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The postings in this blog are purely my personal views, and have nothing to do any commitment from Government, organization and other persons. The views in general respect all sections of society irrespective of class, race, religion, group, country or region, and are dedicated to pan-humanity. I sincerely apologize if any of my writing has hurt someone's sentiments even in the slightest way. Suggestions and comments are welcome.

Sunday, 27 April 2014

चुनाव काल

चुनाव काल 


आओ चलें हम मिल, कुछ देश-काल की करें वार्ता

निज विषयों के अलावा, बाह्य-विश्व की भी हो चर्चा॥

 

क्या करूँ मैं विवरण, जब सब तो उसमें ही व्यस्त

सबको गरम खबर चाहिए, जो पर्याप्त हैं उपलब्ध।

संचार मीडिया है अति-व्यग्र, अपनी TRP बढ़ाने में

सब कहते वे ही श्रेष्ठतम, जन- भावनाऐं प्रस्तुति में॥

 

मंतव्य व विशेषज्ञ-राय हेतु, एक जमावड़ा है लगता

सायं बैठ जाते सब TV चैनल, राग अलापने अपना।

सारी ख़बरें एक सी, मानो और कुछ जमाने में नहीं

दर्शक मुग्ध हैं चर्चाओं से, व किंचित आनंदित भी॥

 

जैसे इन चुनाव-ख़बरों ने, देश को सिकोड़ दिया ही

सुबह-शाम बस, नेताओं के बड़े कसीदें पढ़े जाते ही।

तकनीकी-क्रांति ने की है, बड़ी सहायता इसे बढ़ाने में

अब लोग हैं बेचारे, कि इसको सुने या उसको देखेँ॥

 

जब अत्यधिक बाह्य भी घटित, क्यों न फिर है ज़िक्र

बहु-सकारात्मक बदलाव होते हैं, नेताओं भी बिन।

क्या सारी सृष्टि चलाने का, इन्हीं को ही जाता प्रश्रय

क्यों आमजन की कड़ी श्रम-त्याग, जाते हैं विस्मर?

 

लगे दिन-रैन सब विश्वजन, इसके ही कायांतरण में

पर राजनीतिज्ञ तो परस्पर टांग तोड़ने में व्यस्त हैं।

सारा चुनाव प्रचार, नकारात्मकता पर ही आधारित

जबकि भली-भाँति जानते, कितने पानी में हैं कौन॥

 

सत्य है कि जितना होना चाहिए था, हुआ न उतना

पर राष्ट्र विकसित होने में तो, ज़माना बीत है जाता।

और बस नेता ही नहीं, हम सब हैं फल-भागी इसमें

क्योंकि सबके करने से ही तो, आते परिणाम अच्छे॥

 

फिर हमें वैसे मिलते नेता, जिसके हम हैं अनुरूप

या फिर कुछ नेताओं ने, प्रक्रिया कब्ज़ा ली सकल।

लोगों को न मिलती बहु-सुविधा, कुछ चुनने की नए

लगता सब ही प्रत्याशी-चरित्र कमोबेश, एक जैसे॥

 

पर नेता ही क्यों, सभी क्षेत्रों में है कुछ का साम्राज्य

कुछ ही राजनेता-उद्योगपति-घराने, हैं शक्तिवान।

उनकी नीतियों से चले है तंत्र, वे नितांत अस्वार्थी न

माना उससे आमजन का भी हो जाता है कुछ हित॥

 

लगता खूब मेल है, नीति-निर्धारकों व प्रभावशाली में

पर इससे आमजन के अहम मुद्दें, गौण हुए जाते हैं।

प्रजा भी कभी प्रसन्न भी होती, बाँटी जाती रेवड़ियों से

अन्यथा बहुदा उसका जीवन, कठिन हुआ करता है॥

 

क्या बात इस झंझावात की, जब सब ही हैं एक जैसे

कुछ फिर नव-प्रवेश चाहते, प्रक्रिया में शामिल होने।

व सब संस्थाऐं सहायक, शुभ्र-छवि बनाने में आपकी

लेकिन असली चेहरा तो कभी, सामने आता ही नहीं॥

 

फिर क्यों छटपटाहट, नए चेहरों के आगमन से कुछ

किंचित इससे पुरानों की, रोजी-रोटी होगी प्रभावित।

पूर्णतया कब्जा सा है, राजतंत्र पर खिलाड़ियों का बड़े

क्यों वे हटना चाहेंगे ही, अपने चलते हुए साम्राज्य से॥

 

फिर चुनाव हैं, तो प्रजाजन को कोई चुनना ही पड़ेगा

एक समुद्र-मंथन होगा, कुछ अमृत व विष निकलेगा।

खेल यहाँ हम भी देख रहें, कहाँ पर काल-चक्र रुकता

पर चाहते हैं हो कुछ नया, शायद हो कुछ प्रजा-भला॥

 

पर अज्ञात, कब होगा आदर्श भारत देश का निर्माण

जब सरकार का सरोकार होगा, सबका ही कल्याण॥



पवन कुमार, 
27 अप्रैल, 2014 समय 19:24 रात्रि 
(मेरी डायरी दि० 19 अप्रैल, 2014 समय 19:17 सायं से )

Wednesday, 23 April 2014

मैं आतुर

मैं आतुर 


कहकहों के शहर से, कहीं दूर है बसेरा

तथापि दिवस-मिलन आतुर, सवेरा मेरा॥

 

मैं ज्यों यूँ ही, स्वयं पर झुँझला सा जाता

कभी जग से कुछ बहु आशा कर लेता।

न समझा कुछ बुद्धिमता, उत्पन्न हो कैसे

वरना तो चहुँ ओर फिर, अँधेरा ही मेरा॥

 

चन्द लम्हों का ही तो, बस यह है जीवन

जी लेंगें इन्हें तो, फिर सफल है जीवन।

कैसे सीखूँ अदाऐं मैं, इस प्रहेलिका की

फिर जानूँ तो हूँ कि ये सब डेरा है मेरा॥

 

मुस्कुराने की आदत तो आनी ही चाहिए

कहकहाने की बात भी सीखनी चाहिए।

कैसे हो आगमन उन संतप्त हृदयों तक

इसी प्रश्न का उत्तर-खोज, गहरा है मेरा॥

 

फिर यूँ ही कुछ क्षण, हूँ गुनगुनाता सा

गलत ही सही, दिल कुछ तो लूँ सहला।

वरना लगेगा, कुछ जीवन जिया ही नहीं

 फिर क्या अच्छा या बुरा बतियाना मेरा॥

 

दुनिया है मेरी पर, इसका बन न सका

अपनी धुन व जीवन कुछ समझ न सका।

अपने को भी अति संयमित कर न सका

तथापि जीवन-उत्कृष्टता, सपना है मेरा॥। 


पवन कुमार, 
23 अप्रैल, 2014 समय 23:29 म० रा० 
(मेरी शिलॉंग डायरी दि० 22.04.2001से) 

Monday, 21 April 2014

रास्ता ही मंजिल

रास्ता ही मंजिल 



ये कहानियों की बातें हैं, पर कही ही तो जाए

कैसी-२ होंगी तरंगें, कुछ अनुमानी ना जाए॥

 

या चलता-फिरता रोबोट, या कुछ हूँ संजीवन

या फिर बैटरी-चालित, या स्वप्न में ही भ्रमित?

मैं कौन-कहाँ से, और क्या हूँ, प्रश्न विशाल है

जीवित भी या मृत, कुछ आभास हो तो जाए॥

 

या फिर अपने-आपमें गुम, या अन्य-संचालित

या कुछ सोच का पुट मेरे में, या बस निस्पंद।

निज-समझ ही दुष्कर, यह तो फिर दुनिया है

स्वयं संचालन अति कठिन, ये सब तो और हैं॥

 

समस्त ऐसे विचारों से, बस निकला ही न जाए

क्यों क्या करूँ कैसे मैं, कुछ कहा ही न जाए॥

 

स्वयं में हारा, एक पुरुष विजय-आशा में जीता

सर्वजनों से मम अनुरूप होने की करूँ आशा?

क्या जग में मैं ही एक ठीक, अथवा और भी हैं

फिर मुझमें भी कुछ गुण हों, आकर्षित हों वे॥

 

मैं हूँ स्वस्थ मन-स्वामी या गलती ढूँढ़ने का यंत्र

या मानव-दुर्बलताओं से मेरा भी नाता है कुछ?

क्या हम परस्पर को सिर्फ, बर्दाश्त करतें रहेंगे

एक-दूसरे के, पूर्ण बनने में भी सहायक होंगे॥

 

पर कुछ भी हो, ठीक होना चाहिए हमारा मार्ग

मात्र मंजिल से अधिक रास्ते की करो परवाह॥

 

क्योंकि यह रास्ता ही तो असली मंजिल है

अगर तुम पहचान सको॥



पवन कुमार,
२१ अप्रैल, २०१४ समय २३:१२ म ० रा ० 
(मेरी शिलोंग डायरी दि० १७.०२.२००० समय म० रा० १ बजे से )

Sunday, 20 April 2014

द्वन्द्व और मेरा निर्णय

द्वन्द्व और मेरा निर्णय

 

एक अंधकार और एक प्रकाश है, द्वन्द्व है कि कौन उत्तम

देखते हैं कैसे गुफ्तुगू करते, और क्या निकलता निष्कर्ष?

 

मन में अंतः तक एक घोर अंधकार है, मानो नितांत शून्य

किंतु प्रकाश-किरण सर्वस्व कर देना चाहती दृष्टिगोचर।

अंधेरे ने तो मानो सब कुछ दोष-गुण निज में लिए हैं छुपा

पर प्रकाश भी कम न है, हर कोण-उपस्थित चाहे होना॥

 

फिर एक लड़ाई, एक छिपाना चाहता है व दूसरा दिखाना

एक कहता जैसे हो पड़े ही रहो, बाहर तो कोई देख लेगा।

किंतु दूसरा कहता, अरे डर कैसा, कोई खा न जाएगा तुम्हें

फिर सब तुम जैसे ही तो हैं, या अन्यत्र भी अधम स्थिति में॥

 

किंतु तमस है चालाक, डराता-धमकाता है कि अंधे रहो बने

जब तुम चक्षुहीन- अज्ञानी हो, तो चहुँ ओर सुख ही सुख हैं।

यहाँ तुमको कोई भी चिंता-कर्म करने की आवश्यकता न है

फिर भाग्य-देव ने भी तुम हेतु कुछ सोचकर प्रबंध किया है॥

 

लेकिन ज्योति तो सहमत नहीं, उसका कुछ और ही है मनन

भाई, औरों पर न सही तो कमसकम अपने पर खाओ रहम।

यदि दर्शन न भी कर सको तो, न्यूनतम अनुभव करना सीखो

क्या तुम्हें अनुभव नहीं होता, चहुँ ओर कितने बिछे हुए कंटक॥

 

पर तमस का अपना ही दर्शन है, ये कांटें आदि कुछ भी नहीं

यहाँ सब प्रयोग घटित, फिर सब संग कुछ त्रासदियाँ चलती।

फिर इसमें क्या कम ही आनंद है, गुजर हो जाता कमी में भी

और अबतक तो अतएव जीने-सहने की आदत पड़ गई होगी॥

 

किंतु प्रकाश आशावादी है, कहता कि क्यों हो इतने भाग्यवादी

अरे मूर्ख, क्यों सदा स्वयं को समझते हो बस हताश व मृत ही?

क्यों तुम्हें अंतः आशा-संचार और सकारात्मक अनुभूति न होती

क्यों कुछ बड़ा अच्छा करने, जीवन-सुधार की इच्छा न होती॥

 

कैसी इच्छा, कैसी सकारात्मक ही आशा, सब हैं झूठ ढ़कोसलें

ये सब तुम्हें बिलकुल ही व्यर्थ, व समाप्त कराने की साजिश है।

कभी ऐसे भी कोई बढ़ा है, किसी का मुफ्त में न कल्याण हुआ

जब नहीं रहोगे, आशा का क्या अचार डालोगे, तमस समझाता॥

 

अरे भाई, मुझे भी सर्वहितार्थ कुछ निज शुभ-कर्त्तव्य निभाने दो

चलो आप न सही सुधरो भी, कुछ परिचितों के तो नाम बता दो।

संभव है वे तुम्हारे जैसे, नितांत अभागे-निराश व संकुचित न हों

और कुछ सुबुद्धि आ ही जाए, प्रकाश ने कहा कुछ अप्रसन्न हो॥

 

तुम इस प्रकाश की भोली-भाली बातों में, बिलकुल ही मत आना

वह तुम्हारा और तेरे उन सुहृदों का, पूर्णतः विनाश ही कर देगा।

फिर मैं तो कदाचित सदैव से, तेरा शुभ-चिंतक व हितैषी हूँ रहा

मुझे छोड़ोगे तो निश्चित ही पछताओगे, अंधेरे ने कुछ रोब मारा॥

 

अरे भाई समझो, इस निज लघु-अपेक्षा में नितांत ही हूँ अस्वार्थी

पहले मैं भी कभी तुम सा ही, एक भीत व सशंकित अभागा था

किंतु किसी सज्जन ने आ, मेरी भयावह- वक्र शक्ल दी दिखा।

प्रथम तो डर ही गया था, क्या विश्व में शक्य इतना उज्ज्वल भी

और मेरा भी भविष्य कुछ सुधर सकता, प्रकाश ने सफाई दी॥

 

यह प्रकाश तुम्हें कहीं का न रखेगा, देखा न क्या उसका हाल

दिन में बड़ी शेखी मारता, किंतु संध्या बाद तो मैं ही महानृप।

और क्या देता ही यह लोगों को, सिर्फ दिन-भर काम में खटना

मैं मीठी-नींद सुलाता, बहलाता, लौरी सुनाता, अँधेरा मोहरा डालता॥

 

अरे भोले भाई, जरा चेतो, दृष्टि डालो मेरी इस किरण-दीप्ति पर

इससे ही तो तुम अपना, देख सकोगे अत्यधिक वीभत्स स्वरूप।

कदापि न सोचो, यह तुम्हें साँस लेने का कोई अधिकार ही नहीं

सर्व ज्ञानेन्द्रि-आविष्कार प्रयोग हेतु ही है, प्रकाश को आशा हुई॥

 

अंधकार कोई दाँव खोना नहीं चाहता, परंतु हो जाता है निराश

कहीं इस सरल-बुद्धू को, मुझसे छीन ही न ले यह चतुर प्रकाश।

तब तो मैं साम्राज्य-विहीन हो जाऊँगा, मुझसे दूर हटेगी प्रजा भी

फिर कुछ बूढ़ा भी हूँ, शिकार ही दूर चले गए तो मेरा क्या होगा॥

 

इस दीर्घ द्वंद्व में कुछ चेतना मुझमें जागी, उसने कहा अरे मूर्ख !

मात्र वाद-प्रतिवाद ही सुनोगे, या निज बुद्धि करोगे प्रयोग कुछ?

स्वयं जाकर क्यों न देख लो, क्या एक निश्चित तुम हेतु लाभप्रद।

संभव है वह एक चरण, मेरी वास्तविक अधो-स्थिति ही दर्शा दे

और मात्र इन व्यर्थ तर्क-वितर्क, द्वंद्व-संवादों ही में न रहो फँसें॥

 

तो सोचा अब निश्चय कर, देख ही लूँ इस एक प्रकाश-किरण को

संभव है कि मेरा पुराना दोस्त, अंधकार कहीं नाराज़ न जाए हो।

पर हो सकता निज पास रखने में, उसका कुछ बड़ा हो स्वार्थ ही

अतः प्रकाश-सान्निध्य में जाना, चाहे अल्प क्यों न, बुराई न कोई॥

 

तब मैं उठा, और अपने कभी नहीं खुलने वाले खोल दिए नयन

प्रथम तो अति पीड़ा थी, नाहक इनको क्यों दिया है इतना कष्ट?

पर फिर सोचा, अब कदम बढ़ा ही लिए हैं तो क्यों हटना पीछे

फिर जो भी होगा देखा जाएगा' -एक गीत-पंक्ति याद आती है॥

 

अब मेरी आँखें खुलीं तो ज्ञात, अरे हूँ एक स्थिति में अति-जर्जर

बुरे-फटे कपड़े-चीथड़ों में ही पड़ा, व मौत सा है सन्नाटा सर्वत्र।

इतना गया-गुजरा, पश्चग हूँ, यह तो कभी आभास ही न हुआ था

इतनी एक भयावह स्थिति में जी रहा था, व मुझे पता ही न था॥

 

अब निज मोटी बुद्धि पर तरस आता, कि क्यों पहले ही न चेता

कमसकम तन-वस्त्र, खाने-पीने का, चाहिए था सुप्रबंध करना।

फिर ऐसे एक अंध-प्राण से क्या लाभ, जहाँ अस्तित्व ही अज्ञात

और मैं मूर्ख अज्ञात, कब से इस घुटन-स्थिति में लेता रहा साँस॥

 

अब स्वयं को इस खुले प्रकाशित विश्व में, विचारता ही हूँ एकरूप

सत्य में लगता निश्चित ही, जीवन-निर्वाह करना ही चाहिए उत्तम।

फिर निज भौतिक-आध्यात्मिक परिष्करण का, सबको अधिकार

पूर्व इस अंध में दीर्घ रहकर, मैंने आत्मा भी कर ली थी कलुषित॥

 

तब मैंने दृढ़ निश्चय किया यह निज स्थिति प्रतिक्षण ही सुधारूँगा

व्यर्थ किसी बहकावे में न आकर, निज यथार्थ स्थिति पहचानूँगा।

प्रकाश को अति-धन्यवाद, उसने मुझे नरक से निकाल ही दिया

और अब अनेक आत्मवत-जीवनों में, एक कांति-किरण बनूँगा॥

 

तब इस द्वन्द्व-अंत में, अंधकार अतिशय शरमा कर जाता भाग है

और फिर चला गया अपने किसी नए शिकार के ही अन्वेषण में।

किंतु ज्ञात कि एक प्रकाश-किरण, सर्व तमस को कर देगी बाहर

और फिर ये सरल विश्वजन, अंदर-बाहर महका सकेंगें सब कुछ॥



पवन कुमार,
20 अप्रैल, 2014 समय 01:10 म० रा० 
(मेरी शिलॉंग डायरी दि० 26.02.2000 समय 01:25 म० रा० से )  
   
  

Wednesday, 16 April 2014

चिंतन असमंजसता

चिंतन असमंजसता 
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कैसे करूँ आरम्भ और क्या लिखूँ , बहुत गहन असमंजसता है।  एक शब्द को लिखने लिए मानो कई सदियाँ लग रही हैं। कैसे इस समय का सदुपयोग हो ? मन , बुरी तरह की जड़ता, जो मेरे मस्तिष्क में इस समय घर की हुई है , को दूर करने के प्रति प्रयासरत है। परन्तु प्रयत्न क्या होगा और क्या अगली पंक्तियों की दिशा होगी, कुछ भी तो सोच पाने में असमर्थ हूँ। मेरी यह बेबसी और तड़पन क्या हैं और क्या इसका रहस्य है ? क्या यह केवल स्थूल शरीर में स्थित मस्तिष्क की अनेक क्रियाओं में से एक है या फिर किसी भयंकर कमी को इंगित कर रहा है। या कोई अजनबी शख़्सियत, जो मुझसे कहीं अधिक शक्तिशाली और सवेंदनशील है, मुझसे  कुछ ज्यादा ही चाहता है। फिर क्या यह खुद को समझने के लिए और फिर न हो सकने की अवस्था में स्वयं में उलझना ही  है और कदाचित अविवेक की स्थिति में स्वयं का स्वयं से टकरना है। फिर मैं क्या हूँ, उसकी परिभाषा क्या है और इस विषय को समझने में जितना प्रयास अपेक्षित है, उतना मैं रख पा रहा हूँ ? इसी तरह के विचार में मग्न हूँ और स्वयं की बोझिलता को दूर करने के लिए एक ही मृगतृष्णा में भटकता हुआ उन्हीं - उन्हीं विचारों में केंद्रित हूँ।  फिर अगर परमात्मा नामक कोई शक्ति है तो उसे किस तरह अपने मन का मीत बना सकता हूँ और किस तरह उसमें या उसे स्वयं में अंगीकार कर सकता हूँ ? इस तरह के संवाद भी यदा-कदा इस मन में उगते हैं पर शायद सशक्त जिज्ञासा का अभाव है और प्रयत्न तथा कर्त्तव्य पथ पर बढ़ने के लिए एक अदम्य आत्म-शक्ति की क्षीणता है तो भी असमंजसता की यह स्थिति है कि तड़पता भी हूँ।  यह तो उस दीन- हीन की सी स्थिति है जो आप स्वयं कुछ न करके केवल दूसरों को उसकी सहायता न करने के लिए उलाहना देता है। प्रभु ! मुझे अपने सही मार्ग पर बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करें। 
धन्यवाद। 


पवन कुमार ,
16 अप्रैल, 2014 समय 20:47 सायं 
          (मेरी डायरी दि ० 14.10.2000 से )         

Sunday, 13 April 2014

सबका भाग्योदय

सबका भाग्योदय 


आज फिर दर्द सा उठा हृदय में, कैसे हो सबका भाग्योदय

कैसे बढ़ें खूब सब साथ-साथ ही, रहें प्रसन्न-संपन्न व निर्भय?

 

आज जीवन-अभाव सर्वत्र दर्शित, क्या उनके प्रादुर्भाव-कारण

क्यों न सारे मनुज सम बनें,  कष्ट ही तो है हो जाने का असम।

निर्धन- जनों का चूल्हा तक नहीं जलता,  बच्चे विद्या न हैं पाते

मात्र घोर कष्टों में ही हरपल बीतता, राहत क्षण भर नहीं पाते॥

 

यह दुनिया है कुछ नेता-धनी-बाहुबलियों का एक साम्राज्य सा

किंतु निज तो सब अदर्शित,  बस  नियति है गालियाँ ही खाना।

क्यों घोर प्रपंच कर्ज का,  दरिद्र-असहायों के मँडराता सिर पर

मेहनत- मजदूरी करके भी,  सम्मान पूर्वक नहीं पाते पेट भर॥

 

अनेक नियम बने गरीब के हक़ में, पर कितना उनपर है पालन

कितनी उन हेतु दया समर्थों के मन में,  यह सब उनपर निर्भर।

फिर प्रश्न यहाँ रहम का भी न, अपितु मान मनुज-अधिकारों का

किसी पर कोई दया न चाहिए,  व क्षमता भी न रहनुमादारों में॥

 

सबको तुम निज समकक्ष पाओ,  सर्व-प्रगति हेतु सदाचरण करो

हृदय में हो परस्पर-आदर, भेदभाव रहित समता-वातावरण हो।

उत्तम जीवन हो सभी का, जिसमें कोई भी नहीं साधन-अभाव हो

यह अभाव भी यदि हो कुछ समय,  पर विकास-प्रेरणा साथ हो॥

 

चलें साथ हम कदम मिलाकर ही, गिरते हुओं को भी लेवें संग

सकल विश्व प्रति कर्त्तव्य हमारा, ऐसा प्रतिफल में चल लें हम॥



पवन कुमार, 
29 मार्च, 2014 समय 6:39 सायं 
( मेरी डायरी दि० 6 दिसम्बर, 1998 से )  

Wednesday, 9 April 2014

मेरा बदलाव

मेरा बदलाव 


मैं बना हूँ, नाना-नाना आकार-प्रकार का ही

इसी जीवन में बहुरूप देख लिए स्वयं के ही॥

 

मैं बदलता रहा नित्य ही स्वयं से, इस जगत से

हर पल बस मरता रहा, स्वरुप लेता रहा दूजे।

न समझ पाया ही, अवतरण निज बारम्बार यह

सिलसिला ऐसा कि चलता रहा बिना अवरोध॥

 

ऐसा भी क्या है जो बदलता, बिन मुझसे पूछे ही

क्यों करता है ऐसे जब बदलाव हेतु तैयार नहीं?

क्या यही है जीवन-निरंतरता या अपक्षय इसका

मेरा वजूद फिर क्या है, या मात्र हूँ पात्र-घटना?

 

कितने ही बिखराव होते, स्वयं के मैं देखता रहा

निमग्न-संज्ञाहीन, अचंभित व कुछ हास्यस्पद सा।

कपास-रेशे ज्यूँ हवा में, इधर-उधर उड़ता रहा

मैं असहाय सा, निज दैव पर मनन करता रहा॥

 

कितने बिछुड़े स्थायी, व कितने ही आके हैं मिले

बिन बताए सब होता रहता, हम होते या न होते।

अनेक सखा-संगी, अब बड़ा वक्त हो जाता देखे

अनेकों को तो हम मन व जीवन से निकाल चुकें॥

 

आज न हमको उनमें रूचि, व उनको हममें नहीं

कुछ काल हेतु सहयात्री थे, अब न याद नाम भी।

यह कैसी यह जगत-रीत, हम कटते हैं निज से ही

नए जुड़ाव भी होते हैं, पर कुछ बाद हटने हेतु ही॥

 

हमारा मन जो वपु में ही, रंग बदलता ही रहता है

निरंतर चलायमान रहता, बिना हमारी आज्ञा के।

स्वयमेव निर्णय लेते, क्या अच्छा या बुरा उस हेतु

मूक-बधिर बने देखते, कभी खुद को या मन को॥

 

सोच भी निरंतर बदलती, कभी तो ध्येय ही उत्तम

बहु-काल तो ज्ञात ही न, कुछ अपघट हो रहें हम।

हम मात्र, महाप्रकृति-चंचलता के खिलौने हैं उसी

मोहरा सदा बनते रहते, चाल व खेलों का उसकी॥

 

शैशव तो बीता, उसमें भी रंगों की क्या कमी थी

गर्भ संग ही आ गई, निरंतरता नव-विकास की।

तन बढ़ा, अंग बनें, ज्ञानेंद्रि आईं, जन्म को उद्यत

माता को कभी प्रसन्न-दुःखी या तो बहु-उद्वेलित॥

 

बाहर जग में आकर अदाओं से, कई किए प्रसन्न

कभी रुदन से तो, किया सबका ही जीना दूभर।

पारिवारिक-स्थिति में नित्य ही, कुछ अवश्यंभावी

जन्म-मृत्यु व सुख-दुःख का क्रम चल रहा कभी॥

 

मैं नन्हा आँखें फाड़े देखता, क्यूँ हो रहा यह सब

अनेक शोक-खुशी, उद्यमता व विषाद भी अन्य।

मैं सदैव बदलता रहा, देखता जग-व्यवहार सब

अपनी भी तैयारी करता रहा, अनेक प्रयोजनार्थ॥

 

पहले बस गोद या खाट में, या घुटनों बल रेंगता

शनै खड़ा हुआ, यदा-कदा पुरा-रूप में लौटता।

दाँत आए, देह बढ़ी, चलना व विचार-भाव आऐ

पुराना कुछ मर ही गया और प्रवेश हुआ नव में॥

 

कुछ और बढ़ी जिम्मेवारी थी, तख़्ती-किताब ली

शिक्षिकाओं का साथ लिया, विद्यालय की राह ली।

बुद्धिमता से हुआ परिचय, अनपढ़ मैं मर ही गया

पर विस्तृतता-साम्राज्य में, महज बस प्रवेश हुआ॥

 

घर से निकल पड़ोस में, गली-गाँव से संपर्क हुआ

वह भी सीमित ही, बहुतों में तो अब तक न जाना।

परन्तु मैं बदलता ही रहा, सभी असरों से मुझ पर

सदा सोचता रहा, क्या और क्यों हो रहा यह सब॥

 

कुछ बुद्धि स्वयं आई, सतत परिवर्तन होते रहें पर

मेरे करने से श्रेष्ठ होगा या न, सोचता ही रहा यह।

कुछ निर्णय लेने में हुआ सक्षम, पर जग विशाल है

जीवन निज अनुसार बढ़ता गया, अपनी दिशा में॥

 

कुछ और बढ़ा तो ज्ञात, कि अनित्य संसार कितना

अनेक हैं समारोह-आयोजन, और इच्छा-अनिच्छा।

कोई इस या अन्य बंधन में, छटपटाता मुक्ति लिए

किस-२ की बात करें, और सब अपने में त्रस्त वे॥

 

फिर जीवंतता का क्या हुआ, जीते रहें सदा मरकर

आज यह प्रयास, कल दूसरा, कुछ समझते हैं बस।

मेरे दृढ़ मन-भाव का, कोई अस्तित्व न इस जग में

कुछ कार्य कर रहता, हेतु उस विशाल तंत्र चलाने॥

 

अनेक सखा बनें, बिछुड़ें, शत्रु बनें व हटें भी बहुत

अनेकों से कोई संपर्क न, आज बड़ा निरपेक्ष भाव।

मन-असीमिता पर घटनाऐं, सदा प्रभाव डाल रहीं

वह अकेला कितना चले, किसी का न है साथ भी॥

 

हर रोज के संघर्षों में हम, नित्य रूप बदलते रहते

सर्व-प्रतिबद्धता के बावजूद, अनवरत गतिमान हैं॥

 

धन्यवाद। पूर्ण भाव से नहीं कह सका, फिर कभी॥


पवन कुमार, 

9 अप्रैल, 2014 समय 12:01 म० रा० 

(मेरी डायरी दि० 28 मार्च, 2014 समय 12:35 म० रा०  से )  

Saturday, 5 April 2014

नींद के पार

नींद के पार 


फिर चला है एक मस्तिष्क-हिस्सा, अपनी बात मनवाने को

नींद तुम्हें तब क्यों आती है, जब इतना कुछ है बतियाने को?

 

मेरे चारों तरफ तो घन अंधकार ही, वातावरण भी है निस्तब्ध

क्या यह तुम्हारे लिए अवसर नहीं, और छोड़ देने का आलस।

पढ़ा था 'मैन ऑफ़ नेशंस' में, कि पुरुष जो देश को बनाते हैं

उनको जागना ही पड़ता, जब और जन सुख से सो जाते हैं॥

 

फिर तुम सोते हुए लगभग मर से जाते हो, अंत सी जीवंतता है

हाँ कुछ सोना भी आवश्यक है, उत्तम स्वास्थ्य-चिंतन के लिए।

परंतु यह सोना भी उतना मात्र हो, जितना है नितांत आवश्यक

क्योंकि बचे समय का प्रयोग संभव है, अनेक पड़े कार्य उत्तम॥

 

एक मनुज निद्रा-भोजन निर्धारित कर सकता है अनुरूप अपने

दोनों की अति अपकारक है, माना अनिवार्य पर सही मात्रा में।

'आराम हराम है', जवाहर लाल नेहरू ने दिया एक चर्चित नारा

प्रायः उद्धृत करते थे वे, Robert Frost की निम्न ही पंक्तियाँ :

 

'Woods are dark & deep, but I have promises to keep.

Miles to go before I sleep, & miles to go before I sleep'

गहन अर्थ है पंक्तियों का, इनमें Promises व प्राथमिकताऐं क्या

क्या प्रतिबद्धताऐं लक्षित हैं, उससे भी अधिक आपकी सोच क्या?

 

'Woods are dark and deep' का अर्थ है,

इस जगत में बहुत ही आनंद है, रमा जा सकता उनमें स्वतः ही

पर राह ढूँढ़नी हैं अपनी तुम्हें स्व व जीव-जगत के हितार्थ महद,

क्योंकि यह जीवन-वर अत्यल्प अवधि का, और कार्य हैं अधिक।

 

एक बार डॉ० अम्बेडकर से पूछा गया कि इतना कार्य क्यों करते हो तो उन्होंने उत्तर दिया जब समाज-देश इतना पीछे है तो क्या मुझे इसके विकास में अपनी सारी ऊर्जा नहीं लगानी चाहिए। नेहरू के बारे पढ़ा था कि वे रात को बहुत देर तक अध्ययन करते थे। गाँधी रात को १२ बजे तक कार्य करते थे और फिर सुबह चार बजे जाग जाते थे। इंदिरा गाँधी के बारे में सुना है कि वे २२ घण्टे तक कार्य कर लेती थी, व आराम वे यात्रा के दौरान ही गाड़ी में करती थी।

 

तो क्यों नहीं अपना कार्य करने में पूरी शक्ति लगा सकता

क्यों हर जीवन-क्षण को, उसकी कीमत से न भर सकता?

जीवन महान संभव, फिर सच्चा प्राण-संवाहक बन सकूँगा।

 

जीवन में तुम प्रश्न करना सीख लो, उत्तर तो मिल ही जाऐंगे

उत्तम नरों से मित्रता होगी, तो मार्ग और आसान हो जाऐंगे

निज-शक्ति संग्रह हों न कि अपव्यय, निग्रह हों इंद्रियों के॥

 

मन में जो शुभ सोचो, कोशिश करो पूरा करने की उसको

पर 'सोचना ' भी पवित्र हो, किसी हेतु भी गलत मत बोलो॥

 

सबका निज-चरित्र, अन्य-टिप्पणी की है अनाधिकार चेष्टा

कहीं न कहीं सब निर्बल, परस्पर को सबल बनाए यत्न से॥

 

चलो अब सो जाओ धन्यवाद। अलविदा, शुभ रात्रि, प्रणाम॥


पवन कुमार, 
5 अप्रैल, 2014 समय 12:40 दोपहर 
( मेरी डायरी शिलौंग 26 जनवरी, 2000 समय 2 बजे रात्रि से )  

Friday, 4 April 2014

मंज़िल


मंज़िल 


मस्तिष्क भारी, पर इसका आंदोलन तो है जारी

जीवन-सार्थकता के लिए ही, मेहनत है ये सारी॥

 

यद्यपि व्यस्त रहता, चाहे पूरा परिणाम न निकले

जीवन नाम सिर्फ गति, चाहे क्यों न प्राण निकले॥

 

गर्मी-बेहाली, ऊपर से बिजली-गुल जान सुखाती

पर बाधाऐं होती कर्मों में, हमें तो मंजिल दिखे ही॥

 

पर 'मंज़िल' क्या नाम है, प्रश्न यही बड़ा विशाल

उसी हेतु ही तो हुआ, जीवन का यह तंग हाल॥


पवन कुमार,
4 अप्रैल, 2014 समय 00:13 म० रा० 
(मेरी डायरी दि० 8 जुलाई, 1998 से ) 

Wednesday, 2 April 2014

गुजरता वक्त

गुजरता वक्त 


यह वर्ष समाप्ति पर आ गया है,  तैयारी विदाई कहने की

नववर्ष आगमन-खुशियाँ, प्रेरित करती हैं गत भुलाने की॥

 

शुरू हुई एक निमंत्रण-ऋतु, चाहे हो क्रिसमस या नववर्ष

चलो तब बाँटें खुशियाँ,  कहें हरेक को नववर्ष मंगलमय॥

वर्ष बीता गया मात्र छह दिन शेष,  क्या वृतांत किया मनन

क्या बस मन-विस्मृत, या कर लोगे किसी पृष्ठ पर अंकन॥

 

सफ़र तो छोटा न जिंदगी का, जरुरत बस अनुभव करना

निज को परिभाषा देना, और सर्व जगत को ही समझना॥

कितना औरों को बनाते शिक्षित, व खुद शिक्षार्थी कितना

फिर 'शिक्षा' के क्या मायने, और क्या अपनाते हो दीक्षा॥

 

आया था प्रथम जनवरी को, बीत गया है यूँ जैसे हो ही कल

किंतु गर्भ में छिपा ले गया,  अनंत इतिहास को बना अंश॥

 

भारत-सरकार बदली, वाजपायी आए गुजराल साहब बाद

प्रबल ही थी जनाकांक्षा, अलग पार्टी बनी है विधाता-भाग्य॥

आते ही झटके आरंभ, १३ पार्टियों की साँझी वैसे भी कठिन

पोखरण-२ अणु-परीक्षण, १९७४ बाद जगी महत्त्वाकांक्षा तब॥

 

विश्व-शोर तब पाक भी क्षेत्र में, किए परीक्षण व शुरू प्रतिबंध

दोनों निर्धन पर युद्ध अणु-बम स्तर, क्या होगा, सोचा है कब?

तुम्हारे नर भूखें कृपया दो निवाला, अशिक्षित हैं दो शिक्षा-बम

यह स्व-नष्टन की सोच, क्या मिला ५० वर्षों की लड़ाई में गत॥

आओ करो मेल, अभी समय, माफ़ न करेगा इतिहास वरन॥

 


पवन कुमार 
2 अप्रैल, 2014 समय 20:26 सायं 
( मेरी डायरी 25 दिसम्बर,1998 से )