आओ चलें हम मिल, कुछ देश-काल
की करें वार्ता
निज विषयों के अलावा,
बाह्य-विश्व की भी हो चर्चा॥
क्या करूँ मैं विवरण, जब सब
तो उसमें ही व्यस्त
सबको गरम खबर चाहिए, जो
पर्याप्त हैं उपलब्ध।
संचार मीडिया है अति-व्यग्र,
अपनी TRP बढ़ाने में
सब कहते वे ही श्रेष्ठतम,
जन- भावनाऐं प्रस्तुति में॥
मंतव्य व विशेषज्ञ-राय हेतु,
एक जमावड़ा है लगता
सायं बैठ जाते सब TV चैनल, राग अलापने
अपना।
सारी ख़बरें एक सी, मानो और
कुछ जमाने में नहीं
दर्शक मुग्ध हैं चर्चाओं से,
व किंचित आनंदित भी॥
जैसे इन चुनाव-ख़बरों ने, देश
को सिकोड़ दिया ही
सुबह-शाम बस, नेताओं के बड़े
कसीदें पढ़े जाते ही।
तकनीकी-क्रांति ने की है,
बड़ी सहायता इसे बढ़ाने में
अब लोग हैं बेचारे, कि इसको
सुने या उसको देखेँ॥
जब अत्यधिक बाह्य भी घटित,
क्यों न फिर है ज़िक्र
बहु-सकारात्मक बदलाव होते
हैं, नेताओं भी बिन।
क्या सारी सृष्टि चलाने का,
इन्हीं को ही जाता प्रश्रय
क्यों आमजन की कड़ी
श्रम-त्याग, जाते हैं विस्मर?
लगे दिन-रैन सब विश्वजन,
इसके ही कायांतरण में
पर राजनीतिज्ञ तो परस्पर
टांग तोड़ने में व्यस्त हैं।
सारा चुनाव प्रचार,
नकारात्मकता पर ही आधारित
जबकि भली-भाँति जानते, कितने
पानी में हैं कौन॥
सत्य है कि जितना होना चाहिए
था, हुआ न उतना
पर राष्ट्र विकसित होने में
तो, ज़माना बीत है जाता।
और बस नेता ही नहीं, हम सब
हैं फल-भागी इसमें
क्योंकि सबके करने से ही तो,
आते परिणाम अच्छे॥
फिर हमें वैसे मिलते नेता,
जिसके हम हैं अनुरूप
या फिर कुछ नेताओं ने,
प्रक्रिया कब्ज़ा ली सकल।
लोगों को न मिलती
बहु-सुविधा, कुछ चुनने की नए
लगता सब ही प्रत्याशी-चरित्र
कमोबेश, एक जैसे॥
पर नेता ही क्यों, सभी
क्षेत्रों में है कुछ का साम्राज्य
कुछ ही
राजनेता-उद्योगपति-घराने, हैं शक्तिवान।
उनकी नीतियों से चले है
तंत्र, वे नितांत अस्वार्थी न
माना उससे आमजन का भी हो
जाता है कुछ हित॥
लगता खूब मेल है,
नीति-निर्धारकों व प्रभावशाली में
पर इससे आमजन के अहम
मुद्दें, गौण हुए जाते हैं।
प्रजा भी कभी प्रसन्न भी
होती, बाँटी जाती रेवड़ियों से
अन्यथा बहुदा उसका जीवन,
कठिन हुआ करता है॥
क्या बात इस झंझावात की, जब
सब ही हैं एक जैसे
कुछ फिर नव-प्रवेश चाहते,
प्रक्रिया में शामिल होने।
व सब संस्थाऐं सहायक,
शुभ्र-छवि बनाने में आपकी
लेकिन असली चेहरा तो कभी,
सामने आता ही नहीं॥
फिर क्यों छटपटाहट, नए
चेहरों के आगमन से कुछ
किंचित इससे पुरानों की,
रोजी-रोटी होगी प्रभावित।
पूर्णतया कब्जा सा है,
राजतंत्र पर खिलाड़ियों का बड़े
क्यों वे हटना चाहेंगे ही,
अपने चलते हुए साम्राज्य से॥
फिर चुनाव हैं, तो प्रजाजन
को कोई चुनना ही पड़ेगा
एक समुद्र-मंथन होगा, कुछ
अमृत व विष निकलेगा।
खेल यहाँ हम भी देख रहें,
कहाँ पर काल-चक्र रुकता
पर चाहते हैं हो कुछ नया,
शायद हो कुछ प्रजा-भला॥
पर अज्ञात, कब होगा आदर्श
भारत देश का निर्माण
जब सरकार का सरोकार होगा,
सबका ही कल्याण॥
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