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Sunday, 29 March 2015

कुछ बेहतर

कुछ बेहतर 


कैसे करूँ, अपने इस क्षुद्र मन-प्राण को ही निर्मल

बहुत अवाँछित धूल-कचरा भरा पड़ा है इसमें जब॥

 

नहीं छूटता है किंचित भी, अन्य-निंदा का आस्वादन

चाहे न चाहे यह जिव्हा, नश्तर चुभा ही देती है निज।

हालाँकि यह देती है, अपने मन को भी कष्टक-व्यथा

परन्तु मन तो निज अल्पत्व प्रदर्शित कर ही है देता॥

 

न तो छूटा मन लोभ से, स्वाँग चाहे ऊपर से लूँ कर

कहीं न कहीं स्व हेतु ज्यादा, करता ही तो कोशिश।

वह भी तो नहीं मैं शायद उतना बुरा, जितना हूँ अंदर

सुस्ती-अनियमितता, कार्य टालना आदि उसी ही में॥

 

पर लोभ की किञ्चित एक अति विस्तृत परिभाषा है

जब कष्ट होता `वसुधैव-कुटुंबकम' सूत्र अपनाने में।

जब स्वार्थ पूर्ण हावी हैं, न प्राथमिकता सर्वजन हित

जब सूर्य-चन्द्र-पवन-धरती सम, न है प्रवृत्ति-बाँटन॥

 

किंचित हमारे स्वार्थ-स्तेय व लोभ ही संकुचा हैं देते

व्यापक-दृष्टिकोण से हटा, बस स्व-साधन सिखाते।

अति लघु बनाते, संभावना नर-विस्तृतता की अपेक्षा

श्रेष्ठ जो जगत को कुछ देते, बदले में कोई न आशा॥

 

फिर स्वयं को कैसे बनाऐं ही, जब कुछ संचित हो न

पर बुद्धि-मार्ग से, स्वारूढ़ होना शायद न बस लोभ।

हाँ, तय अपेक्षा-नियमों में लज़ीलापन दुर्बलता-द्योतक

वह तो लोभ ही, क्यूँ कि पार जाने में हम होते अक्षम॥

 

कैसे सोचूँ बेहतर जग विषय, क्यों टिप्पणी जाने बिन

कितना बोलना उचित, व क्या वह नितांत आवश्यक?

चंडूखाने की ख़बरों का कोई वज़ूद न हो जीवन में इस

फिर भी कर्ण-संतुष्टि व जिव्हा-स्वाद कारण हैं भ्रमित॥

 

निस्वार्थी होने का तात्पर्य, स्व-विकास मार्ग त्याजना न

अपितु सर्व हिताय स्व- सक्षम बनाना, उसका है भाग।

बाहर निकलूँ ज्ञानेन्द्रियों की, लेने आनन्द-लोलुपता से

तभी मन की अनुपम शांति, अनुभव भी कर सकूँगा॥

 

मेरे मन-अहंकार को तो हटाकर, प्रेम-मार्ग दिखा दे

कैसे बने जीवन सुंदर ही, इस हेतु कुछ पाठ पढ़ा दे।

टिप्पणी एक विशेष कारण के, वशीभूत होकर न दें

सकल तथ्य ध्यान-विचार, निज से कुछ उत्तम करें॥

 

प्रतिबद्धताऐं हों विस्तृत, मन-मस्तिष्क-उर मृदुल बना

निकालूँ मन-कायरता बाहर, उचित शब्द में न लज्जा

जहाँ भी मिले कोई विचार-मंच, सर्वहित कथन न बुरा।

बनूँ एक निर्मल मनस्वी, न झिझक स्वस्थ-यश वचन में

प्रश्न उत्थित हो निज से, जिसको समर्थ भी महत्त्व देते?

 

उचित-निर्वाह और थकान को बाधा करने से रोकना

निज-सामर्थ्य बढ़ा, एक निर्भीक का व्यवहार करना।

जब असमर्थ हो समझने में, पूछना न है गलत नितांत

ज्ञान वह शक्त करता, अतः रोक-निवारण अनिवार्य॥

 

कैसे बनूँ सुविचारक, जब हो निज-कर्मठता पर विश्वास

कैसे अन्यों को लगे सत्य-उचित सार्वभौमिक ही कहा।

हालाँकि यह किंचित स्वार्थ ही, न तो आकांक्षा न करत

तथापि उचित हेतु निष्ठा, इस मंज़िल की है सीढ़ी प्रथम॥

 

ओ मौला, दूर कर सब अंधकार, जीवन उचित-मृदुतर

मन बने अति पावन-संयमित, दूर हों लोभ-प्रलाप सब।

मदर टेरेसा, बाबा आमटे, गाँधी सम सबको गले लगाना

सब बाधाओं को हटाकर, हमें सुमार्ग का यत्न है करना॥

 

धन्यवाद॥


पवन कुमार,
29 मार्च, 2015 समय 00:05 
 ( मेरी डायरी दि० 29 मई, 2014 समय 9:20 प्रातः से )  

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