ये कहानियों की बातें हैं,
पर कही ही तो जाए
कैसी-२ होंगी तरंगें, कुछ
अनुमानी ना जाए॥
या चलता-फिरता रोबोट, या कुछ
हूँ संजीवन
या फिर बैटरी-चालित, या
स्वप्न में ही भ्रमित?
मैं कौन-कहाँ से, और क्या
हूँ, प्रश्न विशाल है
जीवित भी या मृत, कुछ आभास
हो तो जाए॥
या फिर अपने-आपमें गुम, या
अन्य-संचालित
या कुछ सोच का पुट मेरे में,
या बस निस्पंद।
निज-समझ ही दुष्कर, यह तो
फिर दुनिया है
स्वयं संचालन अति कठिन, ये
सब तो और हैं॥
समस्त ऐसे विचारों से, बस
निकला ही न जाए
क्यों क्या करूँ कैसे मैं,
कुछ कहा ही न जाए॥
स्वयं में हारा, एक पुरुष
विजय-आशा में जीता
सर्वजनों से मम अनुरूप होने
की करूँ आशा?
क्या जग में मैं ही एक ठीक,
अथवा और भी हैं
फिर मुझमें भी कुछ गुण हों,
आकर्षित हों वे॥
मैं हूँ स्वस्थ मन-स्वामी या
गलती ढूँढ़ने का यंत्र
या मानव-दुर्बलताओं से मेरा
भी नाता है कुछ?
क्या हम परस्पर को सिर्फ,
बर्दाश्त करतें रहेंगे
एक-दूसरे के, पूर्ण बनने में
भी सहायक होंगे॥
पर कुछ भी हो, ठीक होना
चाहिए हमारा मार्ग
मात्र मंजिल से अधिक रास्ते
की करो परवाह॥
क्योंकि यह रास्ता ही तो
असली मंजिल है
अगर तुम पहचान सको॥
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