कुछ लघु सा मस्तिष्क-कक्ष,
जिसमें परम- शून्यता सी
यूँ मद्धम लहरें उठती-बैठती,
गति का कोई पता नहीं॥
कहाँ से उदित हैं ये विचार,
जब बाह्य सब कुछ है शान्त
न निकल पाता हूँ तम-गुम्फा
से, व मात्र है छटपटाहट।
पर अन्य तो चिंतन कर ही लेते
हैं, ऐसे सुक्षणों में एकांत
अंतरतम-मृदुलता ही होती,
चितवन होता कृपा-निधान॥
किञ्चित सुसंवाद इस स्वयं से
ही, वीणा-तार हों झंकृत
फूटें तान सुरीली-रसीली
यहाँ, व जीवन हो मधुरमय।
हो जीवन-संचालित, उपलब्ध
क्षणों का सार्थक उपयोग
सारी कवायद आत्म-उन्नति
हेतु, रचनाऐं है अपरिमित॥
कलम-वाहन हाथ ने अपना कर्म
किया, पर न है चाल
कागज़-कलम संबंध अनुपम है,
स्वतः ही होते प्रयोग।
उत्तम उपजता सामंजस्य से, यदा-कदा
अपूर्व है आता
महान-ग्रंथ रचित मंथन से, जो
सदा कल्याणक होता॥
यूँ धाराऐं निकले शैल-गर्भ
से, मिल परस्पर बनाती गंगा
एक-२ तार विचार का मिल, देता
अनुपम सितार बना।
अंतः-मन की पीड़ा, कुछ
व्यूह-रचना को करे तब प्रेरित
माना संघर्ष इतना विरल न,
कुछ तो पार चले ही जात॥
तूलिका-चलायमान
आत्म-प्रक्रिया से, चलने दो स्व गति
कोई बलात्कार न कलम से,
महत्त्वपूर्ण इसकी रूचि भी।
सब विस्मय ही जग में, उभो
जय-विजय हैं इसके प्रभाग
किञ्चित संघर्ष
दर्शन-कुतूहल, अनुपम अनुभूति चित्रित॥
परा-अपरा विद्या न समीप अभी,
न ही वह संजीवनी ज्ञान
न पहचान रहा हूँ वाँछित, उठा
पर्वत दौडूँ भाँति हनुमान।
बड़ा बोझ है चढ़ा शिखर पर,
क्षमताऐं न पाता हूँ पहचान
कोई वैद्य न, अतः प्रस्तुत
औषधियों की न है कोई जाँच॥
कैसे कुछ जीते हैं दुनिया
में, धन्य किया अकिंचन जीवन
आऐं धरा पवित्रीकरण को, है
विकसित सोच सकारात्मक।
वचन-कर्मों से लघु
बुद्धि-कोष्ठक में, जन्मते परम-प्रकाश
देख पाते गुण-दोष
अपूर्वाग्रह, व्याधि मुक्ति का आभास॥
डूब जाते हैं चिन्तन में,
ज्ञान-दीपक की वे उपासना करते
कितना हित संभव अल्प समय
में, पूर्णतः ही प्रयास करते।
न फुर्सत विभूति के महिमा-मंडन
की ही, क्यूँकि हैं कर्मठ
देव-स्तुति न
प्रार्थना-याचना, अपितु करने हैं कर्म-सुकृत्य॥
कहाँ छुपा है वह जीवन, जिससे
साक्षात्कार करना चाहता
जीवन-स्पंदन ध्येय इस क्षण
में, कालजयी हूँ बनना चाहता।
महाकाल ने काल जीता है,
पूजनीय हुए सब भारत धरा पर
सर्व दिशा लिंग स्थापित हैं,
लगाने हेतु परम-शिव में ध्यान॥
मेरी तपस्या है चराचर जग
में, कैसे पहुँचूँ चरम तत्व तक
गंतव्य मार्ग तो मुझे पता
नहीं है, वेदना भारी भी तिस पर।
न मैं उपासक हूँ जाग्तिक
दृष्टि से, न रूचि है कर्म-कांड में
तथापि समर्थों के सार्थक
चिंतन से, बुद्धियंत्र हूँ चलाता मैं॥
एकांत बैठ कैलाश शिखर सम,
ध्यान लगा परम का चाही
महादेव तो बने परमेष्ट-देव,
प्रभावित मात्र स्तुति से है नहीं।
ध्यान लेकर प्रेरणा उनसे,
तृतीय नेत्र खुलें अपरिमितता को
इसमें स्वार्थ मात्र इतना
है, एक संजीवन-झलक पाने को॥
बोझिल पलों का एक संघर्ष।
धन्यवाद॥
7 मार्च, 2015 समय 22;44 रात्रि
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