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Saturday, 7 March 2015

तृतीय नेत्र

तृतीय नेत्र 


कुछ लघु सा मस्तिष्क-कक्ष, जिसमें परम- शून्यता सी

यूँ मद्धम लहरें उठती-बैठती, गति का कोई पता नहीं॥

 

कहाँ से उदित हैं ये विचार, जब बाह्य सब कुछ है शान्त

न निकल पाता हूँ तम-गुम्फा से, व मात्र है छटपटाहट।

पर अन्य तो चिंतन कर ही लेते हैं, ऐसे सुक्षणों में एकांत

अंतरतम-मृदुलता ही होती, चितवन होता कृपा-निधान॥

 

किञ्चित सुसंवाद इस स्वयं से ही, वीणा-तार हों झंकृत

फूटें तान सुरीली-रसीली यहाँ, व जीवन हो मधुरमय।

हो जीवन-संचालित, उपलब्ध क्षणों का सार्थक उपयोग

सारी कवायद आत्म-उन्नति हेतु, रचनाऐं है अपरिमित॥

 

कलम-वाहन हाथ ने अपना कर्म किया, पर न है चाल

कागज़-कलम संबंध अनुपम है, स्वतः ही होते प्रयोग।

उत्तम उपजता सामंजस्य से, यदा-कदा अपूर्व है आता

महान-ग्रंथ रचित मंथन से, जो सदा कल्याणक होता॥

 

यूँ धाराऐं निकले शैल-गर्भ से, मिल परस्पर बनाती गंगा

एक-२ तार विचार का मिल, देता अनुपम सितार बना।

अंतः-मन की पीड़ा, कुछ व्यूह-रचना को करे तब प्रेरित

माना संघर्ष इतना विरल न, कुछ तो पार चले ही जात॥

 

तूलिका-चलायमान आत्म-प्रक्रिया से, चलने दो स्व गति

कोई बलात्कार न कलम से, महत्त्वपूर्ण इसकी रूचि भी।

सब विस्मय ही जग में, उभो जय-विजय हैं इसके प्रभाग

किञ्चित संघर्ष दर्शन-कुतूहल, अनुपम अनुभूति चित्रित॥

 

परा-अपरा विद्या न समीप अभी, न ही वह संजीवनी ज्ञान

न पहचान रहा हूँ वाँछित, उठा पर्वत दौडूँ भाँति हनुमान।

बड़ा बोझ है चढ़ा शिखर पर, क्षमताऐं न पाता हूँ पहचान

कोई वैद्य न, अतः प्रस्तुत औषधियों की न है कोई जाँच॥

 

कैसे कुछ जीते हैं दुनिया में, धन्य किया अकिंचन जीवन

आऐं धरा पवित्रीकरण को, है विकसित सोच सकारात्मक।

वचन-कर्मों से लघु बुद्धि-कोष्ठक में, जन्मते परम-प्रकाश

देख पाते गुण-दोष अपूर्वाग्रह, व्याधि मुक्ति का आभास॥

 

डूब जाते हैं चिन्तन में, ज्ञान-दीपक की वे उपासना करते

कितना हित संभव अल्प समय में, पूर्णतः ही प्रयास करते।

न फुर्सत विभूति के महिमा-मंडन की ही, क्यूँकि हैं कर्मठ

देव-स्तुति न प्रार्थना-याचना, अपितु करने हैं कर्म-सुकृत्य॥

 

कहाँ छुपा है वह जीवन, जिससे साक्षात्कार करना चाहता

जीवन-स्पंदन ध्येय इस क्षण में, कालजयी हूँ बनना चाहता।

महाकाल ने काल जीता है, पूजनीय हुए सब भारत धरा पर

सर्व दिशा लिंग स्थापित हैं, लगाने हेतु परम-शिव में ध्यान॥

 

मेरी तपस्या है चराचर जग में, कैसे पहुँचूँ चरम तत्व तक

गंतव्य मार्ग तो मुझे पता नहीं है, वेदना भारी भी तिस पर।

न मैं उपासक हूँ जाग्तिक दृष्टि से, न रूचि है कर्म-कांड में

तथापि समर्थों के सार्थक चिंतन से, बुद्धियंत्र हूँ चलाता मैं॥

 

एकांत बैठ कैलाश शिखर सम, ध्यान लगा परम का चाही

महादेव तो बने परमेष्ट-देव, प्रभावित मात्र स्तुति से है नहीं।

ध्यान लेकर प्रेरणा उनसे, तृतीय नेत्र खुलें अपरिमितता को

इसमें स्वार्थ मात्र इतना है, एक संजीवन-झलक पाने को॥

 

बोझिल पलों का एक संघर्ष। धन्यवाद॥



पवन  कुमार,
7 मार्च, 2015 समय 22;44 रात्रि  
( मेरी डायरी दि० 13 नवम्बर, 2014 समय 7:10 प्रातः से )

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