कहकहों के शहर से, कहीं दूर
है बसेरा
तथापि दिवस-मिलन आतुर, सवेरा
मेरा॥
मैं ज्यों यूँ ही, स्वयं पर
झुँझला सा जाता
कभी जग से कुछ बहु आशा कर
लेता।
न समझा कुछ बुद्धिमता,
उत्पन्न हो कैसे
वरना तो चहुँ ओर फिर, अँधेरा
ही मेरा॥
चन्द लम्हों का ही तो, बस यह
है जीवन
जी लेंगें इन्हें तो, फिर
सफल है जीवन।
कैसे सीखूँ अदाऐं मैं, इस
प्रहेलिका की
फिर जानूँ तो हूँ कि ये सब
डेरा है मेरा॥
मुस्कुराने की आदत तो आनी ही
चाहिए
कहकहाने की बात भी सीखनी
चाहिए।
कैसे हो आगमन उन संतप्त
हृदयों तक
इसी प्रश्न का उत्तर-खोज,
गहरा है मेरा॥
फिर यूँ ही कुछ क्षण, हूँ
गुनगुनाता सा
गलत ही सही, दिल कुछ तो लूँ
सहला।
वरना लगेगा, कुछ जीवन जिया
ही नहीं
फिर क्या अच्छा या बुरा बतियाना मेरा॥
दुनिया है मेरी पर, इसका बन
न सका
अपनी धुन व जीवन कुछ समझ न
सका।
अपने को भी अति संयमित कर न
सका
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