मैं यूँ विचार में बह रहा,
वहाँ जगत अपनी गति से बढ़ रहा
कदम मिला न रहा उसके संग, तो
संपर्क छूटा सा है रहा॥
हम व्यस्त स्वयं में, वहीं
निजी पिछड़ा, इसका कोई होश न
आवश्यकता अपनी अवश्य है पर
औरों के भी लगते कुछ।
क्या कुछ पढ़-लिखने,
व्यवसाय-नाम, दूजों से कट जाना है
कैसा विरोधाभास, यहाँ कुछ
प्रगति वहाँ वे छूटे जा रहे हैं॥
यह निर्मोह कहाँ से उपजता,
पहले तो एक थाली से खाते थे
अब संपर्क कुछ और पा लिए,
क्या पुरातन-आवश्यकता है?
यह क्या है मोह भंग या
स्थिति-परिवर्तन या वे हैं निरोपयोगी
अच्छे स्वार्थी हो नर, निज
पड़ी तो संग हो अन्यथा दूर हैं ही॥
पर क्या जगत मेरी इच्छा से
चलता, कदापि न सब हैं स्वछंद
समझाने-बुझाने का भी असर न,
क्योंकि संस्कार आंतरिक।
सुन लेते हैं, विचारते भी,
पर करते मन की, यही बड़ी दुविधा
पता अनुचित किंतु
आलस्य-अधीन, अवनति में जकड़े पड़े॥
पर यह तनिक स्व को श्रेठ
बताने की इच्छा, गर्व-ग्रसित किए
शायद इससे अन्य दूर हटते,
यद्यपि न बोलते, मन की करते।
तुम सम वे भी निज सोच में
डूबे होते, माना वह उचित न हो
ज्ञानेन्द्रि-रंध्र यदि
खुलें, तो शायद कुछ प्रकाश दृष्टिगोचर हो॥
क्यों चाहे-अचाहे ही कुछ
अपना सतत दूर हो रहा है हमसे
उम्र बढ़ती चाहे सदा युवा रह
चाहें, असहाय समय ताकते।
बच्चे बड़े हो रहे, न ध्यान
दे पा रहें, यह खीजना स्वाभाविक
एक दिन वे बड़े हो, पंख पाकर
पंछी भाँति ही जाते हैं उड़॥
किसका नीड़, कैसा परिवार, सब
अपनी निजता में ही लीन
न ध्यान अपनों से मिलन का,
वे भी क्या तुम हेतु बैठे रिक्त?
कभी-२ औपचारिकता मात्र से,
हाल-चाल यूँ ही लेते हैं पूछ
माना अन्यों से निकटतर हैं
होते, तो भी निज मालिक सब॥
कुछ बिछुड़ जाते सदा हेतु,
बहुत समय तक खालीपन पाते
क्यों विव्हल हो जाते, जब
जीते-जी कुछ खास खबर न पाते?
जीवन एक निजता का नाम, अपने
संग ही खत्म हो जाता है
इसमें कुछ अल्प योगदान कर
पाते तथापि सदा खुद में हैं॥
कैसी यह हठ-धर्मिता है,
ज्ञात हुए भी कि स्वयं-सुधार माँगते
अपनी निम्न-ग्रंथि ऐसी बना
ली, न नीयत होती है सुलझाने में।
हम बेशक तो रहें असफल, खाऐं
गाली पर न तजते हैं मूढ़ता
कोई कब तक करे बल प्रयोग,
औरों की क्या तुम्हीं विवशता?
कोई अन्य क्यूँ नियंत्रण करे
तव जीवन, क्या विवेक न है तुममें
क्यों बनते यार डंडे खाने
के, देखो बाद में रोओगे-पछताओगे।
देखकर सुधार लो स्वयं को,
बहुत नादानियाँ पहले ही कर ली
एक सम्मानित स्थल पर हो,
परिष्करण करो बनो विश्वस्त भी ?
अध्याय-लेख आरंभ में विचार
था, सर्वत्र न है समुचित ही ध्यान
न लिख रहा कुटुंब-समाज,
देश-दुनिया पर और स्व-अनुभव।
यहाँ यह पकड़ा वहाँ छूटा,
संसार में सर्वांगीणता नहीं है दर्शित
अति वृहदता वाँछित है प्रगति
में, एक दिन में ही लें कई जन्म॥
वैसे भी कितना समय दे पाते
हैं, तमाम बिखरे अध्यायों में इन
पर कुछ सामंजस्य तो रखो,
ताकि नज़र सब ओर हो विस्तृत।
जितना बन पाए कसर न छोड़ों,
क्योंकि पूर्णता हेतु ही कदम
ज्ञान-दीपक सदा प्रज्वलित
हो, तमाम सुख उससे ही फलित॥
कुछ और साधु प्रयास करो।
तमाम जीवन-आयामों को लेखनी
में उतारो॥
शाबाश॥
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