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Sunday, 31 August 2014

क्यूँ कि खोज अभी जारी है

क्यूँ कि खोज अभी जारी है 


शांताकारम, विश्रामावस्था, एकचित्त व मननोद्यत

अनंत गहराईयाँ जाना चाहूँ, जहाँ सब सीमा-मिट॥

 

परम शांत तो न कह शक्य, चलित होते ही हैं अंग

यत्न करता एक विशेष-मुद्रा, व निरंतरता-वाहक।

'स्वामी मस्तिष्क' कथन, कैसे शांत करें अंग-प्रत्यंग

तभी लब्ध मन-एकाग्रता, व अधिक करने का बल॥

 

देखो मनन-ध्यान से ही तो, स्वयं-विजयी सकते बन

चित्त-शुम्न, तन-पुष्टता, श्रेष्ठ वातावरण दे सकती वह।

कहीं खो गया हूँ स्व-सोच में, बाह्य की चेतना न कुछ

क्या परम-चिंतन करते ज्ञानी, सब ही तो अचिन्हित?

 

बड़े शब्द ज्ञानी-मनीषी, चिंतक-विद्वान व भक्त-सन्त

कथन है ज्ञाता बैठते ध्यान, हेतु अनुभूति करने परम।

पर क्या वह चिन्तन-मार्ग, और कैसे उसे वे हैं साधते

उनमें कितने विश्वसनीय, कुछ पा ही लिया है सच में?

 

प्रश्न उन्होंने क्या साधा, और कितने वे हुए हैं सफल

क्या सत्य मनन उस अवस्था में, या यूँ ही नेत्र हैं बंद?

क्या अध्याय-पाठ-उपाय, जिनका सतत ध्यान करते

व उत्तरोत्तर उर्ध्व-अवस्था में नित चलायमान रहते॥

 

कितना सघन अंतः-जगत, पर बाह्य हम हैं अति क्षुद्र

कैसे हो उनमें सामंजस्य, बल-प्रदायक है वह सक्षम?

कर्कश-वाणी, 'यदा तुष्यते तदा खिन्नते' सी स्थिति में

सम दर्शन तो न समक्ष, कैसे महानता का दंभ भरते?

 

शायद कुछ मानव हों, जो एकभाव में निर्वाह हैं करते

विजित कर लिया हो, दुर्वासनाओं व कर्मों को अपने।

मेरा अभी तक न परिचय है, ऐसी आत्माओं से महान

तथापि संभव कुछ है, प्रयत्नों से स्वामित्व किया ग्रहण॥

 

फिर मन का दर्शन कैसा हो, यह एकांत-लाभ उठाऊँ

बहुत खोखला अंतः तक में, कुछ ठोस न कर पाता हूँ।

दशा मात्र सकल तंत्र में नगण्यता का ही कराती परिचय

पर अभी क्षणों में तो जग-अस्तित्व भी न आता है नज़र॥

 

फिर सत्य कि यह जग भी तो, मुझसे बड़ा जुदा नहीं है

जैसा मैं मुर्दा, वह भी वैसा ही बस कयास स्थिति में है।

कुछ को अनुभव स्थिति ज्ञात हो, अनेक चरम-भ्रम में

मनीषी जानते सब है माया, सब शामिल इस खेल में॥

 

यह मेरा ही चिंतन-रूप है, या और भी भ्रमित अतएव

संभव मन स्थापित हो गया है, ऐसे भी मनन प्रकार में।

और भी औसत व्यवहार- ढ़ंग से, निज में विद्यमान होंगे

तुलना न चाहूँ मैं किसी से भी, सब स्वयं में महारथी हैं॥

 

यदि कुछ गुणी भी हैं, उनका विदित होना चाहिए मार्ग

उससे तो किञ्चित लाभ ही है, मुझे भी होगा पथ-ज्ञान।

प्रयत्न तो करता खाली क्षणों में, व स्वयं से करता बातें

पर क्या यह उत्तम-मद्धम, इसका कुछ भी न पता है॥

 

कहते हैं 'थोथा चना बाजे घना', क्या जग-ध्वनि ही ऐसी

क्या मात्र स्वाँग करते हैं, या फिर सचमुच में गंभीर ही?

यद्यपि कुछ व्यवहारों में, दिखते हैं संजीदा व समर्पित

किंतु प्रस्तुत क्षण तो, निरे ही सवेंदनहीन-अनिरूपित॥

 

फिर क्या जीवन-सार्थकता, जब सच में कुछ ही न है

मनीषी-व्याख्या निज है, पर मूल सत्य उससे ही परे।

इस अनंतता में हम, निर्जीव-अघड़ित पत्थर से हैं पड़े

इसका प्रयोग न तो उनको पता, न ही हमको ज्ञात है॥

 

मैं भी बैठा इस कथित ध्यान में, कोई जैसा भी कह दे

कहते परम रहस्य खुलते, व ज्ञान पा भी लिया उनने।

या कुछ क्षण-विभ्रम सा, कुछ अनुभव कर ही है लिया

या पहुँचे उस परम में, ओर-छोर अति-दूर जिसका॥

 

दिवस में चलन-विचरण है, अजीब व्यवहार करते हम

इनको जागृत-क्षण कहते हैं, पर निश्चित अति कमतर।

इतने लघु, ठीक से निज भाषा प्रयोग भी न पाते हैं कर

लेख-पठन, व्यायाम, मनन-संवाद तो हैं अति-मद्धम॥

 

कैसा गर्व स्व-विद्वता का, जब इतने हैं अल्प-विकसित

अन्यों को समझते क्षुद्र, जब स्व-स्थिति निम्नतर से निम्न।

कैसे करूँ मन-यत्न, और सत्य स्थिति को जाऊँ ही जान

फिर अच्छी हो या बुरी, किसी से कोई न है शिकायत॥

 

फिर मनन पर आता, कौन गूढ़ वस्तु इस चेतना-स्थित

क्या मार्ग दिखा सकती, यदि कुछ है सामर्थ्य निहित।

या यह बाह्य भाँति, एक मद्धम गति-वाहक व सामान्य

और कुछ भी अपेक्षित न, क्योंकि तो असमर्थ सी यह॥

 

इस सोई सी अवस्था में, कुछ मौत का साथी है लगता

क्यों नींद कुछ पूरी होने पर, अर्ध-स्वप्नों में खो जाता।

अभी तो आभासित कि अर्ध-चेतन, निस्पंद-मौन ही मैं

पर कह न सकूँ, स्थित हूँ सत्य ही सच्चिदान्द रूप में॥

 

प्रभु !, आकांक्षा-पंख लगाकर, उड़ान करा यथासंभव

मुझे सुस्वरूप से मिला, जो है निश्चित समक्ष से पृथक।

होने दे फिर युद्ध-भयंकर, प्रस्तुत और संभावनाओं में

अब नितांत सरल हो, निज औकात जानना चाहता मैं॥

 

यहाँ कुछ पंक्तियों से, यह कागज-पेट नहीं भरने वाला

इसे सतत हथोड़े-छीनी प्रहारों से, अनिवार्यता तराशना।

नहीं तो कैसे संभव सुमूर्त, इस अघड़ित प्रस्तर-खंड से

और तब स्थिति बनेगी कुछ बेहतर, विश्वास जम सके॥

 

कोई तो मुझे किसी उत्तम शिल्पकार के पास छोड़ दे

और उसे ठीक से समझा दे, कि क्या कुछ बनाना है ।

फिर परिवर्तित होगा, एक लकड़ी के कुन्दे से मैं वह

 कोई कुछ कर्म करके, उसमें प्राण-प्रतिष्ठा देना फूँक॥

 

तो बजने दो ढ़ोल-ढ़फली-नगाड़े, खड़ताल-बीन-मृदंग

यदि कोई सर्वशक्तिमान-समर्थ है, तो करूँ स्तुति चिर।

यदि न भी तो नहीं कोई चिंता है, बेहतर बेशक दो ताने

फिर भी भाव, अंतः-बाह्य के सुधारने का होना चाहिए॥

 

यहाँ कुछ सोचकर ही अन्दर से करता हूँ प्रयास-प्रयत्न

 बाहर वे अपनी बेहतरी हेतु, सदैव हैं कर्मयोग में सुरत।

 क्या तुम उनकी इसमें कुछ सहायता ही कर सकते हो

 यदि आवश्यक हो, कोई प्रश्न पूछने में भी न हिचको॥

 

मेरे उस मनन का क्या हुआ, ले चला था मनीषी-चर्चें

क्या वे भी मेरी भाँति शून्य ही हैं, या कुछ ढ़ोंगी उनमें?

या मेरे प्रयत्न में है कुछ न्यूनता, और मार्ग उनका श्रेष्ठ

तब भी सीखना अनिवार्य, बेहतर-आचरण हेतु कुछ॥

 

मेरी तूलिका यूँ चलती, कुछ अन्वेषण करने को निज

प्रयास किञ्चित नहीं रुके, व समस्त दिशाऐं हों भ्रमण।

निज विसंगतियों से परिचय, व प्रदोष सकल हों बाहर

और नव-अध्यायों का भी करें एक दायित्व से निर्वाह॥

 

मैं आया, खाया व खो गया इस जग भूल-भलैया में

इस लाड़ली की कर खोज, चाहे कुछ भी न पता है।

कर वह परम-आराधना, शायद मार्ग जाए ही मिल

 होंगे फिर वे अति-हर्ष के क्षण, जो हैं चिर-प्रतीक्षित॥

 

तब क्या मेरी प्राण-परीक्षा, और कौन वे हैं सुपरीक्षक

मेरे विकास हेतु सब उचित ही होगा, है विश्वास पूर्ण।

किंतु मैं न खोऊँ नींद में, कुछ सार्थक संवाद लूँ कर

जानूँ स्वयं को शीघ्र व अन्यों से भी ऐसी आशा कर॥

 

फिर आऊँगा जल्द ही, संग कुछ नव अध्याय-मनन

और देखूँगा कितना बहु खोखला अभी मुझमें लुप्त॥



पवन कुमार,
31 अगस्त, 2014 समय 00:04 म० रा०   
(मेरी डायरी दि० 31.05.2014 समय 12:58 अपराह्न से )


Wednesday, 27 August 2014

अपना - गणतन्त्र

अपना - गणतन्त्र 

भारतवर्ष में सामान्य, सहज प्रजाजन-अधिकार

आज ही के दिन प्रयोगार्थ किए गए थे स्वीकार॥

 

अनेक बेड़ियों के दौर से ही गुजरा यह आदमी

किसी रहम-दिल ने सोचा कि ये भी हैं आदमी।

वरन कुछ नितांत स्वामी थे, ईश्वर सा स्तर लब्ध

और अनेक तो बस थे, बेबस दशा में ही त्रस्त॥

 

किसी ने सोचा, आदमी-आदमी में क्यों है अंतर

क्यों कुछ को निम्न अथवा समझा जाता है उच्च?

क्यों न होते सबको उपलब्ध सभी अधिकार सम

क्यों निज को कुछ मानते ज्यादा ही बरखुरदार?

 

सम समाज से असमता का दौर ज्यों सबने देखा

तो कर्कशता से यूँ मानवता-कलेजा फटने लगा।

फिर श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ भेदभाव का होने लगा अवमूल्यन

कुछ लगे बढ़ने आगे, कुछ पीछे करते हाहाकार॥

 

फिर कुछ में निज-स्थिति से उबरने की इच्छा प्रबल

और चल पड़ा संघर्ष-रोष-अभिव्यक्ति का दौर तब।

सब घटित अत्याचारों को मिटाने का यूँ मंसूबा प्रखर

ताकि सबको मिले समुचित-समतामूलक व्यवहार॥

 

यह 'गणतन्त्र' नाम है, आम आदमी का उबार-नाम

सार्वजनिक उन्नति चाहे अल्प, किंतु तो भी अभ्रांत।

और फिर सर्वत्र हो, हर होनहार में प्रतिभा-विकास

 दूर रुढ़िता, अपढ़ता-निर्धनता, व अज्ञान-अंधकार।।


पवन कुमार,
27 अगस्त, 2014 समय 23:21 रात्रि      
( मेरी शिलोंग डायरी दि०  26 जनवरी, 2002 समय 10:40 से )  

Saturday, 23 August 2014

उलझन

उलझन 


मन-प्रणाली की, समझ की कुछ आशा है जगी

लगता है कि जल्द ही किंचित बात बन जाएगी॥

 

मैं आता जाने हेतु, कुछ गुनगुनाता हूँ मन में

इसी अंतराल-वास ही तो जीवन का नाम है।

क्या कुछ करूँ, इसे ठीक से ही बिताऊँ कैसे

इसी को समझने में ही, समय बीत जाता है॥

 

मेरी ध्वनि कहाँ से निकलती है, खोज जारी है

कोशिशों को ढ़ूँढ़ूँ कहाँ, यही कोशिश जारी है।

यह ज्ञान तो है, कि सब कुछ पास ही में है मेरे

पर अल्प-बुद्धि कारण समझ न, हूँ विडंबना में॥

 

जानता कि नहीं जानता कि क्या जानने है योग्य

फिर भी हिम्मत-ढ़ीठता है, जानने में हूँ व्यस्त।

प्रक्रिया सतत खोज की है, और विरोधाभासों से

कुछ ठोस निकास की कोशिश सतत जारी है॥

 

देखो तो सही कितना सहज, निज को समझाना

पर उतना ही मुश्किल है, अपने नज़दीक आना।

ज़रूर पास बैठूँ स्वयं के, चाहे निरर्थक-पुनरावृत्त

स्व-भक्त बनूँ, कुछ अंतः-पल बनाऊँ ही सार्थक॥

 

इसी आशा और धन्यवाद सहित॥


पवन कुमार,
23 अगस्त, 2014 समय 18:17 सांय 
(मेरी डायरी 07 जनवरी 2012 समय 11:42 से )





Sunday, 17 August 2014

भोर-संजीवन

भोर-संजीवन 


मेरे इस मन-क्षेत्र में अति-आह्लाद का प्रवाह करो

देह के हर रोम में तो पूर्ण जीवन का संचार करो॥

 

स्वयमेव आया मैं इस जगत, या फिर भेजा हूँ गया

किंतु सत्य कि असंख्यों को पार्श्व छोड़ यहाँ आया।

फिर यह संजीवन मिला है, अति रमणीय व रोचक

आओ इसको सहेज लें, और कर लें कुछ इज्जत॥

 

जीवन के उन्नत-रूपांतरण का, आत्म-प्रयत्न करो

तुरंत जागो, इसमें कुछ भले प्राण संचारित करो।

आत्म को परिवर्तित करूँ, सर्वश्रेष्ठ स्थिति में एक

करूँ तो ललित शब्द गठन-संकलन हेतु सुलेख

करूँ आराधना-चिंतन ही, निकालने को श्रेष्ठतम॥

 

इसे मुस्कान-सुवास तो दूँ, फैले तब ये ओर चहुँ

जलती एक मशाल बन, औरों को प्रदीप्त करूँ।

कैसे कर्त्तव्य जानूँ, क्या है उनकी सारणी बनाई?

तभी तो होगा उन पर, कार्यान्वयन और सुप्रयोग

परिणाम उत्तम आना तो, उसके बाद की स्थिति॥

 

अब जी लो, जिला दो और बना लो जीवन सुयोग्य

उठाओ प्रथमतः आत्म को, अन्य भी सीखें कुछ।

कवि रविंद्र तो, सूक्ष्म मन -अभिव्यक्ति तक जाते

कुरेद अपना अंतरतम, अति श्रेष्ठ बाहर ले आते॥

 

फिर क्या है दर्शन -पथ, जिससे कुछ सीख सकूँ

कुछ तो योग्य कर सकूँ, अन्तर स्वच्छ कर सकूँ।

बहु सामग्री जमा वहाँ, आवश्यकता है संभालना

पहचान को चिन्हित है करना, सहेजना-संवारना॥

 

उपयुक्तों का मान करना, और प्रयोग में लाने की

अंततः किसी भी भाँति, प्राण-सफल ही बनाने की।

जीवन को पूर्ण जीना ही तो, मनुज की है सफलता

कवि के मनोभाव लेख से ही है, उसकी मान्यता॥

 

मन व हृदय शून्य हैं, पर इनसे ही कुछ निकालना

सरस्वती-कृपा हो तो संभव, अपनी पहचान पाना।

तब श्रेष्ठ जन -संग होगा और श्रेष्ठ ही बाहर आएगा

प्रयास निरत रहे, काव्य सुंदर होता चला जाएगा॥

 

जाओ प्रकृति-गोद में, व मृदुल स्पंदन करो अनुभव

जागृत तब अप्रतिम चेतना, प्राण-काव्य हो सिहरन।

मन का भोर, तन का भोर, इस में नाचे मन का मोर

इस भोर का आनंद उठा, जगा दो सुप्त पोर -पोर॥

 

जब कलम हस्त में ली, तो कुछ श्रेष्ठ लिख डालो ही

चाहे बहुत रमण न भी बनें, प्रयास तो कर डालो ही।

बहुत-संभावनाऐं समक्ष हैं, न कोई निराशा-बात अतः

शब्द तो मिल ही जाऐंगे, प्रयास निज रखो अनथक॥

 

अनेकों ने इतिहास रचा है, अपने से बाहर ही निकल

तुम भी निस्संदेह विपुल करोगे, फिर आगे बढ़े चल।

सुरमय-चितवन, पुण्य-बुद्धि, सकल प्रेरणा हैं निकट

सब सामान उपलब्ध यहाँ, देरी किस बात की फिर?

 

प्रयास करो, और सुप्त बाल्मीकि को अपने जगाओ

पलट लो पन्ने, उठाओ लेखनी, कुछ लिखते जाओ।

पुरातन में ही नूतन छिपा है, उसके पास जाओ तुम

ढूँढ़ो-महकाओ आत्म को, व मुखर हो जाओ सर्वत्र॥

 

सब कुछ है निज-निकट, बस कमी तो पहचान की

चाहे विकसित कुछ कम, यही राह अग्र-गमन की।

मत बैठो हाथ पर हाथ धर, चले रहो विनम्र अनुनय

निज सफल बन, संगियों का भी जीवन करो धन्य॥

 

चलूँ ज्ञान-पथ व अंतः से बाहर निकालूँ गुह्य महानर

प्रज्ञान कि वह यहीं है निकट, व होगा शीघ्र संभव॥

 

कुछ और सुंदर, अनुनय, विकसित, मधुरतम, प्रेरणा

विशाल अनुभूति, अभिराम, अभिव्यक्ति, अनुशंसा।

मनोरम-दक्ष, सुवृत्ति, सुखकारी, प्रयत्नशील, जिज्ञासा

प्रकृति -प्रिय, कवि-हृदयागार से करो शब्द-रचना॥

 

धन्यवाद॥



पवन कुमार,
  17 अगस्त, 2014 समय 22 :59 रात्रि  
(मेरी डायरी दि० 29 जनवरी, 2012 से )

Sunday, 10 August 2014

कुछ एकान्त

 कुछ एकान्त 
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पता नहीं क्यों पिछले कई दिनों से डायरी को हाथ लगाते हुए डर सा लग रहा है। आज बहुत हिम्मत करने के बाद ही कलम को पन्ने के सीने पर घिसने की कोशिश कर रहा हूँ। इतना समय उपलब्ध होने के बावजूद मैं स्वयं से बहुत दूर पा रहा हूँ। मस्तिष्क का खालीपन शायद इस तथ्य का द्योतक है कि मैं स्वयं के निकट नहीं पा रहा हूँ। अपने प्रति कुछ ईमानदारी का निर्वाह करना चाहिए लेकिन इसको मैं इसको अमल में नहीं ला पा रहा हूँ। अपने को किस भाँति उत्कृष्टता के मार्ग पर अग्रसर करूँ, कुछ समझ में नहीं आ रहा है न ही अपने भूत, वर्तमान और भविष्य पर विचार ही कर रहा हूँ।

चारों ओर इतना कुछ घटित हो रहा है, मैं केवल संज्ञा-शून्य सा यूँ ही कुछ निहारता रहता हूँ। कुछ आभास, स्पंदन नहीं है तो लगता है मैं मुर्दों के शहर में आ गया हूँ जिसके मन-मस्तिष्क में कोई चेतना नहीं है। अपनी कोई चिंता नहीं है और न मन में कोई मंथन है। बस कभी किसी चर्चा का कभी-2 हिस्सा बन जाता हूँ वरना तो मैं शायद अपने को ही भूल बैठा हूँ। संसार में आया हूँ लेकिन संसारी नहीं हूँ। लोक की बात करता हूँ लेकिन उसे सुधारने का कोई यत्न नहीं है। संसार में लोग प्रयत्नों द्वारा अपने आस-पास को सुन्दर बनाने में लगे हैं लेकिन मुझे कुछ ऐसा नहीं लग रहा कि मैं योग्य हूँ और यदि हूँ तो उससे अपनी गुणवत्ता, क्षमता में वृद्धि कर रहा हूँ। क्यों मेरे कार्यालय का कार्य लम्बित है और क्यों नहीं उसे पूरा करने के अपना दिन-रात कर पाता ? क्यों नहीं मेरे मन में नचिकेता की जिज्ञासा आती और न ही अर्जुन की कर्मठता आती। क्यों अधूरे ढेर पर कुण्डली मार कर बैठा हूँ ? क्यों नहीं सही समय निर्णय लेता और क्यों कार्य के भार को बढ़ाए जा रहा हूँ ?

जिन योग्य व्यक्तियों के बारे चर्चा होती है वे निश्चय ही बहुत परिश्रमी रहे होंगे। मान सकता हूँ कि पिछले तीन दिन से स्वास्थ्य बिगड़ने (बुखार के कारण) अपनी इन तीन छुट्टियों का इस्तेमाल कार्यालय के कार्य नहीं कर पाया लेकिन पिछली चार छुट्टियों में भी कोई बहुत ज्यादा कार्य क्यों नहीं किया। मेरे भाई, ऐसा कैसे चलेगा। माना कि तुम्हारा दो साल का कार्यकाल पूरा होने वाला है लेकिन जिम्मेवारी इतने से तो पूरी नहीं हो जाती। अभी विभाग में बहुत दिन नौकरी करनी है अतः इसका भविष्य शायद अपना भविष्य है। परिश्रम इसमें अपना योगदान करेगा कि यह अधिक सुगमता, सुघड़ता और सुंदरता से चले। 

आज 15 अप्रैल, 2001 रविवार का दिन है। मैं कमरे में बैठा इस समय कुछ सयंमित होकर इस डायरी में अपने दिमाग के कुछ पल स्थाई रूप से अंकित कर देना चाहता हूँ चाहे वे बोझिलता से भरे क्यों न हो या फिर पश्चाताप के क्षण ही क्यों न हो। संसार में जिन मनुष्यों ने महत कार्य किए हैं, वे उन्होंने अपने अंदर कमी अहसास करके ही किए हैं। जब दुर्बलता सबलता में बदल दी जाती है, मानव का पुरुषार्थ कहलाता है। पर जीवन तो कभी थमता नहीं है, इसकी यात्रा तो सदा होती रहती है। जीवन क़र्ज़ के ब्याज की भाँति बढ़ता जाता है और अपने आगामी बचे हुए दिनों में से खर्च करता जाता है। शायद उस परम सत्य की ओर बढ़ाए लिए जाता है जिसमें सभी की मंज़िल है। पर मंज़िल पर पहुँचने से पहले पथ की पहचान भी तो आवश्यक है। मंज़िल क्या है और क्या हम उसे समझ सकते हैं ? प्रश्न विशाल है और उत्तर ढूंढने  की चेष्टा भी शायद उसी दिशा में एक कदम है। 

अपने को पहचानना और इस जीवन को उत्तम, अत्युत्तम बनाने की चेष्टा मनुष्य का सतत यज्ञ है। इस संसार से जो लिया है, उसका कुछ भाग वापस कर देना ही शायद हमारी इसके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। गौर से देखने की प्रवृत्ति डालो और सहज बनो - यही अभी के लिए मेरी सीख है। 


पवन कुमार, 
10 अगस्त, 2014 समय 20:21 सायं    
( मेरी शिलोंग डायरी दि० 15 अप्रैल, 2001 से )

Sunday, 3 August 2014

कुछ टूटे स्वर

कुछ टूटे स्वर 


टूटे स्वरों को गीत बना, फिर से जीवन की बगिया महका॥

 

अति प्रतीक्षा- आलम हो गया मौला, जरा प्रसन्नता-गीत गवा

प्रिया-आंसू तो पौंछ जरा, बेचारी के अधरों पर मुस्कान ला।

मुझे चाह नहीं धन-यश-बल की, चाहता प्रियतम से मिलना

अब और सहा न जाता ईश्वर, आकर जरा ग़म ही सहला जा॥

 

मुस्कान-काल था मेरे जीवन में भी, फिर इक बार समय ला

तेरे लिए मुमकिन सब कुछ, बस थोड़ी सी रहमत बरसा जा।

बौद्धिक रूप से पिछड़ सा गया, मुझको सद्बुद्धि दिलवा जा

कैसे विचारूँ- बोलूँ व चलूँ, कुछ जीवन के अध्याय पढ़ा जा॥

 

उसकी पीड़ा से कुछ घबरा गया, उसको तू कुछ ढ़ाढ़स बँधा

उसको दे सहने की हिम्मत, हरी-भरी ज़िन्दगी फिर से बना।

बिटिया मेरी का ध्यान रखना, बहुत कमी महसूस वह करती

उसकी परवरिश-जिम्मेवारी मेरी, कैसे करूँ, मार्ग बता जा॥

 

सुना है तू सुनता तो बहुत ही, दर्द-ए-दिलों की भाषा भी जाने

सहला गम दिल के मारों का, करुणा-मरहम लगाता ही जा।

कोई कहता राह बड़ी कठिन है, जब चल दिए घबराना कैसा

इतना कटा है आगे भी गुजरे, हिम्मत-दवा पिलाता चला जा॥

 

बरबस मैंने सोचा था एकदा, किस्मत को न दोष कभी दूँगा

जीवन तो रोने-हँसने का नाम, किसी से गिला न करता जा।

अन्य-आलोचनाओं में यदि सुख है मिलता, स्थिति सच-गंभीर

 सुयत्न से खोजो अपने शत्रु, निज-सुधार हेतु घिसता चला जा॥

 

अंतः मन को कर तू पावन-पवित्र, दूर कर व्यर्थ प्रवंचनाओं से

लेकर उज्ज्वलता का तू दीपक, चहुँ ओर प्रकाश ही फैला जा

तू इस अंधे की लाठी बन जा, लक्ष्य प्राप्ति हेतु राह दिखा जा॥

 

अँधेरा मार्ग बहुत है डराता, लगा सब्र-हिम्मत टूटी व मैं डूबा

पर ध्यान आया तू साहस-पुँज निकट ही, मन क्यों क्षीण बना?

कल्याणक, जगत अर्चना करता, बहु विषाद पर तुझे सब पता

मैं सब तेरा ही अंश, प्रार्थना मन-स्वच्छता का झाड़ू चला जा॥

 

सुंदरता फिर क्यों मलिन पाता, अहसास दे हूँ पात्र सुधरने का

 तेरी कृपा बिन कुछ न सूझे, प्रार्थना चरण-कमल दास बना जा।

कठोर-कर्कश हूँ, जान से न कोई ममता, निर्मल-तनय उर बना

स्थिति में असहाय सा पाता, करुणाकरण रूप-ज्ञान करा जा॥

 

तुझे पता क्या आगे, तभी मुस्काता, छोटी बातों में समय गँवाते नर

कितने नासमझ-भोले सब, बरबस ही कुछ तो सिखाता चला जा।

प्राण-बगिया महका, कृपा-दास बना, न्याय-विश्वास दे कर्त्तव्य निभा

प्रभु, उषा-सौम्या को ध्यान-कृपा-स्नेह वरदान दो, व सहन-हौंसला।

 

धन्यवाद॥


पवन कुमार,
3 अगस्त, 2014 समय 18 :28 सांय 
(मेरी शिलोंग डायरी 14 जनवरी 2002 समय 11: 25 रात्रि से)