आविर्भूत हो मन-देह, सर्वत्र विस्तृत दृष्टिकोण से सुमंगल होए।
बहु श्रेष्ठ-मनसा नर जग-आगमित, समय निकाल निर्मल चिंतन
उन कृत्यों समक्ष मैं वामन, अत्यंत क्षुद्र-सतही सा ही निरूपण।
कोई तुलना विचार न संभव, मम काल तो स्व-जूझन में ही रत
शायद प्रथम श्रेणी प्रारूप, चिन्हित-विधा अपरिचय, अतः कष्ट।
प्रकृति देख नव-विचार उदित, शब्द-बद्ध कर विश्व-सम्मुख कृत
स्व-विस्मृति उपरांत ही निर्मल-संपर्क, शब्द-रचना हुई सर्वहित।
मनुज के निर्मल रूप से ही ऊर्ध्व-स्तर, मृदु बनो उठे स्वर-लहरी
कालजयी ग्रंथ समाधि-रूप ही चिन्त्य, यति वृहद-मनन सक्षम ही।
कुछ तो एकांत-चिंतन है महानुभावों का, मन उच्च-द्रष्टा यूँ तो न
जग-अनुभव उर-रोपित, सर्वमान्य उद्धरणों द्वारा निज-उद्घोष।
अति-विपुल मनन, सर्व-ब्रह्मांड हो निज-कर, कई वर्ण-सम्मिलित
अति-विपुल मनन, सर्व-ब्रह्मांड हो निज-कर, कई वर्ण-सम्मिलित
विनीत-शैली, नर-कष्टों से करुणा, सर्वोदय हो सके यही योजित।
कैसे विपुल-कथाऐं उनके मन-उदित हुई, वे भी थे सामान्य नर
किञ्चित आदि तो तत्र भी अल्प से ही, सततता से पार दुर्गम पथ।
दीर्घ-चिंतन एक विशेष में, सर्व-उद्वेग शमित व उच्च-स्तर लब्ध
विषय-प्रकृति दृढ़-पाशित, सब चरित्र स्व के प्रारूप समाहित।
उस उच्च-अवस्था गमन प्रयास, पर कब लब्ध यह तो प्रकृति-कर
मन निर्मल, सततता हो ध्येय, कुछ नव-प्रारंभ हो सके यही जप।
पूर्व में तो धृति ही न थी उदित, संभव किसी महद रचनार्थ प्रयास
दैव सम प्रारब्ध का भी निज काल, आशा यह हो शीघ्रातिशीघ्र।
प्रयास-मति इन क्षणों की आवश्यकता, अध्याय से हो मधुर संपर्क
निज-हस्त आ सकें कोई महद तंतु, जिससे सफल हों अग्र चरण।
अनेक कथाऐं सदा विस्तृत दृश्यों में, बस एक पकड़ों दो परिभाषा
कोई न कर में कलम पकड़ाऐ, स्व-यत्न से ही सुलेखन-आकांक्षा।
उद्योग-प्रणेता, एकाग्रचित्त बन एक आदि करने का कर संकल्प
फूटेंगी नव-कोंपलें तुम रुक्ष तरु पर ही, अविचलित भाव तो भर।
जो असहज अभी दर्शित, वही देगा पथ जिसपर होगे तुम गर्वित
एकाग्र-चित्त से दृष्टि-विस्तृत करो, अनेक विषय होओगे विस्मित।
पवन कुमार,
७ दिसंबर, २०१९ समय १०:३२ सायं
(मेरी डायरी ०१ दिसंबर, २०१९ सायं समय ९:१९ अपराह्न)
किञ्चित आदि तो तत्र भी अल्प से ही, सततता से पार दुर्गम पथ।
दीर्घ-चिंतन एक विशेष में, सर्व-उद्वेग शमित व उच्च-स्तर लब्ध
विषय-प्रकृति दृढ़-पाशित, सब चरित्र स्व के प्रारूप समाहित।
उस उच्च-अवस्था गमन प्रयास, पर कब लब्ध यह तो प्रकृति-कर
मन निर्मल, सततता हो ध्येय, कुछ नव-प्रारंभ हो सके यही जप।
पूर्व में तो धृति ही न थी उदित, संभव किसी महद रचनार्थ प्रयास
दैव सम प्रारब्ध का भी निज काल, आशा यह हो शीघ्रातिशीघ्र।
प्रयास-मति इन क्षणों की आवश्यकता, अध्याय से हो मधुर संपर्क
निज-हस्त आ सकें कोई महद तंतु, जिससे सफल हों अग्र चरण।
अनेक कथाऐं सदा विस्तृत दृश्यों में, बस एक पकड़ों दो परिभाषा
कोई न कर में कलम पकड़ाऐ, स्व-यत्न से ही सुलेखन-आकांक्षा।
उद्योग-प्रणेता, एकाग्रचित्त बन एक आदि करने का कर संकल्प
फूटेंगी नव-कोंपलें तुम रुक्ष तरु पर ही, अविचलित भाव तो भर।
जो असहज अभी दर्शित, वही देगा पथ जिसपर होगे तुम गर्वित
एकाग्र-चित्त से दृष्टि-विस्तृत करो, अनेक विषय होओगे विस्मित।
पवन कुमार,
७ दिसंबर, २०१९ समय १०:३२ सायं
(मेरी डायरी ०१ दिसंबर, २०१९ सायं समय ९:१९ अपराह्न)