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Wednesday, 29 April 2015

प्रकृति-प्रकोप

प्रकृति-प्रकोप


जब प्रकृति ही हिंसक हो जाए, तो धरा निवासी कहाँ जाएँ

बहुत क्षण कष्ट-कारक हैं, मानव सोच न पाता क्या करें?

 

वृहद धरा, सर्वत्र जीवन-स्पंदित, पर खतरें अनेक विस्तृत

माने या चक्षु बंद कर लें, हर अग्रिम श्वास पर प्रश्न-चिन्ह है।

कुछ क्षणों में ही सब बदल जाता, माना जीवन था न कभी

अनेक जीवन-गृह-सम्पदा नष्ट, महद क्षति सहनी पड़ती॥

 

क्या कभी ध्यान से, नित घटित प्रकृति-प्रकोपों को है देखा

जब स्वयं पर आए तो ज्ञात, कितनी छुपी हुई है विद्रूपता।

जो माँ पोसती है, धराशायी भी करती, जीव में न युद्ध-बल

हाँ प्रबंधन से कुछ राहत लाभ, प्रकृति से झूझना सा वरन॥

 

अनेक प्राकृतिक आपदा-कहर, धरा-स्थल पर चलते रहते

आज यहाँ घटा तो कल वहाँ, यह चक्र विस्तृत सर्वत्र ही है।

मौत के चँगुल से तो न कोई बच पाया, शाश्वत खेल हैं विद्रूप

हाँ पूर्व से आशंका कम है, पर कई कारण जुड़े जीवन संग॥

 

भिन्न स्वरूप- भूकंप, सुनामी, तूफ़ान, ज्वालामुखी-दावानल

ओला-वृष्टि, ट्रेन-वायुयान-पोत दुर्घटना, सड़क-हादसें नित।

महामारी-व्याधि, अकाल-भूस्खलन, अति-वृष्टि, प्रकोप-बाढ़

फसल-तबाही, अर्धपके-फल पतित, दुर्भिक्ष व जल-अभाव॥

 

लहर में फँसना, समुद्री जहाज़ डूबना, वज्रपात, मेघ-फटना

विभीषण जलवायु, शैल सरकना, व वृक्ष-पर्वत से लुढ़कना।

संसाधन-अल्पता, जीव-स्पर्धा व खूनी युद्ध बर्ताव है आपस में

मंशा कि सारा जग हम ही घेर लें, और सब जाए भाड़ में॥

 

विकिरण कुप्रभाव, वायु-प्रदूषण, विषैला-धूम्र, व है मेघ-धूसर

आँधियाँ, चुँधियाती-जलाती गरमी, सब जीवन होता ही त्रस्त।

सबको सुविधा न उपलब्ध, बहुजन तो रहता खतरों में सदैव

पर कोई भी पूर्ण सुरक्षित न है, हर कदम पर खतरे अनेक॥

 

अनेक कारक सदा कार्यरत ही, नर को कुछ न अधिक ख़बर

पता भी तो रोधक कर में नहीं है, असहाय से देखते रहते बस।

बस घटित हानि को यथा-संभव कम करना, कर्म है बन जाता

आपसी-संवेदना, कष्ट-बाँटना, आत्मीयता ही बस में है होता॥

 

क्या है प्रकृति का खेल, शक्तिशाली, पूरी धरा डालती हिला

तबाही होती है बड़े पैमाने पर, प्रतिक्रिया-समय नहीं मिलता।

लोग बेसहारा से देखते रहते, समक्ष इतना कुछ जाता प्रकट

मन मसोस खून के घूँट पीते हैं, विद्रोह-ताकत बिलकुल न॥

 

हम क्षुद्र परस्पर लड़ते, क्रोध-मद में गुर्राते, इठलाते बल पर

रूप पर रीझते, संसाधन-गर्व, प्रतिभा-लोहा मनवाने का यत्न।

बड़े युद्ध, साथ मरने-जीने की कसमें, परंपरा की बात करते

बाँध बनाते, सुरक्षा-उपाय अपनाते, प्रकृति-विजय दंभ भरते॥

 

अनेक असहाय-क्षीण -भोले, अल्प तकनीक ज्ञान, साधनाभाव

बस आसपास सिर छिपाने का यत्न, क्या सर्वोत्तम हो न ज्ञात।

कुछ गारा-पत्थर-लकड़ी, घास-फूँस व अतएव नीड़ से बनाते

पर एक कड़ा हवा-झोंका आता, गिरा घोंसला धराशायी हुए॥

 

कल हिमालय में बड़े भूकंप (रिचटर ७.९) से नेपाल-भारत में हानि अति

दिल्ली तक झटके अनुभव हैं, नेपाल में २५०० से अधिक मृत्यु।

भारत में ५० तक जन स्वर्ग सिधारे हैं, यह तो अनुमान ही है बस

स्थिति धीरे स्पष्ट होगी, वास्तविक नुकसान का पता चलेगा तब॥

 

मध्य-नेपाल लामजंग भूकंप-केंद्र था, समय १२:१८ बजे दोपहर

भारत-भू भी धमकी बंगाल-सिक्किम-बिहार-उत्तर प्रदेश-दिल्ली-हरियाणा तक।

लोग घबराकर घरों से बाहर आ गए थे, स्पंदन पहचान थी सुस्पष्ट

मैं घर पर था शीनू-शम्पू संग, इस प्रकृति-झूले को किया अनुभव॥

 

विपुल ऊर्जा भूगर्भ से त्वरित निकलती, भारी वस्तुऐं विशेष हिलती

सख़्त-ऊँचे, अल्प-तनयता, भू-जुड़ाव, प्रभाग-योग से निश्चित क्षति।

पुरा काल से मानव विदित, कुछ रोधक विधियाँ आविष्कारित भी

अभी प्रयोग करना शुरू हो गऐं, एक विज्ञान है भूकंप-प्राद्यौगिकी॥

 

बहु-जनसंख्या, निम्न आर्थिक स्थिति है, नर निज ढ़ंग से घर बनाते

निर्माण-पदार्थ, अल्प-समृद्ध तकनीक, सब सुरक्षित नीड़ न पाते।

मंद-आर्थिक कारणों से लोग, कई असुरक्षित भवनों में ही रह लेते

विज्ञ-समृद्ध सुरक्षित निर्माण करते, यथा-संभव खतरें कम करते॥

 

समय संग नव निर्माण-सामग्री व अनुसंधान, प्रयोग भी होने लगा

खतरा कुछ स्तर तक कम हुआ, पर यह कुछ ही अंश-मानवता।

हर भवन को भूकंप-रोधी बनाना, सरकारों की नीति होनी चाहिए

लेवें जिम्मा संरचना-निर्माण का, ताकि सर्वजन सुरक्षित रह सके॥

 

प्राकृतिक-आपदा प्रबंधन से विभाग सतर्क हैं, जब भी हानि बड़ी

पर आम समय में भी दुर्घटना निवारण-उपाय हो, महत्त्वपूर्ण अति।

समय रहते विपत्ति- बचाव हेतु लोगों को, सरकारें करती हैं सजग

जीवन-दुर्लभ, बचाव अति-महत्त्वपूर्ण ही, नियम हैं बुद्धिपूर्ण कदम॥

 

अनेक क्षेत्रों में प्राकृतिक प्रकोप-विपदाऐं हैं, अन्यों से अधिक कहीं

वहाँ विशेष प्रबंध होने ही चाहिए, समय रहते रक्षा हो सके ताकि।

जान-माल हानि का रोध-कम करना, प्रकृति संग जीना-सीखना है

हम सब भी इसके तन्तु,  समस्त प्रकृति-क्रियाओं में सहभागी हैं॥

 

अनेक कारण संग में कार्य करते, मेल से ही है एक स्थिति विशेष

प्रकृति हेतु कुछ भी नया नहीं, यह उसका दिन-रात का है खेल।

मानव बहुत क्षुद्र है इस कड़ी में, किंतु दुष्प्रभाव में सहायक बहुत

उसकी कुछ आदतों का दंड सब भुगतते, उपाय सावधानी अतः॥

 

समूह समस्याओं में नित उलझते हैं, नई आपदाऐं बढ़ाती ही कष्ट

सामान्य प्रवाह टूट जाता है, रोने-पीटने में ही फिर बीतता समय।

कुछ शठ-लुब्ध ऐसे में भी लाभ चाहते हैं, चालाकी से लूट-खसोट

मानव मन कभी बड़ा निर्लज्ज है, चिता पर भी खाने का है प्रयोग॥

 

प्रकृति ज्ञान, अचाही-रोकथाम, ठीक-स्थान चयन, तकनीकी ज्ञान

श्रेष्ठ भवन-रचना विधि, प्रबलन तंत्र, सामग्री प्रयोग व ज्ञान प्रसार।

कष्टक-तथ्यों प्रति संवेदनशीलता हो, उपायों का प्रयोग वास्तविक

कुछ रोधन तो क्षति में अवश्यमेव करेगा, मूढ़ता से हानि वर्धित॥

 

माना कुछ ज्ञानार्जन व आपदा-प्रबंधन, अनेक विषय अंधकार में

अनेक सूचना-पूर्वानुमान प्रजा को अनुपलब्ध ही, विपदा हैं बढ़ाए।

बहु-प्रजाति स्थायी नष्ट होती हैं, जान-माल की तो क्षति अपूरणीय

यह प्रकृति-खेल अबाधित है, रोध असंभव, पर बचाव संभव कुछ॥

 

कालातीत बहुत रूप बदलें पृथ्वी के, जीव-अनुरूप है समायोजन

यहाँ पर जो भी जन्मता, कष्ट में मरता, रह-२ कर फिर लेता जन्म।

नर ने प्रकृति से कुछ सामंजस्य बनाया, तुम्हीं में मरूँगा, हूँगा पैदा

अज़ीब हठी यह मनुष्य प्राणी भी, कुदरत से ही आत्मसात हो गया॥

 

किंतु यह है लुक्का-छिपी का खेल भयावह, प्रकृति व जीवन का

पर मानव कुछ समय बाद, कटुतम अनुभव भी भूलने है लगता।

फिर जी-जुटता जोड़-तोड़ में, वास्तविक स्थिति समझता बखूबी

हम हारेंगे भी तुमसे ही विधाता, अपना क्या-यहीं का चून-पानी॥

 

अंततः तो इसी पञ्चतत्व में मिलना है, क्या दो दिन आगे या पीछे

जीवन एक शाश्वत खेल प्रकृति में, खाकर थपेड़ें जीना ही सीखें।

अपने से बली शत्रु से हार बुरा न लगती, परिणाम तो पूर्व-विदित

समय संग सब घाव भर जाते, पर गर्व-स्थिति में आ जाते फिर॥

 

यहाँ रहो प्रेम से, विद्वेष-घृणा-मत्सर-मद शक्ति तो ही ज्वलनक

हर वर्ष प्रलय आती किसी रूप में, नर शेष से करता पुनरारंभ।

फिर चेहरों पर मुस्कान-प्रयत्न भी है, जो चले गए न आऐंगे फिर

आप मरे जग-प्रलय', जब तक जीवन है बहु-सम्भावना तब तक॥

 

प्रकृति जीवन-संघर्ष देख फिर मुस्कुरा देती, पता क्या है घटित

आओ मिल एक समन्वय बनाऐं, सामर्थ्य व कुदरती शक्ति-मध्य

करो बचाव-प्रयास यथासंभव, रहें सब तैयार जब हो आवश्यक॥



पवन कुमार,
29 अप्रैल, 2015 सायं 6:56
(मेरी डायरी दि० 26 अप्रैल, 2015 समय 10:18 से)



Saturday, 25 April 2015

क्षेत्र-उपयुक्तता

क्षेत्र-उपयुक्तता 


श्रेयष-उपयुक्तता, हर क्षेत्र में अनिवार्य है नितान्त

कहाँ-किसका-क्यों-कैसे प्रयोग हो, प्रश्न विशाल॥

 

प्रयोजनार्थ कैसे बनें निपुण, उपयोगिता-वृद्धि क्षेत्र

जो उचित है सदा ही वाँछित, प्रयास हेतु उसी सब।

समुचित-उपयुक्त हेतु ही, युक्तियाँ सब बनाई जाती

थोथा झाड़ दिया जाता, अन्न-दानों निमित्त ही कृषि॥

 

कैसे व्यर्थता कम हो, ताकि उत्पादकता-क्षमता बढ़े

समृद्धि-विकास, उत्थान-वृद्धि का पथ चिन्हित करे।

दिव्य-दृष्टि ऐसी पाई जाऐ, जो लक्ष्य पर एकाटक हो

ढूँढ़े जाए कैसे वे योद्धा, जो रण-कुशल व समर्थ हों॥

 

हर आयाम में 'सर्वश्रेष्ठ युक्ति', जिसकी है ख़ोज नित

सर्व विद्यालय-प्रशिक्षण केंद्र, उसी हेतु कृत-संकल्प।

उपयुक्त-प्रशिक्षित उपलब्ध, विभिन्न जग-आयाम हेतु

मानव-क्रिया संग्रहित करना और उद्देश्य-मुखी सेतु॥

 

क्या विशेषज्ञता-दर्शन, कदाचित सर्वोत्तम बनना एक

बहुत आवश्यक जग यापन के, हेतु विभिन्न कार्य-क्षेत्र।

सब नरों में हुनर का बढ़ाव, विश्व को बनाएगा सुरमय

लक्ष्य परस्पर-पूरक बना, विविधता बस कार्य वितरण॥

 

सबकी निज अभिरुचि-शैली, एक-दूजे से पृथक करती

अपनी दिशा पारंगत होना चाहते, वह भी माना भली ही।

पर सोकर, प्रमाद में जन्म गँवाना तो न अति समझदारी

महद संकल्प समर्पण ही, पुरुष-जीवन की है कसौटी॥

 

कैसे ढूँढ़ते उपयुक्त पात्र, उन हेतु है मारा-मारी सर्वत्र

सब योग्य मित्र चाहें, नव-प्रशिक्षुओं को योग्यों में बदल।

माना कुछ प्रशिक्षित भी हों, तो भी है दक्षता-आवश्यक

 सतत तैयारी-वृद्धि, बड़ी भूमिका में भागीदारी सुनिश्चित॥

 

कार्य में कुशलता-प्रवीणता, आत्मार्थ सम्मान है दिलाती

पर हेतु कार्य करना पड़ता, मुफ्त में श्लाघा न मिलती।

चेष्टा वृद्धि, न्यूनतम सततता, उस विधा में निखार लाती

 सीखना सूक्ष्म दाँव-पेंच, जग-निर्वाह न इतना सरल भी॥

 

क्या हो सीखने का ढ़ंग, नहीं चलानी है धूल में ही लाठी

 पूछ लो सहकर्मी-प्रज्ञानियों से, कौन सी शैली है सुग्रहणी?

माना एक काल सब अनाड़ी, पर चेष्टा कुछ देती है सिखा

 एक उपयुक्तता-मार्ग है खुलता, उच्च-विचार करें प्रतीक्षा॥

 

विशेषज्ञ अपने क्षेत्र के धनी, अपने कर्म हैं बखूबी जानते

कहाँ-कैसे-क्या करना है, उचित पथ में ही ऊर्जा लगाते।

सूर्य-स्वभाव ऊष्मा-प्रकाश देना, रोशनाई चंद्र से शीतल

निर्मल पुष्कर-जल आनंद दे, मुस्काते कुमुदिनी-कमल॥

 

आम्र वृक्ष पर ही आम लगेंगे, कंटीली बदरी तो बेर देगी

पीपल-वट से गहन छाया, सूक्ष्म बीज से संभावना बड़ी।

चंदन द्रुम से सुगंधि, दुर्लभ- बहुमूल्य कुछ ही पा सकते

हर वन में तो न पनपते, गुण कारण बड़ी माँग हैं रखते॥

 

हर भुजंग तो मणि नहीं रखता, हर गज मुक्तक न बाँटता

हर चलने वाला ज्ञानी न होता, हर वृक्ष तो छाया नहीं देता।

हर शिक्षक नहीं है पारंगत, नचिकेता न होता विद्यार्थी हर

प्रत्येक न है न्यूटन-आइंस्टीन, तो भी प्रयत्न बनना कुछ॥

 

माना कुछ ही श्रेष्ठ, तो भी जगत-निर्वाह दायित्व सबका

स्व का योग्यतर-निर्माण, उपयुक्तता में वृद्धि है कराता।

जीवन समृद्ध बनाना गुणों में, स्व को तो देगा ही साहस

यह कायनात भी बेहतर बनेगी, अतः मिल करें प्रयास॥

 

किंचित संवाद स्व-स्थापन, महद लक्ष्य मस्तिष्क में बनें

उपयुक्तता सुनिश्चित करें, हर ओर विकास पुष्प महकें॥

 

धन्यवाद॥



पवन कुमार,
25 अप्रैल, 2015 समय 20:15 सायं 
(मेरी डायरी दि ० 19 मार्च, 2015 समय 10:29 प्रातः से )


Saturday, 18 April 2015

एक मुट्ठी आसमान

एक मुट्ठी आसमान 



एक मुट्ठी आसमान सबकी ख्वाहिश, जुड़ने असीमितता से

कोई वजूद निज का भी हो, कोई तो हो अपना कह सके॥

 

हर कोई लगा अपना दायरा बढ़ाने, माना चाहे सफल नहीं

जाने-अनजाने दूजों से जुड़ना चाहे, पर बहुदा अपनों से ही।

सम प्रकृति अलाभ पर एकाकी, अचाहा-कोलाहल असहन

फिर एक प्रखर सोच बन जाती, जो अन्यों से मेल खाती न॥

 

मिलना, बातें-गुफ्तगू-गप्पें, कहानी सुनना-सुनाना व मज़ाक

तर्क, स्व-पक्ष प्रस्तुति, मनवाना, रखना अन्य-मंशा भी ध्यान।

बहुत विविध प्राणी हैं जग में, कैसे उनसे हों सुसंवाद-संपर्क

अन्य सभ्यताओं से परिचय, विभिन्नों से भी करना मेलजोल॥

 

यह स्वार्थ-गर्व का त्याग है, करने बृहत्जगत से है साक्षात्कार

 जब हम कुछ छोड़ते हैं, बनता अन्य नवीन हेतु अंदर स्थान।

अन्य वह माना अनुचित भी, तो सकल सगुण न तुम्हारे पास

जैसे तुम हो वैसे अन्य भी, कुछ अच्छा और कुछ है ख़राब॥

 

कैसे दायरा वर्धन-संभव, जब स्वयं में ही हो अति संकुचित

माना प्रखरता विशेषज्ञ बनाती, सामान्य से तो बाह्य निकल।

जब सोचते अन्य श्रेष्ठ या भिन्न हैं, अपने को अकेला ही करते

बहुत बार समकक्ष न पाते, अतः निज परिधि सीमित रखते॥

 

पर आतंरिक ज्ञान क्यों न वृहद बनाता, अन्य भी हम जैसे

क्यों न लोगों के पास जाकर, पक्ष जानने की करें कोशिशें।

संभव है और भी पहुँचे हो, कुछ पारंगतता हासिल कर ली

या हों किञ्चित आत्मोन्नति-उद्धार मार्ग, श्रेष्ठ विधा ज्ञान की॥

 

हमारा अन्यों-भिन्नों से संपर्क ही, बढ़ाता है सोच का दायरा

और वृहद जीवन-मनुजता में, हमें पूर्ण-सम्मिलित कराता।

सर्व पक्ष समझ भ्रांतियाँ हैं तोड़ती, सामूहिक उचित में प्रवेश

ज्ञान-ज्योति पहुँच सर्वत्र, सुभग कि ज्ञान प्रसारण-परिवेश॥

 

यह खुलना-खिलना, सुवास-महक, लरज-मटक, चहकना

मुस्काना, प्रेमोन्मुक्त, मुदित-उन्माद, हँसना-खिलखिलाना।

भ्रमर सम निशा-कमल में शयन भी जरूरी, स्व-संपर्क हेतु

तथापि संपर्क, सांझी सोच-उन्नति, प्रबोध कराता बाह्य-सेतु॥

 

संयोग से ही आत्म-सत्यता ज्ञात, वरन हम रहते विभ्रम में

व्यर्थाभिमान से प्रगति असंभव ही, रखता सदैव संकुचन में।

सब विश्व-बदलाव संपर्क से हैं, आदान-प्रदान हमारी प्रकृति

मानव एक सामाजिक जीव', अति-पूर्व की है अरस्तु-उक्ति॥

 

यह एक मुट्ठी आसमान ही क्या है, मेरा स्व, सीमा-अधिकार

सब स्व-स्थापन ही चाहते हैं, सशक्तिकरण हो एक आधार।

मुझे तो मेरा चाँद चाहिए', मैं विश्वरूप, प्रकृति-पुत्र हूँ व्यापक

सकल मेरे ही, मैं सबका, सब मुझमें व मैं सबमें हूँ प्रदीपक॥

 

जब एक अंग पर ज़ोर देते हैं, निस्संदेह लेखा तो खिंचेगी ही

कुछ भाव प्रखर होंगे, हो सकता दूसरों की कीमत पर ही।

खास ज्ञान जरूरी प्रगति हेतु, पर सर्वांगीण विकास महत्तर

ध्यान हमारा सब ओर होना ही चाहिए, वृहदता हेतु संपर्क॥

 

आत्मा-परमात्मा या ब्रह्म-योग, है विराट मानव जीवन-लक्ष्य

जो पार लघु स्व से, हुऐं सार्वजनिक-सकल बेड़ियों से मुक्त।

उनके लिए है, एक मुट्ठी समस्त ब्रह्मांड या उससे भी बृहत्तर

और मात्र सिकुड़न में न रहते, उन्मुक्तता से जोड़ते जीवन॥



पवन कुमार, 
18 अप्रैल, 2015 समय 17:15 सायं
( मेरी डायरी दि० 12 मार्च, 2015 10:53 प्रातः से )

  

Saturday, 11 April 2015

ऋतुराज

ऋतुराज 


 

नयनाभिराम वसंत का दर्शन है, सर्वत्र सुवासित ही वातावरण

ऋतुराज हमारी सामर्थ्य बढ़ाता, रुचिकर है उसका आगमन॥

 

शिशिर-ग्रीष्म मध्य ऋतु-परिवर्तन से है मद्धम जलवायु रचित

वरदान नवांकुरों को देता, धन-धान्य से वसुंधरा है बहु-पूरित।

सब प्राणी-पादप प्रफुल्लित हैं, सबके उरों में उमंग ही जगाता

हरीतिमा चहुँ ओर बहु-विस्तृत, प्रसून* पकने का काल होता॥

 

अब अनिल अत्यंत सुहावनी है, मन काया को खूब प्रसन्न करे

वातावरण में एक अद्भुत गुरुत्व सा, सबको आकर्षित करे।

जहाँ भी जाओ अनेक रंग बिखरें, सबका मन हर्षित हो जाता

सूक्ष्म-विशाल पादप-गण में, एक विस्मयी तारुण्य है दिखता॥

 

माना बीज शिशिर-रोपित, पर प्रादुर्भाव यौवन वसंत ही लाता

तब नव-पल्लव विविध वर्णी होते, और कली को पुष्प बनाता।

प्रकृति अति रमणीय होती, अपनी इस ऋतु पर खूब इठलाऐ

तरु झूमते हैं, मस्ती में लहरते, आनंदित से हो सबको पुकारें॥

 

पीत सरसों दूर-२ तक विस्तृत, अत्युत्तम चारु दर्शन है कराती

पकती गेहूँ-बाली सुवर्ण सी प्रतीत, सुवास संग मन पुलकाती।

खेतों में चने-पालक, मेथी-बथुए-चुलाई का सौंदर्य देखते बनता

भिंडी-पुष्प तो अतीव मोहक हैं, बस कुछ ठहर बनता देखना॥

 

माना सर्दी से शुरू, गाजर-मूली, गोभी-शलजम सब उपलब्ध

ईख कुछ काट लिया गया सर्दी में, अभी कुछ खेत खड़े लहर।

फसल पकती, काटन-तैयारी है, कुछ समृद्ध होंगे कृषक जन

सब बाट जोह रहे इसके दर्शन की, आखिर महीना भी मस्त॥

 

सकल वृक्षगण-सौंदर्य को देखो, सब कुसुम-फलों से लदे पड़े

सब शहतूत काले-सफ़ेद फल-आच्छादित, प्रचुर मात्रा में बनें।

बेरी पेड़-झाड़ियों पर पके छोटे-बड़े फल, नीचे हैं स्वयं-पतित

नीम-अंकुर बौर बनने लगता, श्वेत पुष्प-गुच्छों से जाते वृक्ष भर॥

 

नींबू-संतरे, आम-अनार, सेब-अंगूर सब प्रजा को हैं उपलब्ध

व्यवसायिक गतिविधि वर्धित, आजीविका देता है विक्रय-क्रय।

सुखद समय है दूर यात्रा करने का, तन स्वस्थ-सुदृढ़-सुंदर होते

जो खाते आसानी से पचता, युवा क्रीड़ा-स्थल व्यायाम करते हैं॥

 

मस्त महीना है फाल्गुन का,' तन-मन में अनेक लालसा जगाता

बूढ़ी लुगाई भी मस्ताई फाल्गुन में', कामिनियों में हिलोरें मारता।

पिता पुत्र को 'फाल्गुन में तने घी दे दूँगा, छोरों गैला करियो आल'

एक अनुपम शक्ति स्व में इंगित होती है, युवा हो जाते बलवान॥

 

ग्राम्य-युवतियाँ रात्रियों में फाग खेलती, गीत गाती व नृत्य करती

प्रेमातुर पुरुष प्रतीक्षा करते, भुनभुनाते - कसमासते मन में ही।

हर हृदय में एक कवि प्रवेशित सा, सबसे कुछ मन -रचवा लेता

जितने प्राणी उतने कवि- गवैये, प्रत्येक स्व में कालीदास बनता॥

 

गेंदें-चमेली, डहेलिया-गुलेर, बागुनविली-गुलाब, केतकी हैं महकते

ट्यूलिप-कुमुदिनी, अमलतास-पलाश सब तरु-पादप रमण भरते।

उपवन में जाओ तो सुखद ज्ञात होगा, सत्य वसंत अति है मधुरमय

पर इसकी चमक तो अंग-प्रत्यंग में निहित, अतः सदैव है सुखद॥

 

सर्वत्र ही बहार है सिरिस-फाइकस, मौलसिरी-अशोक, पीपल में

सिल्वर-ओक, अर्जुन, बकायन, कीकर, ताड़-पापड़ी-शीशम में।

गुलमोहर, बरगद, पिलखन, अमरुद, नींबू, चंपा, झाड़ियों, ताड़ में

कटहल, सफेदे-ओक, गूलर-लसोडे, खजूर, कढ़ी-पत्ते व बाँस में॥

 

वनस्पति सब प्रफुल्लित हैं, माना उनको भी कष्ट दे रही थी सरदी

सब धड़कनें सामान्य हो जाती हैं, प्रकाश-संश्लेषण मात्रा बढ़ती।

अधिक ऑक्सीजन की उपलब्धता, और जलापूर्ति पर्याप्त उपलब्ध

विभिन्न अंकुरों की सुवास मिलकर, बनाए है एक अनुपम संगम॥

 

हर नर-नारी में काम प्रवृद्धि है, उनकी काया को अलसाऐ कुछ

ऋतु बदली है, लोग बाहर निकल रहे, कुछ सावधानी आवश्यक।

फाल्गुन में ही होली आती, समस्त भारतवर्ष में है आनन्द-उत्सव

माघ व वैशाख इसके संगी, पर असली आनंददायी है फाग-चैत॥

 

आते कई पर्व नव-रात्रे, माता-आरती, राम-नवमी, महावीर जयंती

सब इनमें आनंदित ही होते, पूजा-अनुष्ठान करते, मिलकर भक्ति।

वैशाखी आने वाली ही, फसल कटेंगी, मेले लगेंगे, नाच-गाने होंगे

ढ़ोल-नगाड़े बजेंगे धमकेंगे, सब पुलकित हो संग तब खूब नाचेंगे॥

 

वसंतोत्स्व-गोष्ठियाँ होंगी, ग़ज़ल बनेंगी, जमेंगे गज़ल-कवि सम्मेलन

कुछ तो धमाल होंगे, पुस्तक मेले लगेंगे, वर्षांत पर पुराने खाते बंद।

कुछ युवा हृदय कवि बनेंगे, सोलह कलाओं से होगा मन-परिचित

 कोई शैक्सपीयर, बायरन, कालीदास, तो कोई बनेगा ही वर्ड्सवर्थ॥

 

वसंत-पंचमी को सरस्वती पूजा होती, कला-देवी देती है अनुकम्पा

पुरातन का स्थान नवीन हैं लेते, व सहायक बनते स्रष्टि की रचना।

सदैव हर एक प्राणी- पादप में जन्म, एवं युवा बनने की है पारम्पर्य

प्रत्येक को सर्वोत्तम का अवसर प्रस्तुत, और हेतु महद परिवर्तन॥

 

विकास तो सकारात्मक- दिशा होता, सहायता करे है उसमें वसंत

समस्त क्रियाऐं नव- निर्माण को इंगित होती, अतः स्तुत्य है स्वतः।

सर्वत्र ही मानवेतर प्राणी-जगत में, वसंत अपनी प्रफुल्लता है भरता

कोयल कूँ-कूँ, चिड़ियाँ चीं-चीं, शुक टें-टें से पुलकित खूब करता॥

 

गाय- भैंसे प्रसन्नता से रम्भाती, उमंग-अवस्था ही करे हैं प्रदर्शित

खग-वृंद का प्रातः-सायं कलरव, विशेष शोर-गुल करते हैं प्रस्तुत।

वसन्त तो हर रग-२ में है, आओ अनुभव तो करें, नव-निर्माण करें

प्रकृति के इस महोत्स्व में, अपनी भागीदारी भी सुनिश्चित कर लें॥

 

अब ज्ञान-प्रवाह तो स्वयमेव ही बढ़ेगा, रचना चेष्टा सृजनात्मक है

आविर्भाव है नव-चिंतन, सर्व-विकास का, उत्साह प्राणी मात्र में।

यदि पादप-विज्ञान समझने में कठिन, तो वसंत की दृष्टि से देखें

हों सबके मन हर्षित, पुष्प महकें व नव भविष्य की तैयारी करें॥

 

प्रसून* : फल


पवन कुमार,

11 अप्रैल, 2015 समय 10:31 प्रातः
( मेरी डायरी 25 मार्च, 2015 समय 11:07 प्रातः से ) 

Friday, 3 April 2015

सम्पदा-संग्रह

सम्पदा-संग्रह 
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मैं खिला-खिला व मन प्रमुदित, सुखद क्षणों का आनन्द ले रहा 
सुवासित चहुँ ओर का अन्तर, निर्मल मन को प्रेरित कर रहा। 
वर्षा बन्द और सुबह खिली, सुन्दरता विसरित हर ओर 
माना सूर्य मेघ-आवृत, परोक्ष प्रकाश से उज्ज्वलित भोर। 

मन-आह्लाद ग्राह्यी बनाता, पर कितना प्रयोग इसका हो रहा 
क्या इससे संभव कुछ सार्थक, इस इच्छा का प्रबल हुआ। 
क्या कुछ चिंतन-मंथन होगा, इस जमे दुग्ध के घटक में 
इसमें जो छुपा, प्रकट करना इन क्षणों की प्रतिबद्धता है। 

जो कुछ हूँ उपलब्ध पल-अनुभव, कैसे इन्हें सम्मान तो दूँ 
क्या मनन इनमें संभव, क्या स्मृति हो सकती है साक्षी ?
क्या इन क्षणों का पूरक, क्या बाहर निकल सकता है 
कैसे बने अति लाभप्रद ये, और जीवन-स्पंदन ले ले ? 

 प्रथम जानूँ स्वरूप अपना, क्या कुछ बवाल छुपा हुआ 
हर अणु का अनुभव, इस जीवन की आवश्यकता है। 
क्या-2 विचार संभव है, कैसे उनमें हो सकता प्रवेश 
मस्तिष्क क्यूँ न खोले द्वार, निज सम्पत्ति करे प्रस्तुत?

मैं किन विषयों में अधिक प्रतिबद्ध, जो प्रायः हैं इंगित  
क्या पहचान  इस लेखन की, किस द्वारा यह है प्रेरित?
क्यूँ फूट कर बारम्बार, एक भाँति मनन हुए संचारित 
कैसे उनमें खोया रहता, वास्तविकता तो ही भ्रमित। 

नहीं जानता क्या यहाँ घटित है, इसमें ही रहता लुप्त
कैसे बन सकता सार्थक, व कौन से बल हैं वाँछित ?
अपूर्णता अहसास माना जरूरी, अग्र गति वर्धन हेतु  
कब तक यूँ अटके रहोगे, कुछ तो है कर जाने को ?

 कोई मनन-अध्याय सोचूँ, देखूँ कितना संभव व्यक्त 
परीक्षार्थी सम चाहे न ज्ञात, ऊल-जुलूल तो लिखित। 
तथापि उद्वेलित करता, सदा विद्यार्थी बनाए रखता 
स्व का बहिः निगमन, इतना आसान-सहज नहीं। 

क्या विषय हों अध्ययन के, व उनकी सामग्री वाँछित 
आवश्यक कुछ सीख लो, मस्तिष्क फिर बढ़ाए अग्र। 
अपने पास न कुछ विशेष, और दूसरों से प्रेरणा न लब्ध 
यह तो बहुत विकट स्थित, मद्धम विकास ही संभव। 

करो उपलब्ध कुछ सार-अवलोकन, सीखों तथ्य उचित 
आधारित सामग्री हो आदर्श, वही तो सच्चा है सम्बल। 
व्यवस्थित रूचि, अनुशासित विद्यार्थी, तो कुछ विकास संभव 
मर्यादित हो अगर प्रवृत्ति, समस्त गुणों की कुँजी है निकट। 

बहुत लिखा हुआ समीप उपलब्ध, निश्चय ही विचार-प्रेरित 
लाभ परम लिया जा सकता, वाँछित सार ढूँढा जा सकता। 
तो क्यों न कोशिश, पुनः उन दिग्गजों के चरण-स्पर्श की 
मानो कुछ तो होंगे अध्यवसायी व अच्छे शिक्षक बनेंगे। 

 करो निज सिद्धांत विकसित, उत्तम विवेक का डालो पुट 
अपने को करो प्रतिस्थापित, बनाओ ठोस आधार एक। 
हर तथ्य का मतलब समझो, अति दूरी वे ले जा सकते 
संग्रह करो बिखरी सम्पदा, हर पल प्रभु विकसित करो। 

उपलब्ध क्षणों को आगामी हेतु, आधार बना करूँ श्रम योग 
हो सकता सम्भव मुक्ति पाना, तमाम झंझटों को समझना। 
हो सकता है बुद्ध जैसा चिंतन, औ गुणवत्ता सुधारर कुछ 
पा लो जीवन का दीपक, काल-कक्ष दीप्त करो समस्त। 

पवन कुमार,
03 अप्रैल, 2015 समय 16:59 अपराह्न 
( मेरी डायरी दि ० 30 अगस्त, 2014 समय 10:05 प्रातः )