किस भाँति लिखूँ जब तन-मन,
दोनों ही नहीं स्वस्थ
तन पीड़ित, मन बोझिल, सुस्त
एवं है अल्प-चिंतक॥
तथापि इच्छा है, हिम्मत कर
स्व को करूँ सुस्थापित
तब सर्व दुखन-पीड़ा भूल, कर
कुछ स्वस्थ-चिंतन।
माना निज की अल्पता से,
सहानुभूति ही है किंचित
पर फिर भी यूँ ही न छोड़ सकता एकाकी-अन्त्यज॥
माना शक्ति क्षीण ही, लेकिन
कुछ है कर्त्तव्य-चमक
कहती चले चलो तुम,
अग्र-मार्ग मैं दिखाऊँगी स्वयं।
जरा सी पीड़ा से वीर-हिम्मती,
माना न करते हैं हार
फिर तूलिका है ही, जो देती
सदा निर्भयता-साहस॥
मैं यूँ विराम सी अवस्था में
था, पिछले कई दिनों तक
हिम्मत कर के, कार्यालय-कर्म
तो शनै किया आरंभ।
किंतु प्रातः भ्रमण, व्यायाम
व लेखन तो हैं पूर्ण बाधित
चाह कर भी लेखन नहीं कर पा रहा हूँ पुनः
शुभारंभ॥
मस्तिष्क का ऊपरी भाग, दर्द
को कराता है अनुभूत
काया-अंग अपनी पीड़ा के
प्रतिक्षण हैं चुभोते नश्तर।
रह-२ कर मन-बुद्धि,
अजीब-अहसास से रूबरु होते
क्षीण अनुभव कराते, किंचित विश्राम से न ठीक
होते॥
फिर भी साहस कर, कुछ पठनरत
हूँ अबाधित सतत
राहुल सांकृत्यायन का
'जय-यौधेय', 'स्वामी घुमक्कड़'।
दोनों लेखन पूर्ण, कुछ
अल्पज्ञों को राह दिखाने समुचित
राहुल स्वस्थ-चिंतक हैं, वृहद-ज्ञानकोषी व
हितैषी दीर्घ॥
स्व है सर्व-मनुजता को
समर्पित, बाहर तम से निकाले
अंध को नेत्र दे, विश्व के
चलन-संचालन के पेंच बताते।
कैसे कुछ समर्थों ने मानवता
बनाई है दासी स्वार्थवश
बहु-नर समूहों को अभाव-जीवन गमन किया विवश॥
महद साहस की बात है कहना, जो
मंथन-दर्शित सत्य
अतिश्योक्ति तो बहुत करते
हैं, स्व-स्तुति में ही व्यस्त।
ज्ञानार्जन भी उचित, उससे अधिक सर्व-हित में
प्रयोग
सर्वस्व यहाँ सर्वजन का है,
अधिकारी समस्त साधन॥
कुछ व्यवस्था बनाई समर्थों
ने, थोप दिया मनुजता पर
कुछ विरोध होते रहें, पर
विषमता फिर भी निर्बाधित।
कुछ महानर अवतरित होते, बोझ
न्यून का यत्न करते
फिर भी स्वार्थी मन न मरता,
बस शरीर चोले बदलते॥
नर-दुर्बलता स्व
शत्रु-प्रबल, अन्य को भी करती पीड़ित
भाड़ में जाए अन्य सब, यहाँ
तो सर्वोपरि हैं अपने हित।
अति-आनंद स्व की सादगी में,
जब निज के होकर जीते
अन्यों को आत्म सा समझे,
सर्व-कल्याणार्थ प्रेरित होते॥
मानव प्रगति है मन के
प्रयत्नों से, और चेष्टा सच्ची साथी
यह सफलता लाती निकट, मानव का
कद भी बढ़ाती।
संगियों में सम्मान मिलता
है, अनुजों को प्रेरणा उपलब्ध
निज-जीवन तो सुफल ही है, अतः
लाभ ही लाभ शुभ॥
मेरी इस मन-गुम्फा से बाहर,
निकास का मार्ग दिखा दे
इस पीड़ित मन-देह का
कष्ट-क्षोभ हटा, स्वस्थ बना दे।
एक विचक्षण सा मनोचिंतन, कुछ
तूलिका तो चलवा दे
कुछ शुभाक्षरों का कर
आह्वान, सार्थक-मधुर घड़वा दे॥
फिर समर्थ सतत सुलेखन में,
जब होते अकाल-असहाय
तब कौन प्रेरणा संग रहती,
प्राण-शक्ति फिर देती साथ।
बनते सबल सर्वदा मन से, यूँ
ही कष्ट में नहीं लड़खड़ाते
निर्विघ्न चलते जाते
बुद्धिमता से, लक्ष्य में गतिमान रहते॥
अतः यथाशीघ्र स्व-स्वस्थ
करो, सोचो कुछ उद्योग बृहत्तर
जीवन है चलने का ही नाम,
बीते क्षणों का चित्रांकन कर।
विराम नहीं यहाँ, चलते रहोगे
तो कुछ सुख अवश्यंभावी
स्व तो निश्चित ही सुधरेगा,
संभावना अन्यों की प्रगति भी॥
पवन कुमार,