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Saturday, 14 March 2015

गमले के कपोत शावक

गमले के कपोत शावक 


एक कबूतरी ने दिए, हमारे पौधों के गमले में दो अण्डें

फिर आकर वहा बैठने वहाँ लगी, उन्हें सेने के ही लिए॥

 

हम हेतु कुतूहल-विषय, कि एक गमला ख़राब कर दिया

क्योंकि हटाकर तो, अन्य जगह भी नहीं रखा जा सकता।

अपने पुराने अनुभव से जानते हैं, कि उनको नहीं है छूना

तत्पश्चात कबूतरी समीप न आती, व जीवन नष्ट हो जाता॥

 

फिर हौले से उसने समय बढ़ा दिया, अण्डें सेने के लिए

बाद में तो बड़ी देर तक वह, एक-मुद्रा में ही रहती बैठे।

पहले हमें देख उड़ जाती थी, किंतु अब तो थी दुस्साहसी

रक्षा-मुद्रा में पंख फड़फड़ाकर, हटाने का प्रयत्न करती॥

 

गिने तो न पर कुछ १८-२० दिवस बाद, हुआ अण्ड-फूटन

निकले उनमें से दो चूजें, बिलकुल छोटे और पंख-रहित।

अब तो कबूतरी माँ उनपर ही बैठी रहती, निज ऊष्मा देती

लेकिन उनके पैर या देह का, कुछ भाग दे जाता दिखाई॥

 

हम हैरान, देख कबूतरी की संतति प्रति प्रतिबद्धता-त्याग

इस व्यस्तता में न तो उसे खाने का, न पीने का ही ध्यान।

चूजें बहुत छोटे, पर हमने माता द्वारा कुछ खिलाते न देखा

कैसे उन्हें ऊर्जा-भोजन मिलता, हमारी समझ में न आता॥

 

अब लगभग २० दिवस के हो गए, शरीर कुछ बढ़ गया है

हमें देख वे गर्दन हिलाते, व मनोरम हाव-भाव दिखलाते।

अपनी चोंच हिलाकर, कभी डराने की कोशिश भी करते

और हमारी हर क्रिया पर अपनी जरूर प्रतिक्रिया करते॥

 

अब तो वे हमारा एक भाग बन गए, करते पुकार-प्रतीक्षा

मैं भी सवेरे जागकर, सर्वप्रथम उनको ही देखने जाता।

उषा, शीनू व सौम्या भी, उनकी अदाओं को खूब सराहते

अब तो चेष्टा सी करते कि उनके पास रहे, बतियाते रहे॥

 

आश्चर्य-चकित हैं, क्या मात्र माता-देह गर्मी से पालन होता

क्योंकि मैंने अभी तक, उनको कुछ खाते हुए नहीं देखा।

अवश्य ही कुछ समय बाद, खाना शुरू तो करना होगा ही

पर तब तक समझना, हमारी बुद्धि के बूते में न है अभी॥

 

यह सच है कि बड़े होकर जल्द, किसी दिन जाऐंगे ही उड़

रहेंगे कुछ आस-पास ही, व किसी कोटर में नीड़ बनाकर।

पर तब क्या हम उन्हें पहचान न पाऐंगे, और मित्रता रहेगी

तो क्या हमारा संपर्क, मात्र उनके शिशु- काल तक है ही ?

 

पहले भी घर के गमलों में कुछ कपोत शावक पले-बढ़े थे

पर इस बार तो लगाव कुछ ज्यादा ही, इन छोटे चूजों में।

मैं नितांत मुग्ध-अचंभित ही होता, उनकी भिन्न-अदाओं में

शायद लगता कि मेरा ही भाग हैं, और कभी जुदा न होंगे॥

 

मैं कुछ न अंतर कर पाता हूँ, एक मानव शिशु और उनमें

उषा से कहता कि पड़ोस के सोनू व उनमें क्या भिन्नता है?

फिर ये भी जीवन हमारी तरह, अंतर है किस्म का ही मात्र

क्या ये हमारा भाग नहीं संभव, जब हाव-भाव लेते संज्ञान?

 

पर मुझे कबूतर पालने का कोई बिलकुल पूर्व-अनुभव नहीं

गाँव में सिकलीगर-लड़कों को उन्हें पालते-उड़ाते था देखा।

विलियम डेलरिंपल की प्रसिद्ध पुस्तक 'City of Dzinns' में

पुरानी दिल्ली के कई कबूतर -प्रेमियों के विषय में पढ़ा है॥

 

फिर दिल्ली-जयपुर-मुंबई के चौंक-चौराहों-पगडंडियों पर

बाजरे-मक्की-गेहूँ के दानों हेतु कबूतर- जमावड़ा दर्शित॥

 

फिर भी अब मेरे जीवन का, एक रिश्ता तो बना है उनसे

ये मुझे चिरकाल याद रहेंगे, अब वे रमे हैं मेरी आत्मा में।

लगता वे सोचते होंगे, बड़ा होने पर भुला दोगे हमको तुम

पर मुझे अभी तो उनके प्रश्नों का उत्तर नहीं आता समझ॥

 

मैंने सोचा था कभी कुछ लिखूँगा, इन नन्हें पक्षी-जीवों पर

थोड़ा प्रयास किया है आदर्श-उत्तम तो नहीं सकता कह॥

 

धन्यवाद॥


पवन कुमार,
14 मार्च, 2015 समय 17:28 अपराह्न 
( मेरी डायरी दि० 18 अप्रैल, 2014 समय 12:53 से ) 

2 comments:

  1. Puran Mehra Sir, I am learning writing tips from your blogs. you are a genius.

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  2. Pawan Kumar : Sir, you're already a grasping man, able to depict even slightest details detouring through varied topics. Regards.

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