शिक्षक त्रुटियाँ
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फिर अन्य हमें कैसे ही आँकते, अपने ढंग से विवेचना करते है सब।
कई संभावनाऐं होती हैं एक काज हेतु, किंतु निर्णय तो एक पर होता ही
इसको करूँ और उसको छोड़ूँ, कितने परिपक्व हैं बाहर निकलने में ही।
एक अंतर्द्वन्द्र नित्य चलता रहता है, भिन्न जीवन-पहलुओं के समन्वय में
सब अपनी कुछ-2 श्रेष्ठता भी रखते, पर सर्वोत्तम तो सदा आवश्यक है।
हम जीवन में अनेक ही अहम निर्णय भी, यूँ भावावेश में हैं लेते बहकर
परिणाम तो उस समय चिंतन न कर पाते, मात्र सहसा हो जाता कुछ।
हाँ हरेक क्रिया की एक प्रतिक्रिया भी, आवश्यक न अनुरूप हो हमारे
कदाचित जानकर भी अनाड़ी बने रहते, व्यस्क सम व्यवहार न करते।
दुनिया हमें अपने दृष्टिकोण से देखती है, एक विशेष धारणा ही बनाती
पर वह तो होती मात्र बाहरी दर्शक, तुम्हारे अन्तर्मन की न वह साक्षी।
वास्तविक जगत में तो हम सभी, अपने विभिन्न मनोविज्ञान लिए हुए हैं
सब अपने ढंग से एक दूजे से जुदा हैं, निज परिवेशों में विकसित हुए।
क्या हैं ये हमारी बेचकानियाँ या त्रुटियाँ, क्या करते या हो जाती मात्र
क्या बाह्य-अपेक्षाओं से समन्वय-अभाव, या यकायक बेसमझे बर्ताव।
किन्तु कई बार तो जानते-समझते हुए भी, हम गलती करते हैं जाते
जैसे स्व पर कोई वश ही न, बस मूढ़ता ही निर्णयों पर भारी होती है।
तब हमारा क्या जीवन-दर्शन होता, उसी अनुरूप मनन-बर्ताव करते
संसार में कुछ देख-समझ कर ही, स्वयं को फिर बदलने की सोचते।
बहुत बार हाथ जलाऐं हमने मूढ़ता में, फटकार से ही आती कुछ सुध
समझ में आता कि हम ही सही नहीं होते, बहुत मार्ग तुमसे हैं श्रेष्ठतर।
बहु विद्याऐं, पूर्व गमित पथ, प्रयोग-अभ्यास, जिनका जगत रखता ज्ञान
पर हम अदने से व्यक्तित्व हैं, सब विधाओं में कैसे हो सकते पारंगत।
मात्र यदि निज क्षेत्र में व्यवहार करना हो, तो भी कुछ संभावना उचित
परंतु अपरिचित, ज्ञान-विद्या दोनों में अनाड़ी हैं, यह स्वीकार लो तुम।
क्यों हम एक मूढ़ी बन जाते हैं, अपनी जटिलताओं से हो जाते कुत्सित
इस निर्बल मन-देह में बहुत व्यसन पाल लेते, जबकि ज्ञात हैं हानिकर।
क्यों दुनिया को यह दिखाना चाहते, हम भी अपनी मर्जी के हैं मालिक
क्यों अनावश्यक प्रतिलोम स्पर्धा, जबकि सत्य असर तो होता स्वयं पर।
क्यों बदला-भावना से आचार करते, जबकि आत्म पर ही असर अधिक
'आप तो मरे ही पर तुम्हें सिखा देंगे', युक्ति निज की हानि करती अधिक।
क्यों न आत्म-अंतः शुभ करते, एवं एक विज्ञ-बुद्धिमान सा व्यवहार करते
और मात्र यूँ परेशान रहते, मानो समस्त जगत का भार इन स्कंधों पर है।
क्यों नहीं स्वयं को हल्का ही करते हो, बोझ अधिक तो लो अन्य सहयोग
जीवन-प्रबंधन के कुछ नियम सीख लो, बाँटो कार्य रूचि-योग्यतानुरूप।
एकदम यूँ नहीं चिंतित हो जाओ, अन्यों को भी निष्पादन में लगता समय
पर देखो लापरवाही न हो कर्त्तव्य-निर्वाह में, यह लागू ही होता सब पर।
गलतियाँ हमारी ढ़ीलता से भी होती, अनुरूप समय पर गंभीर नहीं होना
गलत व्यक्ति पर विश्वास करना भी एक, वह स्वयं मरेगा तुम्हें भी मारेगा।
जब घटित हो रहा है सुधरने की महत्तम संभावना, बाद मे रोना-धोना ही
बाद में त्रुटि-सुधार अति महँगा पड़ता, अतः सब समझदारी है समय की।
हम एक क्षेत्र में, किंतु हेतु यत्न न करते हैं, सीखेंगे नहीं तो गलती ही होगी
क्यों अनाड़ी ही बने रहना चाहते, जबकि पता परिश्रम से सीख सकते ही।
विश्व सम्मान देता है चेष्टालूओं को, पर छोटी-2 गलतियों की बहुत कीमत
समय-बर्बादी, संसाधन-अपव्यय, मानसिक-व्यथा और हैं व्यर्थ-उपहास।
अनर्थक टिप्पणी, अयोग्य कहने से तो टूटे अवर-विश्वास व वरिष्ठ-झिड़क
ये कुछ सीमा तक तो ये नियमित किए जा सकते, सावधानी ही है बचाव।
पर गलतियाँ मात्र अपुण्यी नहीं, अहसास सजग रहने की प्रेरणा सकती दे
अन्यों को हलके में ही नहीं ले सकते हो, कि जो तुम सोचों वे उसे मान ले।
तो कुछ श्रेष्ठ मानक बनाओं निर्वाह में, हर निर्णय से पूर्व ठीक से देख लो
तथापि कुछ त्रुटियाँ अवश्यंभावी, एक मजबूत व्यक्ति सम बर्दाश्त करो।
पवन कुमार,
10 नवंबर, 2024 रविवार समय 8:39 बजे सायं
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दिनांक 9 अप्रैल, 2015 वीरवार से)
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