उलाहना
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मेरा बहुत सा सामान तुम्हारे पास पड़ा है
बता दो इसकी सूची व किस उद्देश्य से है ?
थोड़ा सा सामान देकर तूने जग में भेज दिया
बहुत कुछ तो अपने पास ही रख लिया।
क्या है तेरे मन की मंशा
फिर क्यों न इससे परिचय ही कराता ?
मेरा क्या है निज जो दत्त है, या फिर तेरे पास भी
शायद तू ही जाने, कितना अभी योग्यता में है मेरी ?
देगा शनैः-२ देख सामर्थ्य व मन की प्रगाढ़-आकांक्षा
लेकिन अभी तो खिलौनों से ही मन रहा हूँ बहला।
कितना हूँ योग्य - ग्राह्यी, कितने हेतु सुपात्र
कितना है आँका, उसका परिणाम तो नहीं विदित।
तू रहस्यमयी मेरी बुद्धि शून्य, कैसे प्रवेश हो गुफ़ा में तेरी
सर्वत्र साँसत, तम-अविवेक, तव-प्रकाश भी दर्शित नहीं।
क्या है यह वजूद, कैसे हो प्रयोग, नियम तो बताए नहीं
मार दिया धक्का बिना योग्य किए, यह तो बड़ा न्याय नहीं।
माना किञ्चित स्व-प्रयासों से, अल्प-शिक्षित किया स्वयं को
पर कितना पूर्ण ज्ञान व अनुभव, बहुत दूर ही मुझसे तो।
माना आरम्भ-स्थिति में तो, सबको प्रेषित करना ही होता
फिर क्या दर्जों को आगे बढ़ने का भी नियम नहीं होता ?
कोई सुयोग्य शिक्षक भी तो नज़र नहीं आता
कोई कुछ बताता है तो पूर्ण समझ नहीं आता।
समय उसने बिता लिया, अनाड़ी छोड़ दिए शिष्य
शिष्य भी फिर अज्ञानी, मूढ़ी है व अपने में ही मस्त।
नहीं उन्हें अपनी अधो-स्थिति, अनाड़ीपन का ही ज्ञान
धरा पर बोझ बने, अपने को यूँ ढोए जाते अजान।
कितनी संभावनाऐं भरी हैं, इस मानव-शिशु में तूने
कम से कम उनका तो परिचय मुझसे करा दे।
बहुत दार्शनिकों को विचारता, पल्ले न पड़ता बहुत
क्या मार्ग कर्म-बद्ध ज्ञानार्जन का, कैसे विचार फलीभूत ?
प्रबुद्ध तो अनेक भेजे यहाँ पर, उन्होंने स्व-छाप है छोड़ी
मुझसे क्या शिकायत है मौला, जो तेरी अनुकम्पा नहीं।
मुझे नहीं ज्ञात वह स्व-संचालित या तेरी प्रेरणा-रहमत
कुछ सफल अवश्य ही, समझने भूल-भलैया, काल-चक्र।
माना कि बहुत विविधताऐं हैं, उनके मनन-मंतव्य में
फिर भी तो उन्होंने परिभाषित करने का किया यत्न है।
शायद न हो वह भी पूर्ण ब्रह्म-चिंतन, माधुर्य
तो भी पार जाने की जगी है इच्छा-सामर्थ्य।
होती स्वार्थ-कुवृत्ति, स्व भौगोलिक-सामाजिक स्थिति से ही
मानव चाहे मनन में ही क्यों न हों, प्रवृत्ति अति-दूर न होती।
कुछ बह जाते स्व-हित साधन को, सर्व-विकास को तिलांजलि
शक्ति-सम्पन्न प्रभाव छोड़ने में, नियम-कानून अनुरूप अवली।
कुछ मनीषियों का चिंतन व अनुचरों का सहयोग
ऐसी जग-व्यवस्था बनाते जो उनके हेतु हो अनुरूप।
फिर भी हैं बहुत निस्वार्थी, चिंतन सर्वजन हिताय
जिसमें निहित सबको अग्र-बढ़ाने का हो भाव।
दर्शन की बहुत धाराऐं, अपने ही रंग से परिभाषित
अनेक बना दिए समूह, स्पर्धा हुई अनुचर-विस्मित।
हर एक अपने को श्रेष्ठ मनवाने को उतावला ठान
चाहे असली आचरण देखा ही नहीं या व्यर्थ-अभिमान।
क्या मानूँ कैसे इस जग की है संचालन प्रवृत्ति
क्या है स्व-चलायमान या कुछ योग्यों की युक्ति।
कौन है वे जो इसको नियम-कानून देते
फिर हम चाहे न चाहे, उनमें ही हैं बहे।
फिर कितने हैं वे परम आदर्श के प्रवाहक
कितने उचित व्यवस्था देने का करते यत्न।
सब समय अपना व्यतीत करते जकड़नों में,
उचित जानकर भी बहुदा भीक ही रहते।
स्व-यश कामना व प्रभुओं का समर्थन
बहुत आमजन को न देते सहारा-प्रयत्न।
वे लघु, ऐसा ही रहने दो, हम योग्य-अभिमानी
कयास स्व-हितार्थ, जबकि प्रकृति-साधन सार्वजनिक।
अपनी ढफ़ली अपना राग, सब मुग्ध अपनी धुन
चाहे ज्ञात हो या न, फिर भी जीवन धकाने में व्यस्त ।
पर कुछ तो अपने समूहों को बढ़ाने में प्रयासरत
उनके मनीषी, शुभ-चिंतक, बुद्धि-तत्व से देते समर्थन।
क्या मानूँ चिंतकों का चिंतन यदि न वह सार्वभौमिक
जब सारे कायदे स्व-हित में ही, स्व-नाम की स्तुति मात्र।
फिर क्या उन जैसा ही बनना चाहता या उद्देश्य महत्तर
क्या बन सकता आम-जन सेवक, स्वतः सर्व-जन निहित।
कौन ये दार्शनिक क्या साध्य, है भी कुछ गुणवत्ता
या फिर रहते उसी प्रकार में, जिसमें यथा-स्थिति ही।
कितने उनमें सुयत्न करते, जग को रमणीय बनाने
उसमें अपने परिश्रम से उचित ज्ञान को ही बखानते।
नहीं इच्छा फिर श्लाघा की, न ही शिष्य बनाने की
जिसे उचित लगे संग हों ले, यह विधा सूफ़ियाने की।
किस श्रेणी का जीव हूँ प्रभु, मुझे मम परिचय दो
निकाल बवाल से दिखा कुछ सत्य, मेरी साध करो।
क्या अनुपम सम्भव है, क्या उसका कुछ मतलब
क्या है वह परम-स्थिति, पार नहीं जिसके ऊपर।
मैं सीखूँ वे पाठ जो मेरी वर्तमान स्थिति से हैं अग्र
अतः उलाहना प्रथम पंक्ति से ही, रचना में है इंगित।
मेरा सामान-संभावनाऐं, सब ही तो तेरे पास पड़ी
यदि मुझमें ही छिपा दी, तो उसका मुझे ज्ञान नहीं।
तुमसे यूँ गुजारिश, मेरा वह सामान दो लौटा
सब तेरा, पर कुछ प्रयोग मैं भी करना चाहता।
क्या हदें सम्भव मैं भी तो जानूँ, कितना देने में समर्थ
बौरा बना रख दिया, अपनी संतान से है न न्याय।
विचरूँ अत्र-तत्र मद सम, न कभी स्व में ध्यान ही लगा
रहमत की करता प्रतीक्षा, पर तुमको समय ही न मिला।
अध्ययन कुछ तो बताता, पर चिंतन उससे अलग ही
बहुत तो समझ असक्षम, अतः विस्तार बहुत सीमित ही।
इतना फैलाव व मम लघु-आँचल, दोनों में न सामंजस्य
कैसे हो मेरा भी विकास, इस परम-तत्व को दो प्रयास।
समय सीमित, ऊर्जा परिमाणित, उस पर चेष्टा-अभाव
कैसे बदलाव सार्थक दिशा में, इसपर न दृष्टि-प्रसार।
बढूँ चिंतन-मार्ग में प्रभु, अतः बुद्धि निर्मल दे बना
पर न स्वार्थी तथाकथित सम, जग को ललिततर बना।
कर्त्तव्य-चिंतन श्रम-आहूति, हर मनुज को बना योग्य
दूर विरोध सर्व-विकास, उनमें निर्माण परस्पर सहयोग।
मम विवेक का भी हो योगदान, ऐसा तू शख़्श बना
न रुकूँ तेरे पथ में ओ मौला, भौतिक वपु से अग्र ले जाना।
तपा दूँ तन-मन, दे प्रेरणा, बना यात्री राहुल सांकृत्यायन सा
वृतांत चित्रण का इतना महद प्रयास, निश्चय ही है स्तुत्य।
न मात्र अनुभव अपितु उचित-चिंतन, आलोचना सटीक-निर्भीक
नज़रें पैनी, भाव सर्व-हितैषी, ज्ञान-विस्तृत अर्जित बाँटा विसरण।
क्या उचित, चिंतन-प्रेरणा से, हो सकता कुछ निर्भीक मैं भी
कर सकूँ प्रयास कुछ के जीवन में जीवन फूँकने का ही ?
माना बहुत समर्थ पूर्व से ही, उन्हें न तुम्हारी आवश्यकता
तो भी मनुज बहुतेरे, विकास का मुख ताक़ रहे सदा।
धन्यवाद।
पवन कुमार,
20 फ़रवरी, 2016 समय 22:42 रात्रि
(मेरी डायरी दि० 28 जून, 2014 समय 10:25 से)
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