शिव-ध्यान
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आज महाशिवरात्रि-अवकाश, पर कार्यालय खोला आवश्यक कार्य निबटाने हेतु
कुछ पश्चात ऑफिस जाना, ५० मिनट घर में चलकर कलम पकड़ी बतियाते हेतु।
अभी चलते-२ शिव की मुद्रा में ध्यान लगा, श्वास निरुद्ध कर अडिग बैठे रहते
स्तंभ भाँति उनकी देह कसी हुई, पर फक्कड़ हैं शरीर पर कोई ध्यान न है।
अल्प-भाषण पर रूप अति-प्रेरक, कोई न स्वार्थी चाह, पूरे विश्व का है चिंतन
सत्य कि जग में सतत अनेक अपुण्य घटित, भगवान भी प्रायः बेबस दर्शित।
शापों की पुरा-कथाओं में तो बहु विश्वास न, लेकिन कि अनेक क्रूर कर्म हो रहें
क्या लोग अपराध मर्जी से करते, या अज्ञानता का भूत रोपित किया किसी ने।
अनेक तुम्हें मानते हैं, पूजा भी करते, सब भाँति टोटके करते भगवान नाम पर
पर फिर क्रूरता कहाँ से आ जाती, विश्व-बंधुत्व भाव का लेशमात्र भी असर न।
मैं मानव द्वारा महात्माओं की परम गुण परिभाषा से तो, निश्चित ही हूँ प्रभावित
उनमें कुछ तो स्वाभाविक गुण, विस्तृत विश्व-कल्याण के बारे में सोचते सदैव।
यह अन्य कि सर्वस्व एक के न बस में, एक रावण मरता तो दस और का जन्म
एक सतत युद्ध है विचार-धाराओं में, मारक-हिंसा भी कोई न बन पाई हल।
कहीं और भटक जाता, कोई शेष कर्म याद आ जाता, फिर व्यस्त हो जाता
फिर भूल सा जाता क्या लिख रहा, मुख्य तत्व से हटकर बाजू में चला जाता।
एकाग्रता आवश्यक सुपरिणाम हेतु, फिर आज का विषय तो है ईश सान्निध्य
उसे शब्दों में समेटना चाहता, फिर वह उतना ही जितना समाने का है बल।
शिव एक प्राचीन योगी, भारत-धरा पर अनेक कथाऐं प्रचलित उनके विषय में
पुरा-समय में अनेक शिवालय बनाए गए, योगीगण ध्यान में आराधना करते।
फिर पूजा-अर्चना किंचित बाह्य दिखावा, अंतः तक पता न कितना पाते पहुँच
सिर्फ नमस्ते से ही ईश प्रसन्न न, हृदय निर्मल हो, चलना होगा बताए मार्ग पर।
शिव-धाम कैलाश, अमरनाथ, केदारनाथ, हिमालय पर ही, दांपत्य बनारस में
प्राचीन बाबा विश्वनाथ मंदिर वाराणसी में, बहुत पुरानी नगरी मानी जाती है।
उज्जैन में प्राचीन महाकाल मंदिर, नर्मदा पर ओंकारेश्वर, लोग श्रद्धा से हैं जाते
सोमनाथ, मल्लिकार्जुन स्वामी, भीमाशंकर, त्र्यंबकेश्वर, नागेश्वर, रामनाथस्वामी,
बैद्यनाथ, गृश्नेश्वर समेत १२ ज्योतिर्लिंग भारत में स्थापित, आदि देव पूजे जाते।
कथाऐं तो सब ईश्वरों के विषयों में हैं, मानता वे काल्पनिक या इतिहास पुरुष
निश्चित ही उनमें आम नर से अधिक गुण, लोग श्रद्धा से हो जाते हैं आकर्षित।
गुणी मनुष्य भी एक दूजे का आदर करते हैं, तो अधिक महत्त्वपूर्ण हो है जाता
पश्चात आने वाली पीढियाँ उन्हें अति-पुण्य मान लेती, ईश तक का दे देती दर्जा।
मेरा अर्थ है जो सबका सोचे, सहायक बने, सबमें समता भाव भरे वही ईश्वर है
हम पुरातन चरित्रों में खोजते, पर वे निज काल में हम से या किञ्चित ऊर्ध्व थे।
आज भी कुछ चरित्रों को ईश तक का स्तर देते, कई बाबाओं की मूर्ति पूजते
उन्हें साक्षात अवतार मान लेते, वचन को अटल व कोई वंचना स्वीकार न है।
जब शिव का ध्यान करता हूँ, उनके मस्तक की तीसरे नेत्र छवि उभर आती
इसी को शायद षष्टि इंद्रि कहते, या दोनों नेत्र बंद हो तीसरे में समा जाते हैं।
अब कितने समय कोई एक ध्यान में रह सकता, मनन की कसौटी है किञ्चित
अंतरम क्षण कितने कम ढूँढ पाता, उनमें निरत हो रख पाता हूँ एकाग्रचित्त।
कहते हैं तू ही जन्मक, पालक व संहारक, सब हैं जीव तुम्हारी प्रकृति अधीन
तू ही माता, पृथ्वी शायद तव ही दर्शित रूप, सब अवस्थाऐं तुम द्वारा उद्धृत।
फिर ब्रह्मांड तो अति विशाल नभ में सितारों-ग्रह दर्शन, सुदूर न जा सकते पर
कुछ रहस्य-भेदन अभी हैं सक्षम, अनेक परतें खुलनी शेष, कोशिश जारी पर।
कुछ तो जग-विधान होगा, मान्यताऐं नितांत भ्रामक, विज्ञान की भी अल्प दूरी तय
अति पुराकाल में तो आज न जा सकते हैं, हाँ देख-समझ अनुमान लगा लेते कुछ।
सब संस्कृतियों की निज मान्यताऐं, लेकिन किसी को पूर्ण सत्य से न मतलब कोई
कौन बुद्धि पर जोर दे गूढ़ हेतु, स्कूल-पुस्तकें तो पढ़ी न जाती, मेधावी बस यूँ ही।
फिर पढ़ना मात्र अक्षर ज्ञान तक न सीमित, नर को चाहिए दूर-दृष्टि का साहस
भ्रांतियाँ सदा टूटती रहनी चाहिए, वृहत संपर्क से ही अनंतता का खुलता मार्ग।
भगवान मात्र उस अनंत रूप की परिभाषा, जो विस्तार करे वही गुरु है परम
जीवन इतना भी सरल न, कि अपने आप इसमें हो आमूल वाँछित परिवर्तन।
चिंतन-विवेचन-अध्ययन-परीक्षण-सारग्रहणता सीखूँ, तो कुछ हो वृहद संपर्क
जग आगमन तो करना पड़ेगा, सस्ते में न छोड़ूँगा सब अग्नि गुजर बनूँ कुंदन।
पवन कुमार,
१८ अक्टूबर, २०२०, रविवार, समय ४:४९ बजे अपराह्न
(मेरी डायरी १४ फरवरी, २०१८ समय ८:३९ प्रातः से)
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