस्तृतता की अपेक्षा
श्रेष्ठ जो जगत को कुछ देते,
बदले में कोई न आशा॥
फिर स्वयं को कैसे बनाऐं ही,
जब कुछ संचित हो न
पर बुद्धि-मार्ग से, स्वारूढ़
होना शायद न बस लोभ।
हाँ, तय अपेक्षा-नियमों में
लज़ीलापन दुर्बलता-द्योतक
वह तो लोभ ही, क्यूँ कि पार
जाने में हम होते अक्षम॥
कैसे सोचूँ बेहतर जग विषय,
क्यों टिप्पणी जाने बिन
कितना बोलना उचित, व क्या वह
नितांत आवश्यक?
चंडूखाने की ख़बरों का कोई
वज़ूद न हो जीवन में इस
फिर भी कर्ण-संतुष्टि व
जिव्हा-स्वाद कारण हैं भ्रमित॥
निस्वार्थी होने का
तात्पर्य, स्व-विकास मार्ग त्याजना न
अपितु सर्व हिताय स्व- सक्षम
बनाना, उसका है भाग।
बाहर निकलूँ ज्ञानेन्द्रियों
की, लेने आनन्द-लोलुपता से
तभी मन की अनुपम शांति,
अनुभव भी कर सकूँगा॥
मेरे मन-अहंकार को तो हटाकर,
प्रेम-मार्ग दिखा दे
कैसे बने जीवन सुंदर ही, इस
हेतु कुछ पाठ पढ़ा दे।
टिप्पणी एक विशेष कारण के,
वशीभूत होकर न दें
सकल तथ्य ध्यान-विचार, निज
से कुछ उत्तम करें॥
प्रतिबद्धताऐं हों विस्तृत,
मन-मस्तिष्क-उर मृदुल बना
निकालूँ मन-कायरता बाहर,
उचित शब्द में न लज्जा
जहाँ भी मिले कोई विचार-मंच,
सर्वहित कथन न बुरा।
बनूँ एक निर्मल मनस्वी, न
झिझक स्वस्थ-यश वचन में
प्रश्न उत्थित हो निज से,
जिसको समर्थ भी महत्त्व देते?
उचित-निर्वाह और थकान को
बाधा करने से रोकना
निज-सामर्थ्य बढ़ा, एक
निर्भीक का व्यवहार करना।
जब असमर्थ हो समझने में,
पूछना न है गलत नितांत
ज्ञान वह शक्त करता, अतः
रोक-निवारण अनिवार्य॥
कैसे बनूँ सुविचारक, जब हो निज-कर्मठता
पर विश्वास
कैसे अन्यों को लगे
सत्य-उचित सार्वभौमिक ही कहा।
हालाँकि यह किंचित स्वार्थ
ही, न तो आकांक्षा न करत
तथापि उचित हेतु निष्ठा, इस
मंज़िल की है सीढ़ी प्रथम॥
ओ मौला, दूर कर सब अंधकार,
जीवन उचित-मृदुतर
मन बने अति पावन-संयमित, दूर
हों लोभ-प्रलाप सब।
मदर टेरेसा, बाबा आमटे,
गाँधी सम सबको गले लगाना
सब बाधाओं को हटाकर, हमें
सुमार्ग का यत्न है करना॥
धन्यवाद॥
29 मार्च, 2015 समय 00:05
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