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Friday, 22 November 2024

सृजन-पथ

सृजन-पथ

जीवन के वर्तमान रिक्त पलों में, क्या अनुपम कृति बना सकते 

कब तक अल्प प्रयासों में ही अटकेंगे, औरों से पीछे रह जाएंगे।


माना मनन-काव्य सार्थक है, पर क्या यही एक पूर्ण उद्देश्य?

हर चिंतन-साधना में लाभ, पर नर-परियोजना है अति वृहद।

जीवन में कुछ उच्च लक्ष्य हो, जिसके संग हर प्रयास जुड़ा हो,

अल्प रस भी तब अमृत बने, जब कदम बढ़ें व दृष्टि अडिग हो।

 

मनीषी कहते, "हीरा जन्म अमोल है, कौड़ी सा नहीं करो मोल"

जो तम से निकले, साहसी बने, उनका ही नव-विश्व से आत्मसात।

आत्म-केंद्रित रहना भी श्लाघ्य, पर कर्म समर्पित हो जब जगत में,

स्तुति सजती उसी कृति पर सदा, जो अपने स्वार्थ से बढ़कर हो।

 

दैनंदिन जीवन निर्वाह तो सरल, आजीविका से सहजता आए, 

पर सदुपयोग रिक्त काल का ही, सत्य मनुज-कसौटी कहलाए।

सुस्वास्थ्य, स्वाध्याय, समरस शैली, हर जीवन-दिशा में दें गति,

किन्तु ये तो साधन मात्र लक्ष्य हेतु, क्या इनसे राहें तय बनेंगी?

 

जीवन तो आधा बीत चुका, किंतु मन-देह यौवन की सीमा पर

असीम ऊर्जा व समय अपार, पर लक्ष्य अभी तक भी अज्ञात?

बारात सजी, पर दूल्हा न दिखे, यह बाह्य दिखावा भर लगता,

जीवन तो सार्थक तब ही बने, जब कर्म से पथ सच्चा बनता।

 

महानरों ने देखा गुरु स्वप्न, व जीवन को सुलक्ष्य दिया हर पल 

मुफ्त में न यश मिला किसी को, तप से ही सब सृजन सफल।

संभव किसी कृति में जीवन भी लगे, पर सृजन का न छूटे मर्म,

स्वयं को एक परियोजना मानो, व सुप्रबंधन से हों कर्म प्रबल।

 

आत्मा में निहित है जो एक दिव्यता, उसे चेतना से जागृत करें 

लक्ष्य स्वयं आकार ही लेगा, जब आत्मा के स्वर को सुन सकें।

कल्पना से ही सुकृति बनती है, पर श्रम से वह सजीव दिखेगी,

प्रारूप रखो और जुट जाओ, तभी अनेकों सत्य-परतें खुलेंगी।

 

प्रकृति या देव-चित्र के अनुपम अनुभव, हृदय में प्रेरणा जगाएं 

लक्ष्य तय होंगी तो राहें बनेंगी, वरना भटकाव ही कदम गिराएं।

अनिश्चतता से तो यात्रा व्यर्थ, बस भाग्य-सहारे लक्ष्य पूरा न होगा,

गंतव्य साधना पहला कदम है, तभी प्रत्येक पथ सच्चा बनेगा।

 

एक राह चुनो रुपरेखा बनेगी, फिर उसी में मन को रमाओ 

लेखन, सेवा, विज्ञान-कला, जो रुचता हो, उसमें लग जाओ।

माना सर्वत्र निपुण होना संभव न, श्रेष्ठता वहाँ जहाँ है लगन,

एक राह पकड़ो और बढ़ते चलो, लक्ष्य में हो संपूर्ण मगन।

 

माना वर्तमान रूचि लेखन में, किंतु अन्य विषयों में हो चिंतन 

एक विधा में निपुण बनो, और जीवन का स्वर बनाए सजीव।

चयन दुष्कर प्रक्रिया, क्योंकि सब अच्छे पर चिह्नन आवश्यक

महानता का आधार वही, स्वरुचि कृति से श्रेय सजेगा जब।

 

अतः रिक्त समय कदापि न व्यर्थ करो, उसमें बहु स्वप्न गढ़ो

उपलब्धि माना दूर सही, पर चलने से, हर गंतव्य समीप हो।

इस जीवन के पाँसे कहाँ पड़ेंगे, यह तो भविष्य ही बताएगा,

पर शीर्षक खोज कर बढ़ते चलो, लक्ष्य ही मार्ग दिखाएगा।

 

प्राण दुर्लभ, हर पल नूतन जन्म, व्यर्थ मूढ़ता से तो न लाभ 

जो अभी पास, उसे सँजो लो, उससे ही बनाओ अग्रिम राह।

वर्तमान-एकत्रण अग्र की भूमिका बनता, अतः साधना ही पथ

परम जिज्ञासा से हल खोजो, और सुलझने से मिलेg मंजिल।


पवन कुमार, 

22 नवंबर 2024, शुक्रवार, समय 11:30 बजे रात्रि 

(मेरी जयपुर डायरी 20 अक्टूबर, 2016 वीरवार, समय 7:27 बजे से) 

Sunday, 17 November 2024

मनोबल महिमा

मनोबल महिमा 



 हे उच्च मनोबल के नायक, संस्थानों के प्रणेता अपने

आत्मा को दबने न देना, चाहे कैसी भी वेदना हो गहरी।

 

जीवन रणक्षेत्र में विजयी होना, हर रूप में सक्षम बनाना, 

निज प्रेरणा पथ पार कराती है, पहले स्वयं से विजय पाना।

 अपनी हार में जो विशाल आनंद है, वह स्वयं से मिलने में है

सब दंभ हटते, सच्चा रूप दिखता, अंधकार भी जाता हट।

 

माना कुछ क्षीण हम, किंतु सब बाधाऐं हटाता मनोबल,

ज्ञान-चक्षु कराते दर्शन, घावों पर प्रेरणा लगाती मरहम।

हर क्षण घायल होतें, तथापि सशक्त से संघर्ष में डटे रहते,

माना संघर्ष थकाऊ ही, परंतु सबसे बड़ा जीवन-धर्म है

 

मूर्खताजनक मुग्धता न श्लाघ्य, पर आशा करना दोष नहीं, 

अबतक न घटित तो आगे भी न होगा, ऐसा मानना न सही।

क्षमताएँ बढ़ सकती हैं, यदि प्रयास हो निरंतर व स्वाभाविक, 

मनुज सीमाओं से बाहर आया, तभी लब्ध सफलता अद्भुत।

 

मरकर जी उठेंगे, धैर्य नहीं छोडेंगे, बाधाएँ नहीं रोकेंगी पथ 

ठोकरें लगेंगी, काँटे चुभेंगे, मजाक भी होगा, कभी गर्व मर्दन।

अपनी असली दशा जानकर, गंतव्य की दूरी भी पहचान लेंगे,

कौन से उपकरण आवश्यक हैं, जुटाकर उन्हें बलवान बनेंगे।

 

अपना स्तर जान दूसरों की शक्ति आँकेंगे, रण-नीति बनाएंगे, 

न स्वयं को कभी दुर्बल आँकेंगे, परिवेश को सशक्त बनाएंगे।

सब लगें अपने को स्थापित करने में यहाँ, होड़ एक जबरदस्त,

क्षीण पीछे छूट जाता, कमसकम प्रतियोगिता में तो हो चयन।

 

माना अब तक संपर्क अपने जैसों से, पर अब महा-मुकाबला,

सब आयुध सहेजो, शस्त्र पैने करो, समर तो अब शुरू हुआ।

यहाँ कृष्ण-वचन सत्य हैं, 'युद्ध कर', जो बहुतों को देते प्रेरणा,

विशाल सेना तत्पर झपटने को, पर मनोबल है महान प्रणेता।

 

अनीति पर सुनीति की विजय, अंधकार को चीर डालता प्रकाश,

असत्य पर सच्चाई की जयश्री है, मृत्यु भी अमृत से जाती हार।

लुब्ध-प्रवृत्तियों पर ईमानदारी की जीत, परिश्रम से विद्या मिलती, 

सुयश प्राप्त है योग्य कर्मों से, चाटुकारिता कभी काम न आती।

 

मेहंदी का रंग चढ़े धीरे-धीरे, सहज पककर ही तब मीठा होए, 

सुगुण-सुगंध तो स्वतः फैलते हैं, अच्छे-बुरे सभी लाभान्वित होते।

आत्म प्रयासों का ही अधिक सहारा, अन्य भी योग्य का साथ देंगे, 

उत्तम बुद्धि में ज्ञानमय होकर, अपनी प्रतिभा हम मनवा ही लेंगे। 

 

कर्मठता का यश दूर तक फैलेगा, यदि मन में होंगे सच्चे प्रयास,

माना जग में कुछ भेदभाव है, प्रतिभा को भी करने में स्वीकार।

एक दिन मेहनत रंग लाएगी, परम श्लाघ्य को न झुठलाता कोई

देखो कहाँ से कहाँ पहुँच गए हो, घबराने का कोई कारण नहीं।

 

आत्मसम्मान के योग्य बनो, कह सको, "निर्मल प्रयास किया", 

संस्तुति परम-आराध्य की होगी तो सरस्वती-लक्ष्मी भी चलेगी।

मन में हों बहु सकारात्मक भाव, सुकथन का बनाओ संकल्प, 

किसी को रुष्ट करना अनावश्यक, छोटी-मोटी बातें लो सह।  

 

सदैव प्रतिक्रिया अनावश्यक, शांतभाव उच्च-मन का प्रतीक, 

जल में रहकर मगर से शत्रुता मारक, सत्य क्षेम में बहु उन्नति।

वरिष्ठों का आशीर्वाद आवश्यक, सब योग्यों से गुण ग्रहण करो, 

उजले मानव-पक्षों को अपनाओ, बात-बात पर न उद्विग्न ही हों।

 

सभी उद्योग बढ़ाओ सकारात्मक दिशा में, स्थिति को सुदृढ़ करो

संपर्क करो कुछ योग्यों से, सुसंवाद से आत्म परिवेश शुद्ध करो।

जहाँ सूई काम कर सकती अनावश्यक तलवार, ऊर्जा हो संचित,

बहु कर्म अति-बल मांगेंगे, अतः सीमित ऊर्जा को न करो व्यर्थ

 

लाभान्वित हों सहकर्मी भी, राष्ट्र-विभाग का नाम करो उज्ज्वल, 

बनकर नियमित प्रदत्त शुभ कर्त्तव्यों में, आधार खूब करो सुदृढ़।



पवन कुमार,

17 नवंबर, 2024 रविवार समय 11:33 बजे प्रातः 

(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दिनांक 4 जून, 2015 वीरवार समय 8:15 बजे प्रातः से)  


Thursday, 14 November 2024

पूर्व दिशा चिंतन


पूर्व दिशा चिंतन  

 

पूर्व दिशा में दृष्टि करना, योग का है एक मुख्य नियम,

यदि पूर्ण उचित नहीं भी लगे, तो भी प्रयास हो अनुपम।

 

सूर्य प्रातः उदित होता, पूर्व से भू को देता ऊर्जा अपार,

शुभ दिशा मानी जाती, भास्कर से सीधा संबंध साकार।

मस्तिष्क का संयोग उचित ही, ध्यान का होता है संगम,

महद चिंतन हो जाता, शरीर की क्रियाएँ होतीं संगठित

 

वास्तु-शास्त्र है दिशा-आधारित, शुभ-अशुभ करे इंगित,

मंदिर-मुख पूर्व को, आजकल किए जाते भवन-द्वार भी।

सारे योगासन पूर्व दिशा ओर ही मुख करके किए जाते,

कारण तो अधिक न मालूम, बस शुभ-अशुभ से जुड़ते।

 

भारतवर्ष उत्तरी-पूर्वी गोलार्ध में, सूर्य यहीं उगता पहले,

यूरोप-अमेरिका को पश्चिम कहते हैं, वे पश्चिम में बसते।

हम पूर्वी, हमारी संस्कृति उनसे विलग ही बताई जाती,

दक्षिण-पूर्व का क्षेत्र कमोबेश सम विचारधारा अपनाता।

 

मस्जिद-प्रवेश पश्चिम में निर्मित, मक्का-मदीना हैं उधर,

मुस्लिम  हिन्दू संस्कृतियों में बताई जाती है भिन्नता कुछ

शैली अनगिनत बना लेते, मनुज इन्हें जीवन में अपनाता,

जो अन्य किंचित भिन्न होते, उनमें सहज विरोध हो जाता।

 

भोजन समय पूर्व को मुख करते, पूर्व-दक्षिण को सोते सिर 

दक्षिण ओर पैर न करते, दिशाओं का भी कहा जाता चरित्र।

पर कहते हैं गुरु नानक के पैर, पूर्व व पश्चिम में रख दिए थे,

किंतु वह योगी थे, जिधर देखें, मक्का की मस्जिद ही दिखे।

 

पूर्व दिशा की ओर मुख करके, मनन-चिंतन लगाया जाता,

लेखनी से कुछ बेहतर ही निकालेगा, ऐसा माना है जाता।

पृथ्वी की उत्तर-दक्षिण ध्रुवीय चुंबकीय किरणें हैं निर्धारक,

उत्तर सिर करने से सिर भारी किरणें सीधी होती हैं प्रवेश। 

                                                                 

दक्षिण में ऐसा दुष्प्रभाव न, नियम भी बनें आधार पर इसी,

दक्षिण दिशा में सिर करके सोना, प्राणी को देता है शांति।

इसलिए ध्यान-योग विषयों में, दिशाओं का विशेष स्थान,

प्राचीन नियमों में यह छिपा है, समझो इसको महा ज्ञान।

 

                                      

पवन कुमार,

14 नवंबर, २०२४, गुरुवार समय 7. 37 बजे

(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दिनांक 1 अप्रैल, 2015, बुधवार, समय 8.30 बजे प्रातः से)



Sunday, 10 November 2024

शिक्षक त्रुटियाँ

शिक्षक त्रुटियाँ 
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हम सहसा कुछ गलत हो जाते हैं, एक छोटी सी भूल बन जाती महद
फिर अन्य हमें कैसे ही आँकते, अपने ढंग से विवेचना करते है सब। 

कई संभावनाऐं होती हैं एक काज हेतु, किंतु निर्णय तो एक पर होता ही
इसको करूँ और उसको छोड़ूँ, कितने परिपक्व हैं बाहर निकलने में ही।
एक अंतर्द्वन्द्र नित्य चलता रहता है, भिन्न जीवन-पहलुओं के समन्वय में
सब अपनी कुछ-2 श्रेष्ठता भी रखते, पर सर्वोत्तम तो सदा आवश्यक है। 

हम जीवन में अनेक ही अहम निर्णय भी, यूँ भावावेश में हैं लेते बहकर
परिणाम तो उस समय चिंतन न कर पाते, मात्र सहसा हो जाता कुछ। 
हाँ हरेक क्रिया की एक प्रतिक्रिया भी, आवश्यक न अनुरूप हो हमारे
कदाचित जानकर भी अनाड़ी बने रहते, व्यस्क सम व्यवहार न करते।

दुनिया हमें अपने दृष्टिकोण से देखती है, एक विशेष धारणा ही बनाती
पर वह तो होती मात्र बाहरी दर्शक, तुम्हारे अन्तर्मन की न वह साक्षी।
वास्तविक जगत में तो हम सभी, अपने विभिन्न मनोविज्ञान लिए हुए हैं 
सब अपने ढंग से एक दूजे से जुदा हैं,  निज परिवेशों में विकसित हुए।

क्या हैं ये हमारी बेचकानियाँ या त्रुटियाँ, क्या करते या हो जाती मात्र 
क्या बाह्य-अपेक्षाओं से समन्वय-अभाव, या यकायक बेसमझे बर्ताव।
किन्तु कई बार तो जानते-समझते हुए भी, हम गलती करते हैं जाते 
जैसे स्व पर कोई वश ही न, बस मूढ़ता ही निर्णयों पर भारी होती है।

तब हमारा क्या जीवन-दर्शन होता, उसी अनुरूप मनन-बर्ताव करते
संसार में कुछ देख-समझ कर ही, स्वयं को फिर बदलने की सोचते। 
बहुत बार हाथ जलाऐं हमने मूढ़ता में, फटकार से ही आती कुछ सुध
समझ में आता कि हम ही सही नहीं होते, बहुत मार्ग तुमसे हैं श्रेष्ठतर।

बहु विद्याऐं, पूर्व गमित पथ, प्रयोग-अभ्यास, जिनका जगत रखता ज्ञान 
पर हम अदने से व्यक्तित्व हैं, सब विधाओं में कैसे हो सकते पारंगत। 
मात्र यदि निज क्षेत्र में व्यवहार करना हो, तो भी कुछ संभावना उचित 
परंतु अपरिचित, ज्ञान-विद्या दोनों में अनाड़ी हैं, यह स्वीकार लो तुम।

क्यों हम एक मूढ़ी बन जाते हैं, अपनी जटिलताओं से हो जाते कुत्सित
इस निर्बल मन-देह में बहुत व्यसन पाल लेते, जबकि ज्ञात हैं हानिकर। 
क्यों दुनिया को यह दिखाना चाहते, हम भी अपनी मर्जी के हैं मालिक 
क्यों अनावश्यक प्रतिलोम स्पर्धा, जबकि सत्य असर तो होता स्वयं पर। 

क्यों बदला-भावना से आचार करते, जबकि आत्म पर ही असर अधिक 
'आप तो मरे ही पर तुम्हें सिखा देंगे', युक्ति निज की हानि करती अधिक।
क्यों न आत्म-अंतः शुभ करते, एवं एक विज्ञ-बुद्धिमान सा व्यवहार करते 
और मात्र यूँ परेशान रहते, मानो समस्त जगत का भार इन स्कंधों पर है।

क्यों नहीं स्वयं को हल्का ही करते हो, बोझ अधिक तो लो अन्य सहयोग 
जीवन-प्रबंधन के कुछ नियम सीख लो, बाँटो कार्य रूचि-योग्यतानुरूप। 
एकदम यूँ नहीं चिंतित हो जाओ, अन्यों को भी निष्पादन में लगता समय 
पर देखो लापरवाही न हो कर्त्तव्य-निर्वाह में, यह लागू ही होता सब पर। 

गलतियाँ हमारी ढ़ीलता से भी होती, अनुरूप समय पर गंभीर नहीं होना 
गलत व्यक्ति पर विश्वास करना भी एक, वह स्वयं मरेगा तुम्हें भी मारेगा।
जब घटित हो रहा है सुधरने की महत्तम संभावना, बाद मे रोना-धोना ही 
बाद में त्रुटि-सुधार अति महँगा पड़ता, अतः सब समझदारी है समय की।

हम एक क्षेत्र में, किंतु हेतु यत्न न करते हैं, सीखेंगे नहीं तो गलती ही होगी 
क्यों अनाड़ी ही बने रहना चाहते, जबकि पता परिश्रम से सीख सकते ही।
विश्व सम्मान देता है चेष्टालूओं को, पर छोटी-2 गलतियों की बहुत कीमत
समय-बर्बादी, संसाधन-अपव्यय, मानसिक-व्यथा और हैं व्यर्थ-उपहास।

अनर्थक टिप्पणी, अयोग्य कहने से तो टूटे अवर-विश्वास व वरिष्ठ-झिड़क
ये कुछ सीमा तक तो ये नियमित किए जा सकते, सावधानी ही है बचाव।
पर गलतियाँ मात्र अपुण्यी नहीं, अहसास सजग रहने की प्रेरणा सकती दे
अन्यों को हलके में ही नहीं ले सकते हो, कि जो तुम सोचों वे उसे मान ले।

तो कुछ श्रेष्ठ मानक बनाओं निर्वाह में, हर निर्णय से पूर्व ठीक से देख लो 
तथापि कुछ त्रुटियाँ अवश्यंभावी, एक मजबूत व्यक्ति सम बर्दाश्त करो। 


पवन कुमार,
10 नवंबर, 2024 रविवार समय 8:39 बजे सायं  
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दिनांक 9 अप्रैल, 2015 वीरवार से)