Kind Attention:

The postings in this blog are purely my personal views, and have nothing to do any commitment from Government, organization and other persons. The views in general respect all sections of society irrespective of class, race, religion, group, country or region, and are dedicated to pan-humanity. I sincerely apologize if any of my writing has hurt someone's sentiments even in the slightest way. Suggestions and comments are welcome.

Friday, 27 December 2024

कामायनी: एक जीवन गाथा

 

कामायनी: एक जीवन गाथा

समर्पण : यह कविता महाकवि जयशंकर प्रसाद और उनकी कालजयी कृति कामायनी को समर्पित है, जो मानवता, विश्वास, और पुरुषार्थ का पथ आलोकित करती है।


महाकाव्य गढ़ा तो कालजयी बने, संकल्प से अमरत्व है पाया,
आरंभ तो अल्प से ही किया है, निरंतरता ने इतिहास रचाया।

जयशंकर प्रसाद की कामायनी, तीन दिन पूर्व पढ़नी शुरू की,
‘चिन्ता’ और ‘आशा’ के खंड पढ़े हैं, और पल्ले पड़ा कुछ ही।
भाषा तो अतिगूढ़, शब्द चयन गंभीर, अर्थ गहराई में है छिपा,
लंबे वाक्य माप-तोल से गढ़े हैं, भावनाओं का अनमोल सिरा।

यह पुस्तक वर्षों से संग रही, यदा-कदा पढ़ा था कुछ अंश,
पर समझना सरल नहीं, प्रकाण्ड हिन्दी-ज्ञान माँगती है यह।
प्रसाद छठी कक्षा तक स्कूल गए, शेष शिक्षा घर पर ही की,
हिंदी, संस्कृत, आंग्ल-भाषा का ज्ञान विद्वानों से ग्रहण किया।

1889 में बनारस में जन्मे, 1937 में उनका देहावसान हुआ,
मात्र 48 वर्षों में, कालजयी कृतियाँ व अमिट नाम कमाया।
श्लाघा यूँ ही न मिलती, इस हेतु करना होता अथक प्रयास,
जगत तो सिर पर बैठा लेता है, यदि कर्मयोग में हो विश्वास।

प्रसाद, साहित्य का सूर्य, जिनने हर विधा की हैं आलोकित,
कविता, नाटक व कथाओं में, मानवीय संवेदनाऐं की पूरित।
उनकी लेखनी शब्दों में जीवन भरे हैं, सृष्टि का मर्म सिखाए,
मनुष्य के भीतर के गुह्य सत्य को, वे एक नवीन दृष्टि दिखाए।

कामायनी, उनकी विश्वप्रसिद्ध कृति, गहरी मानवता-संदेश,
मनु, श्रद्धा, एवं इड़ा की कथा, जीवन का अद्भुत उपदेश।
चिंता पुरुषार्थ का प्रतीक है, श्रद्धा विश्वास और प्रेम सिखाए,
इड़ा तो ज्ञान और संतुलन से, जीवन को नूतन राह दिखाए।

महावृष्टि के गर्जन में, जल-प्लावन का अंधकार गहराया,
शीतल शिला पर बैठे मनु ने जीवन का संगीत दोहराया।
चहुँ ओर जलधारा का शोर ही, न कोई सहारा, न किनारा,
फिर भी मन का दीपक है, हरेक निराशा पर भारी पड़ा।

श्रद्धा और इड़ा हैं मनु के मस्तिष्क और हृदय का संतुलन,
एक नव सृष्टि का आरंभ, जीवन का मधुर नूतन आलंबन।
आख्यान हो ऐतिहासिक या सांकेतिक, किंतु विपुल है अर्थ,
यह सत्य व रूपक का अद्भुत संगम, जो करता अचंभित।

कामायनी का प्रत्येक संदेश, आज भी उतना ही सार्थक है,
धैर्य, विश्वास एवं पुरुषार्थ ही, जीवन को देता गहरा अर्थ है।
आज के नर-संघर्षों में भी, यह राह दिखाने का मर्म रखती,
मानवता के बहु संकटों में, आशा की एक लौ बन जलती।

जलवायु संकट हो या जीवन-संघर्ष, सार जाग्रत है करता,
हर मनुज में साहस भरता है,  श्रद्धा से विश्वास जगा जाता।
इड़ा के ज्ञान का आलोक,  हर अंधकार को दूर है भगाए,
कामायनी का यह प्रकाश, हर युग में नव निर्माण कराए।

कामायनी पढ़ते-पढ़ते अपने भीतर का एक कोना खोजा,
जहाँ भी चिंताएँ शांत हो, आशाओं ने नई राहें सजीव कीं।
मनु की दुविधा है पर श्रद्धा का विश्वास, और इड़ा का ज्ञान,
मेरे जीवन की कई उलझनों में भी दिखता कुछ समाधान।

यह अनुपम काव्य मैंने शुरू किया, और इसे पूर्ण करूँगा,
संभव है कि यह विचार ही बदल दे, एवं नई दिशा दिखाए।
कामायनी पढ़कर अनुभूत होता, जीवन का अद्भुत प्रवाह,
चिन्ता, आशा एवं श्रद्धा से ही है, मानवता का सच्चा निर्वाह।



पवन कुमार, 

26 दिसंबर 2024 वीरवार, समय रात्रि 21:28 बजे 

(मेरी महेंद्रगढ़ (हरि०) डायरी दि० 6 मई 2015, बुधवार, 9:06 बजे प्रातः, से)


Saturday, 7 December 2024

सत्य उच्चता-प्रतिभागी

सत्य उच्चता-प्रतिभागी

क्यूँ रह-रह कर मन वहीं पहुँच जाताजीवन में दूजे विषय भी हैं,

अनावश्यक को मत अति तूल दोऊर्जा-समय दोनों अनमोल हैं।

 

अति घटित होता दिन-प्रतिदिनजो हो चुका उसमें तुम सहभागी,

क्रिया-प्रतिक्रिया से वार्तालाप चलता, प्रश्नों ने खींची है जिम्मेदारी।

वे गठित करते बैठक की रूपरेखापूछें कितनाक्यों व  किससे,

पूर्वाग्रह से पूरे भरे रहते फिर भी, हमें सभ्यता का धैर्य रखना है।

 

जो बीत चुका उसकी पुनरावृत्ति क्योंप्रतिक्रिया बस उपयुक्त ही,

एक समय बाद भूलना ही अच्छा, सेहत व मन दोनों के लिए ही।

प्रतिबद्धताएँ समय माँगती हैंपर क्या जीवन जोड़-तोड़ में बीते?

स्वार्थ के स्वर बदलते रहते हैं, रह-रह कर अपना रूप दिखाते।

 

एक सीमा तक छोड़ना आवश्यकदेखो क्या समाधान संभव है,

कार्यालय ही तो सब कुछ घर-परिवार और स्व-चिंतन भी हैं।

प्रतिष्ठा हेतु प्रतिबद्ध रहोपर जीवन-संतुलन भी है अति जरूरी,

अपनों को संभालो, आपकी व्यस्तता से कहीं वे बिखर जाएं।

 

एक आयाम में सिमटे ही रहनाअन्य आयामों से बनाता है दूरी,

वे तुम्हारी उपयोगिता बिसरातेजानते कि तुम उनके लिए नहीं।

जहाँ जन्मेवहाँ का फर्ज निभाना है, मूल्य तो चुकाना ही होगा,

चेतना क्षेत्र एक श्रेष्ठ आयाम है, उसमें सबके लिए जगह बनाओ।

 

सारी ऊर्जा एक जगह झोंकना, कभी समय की माँग सकती हो,

पर स्वयं को भी सहेजना सीखो, स्वास्थ्य नियम सदा अपनाओ।

इस विश्व को अति गंभीर  लो, वे अधिकांशतः स्वार्थ में उलझे,

कर्त्तव्य पहचान निर्वाह करो, पर अन्य को दैव-विधाता मानें।

 

यहाँ नए-नए लोग उभरते हैं,  बुद्धिमता का लोहा मनवाने निज,

जैसा समझ में आए, वैसा करो, पर उचित परिप्रेक्ष्य में दो उत्तर

निकट नेताओं से सीखो, वे लड़ते-झगड़ते भी संग खाते-पीते हैं,

आलोचनाऐं दिल से नहीं लेते रोज़ की बातें, सहजता से निभाते।

 

लघु विषयों पर तुनकमिजाजी  उत्तमधैर्य का फल मीठा होगा,

सत्य रंग समय बाद दिखता है, नए लोगों का सच सामने आएगा।

लोग पहले स्वपक्ष में विश्वास करातेजोड़-तोड़ का खेल चलता है,

परिणाम का पता नहीं, किंतु वर्तमान का आनंद तो ले सकते हैं।

 

विषय जो होभुलाओ भीघर-कुटुंब को समय देना आवश्यक है,

लोगों के पीछे भागो, जब आवश्यकता होगी तो वे स्वयं आयेंगे।

देखो यह युग प्रयास करने वालों का हैबड़ा लाभ-अंश वे ही पाते,

जो बिना प्रयास किए मात्र सोचते ही, प्रायः भाग्य को दोष हैं देते

 

तुम्हारी चेष्ठा रंग लाएगी, यदि मंशा होगी ईमानदार एवं सर्वहित

परंतप शक्तिवान बनो, किंतु धैर्य से करना भी सीखो निवारण

बंधुओं के संपर्क में रहो, संवाद तुम्हें देगा शांति, सम्बल एवं वेग

जगत के कार्य बहुत पेचीदा हैं, अतः प्रयास करो सुबुद्धि ही संग

 

मत उलझो बहु रहस्यों में, दर्पण-चेहरे दोनों होना मांगते स्वच्छ

निज दृष्टि को दूरदर्शी बनाओ, सब जुड़े अवयव करो ही स्वस्थ

उच्चता के तुम सत्य ही प्रतिभागी, किंतु प्रयास का  छोड़ो संग 

काल तो बलियों की भी परखता, अतः चलना धैर्य-विवेक संग। 



पवन कुमार, 
7 दिसंबर 2024 शनिवार, समय 10:54 बजे प्रातः 
(मेरी डायरी दि० 30 मई,2024, शनिवार समय 8:41 बजे प्रातः से)  


Monday, 2 December 2024

चंचल बाल मन-सुलभता

चंचल बाल मन-सुलभता

 


                             मन एक बालक जैसा है, प्रतिदिन चाहिए एक नया खिलौना,

उसे उबासी होती पुराने से, बस सतत प्रयास नव-सम्पर्क का।

 

कभी सोचा था नियमित लिखूँगा, अब अध्याय कहाँ से ढूँढ़ें नव,

किंतु मन भी ढ़र्रे में सोचता, तथापि बहुरंगी माँगता निज वचन।

यह तो एक टीवी मीडिया सा, इसे 24x7 भरण-सामग्री चाहिए,

नित्य ही नवीन-रोचक खबरें हों, कभी अमिताभ बच्चन बोले थे।

 

वहाँ रतों का काम यही, खोज-संकलन, संपादन बाद करें प्रस्तुति,

अंततः दर्शकों को कुछ नवीन मिलेगा, उनकी टीआरपी भी बढ़ेगी।

इसीलिए भिन्न-भिन्न विषय चुनते , और पृथक व्यक्तित्वों से मिलते,

लघु-महद संवाद करते, नमक-मिर्च लगाकर खबर प्रस्तुत करते।

 

सब संग्रहालयों की भी एक प्रक्रिया, अप्रतिमों को करना एकत्रित,

जैसा रोचक-अनुपम, विचित्र-दुर्लभ मिल जाए, यत्न से हैं सज्जित

किंतु ज्ञान एवं शोध इतना सरल भी न, कि सोचा और हुआ संभव,

'गीत गाया पत्थरों ने' जैसे शीर्षक ढूँढ़ते, वाणियों में पिरोते हैं शब्द।

 

संग्रहालय-लक्ष्य तो दर्शकों को विभिन्न ज्ञान एक स्थान पर दिखाना,

दर्शक तभी आनंदित होते, जब बहु नूतन विधाओं से सम्पर्क होता।

ये ग्रंथागार-वाचनालय, कलाकृति प्रदर्शनी, विशेषज्ञ सम रखते पक्ष,

पाठक-दर्शक होते हैं प्रेरित, समय के सदुपयोग से बढ़ता मनोबल।

 

विभिन्न पुस्तकें, अनेक अध्याय, लेखकों के अपने विभिन्न मंतव्य,

सबमें कुछ विशेषता भी, रूचि अनुरूप चाहे तो सकते कुछ गुन।

सब उद्देश्य बहु आयामों से संपर्क कराना, मानव आत्म में अत्यल्प,

इतर-तितर संयोग से विस्तार होता है, किञ्चित और होता बुद्धिमान।

 

मन एक बावला है, स्वयं से नहीं संभव, तथापि ले लेता महद वचन,

इस क्षुद्र मस्तिष्क का कौन संगी है, जिससे नित करा सके निर्मित?

महारथी अर्जुन ने सूर्यास्त तक जयद्रथ के वध का ले लिया प्रण तो,

किंतु कौरवों ने सफल न होने दिया, लाज बचानी पड़ी कृष्ण को।

 

वो चीज कहाँ से लाऊँ, तेरी दुल्हन जिसे बनाऊँ, कोई पसंद न आए छोरी

मन किञ्चित तो अचंभित होता, परंतु नवीन हेतु लगाता छलाँग भी।

इस अल्पता का तो भोगी, फिर परजीवी कुछ न रच सकता निज से

युक्ति करने की भी न अति समझ, अतः यूँ ही इधर-उधर हाथ मारे।

 

नदी में कूदने पर ही तैरना आता, अतः सीख सकते यदि हो प्रयास

अनेक बाहर आते कूप-मंडूकता से, सोच लिया तो दिखेगा भी मार्ग।

बिन कुछ किए तो जगत में, मनुज की नहीं हुआ करती प्रगति बहुत

ध्यान करो, कर्म-इंगित करो, एक साहसी सम बढ़ाओ अग्र कदम।

 

मेरी भी चेष्टा लेखन सार हेतु, कुछ सुस्त हूँ स्वयं से ही बनाता नव

माना बाह्य अध्ययन भी आवश्यक, जो स्वयं को करते देने महत्तर।

जब अभ्यंतर सुघड़-श्रेष्ठ हो जाएगा, तो बाहर भी उत्तम ही आएगा

यही एक आदान-प्रदान का सिलसिला, बिना किए यश न मिलेगा।

 

किञ्चित आत्म-प्रयास ही सराहनीय है, किंतु बहुत  न होता पर्याप्त

मनीषियों ने बहु विषय सामंजस्य-मंथन कर कुछ बनाए हैं सिद्धांत।

वे उत्तम क्योंकि अनेक प्रयोगों बाद ही आऐं, उनसे आगम लो अत:

चिंतन-मनन की वांछित सामग्री देगा, उत्पादकता तो बढ़ेगी कुछ।

 

माना लेखन कर्म तो स्वयं से जूझना ही, पर वहीं से निकलेगा अमृत

किंतु पूर्व कृत-संचित ऊर्जा-ज्ञान बड़ी शक्ति देता, तन-मन को इस।

अतः सीखो जितना भी बन पाए इस जग में, उत्तमता की कुंजी है वह

निर्मल स्वरूप तो शुभ-मिलन से ही बनेगा, सांझी सोच का है महत्त्व।

 

हम नित्य तो उत्तीर्ण-अनुत्तीर्ण होते हैं, प्रश्न मात्र सम्मान का न अत:

यह मात्र एक चेष्टा दक्ष बनने की, आत्म-आदर की यात्रा है निरंतर।

अतः बस सोच लो लिखने को नव अध्याय, नहीं कोई विषय-अल्पता

अनेक प्रयास करते, इसकी साक्षी हैं सकल उपलब्ध रचनात्मकता।

 

खिलौनें तो अनेक पर आनंदित-आविर्भूत होकर जाओ नए पर ही

ग्रंथालय-संग्रहालय सा कुछ सहेजो, गर्व-संतोष की होगी अनुभूति।

 

 

पवन कुमार,

ब्रह्मपुर, 2 दिसंबर 2024, सोमवार, समय 9:19 प्रातः

(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० 17 अप्रैल 2015, शुक्रवार, समय 9:17 बजे प्रातः से)

 

Friday, 22 November 2024

सृजन-पथ

सृजन-पथ

जीवन के वर्तमान रिक्त पलों में, क्या अनुपम कृति बना सकते 

कब तक अल्प प्रयासों में ही अटकेंगे, औरों से पीछे रह जाएंगे।


माना मनन-काव्य सार्थक है, पर क्या यही एक पूर्ण उद्देश्य?

हर चिंतन-साधना में लाभ, पर नर-परियोजना है अति वृहद।

जीवन में कुछ उच्च लक्ष्य हो, जिसके संग हर प्रयास जुड़ा हो,

अल्प रस भी तब अमृत बने, जब कदम बढ़ें व दृष्टि अडिग हो।

 

मनीषी कहते, "हीरा जन्म अमोल है, कौड़ी सा नहीं करो मोल"

जो तम से निकले, साहसी बने, उनका ही नव-विश्व से आत्मसात।

आत्म-केंद्रित रहना भी श्लाघ्य, पर कर्म समर्पित हो जब जगत में,

स्तुति सजती उसी कृति पर सदा, जो अपने स्वार्थ से बढ़कर हो।

 

दैनंदिन जीवन निर्वाह तो सरल, आजीविका से सहजता आए, 

पर सदुपयोग रिक्त काल का ही, सत्य मनुज-कसौटी कहलाए।

सुस्वास्थ्य, स्वाध्याय, समरस शैली, हर जीवन-दिशा में दें गति,

किन्तु ये तो साधन मात्र लक्ष्य हेतु, क्या इनसे राहें तय बनेंगी?

 

जीवन तो आधा बीत चुका, किंतु मन-देह यौवन की सीमा पर

असीम ऊर्जा व समय अपार, पर लक्ष्य अभी तक भी अज्ञात?

बारात सजी, पर दूल्हा न दिखे, यह बाह्य दिखावा भर लगता,

जीवन तो सार्थक तब ही बने, जब कर्म से पथ सच्चा बनता।

 

महानरों ने देखा गुरु स्वप्न, व जीवन को सुलक्ष्य दिया हर पल 

मुफ्त में न यश मिला किसी को, तप से ही सब सृजन सफल।

संभव किसी कृति में जीवन भी लगे, पर सृजन का न छूटे मर्म,

स्वयं को एक परियोजना मानो, व सुप्रबंधन से हों कर्म प्रबल।

 

आत्मा में निहित है जो एक दिव्यता, उसे चेतना से जागृत करें 

लक्ष्य स्वयं आकार ही लेगा, जब आत्मा के स्वर को सुन सकें।

कल्पना से ही सुकृति बनती है, पर श्रम से वह सजीव दिखेगी,

प्रारूप रखो और जुट जाओ, तभी अनेकों सत्य-परतें खुलेंगी।

 

प्रकृति या देव-चित्र के अनुपम अनुभव, हृदय में प्रेरणा जगाएं 

लक्ष्य तय होंगी तो राहें बनेंगी, वरना भटकाव ही कदम गिराएं।

अनिश्चतता से तो यात्रा व्यर्थ, बस भाग्य-सहारे लक्ष्य पूरा न होगा,

गंतव्य साधना पहला कदम है, तभी प्रत्येक पथ सच्चा बनेगा।

 

एक राह चुनो रुपरेखा बनेगी, फिर उसी में मन को रमाओ 

लेखन, सेवा, विज्ञान-कला, जो रुचता हो, उसमें लग जाओ।

माना सर्वत्र निपुण होना संभव न, श्रेष्ठता वहाँ जहाँ है लगन,

एक राह पकड़ो और बढ़ते चलो, लक्ष्य में हो संपूर्ण मगन।

 

माना वर्तमान रूचि लेखन में, किंतु अन्य विषयों में हो चिंतन 

एक विधा में निपुण बनो, और जीवन का स्वर बनाए सजीव।

चयन दुष्कर प्रक्रिया, क्योंकि सब अच्छे पर चिह्नन आवश्यक

महानता का आधार वही, स्वरुचि कृति से श्रेय सजेगा जब।

 

अतः रिक्त समय कदापि न व्यर्थ करो, उसमें बहु स्वप्न गढ़ो

उपलब्धि माना दूर सही, पर चलने से, हर गंतव्य समीप हो।

इस जीवन के पाँसे कहाँ पड़ेंगे, यह तो भविष्य ही बताएगा,

पर शीर्षक खोज कर बढ़ते चलो, लक्ष्य ही मार्ग दिखाएगा।

 

प्राण दुर्लभ, हर पल नूतन जन्म, व्यर्थ मूढ़ता से तो न लाभ 

जो अभी पास, उसे सँजो लो, उससे ही बनाओ अग्रिम राह।

वर्तमान-एकत्रण अग्र की भूमिका बनता, अतः साधना ही पथ

परम जिज्ञासा से हल खोजो, और सुलझने से मिलेg मंजिल।


पवन कुमार, 

22 नवंबर 2024, शुक्रवार, समय 11:30 बजे रात्रि 

(मेरी जयपुर डायरी 20 अक्टूबर, 2016 वीरवार, समय 7:27 बजे से) 

Sunday, 17 November 2024

मनोबल महिमा

मनोबल महिमा 



 हे उच्च मनोबल के नायक, संस्थानों के प्रणेता अपने

आत्मा को दबने न देना, चाहे कैसी भी वेदना हो गहरी।

 

जीवन रणक्षेत्र में विजयी होना, हर रूप में सक्षम बनाना, 

निज प्रेरणा पथ पार कराती है, पहले स्वयं से विजय पाना।

 अपनी हार में जो विशाल आनंद है, वह स्वयं से मिलने में है

सब दंभ हटते, सच्चा रूप दिखता, अंधकार भी जाता हट।

 

माना कुछ क्षीण हम, किंतु सब बाधाऐं हटाता मनोबल,

ज्ञान-चक्षु कराते दर्शन, घावों पर प्रेरणा लगाती मरहम।

हर क्षण घायल होतें, तथापि सशक्त से संघर्ष में डटे रहते,

माना संघर्ष थकाऊ ही, परंतु सबसे बड़ा जीवन-धर्म है

 

मूर्खताजनक मुग्धता न श्लाघ्य, पर आशा करना दोष नहीं, 

अबतक न घटित तो आगे भी न होगा, ऐसा मानना न सही।

क्षमताएँ बढ़ सकती हैं, यदि प्रयास हो निरंतर व स्वाभाविक, 

मनुज सीमाओं से बाहर आया, तभी लब्ध सफलता अद्भुत।

 

मरकर जी उठेंगे, धैर्य नहीं छोडेंगे, बाधाएँ नहीं रोकेंगी पथ 

ठोकरें लगेंगी, काँटे चुभेंगे, मजाक भी होगा, कभी गर्व मर्दन।

अपनी असली दशा जानकर, गंतव्य की दूरी भी पहचान लेंगे,

कौन से उपकरण आवश्यक हैं, जुटाकर उन्हें बलवान बनेंगे।

 

अपना स्तर जान दूसरों की शक्ति आँकेंगे, रण-नीति बनाएंगे, 

न स्वयं को कभी दुर्बल आँकेंगे, परिवेश को सशक्त बनाएंगे।

सब लगें अपने को स्थापित करने में यहाँ, होड़ एक जबरदस्त,

क्षीण पीछे छूट जाता, कमसकम प्रतियोगिता में तो हो चयन।

 

माना अब तक संपर्क अपने जैसों से, पर अब महा-मुकाबला,

सब आयुध सहेजो, शस्त्र पैने करो, समर तो अब शुरू हुआ।

यहाँ कृष्ण-वचन सत्य हैं, 'युद्ध कर', जो बहुतों को देते प्रेरणा,

विशाल सेना तत्पर झपटने को, पर मनोबल है महान प्रणेता।

 

अनीति पर सुनीति की विजय, अंधकार को चीर डालता प्रकाश,

असत्य पर सच्चाई की जयश्री है, मृत्यु भी अमृत से जाती हार।

लुब्ध-प्रवृत्तियों पर ईमानदारी की जीत, परिश्रम से विद्या मिलती, 

सुयश प्राप्त है योग्य कर्मों से, चाटुकारिता कभी काम न आती।

 

मेहंदी का रंग चढ़े धीरे-धीरे, सहज पककर ही तब मीठा होए, 

सुगुण-सुगंध तो स्वतः फैलते हैं, अच्छे-बुरे सभी लाभान्वित होते।

आत्म प्रयासों का ही अधिक सहारा, अन्य भी योग्य का साथ देंगे, 

उत्तम बुद्धि में ज्ञानमय होकर, अपनी प्रतिभा हम मनवा ही लेंगे। 

 

कर्मठता का यश दूर तक फैलेगा, यदि मन में होंगे सच्चे प्रयास,

माना जग में कुछ भेदभाव है, प्रतिभा को भी करने में स्वीकार।

एक दिन मेहनत रंग लाएगी, परम श्लाघ्य को न झुठलाता कोई

देखो कहाँ से कहाँ पहुँच गए हो, घबराने का कोई कारण नहीं।

 

आत्मसम्मान के योग्य बनो, कह सको, "निर्मल प्रयास किया", 

संस्तुति परम-आराध्य की होगी तो सरस्वती-लक्ष्मी भी चलेगी।

मन में हों बहु सकारात्मक भाव, सुकथन का बनाओ संकल्प, 

किसी को रुष्ट करना अनावश्यक, छोटी-मोटी बातें लो सह।  

 

सदैव प्रतिक्रिया अनावश्यक, शांतभाव उच्च-मन का प्रतीक, 

जल में रहकर मगर से शत्रुता मारक, सत्य क्षेम में बहु उन्नति।

वरिष्ठों का आशीर्वाद आवश्यक, सब योग्यों से गुण ग्रहण करो, 

उजले मानव-पक्षों को अपनाओ, बात-बात पर न उद्विग्न ही हों।

 

सभी उद्योग बढ़ाओ सकारात्मक दिशा में, स्थिति को सुदृढ़ करो

संपर्क करो कुछ योग्यों से, सुसंवाद से आत्म परिवेश शुद्ध करो।

जहाँ सूई काम कर सकती अनावश्यक तलवार, ऊर्जा हो संचित,

बहु कर्म अति-बल मांगेंगे, अतः सीमित ऊर्जा को न करो व्यर्थ

 

लाभान्वित हों सहकर्मी भी, राष्ट्र-विभाग का नाम करो उज्ज्वल, 

बनकर नियमित प्रदत्त शुभ कर्त्तव्यों में, आधार खूब करो सुदृढ़।



पवन कुमार,

17 नवंबर, 2024 रविवार समय 11:33 बजे प्रातः 

(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दिनांक 4 जून, 2015 वीरवार समय 8:15 बजे प्रातः से)  


Thursday, 14 November 2024

पूर्व दिशा चिंतन


पूर्व दिशा चिंतन  

 

पूर्व दिशा में दृष्टि करना, योग का है एक मुख्य नियम,

यदि पूर्ण उचित नहीं भी लगे, तो भी प्रयास हो अनुपम।

 

सूर्य प्रातः उदित होता, पूर्व से भू को देता ऊर्जा अपार,

शुभ दिशा मानी जाती, भास्कर से सीधा संबंध साकार।

मस्तिष्क का संयोग उचित ही, ध्यान का होता है संगम,

महद चिंतन हो जाता, शरीर की क्रियाएँ होतीं संगठित

 

वास्तु-शास्त्र है दिशा-आधारित, शुभ-अशुभ करे इंगित,

मंदिर-मुख पूर्व को, आजकल किए जाते भवन-द्वार भी।

सारे योगासन पूर्व दिशा ओर ही मुख करके किए जाते,

कारण तो अधिक न मालूम, बस शुभ-अशुभ से जुड़ते।

 

भारतवर्ष उत्तरी-पूर्वी गोलार्ध में, सूर्य यहीं उगता पहले,

यूरोप-अमेरिका को पश्चिम कहते हैं, वे पश्चिम में बसते।

हम पूर्वी, हमारी संस्कृति उनसे विलग ही बताई जाती,

दक्षिण-पूर्व का क्षेत्र कमोबेश सम विचारधारा अपनाता।

 

मस्जिद-प्रवेश पश्चिम में निर्मित, मक्का-मदीना हैं उधर,

मुस्लिम  हिन्दू संस्कृतियों में बताई जाती है भिन्नता कुछ

शैली अनगिनत बना लेते, मनुज इन्हें जीवन में अपनाता,

जो अन्य किंचित भिन्न होते, उनमें सहज विरोध हो जाता।

 

भोजन समय पूर्व को मुख करते, पूर्व-दक्षिण को सोते सिर 

दक्षिण ओर पैर न करते, दिशाओं का भी कहा जाता चरित्र।

पर कहते हैं गुरु नानक के पैर, पूर्व व पश्चिम में रख दिए थे,

किंतु वह योगी थे, जिधर देखें, मक्का की मस्जिद ही दिखे।

 

पूर्व दिशा की ओर मुख करके, मनन-चिंतन लगाया जाता,

लेखनी से कुछ बेहतर ही निकालेगा, ऐसा माना है जाता।

पृथ्वी की उत्तर-दक्षिण ध्रुवीय चुंबकीय किरणें हैं निर्धारक,

उत्तर सिर करने से सिर भारी किरणें सीधी होती हैं प्रवेश। 

                                                                 

दक्षिण में ऐसा दुष्प्रभाव न, नियम भी बनें आधार पर इसी,

दक्षिण दिशा में सिर करके सोना, प्राणी को देता है शांति।

इसलिए ध्यान-योग विषयों में, दिशाओं का विशेष स्थान,

प्राचीन नियमों में यह छिपा है, समझो इसको महा ज्ञान।

 

                                      

पवन कुमार,

14 नवंबर, २०२४, गुरुवार समय 7. 37 बजे

(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दिनांक 1 अप्रैल, 2015, बुधवार, समय 8.30 बजे प्रातः से)