जीवन वरदान
हर दिवस एक नव-अनुभव लेकर आता, इस जीवन पर चढ़ाऐ एक लेप सा
सब कुछ तो देह-आत्मा सराबोर हो जाते, अनेक संज्ञानों का मिश्रण होता।
हम जब कोई सरोवर-तल देखते, कई मृदा-परतें एक के ऊपर चढ़ती जाती
शनै: निचलियों पर अति-भार हो जाता, हाँ खोदे-कुरेदे तो पता चल जाता भी।
समय संग प्रायः उनमें स्थायी बदलाव आ जाता , दबाव-ताप काम करते निज
कायांतरण भी नित घटित, एक मामूली कोयला, हीरक में हो जाता परिवर्तित।
रसायन विज्ञान क्रिया-प्रतिक्रिया है समझाती, परिवर्तनीय या अपरिवर्तनीय कुछ
जल में लवण घोलो तो अदर्शित, सूख जाने पर उसके रवें दिखने हैं लगते पुन:।
किंतु आटे की रोटी चूल्हे पर सिंकने के बाद पूर्व-स्वरूप यानि आटे में आती न
हाँ सुखाकर पीस लो तो किंचित चूर्ण बन सकती है, गुण तो पूर्ववत न रहते पर।
काठ की हाँडी बार-2 आग पर न चढ़ती, प्रथम बार में ही जलकर हो जाती भस्म
प्लास्टिक-रबर को एक बार जला दिया, गैस व काला कार्बन ही शेष रहते बस।
गैस तो वायुमंडल में मिल है जाती, कार्बन भी शनै मिट्टी का एक अंग बन जाता
अतएव सारी वस्तुऐं अन्य स्वरूप लेती रहती, कुछ भी जगत में नहीं है अछूता।
बृहद प्रकृति-प्रक्रिया में पुनरावरण भी, पर अनेक प्रक्रियाओं पश्चात दीर्घावधि में
अति-विचित्र हैं ये समस्त जग-कवायदें, कुछ अंदाजा लगा लेता नर निरीक्षण से।
किंतु विशेष वस्तु-स्वरूप में जो स्थायी परिवर्तन हो जाते, उनसे लौटना असंभव
हाँ वैसी अन्य वस्तुऐं भी अन्य प्रक्रिया से गुजरती होती, किंतु आप मरे जग प्रलय।
तो जीवन भी अतएव एक वस्तु सम, उसके मुख्य दो अवयव, देह व आत्मा-प्राण
माँ में गर्भाधारण से लेकर मृत्यु पर्यन्त यात्रा अति-दीर्घ, वे नहीं जो पूर्व में थे हम।
विभिन्न दर्शित अवस्थाओं से गुजरते, कुछ समरूपता कारण उन्हें दिया नाम एक
किंतु जीवन-अवययों में सतत प्रभाव होने से, स्थायी परिवर्तन होते रहते हैं निरत।
कुछ लचक भी, बीमार होकर कृष होते, स्वस्थ होकर पुनः बल-भार धारण कर लेते
जैसे डाँट-फटकार का बुरा मानते हुए भी, कुछ देर बाद समझकर सामान्य हो जाते।
पर जो भी हम पर घटित उसका प्रभाव तो स्थायी, चाहे अति-सूक्ष्म मात्रा में ही होता
शनैः हम इतने दृढ़-ढ़ीठ हो जाते हैं, खुद भी नहीं समझ पाते यह क्या-क्यों हो रहा।
कुछ ऐसा मेरे या सबके संग हो रहा, पर अन्य-विषय में क्या बोलू, स्वयं को जानता
हाँ और भी निज भाँति से अनुभव करते होंगे, वे ही जानें उनके मन आँगन में है क्या।
कितना चाहा-अचाहा निज इच्छा से या थोपा गया, बलात भी बहुत कार्य करने पड़ते
मानव स्वच्छंद तो न अपनी कसरतों में, सब अन्य अपनी भाँति से प्रभाव जमाऐ हुए।
पर मैं क्यूँ कर्कश सा बनता हूँ जाता, कुछ सोच समझ कर कुप्रभावों को करूँ अल्प
हाँ कभी बार गुस्सा आता जो निकट-अव्यवस्था से, बोलना भी हो जाता स्वाभाविक।
पर ऐसा कब होता क्रिया तो करे व प्रतिक्रिया न होवे, यह दुनिया की रिवाज है नहीं
वृद्ध का बालावस्था-प्रवेश असंभव, कपोत आँखें बंद कर ले तो क्या बिल्ली न आती।
अब जीवन किसको कहें इसमें तो न अधिक मर्जी, परिस्थितियाँ अपनी भाँति ढ़ालती
हाँ सिर पर जब पड़ती तो जैसे-तैसे बजाने लगते, स्वतंत्रता तो आत्म-निकट न अति।
एक कूप मिला, उसी में हाथ-पैर हिला लो, प्रयास करते हो तो कुछ देर रहोगे जीवित
कुछ साथियों से लड़-भिड़ते भी, स्वयं से या अन्य-डर से सब भाँति के भय रहें दिख।
सबके अपने कूप बस कारक बदल जाते, भिन्न परिस्थितियों से बनते विशेष व्यक्तित्व
अच्छा-बुरा कुछ मैं यहाँ नहीं विचारता, मेरा विषय वर्तमान में इस मानव का है घड़न।
किंतु प्रक्रिया समझना तो एक बात, क्या हम स्वयं पर होने वाले प्रभाव सकते हैं आंक
कुछ समझ-बूझ कर सुघड़ शैली बना लें, जिससे विलोम कारकों का कम हो प्रभाव।
हाँ किंचित ये धर्म-प्रवचन-संगोष्ठी-तर्क-मनन, नर के कटु-अनुभवों से त्राणार्थ के यत्न
कितने सफल हो पाते हैं सिलसिले में, हाँ कुछ देर तो जादू को असर रहता अवश्य।
फिर पुनः हम अपने वास्तविक रूप में आ जाते, वही भला-बुरा सा लगने लगता है
हाँ जीवन-काल के कुछ भाग निर्मित, कुछ में तो यथासंभव सुकून अनुभव कर लें।
मुझे भी निश्चय ही एक सुशैली अपनानी चाहिए, व्यर्थ कष्ट नहीं दूँ देह-आत्मा को इस
अपने परिवेश में किञ्चित सकारात्मक परिवर्तन कर लूँ, सुवास हो इर्द-गिर्द भी एक।
यह जीवन वरदान उत्तम प्रकार से जीने हेतु, फिर न मिलेंगे ये अमूल्य वर्तमान पल
तो कुछ व्यय करके भी उत्तमता ग्रहण कर लो, अच्छे अनुभव का कोई सानी है न।
तो प्रखरता से विचारो कहाँ सुधार आवश्यक है, ताकि अनुभव भी तथानुरूप लब्ध
जितना बस में है उतना तो करो, शेष का भी कोई न कोई मिल जाएगा उत्तम हल।
पवन कुमार,
14 मार्च, 2024 वीरवार, समय 9:28 बजे प्रातः
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० 3 मार्च, 2017 प्रातः 5:07 बजे से )
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