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The postings in this blog are purely my personal views, and have nothing to do any commitment from Government, organization and other persons. The views in general respect all sections of society irrespective of class, race, religion, group, country or region, and are dedicated to pan-humanity. I sincerely apologize if any of my writing has hurt someone's sentiments even in the slightest way. Suggestions and comments are welcome.

Sunday, 25 December 2016

दर्शन-यथार्थता

दर्शन-यथार्थता



कैसा जहाँ हम बनाना चाहते, सोच का ही है खेल

जो भी यहाँ अच्छा-बुरा जैसा, सब है मानव-कृत॥

 

क्या सोचते हम परिवेश हेतु, जो हमारा आवास है

कितनों को व क्या सबको, उसमें सम्मिलित करते?

अपने जैसों से सम्पर्क साधते, अन्यों को बाहर रखते

स्वार्थ निज, साधन सबके, व फिर अधिकार जमाते॥

 

कैसे संग्रह कुछ ही द्वारा, जब सब कुछ है प्रकृति-दत्त

पृथ्वी पर जन्म लेने का अर्थ तो, भागीदारी है समस्त।

कैसे कुछ वैभवशाली बनते, अन्य अनेक पिछड़ जाते

भौतिक-दशा में अति-अंतर, यदा-कदा संग्राम होते॥

 

यह मेरा और तूने उठाया, निश्चित ही है अपराध महद

मेहनत का यह परिणाम है, तू मुफ्त में चाहता मगर।

एक बड़े ध्यान से कार्य करे, दूजा काम से दिल चुराऐ

ईर्ष्या करें या भाग्य कोसें, या अपराध- प्रवृत्ति है पाले॥

 

शरीर- मन स्थिति में असल, सबका पृथक है व्यवहार

कुछ की रूचि इसमें या उसमें, अन्यों का और विचार।

कुछ निज-प्रेरणा से इंगित, अन्य तो रास्तों पर चिन्हित

अलग श्रम व ईनाम भिन्न, लाभ भी होता तथैव वितरित॥

 

फिर किसी के पास, अधिक उपलब्ध संसाधन-वस्तुऐं

अनेक किन्हीं अल्प से ही, अपना जीवन यापन करते।

शनै वर्धित है अंतर उनमें, भौतिक -स्थितियाँ होती भिन्न

प्रयोग तब प्रासंगिक-वस्तुओं का, अन्यों से और पृथक॥

 

अभिमान प्रकट नव-धनाढ्यों में, अन्यों को समझें निम्न

कुछ यदि उन्नति भी चाहें, उसमें बाधा करते हैं उत्पन्न।

समकक्ष जन अपने दल बनाते, और अन्यों से है स्पर्धा

निर्बल मात्र निज-दैव कोसते, व करते लाचार गुजारा॥

 

तब सुख-तृप्ति हेतु, उनको होती सेवक-आवश्यकता

कुछ निरीह पकड़ काम हेतु, बनाते हैं दास-सेविका।

संघर्ष अल्प करणार्थ, कुछ मृदु- भाषी चतुरों के साथ

वाक-पटुता से, करते अन्य-दलों की सन्तुष्टि-प्रयास॥

 

सकल कलाप आरम्भ, सामान्यों की स्थिति रखने निम्न

युग्म मधु-सोम, नशे में रहें, चाहे कहीं और फँसाकर।

वे अल्पज्ञ भ्रमित होते, तथाकथित ज्ञान के व्यूह-पाशित

सम्मिलित कर्म-कांड, अंध-विश्वासों में, व्यर्थ प्राण फिर॥

 

समस्त दर्शन व ज्ञान उपलब्ध की हैं, निज प्राथमिकताऐं

कुछ सज्जन समदर्शी भी, पर अन्य स्वार्थों को ही बढ़ाऐं।

कुछ का हित-साधन, स्वयं को परितोषिक, यही है दर्शन

बाह्य वेष-आभास मृदुता से, अन्यों को भी लाभ है कुछ॥

 

किनको रखना किनको हटाना, किसको क्या देना ज्ञान

इसका निर्धारण चतुर करते, अल्पज्ञ रहते हैं जन-आम।

बड़े-संगठन, बड़ी-चर्चाऐं हैं, निश्चित ही समर्थ बल-वर्धन

अच्छा होता यदि सर्व-हित, लाभ भी बँटता सार्वजनिक॥

 

जीवन- विस्तार को, एक ज्ञान ही प्रेरणा-वाहक, संवर्धक

अगर वह भी उचित न, तो कैसे विकास-सुदर्शन संभव?

मृदु-चित्त समझते सब, षडयन्त्र-स्थापन का घोर-विरोध

झंडेवाले आते झुठलाने को, यथा-स्थिति रखने पर जोर॥

 

दार्शनिक हित साधते समर्थों का, तभी तो पाते हैं सम्मान

आमजन की क्या चर्चा हो, अल्पज्ञान से व्यूह न पाते फाँद।

यदि उन्हें भला भी लगता, तो भी न है निम्न- स्थिति उबार

आध्यात्मिक ज्ञान- विकास से, कुछ तो अवश्य ही बाहर॥

 

चिंतक चिंतन करें यदि सर्वहित-सुख, तो निश्चितेव श्लाघ्य

यदि वह नितांत भ्रामक-स्वार्थी, तो कितना विकास समग्र?

आधुनिक शिक्षा-प्रणाली ने, बहु-आयाम लाने की एक पहल

सुविद्या-ज्ञान उपलब्ध सबको, तथापि प्रचलित कुछ प्रपंच॥



पवन कुमार, 
२५ दिसम्बर' २०१६, समय १८:४० सायं  
(मेरी डायरी दि० ५ जुलाई, २०१४ समय ११:५५ मध्याह्न से)

Saturday, 17 December 2016

विश्व-बवाल

विश्व-बवाल 


क्यों मनुज कष्टमय व्यवधानों से, अविश्वास में विश्व उबल है रहा

सर्वत्र ही हिंसा-साम्राज्य है, परस्पर मार रहें पता न क्या लेंगे पा?

 

जब से जन्में युद्ध विषय में सुन-पढ़ रहें, क्या मूल-कारण इसके

किंचित यह लोभ- तंत्र निज-समृद्धि ही, औरों की तो न चिंता है।

कौन प्रथम-कारक, दमन-प्रवृत्ति है या अन्य-अधिकारों का हनन

हम महावीर सर्वस्व कब्जा कर लें, और क्या करें हमें न मतलब॥

 

विषमता है क्षेत्र- जाति-देशों में, प्रकृति-साधन भी असम विभक्त

संभव तुम एक स्थल समृद्ध, हम दूजे में, मिल-बाँटते हैं सब निज।

अनेक स्थल नर सुख-वासी, प्रकृति- सदाश्यता व आत्म-सुप्रबंधन

प्रयास से भी वह अग्र-गमित, निर्माण निस्संदेह ही माँगता सुयत्न॥

 

'Ants and the Grasshopper' एक लघुकथा बचपन में थी पढ़ी

चींटियाँ सर्वदा कर्मठ-संगठित हैं, परिश्रम से कुछ संग्रह कर लेती।

टिड्डा आनंद में है उछलता, रह-रहकर दूजों को बाधित करता बस

कुछ कहीं से पा लेता तो पेट है भरता, बड़े कष्ट में होता अन्य समय

न जरूरी दूजे सहायतार्थ आऐं, वे भी स्व-व्यस्त व स्वार्थी हैं किंचित॥

 

क्या टिड्डे का रक्षण चींटियों का दायित्व, या उसकी आत्म-निर्भरता

उचित समय वह योग्य था, परिश्रम से गृह-भोजन जुटा था सकता।

पारिश्रमिक श्रम अनुरूप ही मिलता, `जितना बोओगे उतना काटोगे'

फिर कौन रोक रहा आगे बढ़ना, अवरोध तो पार करने ही हैं होते॥

 

चींटियों ने घरबार-किले बनाए, बहु भंडार-भोजन-सामग्री संग्रहार्थ

सेना-रक्षक, भृत्य रख लिए, चोर-डकैत-अपराधों से सुरक्षा-उपाय।

विद्यालय-अस्पताल-सड़क-कार्यालय निर्माण, अपने सों को आराम

'यथासंभव लूट लो' प्रवृति भी दर्शित है, विषमता तो वर्धित बेहिसाब॥

 

मैं समृद्ध-समर्थ हूँ, वह निर्धन, एक आत्म-निर्भर, दूजा परमुखापेक्षी

किंचित योग्य अनेक उपाय जानता, कैसे समृद्धि बढ़ाई जा सकती।

चाहे अन्यों के प्राण-मूल्य पर ही हो, व सर्व-वैभव में अल्प-रिक्तता

अन्य भाग्य या अन्यों को कोस रहता, पर जाने कुछ न होने वाला॥

 

आर्थिक-असमता विशेष वैमनस्य-कारण, समाज-दशा में अति-भेद

निर्धन-दमित भी आयुध उठा लेते, देखते वे कैसे हो सकते समृद्ध ?

मार-खसोट प्रवृत्ति नर-उत्पन्न, उन्होंने लूटा, कुछ तो हम भी छीन लें

या वहाँ अधिक हम भी चलते हैं, आजीविका मिलेगी, चमकेगा दैव॥

 

सदा निर्धन ही हिंसा का सहारा न लेते, बहुदा विद्रोह-क्षमता न हस्त

लोलुप-धनियों की दमन-लूट प्रवृत्ति सतत, जिससे हो समृद्धि-वर्धन।

कुछ सशस्त्र सेना ले निकलते विश्व-विजय, सर्वाधिकार ही पृथ्वी पर

निर्बल स्वयं पथ देंगे, हठी-दुस्साहसियों का मान-गर्व कर देंगे मर्दन॥

 

फिर विजित क्षेत्रों से उपहार- कर ही मिलेंगे, सर्व- प्रजा होगी अनुचर

मन-मर्जी, समृद्धि से जीवन सुखी होगा, प्रजा भूखी हो तो भी न दुःख।

कुछ धनी-राजा हितैषी भी मिलते, नाम-मात्र तो बहुत बाँटते रहते ही

पर अंदर से सोचते अनावश्यक ही लुटाना, अन्यथा होगी कोष-क्षति॥

 

दबंगों ने नियम बना लिए बल-बुद्धि बूते, अधिकतम को रखो हाशिए

कुछ मृदुभाषी धर्म-नाम की दुहाई से, प्रजा को जाति-धर्म हैं सिखाते।

प्रजा-विद्रोह न हो नृप-समृद्धों के प्रति, सब भाँति युक्ति लगाई जाती

पर मनुज अति-चतुर हैं जिजीविषा से, पंगा लेने का पथ ढूँढ़ लेते ही॥

 

फिर घोर संग्राम होते, मार-काट यूँ, रिपु-सेनाऐं एक दूजे समक्ष खड़ी

अन्य-क्षेत्र में घुसकर महायुद्ध है, कुछ की सनक से बहु-प्रजा मरती।

जीवन विद्रूप- अपघट होते हैं, स्वार्थ में सैनिकों को लोकदमन बनाते

शिशु-अबलाओं पर ही अधिक-मार है, कमाऊ वीरगति प्राप्त होते॥

 

प्रजाजनों को कुछ ही शासन- अंतर दिखता, वे प्रायः रहते दुःखी ही

जब रक्षक ही भक्षक बनें तो कहाँ समाई, कोई भली निकले युक्ति।

राजा कोष, प्रजाश्रम- भोजन युद्ध में झोंके, न परवाह और किसी की

कैसे प्रगति फिर समाजों में, परस्पर अरि, अशांति से महत्तम हानि॥

 

विद्रोह हेतु बड़े लड़ाके उभरते हैं, पर आवश्यक तो न हों उचित ही

वे महद स्वार्थ ले चलते हैं, चाहे आदर्श-लक्ष्य-दिखावा कुछ अन्य ही।

प्रजा को मूर्ख बना रण-दल शामिल करते हैं, मरणार्थ आगे झोंक देते

खेलों, देश-धर्म-जाति-आर्थिक विषमता के कारण भाव स्वतः आते॥

 

यदि सोचें तो अनेक विरोध के कारण हैं, उँगलियाँ भी हाथ में असम

कुछ असमता प्रकृतिस्थ भी, पर्वत-मरुभू गरीबी है या विपुल-वैभव।

नर ने आत्म-धन भुलाया, चंद कंचन-सिक्कों-जमीनों में जान दी लगा

हाँ भोजन-जल-हवा-आवास मूलभूत जरूरतें हैं, गंभीर होना न बुरा॥

 

क्या मनुज का जग-आगमन उद्देश्य, आप भी दुखी औरों को भी करे

जबकि अनेक प्रकृति जीव-जंतु अति-सद्भाव से जीते देखे जा सकते।

कभी-कभार संघर्ष भी दर्शित है, भोजन-जल-स्थल हेतु मात्र विशेष में

दूजे जीव इतने न आक्रमक हैं जितना नर, जरूरत दाँव-पेंच की क्या?

 

क्या इसका मूल मनुष्य का धीमान होना, पर निश्चित श्रेष्ठतम से कम

वरन तो सब मिल-बैठ सर्व मसलों का, न निकालते ही उपयुक्त हल।

क्यों खूँखार वन्य मगर- भेड़िए-लकड़बग्गे- शार्क-सील जैसा आचार

प्रकृति पास पर्याप्त है सब पेट भरने हेतु, मिल-बाँट खाना सदाचार॥

 

देश- जाति- क्षेत्रों ने दल से बना लिए, मात्र संघर्ष करने हेतु ही परस्पर

विशेष सोच कुछ लोगों ने बना ली, क्या वही सत्य, हूबहू मान लें अन्य।

मेरी सोच का ही सिक्का चलना चाहिए, वही सर्वोत्तम दूजे क्यों न माने

स्वयं के दृष्टिकोण-सुधार की आवश्यकता, जैसे हम हैं अन्य भी वैसे॥

 

क्या आवश्यक उदार चिंतन-मनन में भी, हम नित्य अवश्यमेव उचित

निर्णय हैं सीमित पोषण-परिवेश-अनुभव-ज्ञान व मनोभाव पर निर्भर।

संशोधन सदैव आवश्यकता, चरम-परम-आदर्श-सर्वश्रेष्ठ दूर ही स्थित

तो भी उत्तरोत्तर सुधार हो, पूर्व से बेहतर स्थिति में ही होवोगे स्थापित॥

 

मेरा प्रश्न क्यों समाजों ने हथियार उठा रखे हैं, यूँ लगे क्रांति हेतु समग्र

क्यों शासक निरकुंश-स्वयंभू-निर्दयी होता, प्रजा की न चिंता किंचित?

माना अधिकार-निष्ठ सबको अच्छा लगता है, अन्यों की भी सोचो पर

सबके भले में ही अपना भला, मनोदशा कार्यशैली में भी हो स्थापन॥

 

कहीं मात्र क्रूर-बल प्रयोग प्रजा-नियंत्रणार्थ या उपदेश से ही बहलाना

आजमाते जो सूत्र हैं उपयुक्त, रोष- क्रोध-ईर्ष्या-बदला प्रवृत्ति पालना।

तुम अमीर- बेहतर कैसे रह सकते, हम कंगाल हैं क्या तुम्हें न दिखता

तब आओ हमारा भी क्षेम करो, वरन हम तुमको भी स्व सा देंगे बना॥

 

इतिहास में भिन्न गुटों बीच संघर्ष दर्शित है, कभी यह कारण या अन्य

भूमि-भोजन-जल-स्त्री हैं कारण, कहीं शत्रुता, स्व-श्रेष्ठता स्थापन दंभ।

कभी तुमने किसी विषय पर अपमान किया, सिखाना ही पड़ेगा सबक

आओ मैदान, देख लेंगे तेरा पौरुष व साहस,`जो जीता वही सिकन्दर'

 

कभी प्रत्यक्ष युद्ध, चाहे छद्म युक्ति बना, परोक्ष से करते हैं आक्रमण

मंशा है कि शत्रु आगाह न हो पाए, गुप्त रणनीति से अधिक विध्वंस।

कुछ स्वेच्छा से जुड़ें अभियान में, दूजों को डरा-धमका, समझा-बुझा

तब संग तो प्रसन्न रहोगे, हम तेरा रक्षा-भरण करेंगे, दो साथ हमारा॥

 

मानव भी मूढ़ जीव, बिना निजी शत्रुता भी लड़ता दूजों के कहने पर

उसको बताते हैं देश-धर्म-आस्था पर प्रहार, कैसे शांति से बैठे तुम ?

हमेशा रक्त उबलता रहना ही चाहिए, तभी तो दुश्मन होगा पराजित

मर जाओ या मार दो, मंसूबों में जुटे रहो लगाऐ बिना बुद्धि अधिक॥

 

यूँ जातियों में अनावश्यक वैमनस्य वर्धन, दल- प्रमुखों के स्वार्थ निज

अभी तो मात्र ही दुर्भावना थी, पर युक्तियों से अनेक किए सम्मिलित।

दूसरे भी क्या शिथिल ही बैठे हैं, वे भी तैयारी कर रहें आस्तीन चढ़ाऐ

बस प्रतीक्षा करो घोर-संग्राम होगा, अरि-सेना पर जरूर जीत पाऐंगे॥

 

नृप-शासक-निरंकुशों पास अकूत दौलत है, अत्याचार दिखता प्रत्यक्ष

जब निर्धन-बालकों के मुख न भोजन-कोर, रोष तो होना स्वाभाविक।

निज वैभव-सुखों का लोक-प्रदर्शन, दरिद्रों को अपमान-दुत्कार सदा

निज-सुरक्षार्थ किले-सेनाऐं खड़ी की, किसमें साहस है हमसे ले पंगा॥

 

पर इतिहास-वर्तमान में भी देखते, निरंकुशों का अंत तो अति-बुरा ही

यह अन्य बात जगह और कोई लेता, पर आते शालीन-उत्तम-भले भी।

कुछ स्मरण कर सको तो पाओगे, बहु चैन-अमन है श्रेयष शासन जहाँ

राजा- प्रजा परस्पर का ध्यान रखते, समझदारी में ही विकास सबका॥

 

जीव इतना भी न निष्ठुर प्रेम-भाषा न समझे, हाँ खल रखते युक्ति अपनी

इच्छा मात्र अशांति-विसरण, मारकाट- अकाल से अपनी हाट चमकेगी।

निरीह- रक्त पान दुष्ट-प्रवृति, जगत को शांत न बैठने दो, रखो तम-भ्रम

चाहे नाम समग्र हित-विकास का, खल-प्रवृत्ति रग-रग से झलकती पर॥

 

मैं कहता अन्याय-प्रतिकार होना चाहिए, पर क्या रण ही अंतिम विकल्प

सब विषयों पर मिल-बैठ चर्चा संभव, उचित हेतु करो भी विरोध-प्रदर्शन।

प्रजा-अधिकारों से नृप सचेत कराए जाने आवश्यक, हनन से कुंठा-जन्म

सब साथ संग ही चलें, सबका प्राकृतिक-संसाधनों पर है अधिकार सम॥

 

आतंकवाद का न लो सहारा, न खेलो जन-भावनाओं से, शांति से ही प्रगति

जब जान ही न होगी क्या फिर करोगे, सबको समय पर मिलेगा उचित ही।

मनन-चिंतन में समग्र-क्रांति चाहिए, पर मूल उद्देश्य हो भलाई हेतु सबकी

आपसी हानि- हत्या से तो कहीं न पहुँचते, जीवन माँगे बड़ी यज्ञ- आहूति॥

 

अन्याय तो है विश्व में मानना पड़ेगा, कोई धनी यूँ ही स्व को चाहे लुटाना न

फिर जग-व्यवस्थाऐं उचित-पथ ही चाहिए, योजनाऐं सर्व-जन कल्याणार्थ।

नृप-कर्त्तव्य है शासन-तन्त्र उचित करे, निज लोभ तो उन्हें न्यून करने होंगे

जब स्वयं ही लूट के बड़े सौदागर हों, तो कैसे दैत्यों को नियंत्रण कर लोगे?

 

उचित शासन-प्रणाली, जनतंत्र से बहु-भला संभव, रंग लाऐगा पुण्य-प्रयास

जब नर खुश होंगे सदा सहयोग करेंगे, खल साथ न मिलने से होंगे निराश।

लोग दूजे के गृह न देखेंगे, ऊर्जा सकारात्मक-प्रगतिमान उद्देश्यों में युजित

आपसी-सौहार्द-सहकार वृद्धि समूहों में, चाटुकार को न श्रेष्ठ स्तर दर्शित॥

 

जीवन देखना-सोचना माँगता, न लड़ो क्षुद्र स्वार्थ हेतु, न एक-दूजे को हानि

'जीओ व जीने दो'-पुरातन सिद्धांत, समरस-समानता भाव देगा बहु प्रगति।

देश-समाज-क्षेत्र समृद्ध-प्रगतिशील हों, नर श्रेष्ठ-उपलब्धियों में होगा इंगित

सबका साथ सबका विकास', जग और सम होगा सबको मिले प्राण-अर्थ॥



पवन कुमार,
१७ दिसम्बर, २०१६ समय २१:५६ बजे रात्रि 
(मेरी डायरी ६-७ अगस्त, २०१६ समय से १०:०१ प्रातः से)

Monday, 21 November 2016

ज्ञान-सोपान

ज्ञान-सोपान 



निरुद्देश्य तिसपर उत्कण्ठा तीक्ष्ण, अध्येय पर प्रखर आंतरिक-ताप

जीवन स्पंदन की चेष्टा में रत, मन-संचेतना कराती स्व से वार्तालाप॥

 

बहु-विद्याऐं मैं वशित, अबूझ-अपढ़, खड़ा विराट पुस्तकालय सम्मुख

आभ्यंतर का न साहस होता, डर कहीं प्रवेश न कर दिया जाय रुद्ध।

अंदर तो कभी गया नहीं, कुछ विद्वानों को करते देखा सहज- प्रवेश

गूढ़ परस्पर वार्तालाप में, कर में किताबें या स्व-निमग्न विचार-लुप्त॥

 

मैं ग्राम-बाल, राजकीय-विद्यालय शिक्षित, फिर नगर-स्कूल में पठन

मुट्ठी-भर साहस, सुसाधित देख आंशकित, अनुरूप संवाद न संभव।

सभी विज्ञ प्रतीत स्व से उत्तम, निज वास्तविक रूप में रही खलबली

माना अवर-श्रेणी ज्ञात सहपाठी छात्रों में रहकर, कुछ सांत्वना मिली॥

 

पाठ्यक्रम पुस्तकें अनेक रहस्य खोलती, वे असंख्यों में कुछ ही मात्र

पुस्तकालय-निधानों में सुघड़ता से रखी पोथियाँ, मन में लगता त्राण।

कौन सारी पढ़ता होगा, कैसे मस्तिष्क विकसित इतना ग्रहण- सक्षम

बस झलक देख ली काम से मतलब, इतना ही ज्ञान से हुआ सम्पर्क॥

 

कुछ उच्च-अध्ययन माध्यमिक कक्षाओं में, ज्ञान से हुआ साक्षात्कार

तो भी बहुत ज्ञानों की महत्तर टीकाऐं, यूँ मस्तिष्क में न प्रवृष्टि सहज।

बहुदा शिक्षकों द्वारा प्रसारित कक्षा ज्ञान का, कुछ-२ ही पड़ता पल्ले

वह ज्ञान-संपर्क प्रथमतया ही घटित, अतः असहजता स्वाभाविक है॥

 

कुछ सहपाठी स्व से श्रेष्ठ दिखते, अडिग से दिखते ज्ञानोपार्जन में ही

कई बार तो आकस्मिक, जितना परिश्रम वाँछित, झोंकता उतना नहीं।

कुछों की स्थिति और भी दयनीय, लगता कक्षा में नहीं अपितु है जंगल

बस समय यूँ ही व्यतीत किया, नहीं सोचा क्या और बेहतर था संभव॥

 

प्रज्ञान न उपलब्ध मात्र कक्षा उपस्थिति से ही, मात्र कराती परिचय सा

असल सीखना बाद में गृह-कार्य से, जब स्व-शिक्षण से जूझना पड़ता।

धन्य वे जिन्हें भले शिक्षक मिलें, न करते अनेक शिक्षण-निर्वाह उचित

निज- अकर्मण्यता, कर्त्तव्य-विमूढ़ता से, विद्यार्थी-जीवन अप्रकाशित॥

 

कुछ गुरुजन जलाते स्व-दीपक, डाँट-फटकार- वितंडा भी आवश्यक

माना शिक्षक भी सीमित एक स्तर तक, तो भी शिष्य चाहते सर्वांगीण।

यह एक रचना- कृति उपलब्ध साधन-सामग्री से, व प्राण-प्रतिष्ठा तृप्ति

शिष्य अहसास बाद ही सीख सकता, निश्चितेव संभव सब द्वार-प्रवृष्टि॥

 

शैशव से यौवन तक इस यात्रा ने, इतर-तितर बिखरे में की कुछ प्रवृष्टि

किंतु वह ज्ञान भी कितना न्यून था, मात्र विचार से ही है असहजता-वृष्टि।

सत्य कि निज विश्व की बस बुद्धि-कोष्टक सीमा, ऊपर से है प्रयास-अल्प

तब कैसे विकास-वर्धित हो आत्म, तुम जैसे अनेकों ने तो प्रगति ली कर॥

 

क्रमशः वृहद ज्ञान से था कुछ संपर्क, पर जितना निकट, उतना ही शेष

अकेला कहाँ बैठा था प्रकाश से दूर, विद्या-बाधा बने मेरे ही प्रमाद-द्वेष।

इतने बहु विषय, विपुल विज्ञान-संग्रह निकट, सक्षम-प्रयास हैं परिलक्षित

अनेक सदा कर्मशील ही रहते, तभी तो जुड़कर इतना विस्तृत है निर्मित॥

 

माना उन लेखकों, वृहद-दायकों का भी है, एक सीमित-वृत्त में ही प्रज्ञान

तथापि बृहत्तर करते ही जाते, सकल मानवता समाने का करते हैं प्रयास।

कुछ तो कालिदास, शैक्सपीयर बन जाते हैं, कुछ गोएथे सम अति-विस्तृत

नेहरू सम चिन्तन, कुछ मार्क्स, एग्नेल, एसिमोव, कार्ल सागन सम वर्धित॥

 

कैसे पकड़ी कलम महानुभावों ने, और एकत्रण की विपुल सामग्री-लेखन

कितनी समय-ऊर्जा प्रतिदिन ही देते, कहाँ-२ से अनेक विचार हैं पनपन।

कैसे मस्तिष्क प्रबल होता न्यूनतम से ऊपर, और बह निकला ज्ञान-प्रभाग

एक-२ कड़ी योग में समक्ष हैं, उनके कथनों को सब देते अति ही आदर॥

 

प्राथमिक-अवस्था में ज्ञान है जोड़ा, कुछ साहस किया, वृहदता से सम्पर्क

अनेक रोमांचक-रहस्यमयी विभिन्न विषय समक्ष, परिचय न था अभी तक।

पारंगत- सामीप्य से तो अब भी भय सा, स्व-स्थिति होती अति-असहज सी

असल व्यग्रता है स्व-अल्पता ही से, अनेक बहुदा अत्यग्र-बढ़ गए क्योंकि॥

 

फिर संचित ज्ञान भी है अति-सतही, अस्मरण हो जाने से वह जाता फिसल

जो कुछ लब्ध था वह भी खो दिया, हम फिर अकिंचन के ही रहें अकिंचन।

अभूतपूर्व यह मन- प्रणाली, सबको प्रदत्त बावजूद पृथक ढ़ंग से निखारती

कौन प्रेरणा एक को महापुरुष बनाती, व अन्यों को बहु-मद्धम ही रखती॥

 

माना हम सब एक सम अंदर से, विभिन्न मेल-परिस्थितियों में होते असहज

सब स्व दृष्टिकोण-स्तर हैं सहन, अध्ययन- अभ्यास-प्रयास से उच्च- वर्धित।

पर कुछ थोड़े सामान संग भी प्रयास से, वृहद परियोजनाऐं खड़ी लेते कर

प्रत्येक ईंट- जोड़ में प्रयास झलकता, सहायता माँगने में न कोई झिझक॥

 

वे कैसे, किनको मित्र हैं बनाते, योजना-मूर्तरूपण में अक्षुण्ण-सफल बनते

कैसे विभिन्न मस्तिष्क-योग ही होते, सहायता से परियोजनाऐं आगे बढ़ाते।

मानो निज से एक सीमित सम्भव, अतः कुछ तो अवश्यमेव साथी बना लो

यही कवायद करती है किंचित अग्रसर, प्रगति-पथ के अध्याय सीख लो॥

 

मुझे निश्चित ही असहज होना चाहिए, वही तो मति-विवेक श्रेष्ठार्थ खोलेगी

जग-आगमन है तो एक लीक खींच दो, बहु-काल तक न कुछ ही चलेगी।

यही रोमांच खींचेगा तुम्हें अनेक अज्ञात-रहस्यों की ओर, बढ़ाऐगा काष्ठा

जीवन- तात्पर्य ही नित्य-गति है, अतः हिम्मत करो स्व से निकलो बाहर॥

 

सब जगत विद्यालय, पुस्तकें-शोध मेरे लिए ही हैं, साहस से बैठना सीखो

चाहे निज मूढ़ता-अज्ञानता पर हँस लो, पर उचित हेतु सुदृढ़-चित्त हो लो।

अपनी भी श्रेणी बढ़ा सकोगे, यदि ऊर्जाऐं-विकसित करना जाओगे सीख

जीवन माँगता है तुमसे प्रयास, अतः रुको मत, सर्वत्र से होवो आत्मसात॥

 

धन्यवाद। और बेहतर के लिए प्रयास करो॥


पवन कुमार,
२१ नवम्बर, २०१६ समय २२:३८ रात्रि 
(मेरी डायरी दि० ८ मार्च, २०१५ समय ८:५० प्रातः से) 

Wednesday, 12 October 2016

सहज शब्द-प्रवाह

 सहज शब्द-प्रवाह



बहु-भाँति लेख-संस्मरण, कथा-साहित्य, जन लिखते भिन्न रस-संयोग से

सबका निज ढ़ंग मनन-अभिव्यक्ति का, समग्र तो न सब कह ही सकते॥

 

लेखन-विधा है अति-निराली, यूँ न मिलती, कुछ तो चाहिए सहज रूचि ही

विशेष समय आवश्यक बतियाने को, वरन सुफियाने की घड़ी न मिलती।

फिर मन में क्या आता उन क्षण- विशेष में, कलम तो मात्र माध्यम बनती

शब्द-प्रवाह सहज ही तब निज-दिशा लेता, देखो मंजिल कहाँ है मिलती॥

 

ज्ञान-स्रोत समक्ष-पुस्तकें, विद्वद-प्रवचन, संगति या दैनंदिन कार्य-कलाप

या कुछ क्षण निज संग बिताना भी, जिससे निकले एक कमल-मुकुल सा।

मन-रमणीयता का भी अपना विश्व, कहाँ- कब बैठेगा किसी को न प्रज्ञान

कैसे सुसंवाद हो सके निज श्रेष्ठ से, कुछ एकत्रण से हो सके ही विकास॥

 

सुघड़, विचक्षण मनन- दृष्टान्त मनीषियों का, जितना निहारो उतना कम

अति-गह्वर उनका अवलोकन, यूँ न मात्र सतही अपितु जीवन-सार तत्व।

जितनी मात्रा- गुण पास एक, उतना दान- संभव, उपलब्धता पूँजी है यहाँ

यह बात और कि लोभी हो, बाँटन-अरुचि, स्व-संग ही खत्म हो जाएगा॥

 

क्या मेरी मनोदशा विशेष परिस्थितियों में है, मन-भाव यथैव ही उद्गीरित

कैसे निज-समीपता व संग जुड़न-अभिलाषा, स्वयं गति से लेकर कलम।

विल डुरांट ने तो लिखे हैं `सभ्यता एवं  दर्शन का इतिहास' से विस्तृत ग्रंथ

वह भी गुजरे दुःख-सुख परिस्थितियों से, तथापि सहज रच दिया अद्भुत॥

 

विभोर मन चेतन-शक्ति, आत्मिक-बल बढ़ाओ, जीवन हेतु महद उद्देश्य

ऐसे तो महद रचना न बने, उठ खड़े होवों लिख दो निज सर्वोत्तम लक्ष्य।

वाल्मीकि, व्यास, शैक्सपीयर, गोएथे, कालि ऐसे न, अल्पकाल जीव-भंगुर

समक्ष विपुल राशि तेरे अर्थ पड़ी, निम्न कामना से तो अति-लाभ होगा न॥

 

माना सबको निज जीवन ही जीना, पर दान भी जिम्मेवारी उत्तम विरासत

'यूँ ही आऐ न आऐ' उक्ति से ऊपर उठो, जग-आगमन को करो सार्थक।

कैसे चेतन क्षण बढ़ते जाऐं जीवन में, व उनमें संपूर्णता भरने का उत्साह

चल पड़ो किसी लम्बी यात्रा पर, कुछ जग देखो, अपनी भी कहो अथाह॥

 

वे मार्ग- अध्याय जान-सीख लो, जो उन्नति, परम-प्राप्ति का दिखाऐ मार्ग

बैठो विद्वद- जनों संग उत्तम संगोष्ठी में, कैसे किया है उनने पथ लो जान।

प्रदत्त कार्य निश्चित ही विशाल होगा, परियोजना- प्रबंधन भी चाहिए उत्तम

किंतु हर अध्याय पर पूर्ण ध्यान, नैपुण्य से देखो कुछ भी छूटना चाहिए न॥

 

जीवन-विज्ञान एक बड़ा विषय है, ज्ञात हो चाहिए उचित कार्यान्वयन विधि

कौन तत्व कहाँ कैसे प्रभावित करता, सुप्रबंधन से झलके उत्तमता अति।

जीवन- उपलब्धि निज स्वेद-रक्त की आहुति से, प्रयास से न कभी घबरा

श्रम-सुस्ती से थकना न इतनी शीघ्र, जब कर्त्तव्य अधिक तो विश्राम कहाँ॥

 

फिर बिंदु तो इंगित करने होंगे, जो अन्तः घोर-तम से प्रकाश में आगमन

कुछ स्वप्न लूँ समर्थ- विवेकियों संग, ज्ञान प्रवाह रोम-कूप में हो प्रकटन।

जीवन फिर पूर्ण खिल सकेगा, सब पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष मेल से

सर्व- अवस्था ही आस्वादन लेना, न घुटकर मरना जब इतना सम्भव है॥

 

मेरी मनोवृत्ति उचित कर देना ओ परमपिता, तार सीधे तुमसे जुड़ जाऐं

हटा कर सब मेरे प्रमाद, अपुण्य तन-मन के ज्ञान-वृत्ति में चित्त हो जाए।

मूल-प्राथमिकताओं से करा तुम परिचय, न इतने अल्प-निर्वाह से सन्तुष्ट

क्यूँ न करूँ मैं सर्वोत्तम हेतु ही चेष्टा, जब ज्ञात है संभव व समक्ष मंजिल॥



पवन कुमार,
१२ अक्टूबर, २०१६ समय १३:३७ अपराह्न 
(मेरी डायरी दि० २६.०६.२०१६ समय प्रातः १०:२२ से) 

Sunday, 2 October 2016

उत्प्रेरण-विधा

 उत्प्रेरण-विधा 


वर्तमान अनूठे असमंजसता-पाश में, अबूझ हूँ जानकर भी

कैसे अकेला खेऊँ नैया, पार दूर, कभी हिम्मत खंडित सी॥

 

सकारात्मक मन-मस्तिष्क धारक, तथापि अनिश्चितता है घेरे

विवेक प्रगाढ़ न हो रहा, नकारात्मक आकर बहु-झिझकोरे।

वातावरण जो होना चाहिए भय-मुक्त, स्वच्छंद-उन्मुक्तता का

सब ऊल-जुलूल बोलते, मानो जीव की यही परिणति है यहाँ॥

 

प्रेषित था कुछ इस आशा से, विभाग के नाम में होगा लाभ

स्व कर्म, विचार-शैली से, परियोजना को बढ़ाऊँगा ही अग्र।

सभी महारथी- ज्ञानी बनते यहाँ, कुछ तो हैं नितांत दयनीय

कुछ तव मुख ताकते हैं, माना सब शक्ति तुममें समाहित॥

 

उद्वेलित हूँ क्षुद्र- घटनाओं से, माना बाह्य न अति-प्रतिक्रिया

मनन सतत संचालित रहता, विभिन्न पहलुओं को है देखता।

निर्णय लेने में समर्थ होते भी, अपने को असहाय सा है पाता

 कुछ के शंकालु होने से भी, अवश्यम्भावी है कुप्रभाव पड़ना॥

 

माना कोई योगदान नहीं है, अब तक कृत कार्य-कलापों में

तथापि अब मैं प्रथम ही, अतः सहभागी होता जा रहा हूँ शनै।

करो आत्म- मूल्य सशक्त यहाँ, त्रुटि न हो कर्त्तव्य-निर्वाह में

मात्र उत्तम कार्य ही सम्बल देंगे, वही अपेक्षित भी है तुमसे॥

 

सभी से एक स्नेह- रिश्ता बनाओ, जिम्मेवारी और आदर का

बनें सब एक दूजे के सहयोगी-संगी, व परस्पर अनुभूति का।

नहीं हों मात्र पर- छिद्रान्वेषी ही तुम, सुधार में सबका विश्वास

यदि आवश्यक हो कुछ सख़्ती भी, ध्यान में ला करो स्थापित॥

 

अनंत-शक्ति पुञ्ज तो हो यहाँ, क्षीणता कदापि न करो स्वीकार

निज-शौर्य अंश-दान अन्यों को भी हो, व प्रबल रक्त-संचार।

जीवन जीने का नाम व कला समझना, इसकी भली-प्रकार से

हर कर्त्तव्य पर पैनी नज़र हो, और कहीं कुछ छूटा न जाए॥

 

निडर बनूँ प्रबल-मन संचालक, सदा महीन-दृढ़ता से हो बात

निज-कार्य निपुण हो, औरों को सुनने-समझाने का हो हुनर।

माना अन्य भी पारंगत होंगे, पर तुम स्व-विद्या में बनो प्रवीण

इस अपरिपक्व जग-ज्ञान को आलोक दो, ताकि राह सुगम॥

 

निज निष्ठा व कर्मठता से तुम, जग में छोड़ो एक उत्तम छाप

माना सब कुछ तो न स्व-हाथ में, पर इतने भी नहीं असहाय।

प्रयत्नों से स्वयं को बनाओ सबल, व दुर्बलता-भाव ही न आए

किञ्चित स्वस्थ तन- मन स्वामी बनो, निज-गुण जोड़ते जाए॥

 

परम-युक्तियों में ध्यान नित हो, निस्संदेह बनो संकट-मोचक

अभय दो सह-कर्मियों को तब, गतिविधियाँ करो उचित-दक्ष।

निज श्रेष्ठता को सबमें ही बाँटो, तभी तो होगा उनमें भी वर्धन

संपूर्णता में और अधिक चाशनी तब, चहुँ ओर हो प्रकाशित॥

 

माना यश-गान नहीं अभिलाषा, जग-पार गमन महद है लक्ष्य

कटे सब फंदे निम्नता के यहाँ, नर के काले-कलाप व असत्य।

निज-दुर्बलताओं से उठ प्राणी, सर्व-प्रगति का हो समुद्र-मंथन

प्रक्रियाऐं-साधन सब ही उचित हों, स्वयं-सुधार एक उत्प्रेरण॥

 

ओ मेरे मन के प्राण- पखेरू, लगा उत्तुंग उड़ान एक दूर गगन

देख अतिदूर-अद्भुत दृश्य यहाँ, विकास तो फिर है ही संभव।

ले संग उचित-मनन व कार्य-शैली का, क्षमताओं में सतत वृद्धि

यही जीवन-उन्मुक्तता संदेश जीवियों को, बृहत कल्याण दृष्टि॥

 

धन्यवाद॥


पवन कुमार,
२ अक्टूबर, २०१६ समय १९:०३ सायं 
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी ३०. ०९. २०१४ समय ८:४० प्रातः से) 

Sunday, 18 September 2016

आत्मानुभूति - संज्ञान

आत्मानुभूति - संज्ञान 


मन बिसरत, काल बहत है जात, बन्दे के कुछ न निज हाथ

विस्मित यूँ वह देखता रहता है, कैसे क्या हो रहा नहीं ज्ञात॥

 

हर क्षण घटनाऐं घटित, अनेक तो हमारे प्रत्यक्ष साक्षात्कार

पर यह इतनी सहज घटित है, मानो हमारा न हो सरोकार।

हम निज एक अल्प- स्व में व्यस्त हैं, व जीवन यूँ जाता बीत

निर्मित-नीड़, संगिनी-बच्चें, कुछ सहचर, यही जिंदगी बस॥

 

लघु-कोटर में है अंडा-फूटन, माता सेती, कराया दाना-चुग्गा

अबल से सक्षम बनाकर, डाँट-फटकार घर से बाहर किया।

फिर पंखों को मिली कुछ शक्ति, संगियों ने उड़ना सिखाया

इस डाल से उस वृत्त बनाया, उसे ही पूर्ण-जग समझ लिया॥

 

अभिभावक- स्नेह, बंधु-सुहृद सान्निध्य, पड़ोसियों से मेल कुछ

बहुदा बाह्य-मिलन, आपसी जरुरत, पखेरू अब सामाजिक।

दाना-दुनका इर्द-गिर्द चुगता, जरूरत पर दूर भी जाते कभी

और विश्व-दर्शन मौका मिलता, पर वह भी होता अत्यल्प ही॥

 

कितना समझते हैं विश्व-दृश्यों को, सब भिन्न पहलू ज्ञात तो न

प्रायः तो न सीधा सरोकार, फिर क्यों नज़र दौड़ती उस ओर?

माना मन में अति विवेक-संभावना, तथापि उसको रखते कैद

बाँध लिया छोटे से कुप्पे में, मुर्गे ने उसको नियति ली समझ॥

 

सभी शरीरियों के अपने घेरे, उसी में जमाते अपना अधिकार

अन्य विदेशियों को न प्रवेश-स्वतंत्रता, धृष्टता पर हो प्रतिकार।

राज्य हमारा तू क्यों आया, समूह मरने- मारने को तैयार सब

अजनबियों से मेल असहज, आँखों सदा में किरकिरी- शक॥

 

माना बहु-स्थान परिवर्तन विश्व में, अनेक जीव इधर से उधर

सबने ग्राम-नगर बसा लिए, पड़ोस समकक्षों से किए संबंध।

अपना कुटुंब, जाति-समाज, संस्कृति-शैली व प्रक्रिया-जीवन

उनमें ही सदा व्यस्त, आनंदित, जीना-मरना, अतः समर्पित॥

 

माना जीवन-स्रोत एक सबका, पर अपने-२ घटक बना लिए

निज को दूजों से पृथक माने, अकारण प्रतिद्वंद्वी समझ लेते।

अन्यों से बहु मेल न होने से, उनकी कारवाईयाँ होती अज्ञात

इधर-उधर से खबर भी हो तो, सम्बंध न होने से न है ध्यान॥

 

विशाल जग, हम लघु-कोटर में, बहुत दूर द्रष्टुम न हैं सक्षम

कैसे विस्तृत हो यह मस्तिष्क ही, संभावनाओं का प्रयोग न।

स्वयं को कोई न कष्ट देना चाहता, मानो ह्रास होगी सर्व-ऊर्जा

ज्ञानी कहते अभ्यास से सब वर्धित, क्यूँ न बढ़ाऐं अपनी चेष्टा॥

 

भोर हुई पर द्वार-बंद, भानु-प्रकाश न पहुँचता हम सुप्तों तक

इतने ढ़ीठ हैं आराम को ले, किंचित खलबली न करते सहन।

कुछ जानते भला कहाँ, फिर भी अनाड़ी रहते हैं जान-बूझकर

कितना कोई समझाऐ मूढ़ों को, निज-चेष्टा ही उत्तम शिक्षक॥

 

कितना ज्ञान-अनुभव शख़्स कर सकता, जीवन-प्रवाह में इस

क्या काष्टा संभव शिक्षा की, कितना प्रयोग हो सकता लाभार्थ?

पर आज सीखा कल भुला दिया, जीवन किसे हुआ याद सकल

बस मोटे पाठ याद रह जाते, वर्तमान में तो प्रतीत वही जीवन॥

 

पल-क्षण-घड़ी, घंटे-प्रहर, अह्न-रात्रि, सप्ताह-माह, यूँ बीतते वर्ष

जिसे जितनी घड़ियाँ दी प्रकृति ने, कमोबेश बिताते वही समय।

बिताना जीवन सामर्थ्यानुसार ही, उसका वृतांत इतिहास बनता

हा दैव! कुछ अधिक न किया, निम्न-श्रेणी में ही खुद को पाया॥

 

कौन से वे उत्प्रेरक घटना-अनुभव, अग्र-गमन प्रोत्साहन करें जो

कौन वह सक्षम गुरु है, सर्व- क्षुद्रता ललकारता, फटकारता यों?

कौन से वे संपर्क-विमर्श, वर्तमान व अल्प -उपयोग पाते हैं जान

भविष्य-गर्त लुप्त संभावनाऐं, जो स्व-प्रयास बिन नहीं दृष्टिगोचर॥

 

माना देखा-समझा, पढ़ा, बोला-सुना अति, पर कितना है स्मरण

पता न चला कब स्मृति ही चली गई, अनाड़ी के अनाड़ी रहें हम।

इसे पकड़ा, वह छूटा, आगे दौड़-पीछे छोड़'' का बचपना है खेल

पूर्ववत को ठीक समझा ही न, वर्तमान में भी न सुधार, वही हाल॥

 

माना श्लाघ्य तव चेष्टाऐं बृहत् हेतु, पर प्रत्येक को दो कुछ समय

वरन दीन-दुनिया को स्व-राह से, आपकी आवश्यकता न बहुत।

तुम्हारी सार्थकता भी कुछ जीवन में, या बस खा-पीकर दिए चल

जब आने-जाने का न हुआ है लाभ, क्या आवश्यक था लेना जन्म?

 

माना कुछ मेहनत-मजदूरी कर, खाने-कमाने का लिया प्रबंध कर

पर क्या जीवन के यही भिन्न रंग थे, अनुपम चित्र बना सकते तुम?

निज-संभावनाओं को न समय दिया, बस सुस्त-मंद रहें, गया बीत

एक दिन बुलावा अवश्यंभावी तो जितना बचा, कर लो सदुपयोग॥

 

नहीं राहें सीखी प्रयत्न से, बस काम-चलाऊ कर लिया कुछ जुगाड़

अनेक विद्याऐं-तकनीक, विशेष ज्ञान निकट, पर संपर्क नहीं प्रयास।

बेबस बना दिया स्वयं को, अन्यों के रहमो-करम पर रहने का यन्त्र

जग प्रगतिरत, मैं अबूझ-भ्रमित, कभी आत्म-मुग्ध पर अविकसित॥

 

यह लघु-विश्व अपने सों से व्यवहार, तुम भी अनाड़ी हम भी गँवार

बस जूता- पैजारी, बहु जानते -समृद्ध, शीर्ष-तिष्ठ मूर्ख अभिमान।

ज्ञानी से ज्ञानी मिले तो सुज्ञान-वार्ता, मूर्ख से मूर्ख तो व्यर्थ- विवाद

जब चेष्टा निम्न, कैसे मनभावन-सुखद फलक हो सबको उपलब्ध॥

 

मात्र जग-निर्वाह से अग्रवर्धन, स्व का भिन्नों से भी होने दो संपर्क

बना आदान- प्रदान का सिलसिला, संज्ञान आत्मानुभूति का कुछ।

दृष्टि प्रखर बना, दुनिया बड़ी विशाल, गतिविधियों की रखो खबर

बृहद दृष्टिकोण निकल कूप-मंडूकता से, संपूर्णता जीव-समर्पित॥

 

निज स्मृति-सीमाऐं, अतः याद करो उत्तम अध्याय संभव जब भी

कर्म-गति रहे सदा, आत्मिक विकास जीवन की हो परमानुभूति।

सकल जग लगे निज ही स्वरूप, करें सहयोग परस्पर-विकास में

जितना संभव है विस्तृत करो स्व को, सब लघुता पाटो विवेक से॥

 

और निर्मल चिंतन करो। जीवन अमूल्य है॥


पवन कुमार,
१८ सितम्बर, २०१६ समय २१:२४ सायं 
(मेरी डायरी ५ अप्रैल, २०१५ समय १०:३० प्रातः से)