यह कैसा चित्तसार बनाया, कथित उत्तमों से अति मित्रता न करते
बस यूँ ही मद्धम, न जाने किस निज लघु सी दुनिया में गुम रहते।
क्यों मात्र डाह या दोषान्वेषण शैली, और भी तो यथासंभव प्रयत्न करते
सब तो न एक सम समर्थ ही, परिणाम अवश्य तो न समरूप ही होंगे।
सब छोटे-बड़े जमाने में निज भाँति गतिमान, क्यों यूँ ही खफ़ा हो रहते
तुम्हें कार्यवहन में कोई अनावश्यक न टोकता, फिर क्यूँ रहते कुढ़ते?
हम क्षीण जानते अन्यों के विषय में, बस तर्क-वितर्क करने लगते यूँ ही
जब अल्प स्व-ज्ञान, अन्यों को देख भी कयास ही, सर्व धारणा निजी ही।
निज जैसों से आत्मीयता अन्यों में अरुचि, या हर कृत्य पर शक-सुबहा
वे कितना ही श्रेष्ठ कर लें फिर भी ख़फ़ा, क्यों मन में फोड़ा पाल रखा?
महान प्राणी तो बड़ा ही सोचते-करते, औरों हेतु तो वह आश्चर्य होता
क्यों न प्रयास की सराहना, कम से कम अच्छे को तो कह दो अच्छा।
क्यों तब अन्यों से उखड़े रहते, आवश्यक न तुमसे प्रयोजन हो बहुत
तुम व्यस्त रहो, लोग देखते-परखते, उचित तो स्वीकार भी होंगे कुछ।
और को तो छोड़ दें, स्वयं से ही कटे-२, क्यों निज अंतरंग भी न बन पाता
सदा खीज दुर्बलताओं-विफलताओं से, स्व-व्यवहार भी अन्यों सा होता।
अर्थ कि जब खुद से भी प्रसन्न न रह पाते, तो अन्यों की तो बात की क्यों
आत्म-संतुष्ट तो अन्यों का भी उचित आंकन, क्यों व्यर्थ भाग-दौड़ रही हो।
आरोप-प्रत्यारोपण होते भी निरंतरता, निश्चित ही उत्तम पुरुष के लक्षण
अन्य-आलोचनाओं से न पथ-भ्रष्ट, मार्ग-गमन को ही करेगा प्रोत्साहन।
सबके मन, ज्ञान-पूर्वाग्रह, उनको अधिकार कयास लगाने का यथारूप
जब पूर्ण आभासित-ज्ञानमय होंगे तो उचित परिपेक्ष्य में देखेंगे निश्चित।
क्यों खीजता स्व व अन्यों प्रति, एक प्रक्रिया में हो, उल्टा-सीधा ही सोचते
अन्य लोग भी तुमसे बहुत जुदा न, वे भी शक्ल देखकर थप्पड़ हैं मारते।
'अंधा बाँटे शीरनी अपनो-२ को दे', पुरातन कहावत, स्वार्थ-लिप्त अनेक
प्रथम स्वयं से तो निबट लें, समय-ऊर्जा होगी तो अन्यों को भी लेंगे देख।
क्यों असहजता परिवेश से, अर्थ न कि सब उचित-अनुचित ही करें सहन
यहीं से विद्रोह-भावना शुरू, घृणा-वितृष्णा-आलोचनाओं का दौर है प्रारंभ।
'एक वार ने अनेकों को मार दिया', जब अपने तो दुःख-पीड़ा स्वाभाविक
जब देह लहूलुहान तो प्रतिक्रिया होनी ही, पीड़ा में सोचे ही उलट-सुलट।
पर क्यूँ विभ्रांत मनोदशा सामान्य काल में भी, जब स्वयं पर न अति-दबाव
तब भी हम जोड़-तोड़ में रहते, यह हमारी दुर्बलता है या मन का स्वभाव?
हम वस्तुतः यह अपना मन ही हैं, प्राण तो इसके वाहक हैं जीवन-गति के
यदि लोभ-पूर्णता तो हम भी प्रसन्न हुए, अन्य अवस्था में तो ख़फ़ा ही रहते।
तो क्या रिश्ता जग से, या जो सोचते, श्लाघ्य मात्र जब स्व से मेल कहते
अन्यथा तो न मतलब-निरपेक्ष भाव, बेबसी-अवस्था में मात्र सहन करते।
कई परिस्थितियों में सोच औरों से न मिलती, निकट हो तो काम चलाते
यदि दैव-योग से समरूप तो कहना ही क्या, फिर हों सबके वारे- न्यारे।
कैसा मनुज जीवन-काल, रोने-पीटने-शिकायतों में सर्वस्व जाता चूक
हर्ष-प्रमोद क्षण तो अल्प, उनमें भी बुद्धि जोड़-तोड़ कर रहती कुछ।
पर इनसे ऊपर निकलना ही आत्म-विजय, तभी तो कुछ सोचोगे बड़ा
छोटी-२ बातों, मन-मुटावों में ही फँसकर, नर अति अग्र बढ़ सकता।
कैसे विपरीत परिस्थितियों में सहेज हो, जीवन-परे के भी फैसलें लेते
अन्य-जिंदगियों में भी उच्च-क्षमता पूर्णन के दायित्व का प्रयास करते।
महान निर्णय लेने वाले विरले ही, उनके बिना तो जग रहता ही मद्धम
फिर कौन वह है सर्व चल-जगत का, जिसका जीवन पर सीधा असर।
कुछ प्राकृतिक कारण जहाँ पले-बड़े, पर आपद-विपदाऐं क़हर बरपाती
नर व अन्य प्राणी-जगत कुप्रभावित, उपकरण-तंत्र भी काम के कुछ ही।
उनसे जूझना तो मनुज की मजबूरी, भाग-दौड़कर जान-रक्षा की ही सोचे
फिर कुछ महानर निज से यथासंभव, जान पर खेलकर भी हित करते।
मानव मात्र लोभी तो न, पर स्व-दुर्बलता त्याग से ही होता वृहद से संपर्क
सत्य ही जीवन में स्व तो क्षुद्र है, कुछ महद हो जाए तो हो विकास निज।
यह भी मात्र है मन की उच्च-अवस्था, निम्नता से पार जाना प्रयास श्रेष्ठतम
बस त्याग दो मोह-खल दुर्भावों का, देखो जीवन अति दूर तक है विस्तृत।
प्रकृति के अलावा मानव-कृत प्रभाव भी, जिनमें होते पूर्ण आत्मसात हम
बहुदा ज्ञात न हैं वे कृत्रिम या प्राकृतिक, पर निबटते हैं जैसे आऐं समक्ष।
जरूरी तो न वे ख़राब ही हों, अनेक उपयोगियों से होते सदैव लाभान्वित
तन-मन तो पूर्णतया जग-प्रपंचों में ही रमा, श्वास -२ पर इसका अधिकार।
नित नूतन आविष्कार, कल-कारखाने, यंत्र-उपकरण, संचार-साधन बाज़ार
लोग बेचने को अपना हुनर या बाँटने को ही, सर्वतया अपने को देते झोंक।
यूँ बेबस हो समय न काटते, लघु निज से वृहद निकालने का करते हैं प्रयत्न
स्व को तो समृद्ध बनाऐंगे ही, अन्य भी लाभान्वित, रुकना न चलाना है बस।
हम इन उपकरणों के उपभोक्ता बनते, वे चाहे-अचाहे स्व अंश बन जाते
मूल-निज तो बहुत पीछे छूट जाता, अब नए रंग में ही हैं जाते रच-बस।
वस्तुतः क्या नव रंग बाह्य हैं, या आत्मा को पूर्णतया आच्छादित कर लेते
क्या न हूँ मैं वर्तमान निज सोच का माध्यम, हर क्षण चाहे बदल जाते हैं।
सदैव निज सोच में ही पाशित, दायरा बढ़े तो अपना भी बढ़ेगा आकार
स्थूल या दैत्याकार यहाँ न प्रधानता, अपितु श्रेष्ठ रचना हेतु है प्रयास।
घिस तो चाहे जाए सर्व अनावश्यक, तराशना खुद का मुख्य उद्देश्य
हर चोट से तो नव-शक्ल आभूषण-निर्माण में, मूर्ति बनती अतिश्रम से।
निकलने दो लोभों या मात्र निज ही सोच से, वृहत हेतु होने दो आत्मसात
हाँ इसमें बात कहने की न मनाही, श्रेष्ठ अभिव्यक्ति कदापि न है ख़राब।
हाँ सुचिंतित व्यवहार सदा हितकारी, कुछ जोख़िम भी जरूरी हेतु लाभ
सदा अन्य-प्रभाव में न रहो, जहाँ अपने से उत्तम संभव, पूर्ण करो प्रयास।
यह मान लो अन्य भी तुम जैसे ही, असमंजसता में वे भी काट रहें समय
कोई भी विदेशी-विधर्मी न हैं , मात्र सोच ही बनाती निज कुटुंब विस्तृत।
उच्च-लक्ष्य तुम भी लिख लो, अन्यों की श्रेष्ठ-कृतियों में स्वयं भी लो जुड़
निज संग अन्य भी लाभान्वित, अंततः तुमने भी जग से लिया बड़ा कुछ।
पवन कुमार,
२५ अक्टूबर, २०२० समय ८:४१ बजे सायं
(मेरी जयपुर डायरी, दि० ९ नवंबर, २०१६ समय ९:१२ बजे प्रातः से)
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