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Tuesday, 17 March 2015

प्रबुद्ध चिन्तन

प्रबुद्ध चिन्तन 



ओ प्रज्ञा-विवेक ! प्रयास करो, मन मेरा तो निर्मल करो

अनेक भ्रांतियाँ अंतः-स्थित हैं, स्वच्छ कर मृदुल करो॥

 

मन में कुछ प्रश्न हैं, सर्वश्रेष्ठ-प्रभुता सहज न स्वीकारता

निकट तो पाया न उसको, व बाहर से समझ न आता।

कुछ इधर-उधर से देख-पढ़कर ही, हुई है बुद्धि गठन

जग-प्रक्रिया स्वतः या संचालित, विषयों से न है संपर्क॥

 

बुद्धि तो कदापि सीधी न, अपनी तरह परिभाषा बनाती

अन्य व्याख्या सहज-अस्वीकृत, निकट हेतु प्रयत्न करती।

कुछ तो उचित होगा, कार्य करने का सलीका आ जाता

उचित सामंजस्य हेतु आवश्यक, ठोक-पीट कर देखना॥

 

अनेक आस्तिक इस जग में, परम-सत्ता में विश्वास सहज

देव ही कर्ता-पालक-संहारक, उसे वे जोड़ते प्रकृति संग।

जनों ने रचें रूप निज अनुरूप, पर कितने हैं सत्य-निकट

हुआ बड़ा कार्य इस क्षेत्र, एकाधिक हैं व्याख्या उपलब्ध॥

 

यदि नर हम छोड़ दे, अन्य जीवों में ईश-नमन न देखते

कुछ मुद्रा प्रभु-प्रेम समझते, पर ज्ञान बुद्धि का न उनके।

देख प्रकृति को निकट, कुछ बंधुओं ने किया जग-चित्रण

जोड़ा उसे परा-शक्ति से, अन्यों की चाहे आए समझ न॥

 

देव-चेहरे भी बदलते रहे, कुछ हट गए, कुछ नए आ गए

विभिन्न सभ्यताओं के स्व-आराध्य, निज भाँति स्तुति गाए।

अनेक दंत-कथाऐं जोड़ी चरित्रों में, मानव-परे बनाना-यत्न

पर तत्वज्ञ करते प्रश्न, तोलते ढ़ंग-कर्म-वाक्य व हर चरित्र॥

 

देव भी न आलोचनाओं से परे, अंततः वे हैं नर-कल्पना

कैसे कोई परिभाषा सक्षम, दुष्कर खुद को ही समझना।

मनुज ने कुछ देख-समझ कर, अनेक खड़े हैं किए पात्र

क्या सत्य या सहज श्रेष्ठ-भक्ति या पेट पालने के उपाय ?

 

कैसे चरित्र खड़े कर लिए, देव-२ कहकर प्रचार किया

कुछ प्रजा में श्रद्धा जगाई, खाने-पीने का प्रबन्ध किया।

कितने अनुष्ठान-बलियाँ, उन देवों के नाम पर गई लाई

लोभ निज व नाम देव का, यह तो कोई भक्ति न भाई॥

 

चारण-भाट नृप-स्तुति में, जीविकोपार्जन सुनिश्चित कुछ

निज-अमरता की प्रखर इच्छा, विद्वान करते प्रचार कुछ।

वस्तुतः क्या व्याख्या ग्रंथ-जड़ित है, व बढ़ाते कथा-वाचक

या रचनात्मक बुद्धि की, स्व-वृद्धि हेतु रचवाती साहित्य॥

 

क्या यह ज्ञान है मनीषी-रचित, वा प्रवृद्ध भाटों की स्तुति

या सहज लोक-प्रकृति, जो कुछ श्रेष्ठ को उच्च मान लेती।

माना सदा कुछ चरित्र अनुपम होते, जो सत्य ही हैं स्तुत्य

पर ईश-सृष्टिकार तक जाना, उचित-तार्किक कहाँ तक?

 

दयानंद-कबीर से चिंतक, किया है पात्र समझने का कष्ट

रूढ़िवादिता पर किया प्रहार, सत्य समक्ष लाना है प्रयत्न।

 ब्रह्म-ज्ञान तत्वज्ञ सा भी कुछ, या इच्छा निज-दर्शन प्रचलन

 संपूर्ण में तो कुछ उचित भी हो, पर क्या सत्य वाक्यांश हर?

 

क्या है धर्म-ग्रंथों का इतिहास, कैसे मनुज द्वारा देव चित्रित

 कैसे मंदिर-गिरजे-मस्जिदें खड़ी हुई, अनुशंषा में महायज्ञ?

क्या कृति नर-कला पक्ष, या एकांत पलों का चिंतन-एकत्रण

या स्व-संवाद वृद्धि-लालसा, कुछ भक्त-अनुचर जोड़े संग?

 

नर दक्ष परिभाषा में, उनके लघु-कार्यों में भी भरता सौंदर्य

फिर जहाँ श्रद्धा, सब दोष किनारे, भला पक्ष ही करे समक्ष।

कवि हृदय विशाल है, निज पक्ष-कथन का सुघड़ ढ़ंग रखता

विशेष ज्ञान पात्र-वदन बोलता, कल्पना सत्य-रूप है लेता॥

 

कुछ हो मानव मन विशाल, वृहद रचने का रखता सामर्थ्य

सब प्रकार के प्रयोग करता, ईश्वर-चिन्तन उनमें से है एक।

कुछ चपलों ने निर्वाह हेतु भी, अनेक युक्ति इस क्षेत्र लगाई

मन रहे नित्य सहज भक्तिमय, गुह्यता ने भीत है दिखाई॥

 

तुम चलते चलो, निर्मित करते देवानुष्ठान हेतु स्थल अपना

अपने शिविर लगाए बस दूकान चल निकली, चोखा धन्धा।

क्या यह देववर्धन, या यथासंभव कर्षण करना बहु-ग्राहक

दान-दक्षिणा महद थी पूर्व, अब भी मठ-आश्रम हैं समृद्ध॥

 

प्रतिष्ठानों से उच्च संस्कृति निर्माण, विद्वान-तर्क से आकर्षण

यह प्रायः नगरों में होता, एक व्यवसायिक केंद्र सा है रूप।

छोटी जगह लघु संस्कृति पनपे, जन देव-समर्पित ही अपने

थोड़े में ही निर्वाह, यदा-कदा शक्ति अनुसार लगते हैं मेले॥

 

प्रचार-योग बड़ा बढ़ने में, युक्ति हेतु लोग व्यय वहन करते

सफलता कई कारक-निर्भर, कुछ प्रसिद्ध-समृद्ध हो जाते।

माना अति-स्पर्धा उनमें भी, महत्तम अनुचर बनाने का यत्न

आम समय भी छोटी-मोटी दुकान से, भृत्ति होती है सुलभ॥

 

पर शुरुआत थी ओ मेरे मन, चितवन अपने को करो पवित्र

हटकर दंभी-मिथ्या आवरण विचार से, प्रबुद्ध करो चिन्तन।

चाहे सत्य विज्ञान या परम-सत्ता, मात्र उचित हेतु ही समुद्यम

जीव हेतु जो सुवाँछित-सुअनुकूल, उसी में बुद्धि-अग्रसरण॥

 

कुछ अलग ही, और बेहतर करो, मन-दिशा करो प्रखर।

कितना उचित न हूँ जानता, जो मन में आया दिया लिख।

 

धन्यवाद॥



पवन कुमार,
17 मार्च, 2015 समय 20:08 सायं 
( मेरी डायरी 17 फरवरी, 2015 समय 10:52 प्रातः से )

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