ब्रह्म-मुहूर्त रात्रि
अंतिम-प्रहर, मैं जागृत, अधिकांश जग है सुप्त
एकांत, प्रारंभ किया लेख संग
चिंतन, मननशील होने को मुग्ध॥
निर्मल-मन निर्लेष-आत्मा,
कोरा स्लेट-पटल, चित्रांकन अद्भुत
विचार-लेखा कैसे उकेरेगी,
अज्ञात है पर प्रयास-अवस्था निरत।
किस क्षण बुद्धि-कोष्टक
कर्मभूत होगा, कलम को संकेत उकेर
गति मिलेगी स्वतः
निर्द्वन्द्व ही, स्पंदन-निरूपण से अनुपम मेल॥
मन-प्रेरणा तो प्राण-भूता,
अवस्था परिवर्तन है अवचेतन से चेतन
नहीं सहन है स्व
अल्प-प्रयोग, मिला मानव यंत्र एक अमूल्य भेंट।
असंख्य प्रयास-परिणाम से है
उपस्थिति, कर्म हेतु वाँछित निर्देश
यह चालक-संचालक तुम्हीं हो,
कर्त्तव्य-परायण हेतु परम-प्रवेश॥
क्या संभावनाऐं हैं इस
निपुण-यंत्र में, प्रवर्धित मन-ऊर्जा ही प्रयोग
ज्ञान-चक्षु खुलें तो दर्शन
को अनुपम, जगत-सौंदर्य संग है संयोग।
अन्याय-न्याय विस्तृत
धरा-पटल पर, स्वार्थ-निस्वार्थ के कई खेल
प्रश्न किस परम-उद्देश्य में
परिलक्षित, संचारण सर्व-हित से मेल॥
कौन हैं मनन उच्च-प्रक्षेपण
प्रेरक, तज सब स्व-दुर्बलता तन-मन
आत्मा बन सके एक सक्षम परम
सम, सर्वदा रत उद्योग निर्मल।
अनेक तप-लीन हैं अपने ईष्ट
में, पाया वरदान तो न किया आदर
गर्व-मद-मोह-स्वार्थ-काम में
लिप्त थे, मूल-श्रम हुआ असार्थक॥
तब क्या उद्देश्य मनन-कर्म
का, सफल होते भी न आए भद्र-भाव
अपने ही वार में है फँस
जाता, जगत से हटाने को देव लगते दाँव।
अनेक देवासुर-दृष्टांत समक्ष
हैं, अनुपम वर मिला पर प्रयोग निकृष्ट
वही देव तब अरि हो जाते,
पोसा अपयश, अतिरिक्त जीवन-वध॥
हम विद्या-ग्राही, कुछ विधि
सीखते हैं, शस्त्र-शास्त्र का ज्ञानार्जन
किञ्चित हों प्रक्रिया में
मृदुल-मन, पर क्या रहते हैं दीर्घ तत्सम।
जब `विनय ददाति विद्या',
तो क्या अनिष्टचारी हैं अज्ञानी- अधम
कितने समय एक रह सकता सत्व-भाव में, चरित्र का
है दर्पण॥
स्व-विश्व बृहद का ही अंश,
निज-दशा का अनुरूप प्रभाव प्रखर
सहायक बनो ललित-वृत्त
निर्माण में, एक कुटीर सर्वार्थ सुखकर।
प्रत्येक अणु से सकल
स्रष्टि-रचना, उपयुक्तता ही है मुख्य कारक
जैसा है मन-चित्रण, उकेरे
तथैव, लक्षित होंगे कल्याण-सहायक॥
सब भगाने को तत्पर, करो
कर्म-युद्ध, पर मंशा कुछ परम-फुहार
रोको स्वयं को, लगा लो
बुद्धि, जीवन मिला तो कर्मठता-पुकार।
निर्बल तन-मन संग सदा
भ्रमित, अनुरूप अलब्ध, कर्त्तव्य निर्माण
आत्म-चिंतन संग योग हो सुप्रयत्न, मार्ग-प्रशस्त
संभावना है अपार॥
जीव-प्रक्रिया है योग- वियोग
की, हरक्षण लब्ध निर्णय को उपयुक्त
संचित क्या करते प्राण-गति
में, अंत में जुड़ता चला जाता है सहज।
क्यों सदा विरोधाभास में ही
गमन, स्व- मन इंगित करो लक्ष्य-परम
स्व-हित सर्वहित में निहित
ही है, क्यों लुब्ध-प्रवृत्ति से लिपटो व्यर्थ॥
क्यों स्व लघुतर में ही
प्रेषित, द्वार खुलें वृहद ब्रह्माण्ड अति-प्रस्तुत
एक-२ मण्डल प्रेरक हम अल्प
का, स्मितमय बनकर बनें बेहतर।
स्व-उपार्जन कर्त्तव्य महद
उद्देश्यार्थ, सार्थक-सिद्धि है नित्य वाँछित
महाजन- प्रभावित सामान्य
अनुचरण, अवसर है, न करो निष्फल॥
माना स्व अत्यल्प,
क्षण-भंगुर, निम्न-अज्ञानी पर दिशा तो करनी तय
तुम वृहद अनंत-काल वासी, इसी
के अणुओं में रहोगे सदा-समय।
क्यों बनते संकुचित सदा
रुदन-कुयत्न में, कभी पूर्ण झोंककर देखो
युद्ध स्व-संग उच्च शिखर
चढ़ाई हेतु, न स्वीकार सड़कर मृत्यु हो॥
दृष्टि विकसित करो
अनुपम-आनंद हेतु, नित्य-चेष्टा ही रखेगी समृद्ध
मत हों अपघटित लघु-मारक
तृष्णा में, मुक्ति-द्वार खुलेंगे अनिरुद्ध।
असंख्य नर सदैव रत महद
उद्देश्य, अंतः-प्रेरणा से विकास-सहयोग
आनंद अवश्यमेव प्रस्तुत होते
रहेंगे, बस अडिग रहो सतत उद्योग॥
निर्मल-स्पंदन वसंत-मुकुल को
ऊर्जा, विकसित सौरभ कुसुम-वैभव
संभालो वर्तमान वही मार्ग
अनुपम, न अवरुद्ध होने दो प्रवाह सतत॥
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