सर्व एकता-संघ
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कालचक्र में जातियों का उद्भव कैसे होता, जन पूर्वाग्रह चीरकर जाते विजयी बन
एक बड़ी श्रेणी का खंदक पार होना दुष्कर, निज स्तर पर सफलता होती निकट।
यदि हम एकजुट हों एकता शक्ति बनती, परस्पर के दुःख-दर्द पाटने की सोचे युक्ति
माना मस्तिष्क में परिवेशानुसार कई वहम जमें, तो भी एकता से साहस होता उदित।
हम सदा निज दुःखों का रोना-पीटना ही करते रहें, और बैठे रहें हाथ पर हाथ धरकर
श्लाघा तो सुकर्त्तव्य-निर्वाह से ही प्राप्त, विज्ञान में सीमा-रेखा, पार बिना सफलता न।
माना विज्ञान-प्रगति ने अनेक अविष्कार-राहें खोली, और सर्व मानवता को मिला लाभ
शिक्षा-लाभ हुआ, अनेक अंध-विश्वास टूटें, मनुज की वास्तविक शक्ति का प्राप्त भान।
जब हम अपढ़-अज्ञानी हैं तो अधिकांशतः भोले ही, कुछ चतुर अनेकों को मूर्ख बनाते
'जिसकी लाठी उसकी भैंस' का सिद्धांत प्रतिपादित, बहु-संसाधनों पर कब्ज़ा जमा लें।
प्रकृति में हिंसा तो सामंजस्य भी है, अनेक जीव जंगल में निज ढ़ंग से कर रहे गुजर
सदा तो सिंह भी न किसी को मारता, भूखा होने पर ही भोजन तलाशता प्रकृतिवश।
प्रकृति में कुछ मनुज तन-मन से हठी-गर्वित-महत्त्वाकांक्षी हैं, निर्बलों पर शासन करें
बल-युक्ति से बड़ा भूभाग जीता, मूल-निवासी खदेड़े, मारा-काटा, स्वामी हैं बने बैठे।
अमेरिका-ऑस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड आदि देशों में यूरोपीयों ने जा जनसांख्यिकी पूर्ण बदल दी
कह सकते मूल लोगों को मार भगाया, आज किंचित उनकी विशेष उपस्थिति भी नहीं।
अर्थात कि नस्लें पूर्ण नष्ट ही कर दी गईं, आज आक्रामक ही वहाँ के शासक बने बैठे हैं
अब इस नए जन-समूहों में कुछ उदारवादी भी होंगे, सर्व-मानवता हित के पक्षधर होंगे।
पिछले कुछ सहस्र वर्षों से भिन्न धर्म-पंथ भी चल रहे, निज भाँति लोग व्याख्यान दे रहें
कुछ निर्मल हृदय पसीजते भी, अन्य-कष्टों में पीड़ा होती, आशा सब कुटुंब भाँति रहें।
जब भी कोई जीव-हत्या होती तो एक दीर्घ परंपरा विलुप्त, कोई अन्य न ले सकता स्थल
मनुष्य के आधुनिक कलापों से, जीव-पादप-वनस्पतियों की बहु-किस्में हो रहीं हैं नष्ट।
पिछले चार-पाँच सौ वर्ष व
पूर्व से भी, अनेक जन निज क्षेत्र छोड़ नए भागों में गए बस
वहाँ के मूल निवासियों को मार-काट या हरा दिया, अनेकों को बना दिया दास-सेवक।
निर्मम अत्याचारों के चलते शनै निर्मल-चेतना मर जाती, लोग भीरु बन जीना जाते सीख
तब उनमें से ही कोई नेता खड़ा होता प्रतिकारार्थ, बचाव में प्राणी प्रायः हो जाता हिंसक।
पहले हम बात करें नस्ल-संरक्षण की, अभ्यारण्यों में प्रकृति के अनेक जीव-जंतु रखे जाते
सिंह-हाथी-मगरमच्छ-हिरण आदि का संरक्षण हो रहा, बाहर वाले आकर शिकार न करें।
किञ्चित नर मनोरंजनार्थ चिड़ियाघर-सर्कस बना लेता, या प्रकृति संतुलन भी कोई उद्देश्य
पर अपने ही मनुज-बंधुओं हेतु उसने क्या विचारा, विभिन्न पंथियों में फैला हुआ घृणा-द्वेष।
एक अति-दुःख होता आज के युवाओं का व्यवहार देख, घृणा-विष के लग रहें नश्तर
विधर्मियों हेतु वीभत्स-घृणास्वर उवाचे जा रहें, देश-समाज का फिर क्या होगा उन्नत ?
वोट हेतु नेता जन-भावनाऐं भड़का उल्लू सीधा करते, मूलभूत आवश्यकताऐं दो भुला
जब लोग सुवाँछित मुद्दों पर मौन रहेंगे तो विकास दुष्कर होगा, देश पिछड़ा ही रहेगा।
प्रायः ऐसा कि धनी-राजा-शक्तिशाली लोग, स्वार्थों हेतु प्रजाजनों को लड़ाते रहते
लोक भी इतना सरल कि व्यर्थ-संवादों में ही उलझा, वास्तविक हित तो अज्ञात हैं।
फिर कैसे उद्भव-चर्चा हम करें, जबतक वृहद चिंतन न
दोयम आयाम ही प्रस्तुत
हमारे विघटन का तो बाहरी ही लाभ लेंगे, भूमि-साधन छीन बना देंगे विस्थापित।
पर निराशा कदापि न
चाहिए, मनुज को मस्तिष्क मिला, सोच सकता भला-बुरा
आज ज्ञान-प्रसार काफी अधिक है, जाति-उद्भव के अनेक नमूने देखे सकते जा।
अनेक लोग क्षीणताओं से बाहर निकल, स्व अधिकार जानते हुए व्यवहार कर रहें
एक समतामूलक समाज-स्थापना का प्रयास, कमसकम कुछ तो लोग कर रहें।
एक विद्वद-सुचिंतन तो होना ही चाहिए, जिसमें सबकी एकता-संघ की हो बात
परस्पर-कलह तो कदापि न, सुसंवाद करें, समझाने पर होना चाहिए बहु जोर।
कोई अत्याचार न कर सके, तन-मन बली, चींटी-झुण्ड हाथी को भी देता पगला
निज अदम्य शक्ति पहचानो, बड़ा हित संज्ञान में, परस्पर स्नेह है श्रेष्ठ हथियार।
मेरे मन में सर्व जीवन प्रति विश्वास होना चाहिए, जहाँ जन्मा उनका भी लूँ दायित्व
जीते-जी यदि उद्भव में सहायता कर सकूँ, तो जीवन-आगमन हो जाएगा सफल।
पवन कुमार,
१९ सितंबर, २०२१, रविवार, समय १८:०४ बजे सायं
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० २१ अगस्त, २०१९, बुधवार, समय ९:१४ बजे प्रातःकाल से)
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