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Sunday, 29 March 2015

कुछ बेहतर

कुछ बेहतर 


कैसे करूँ, अपने इस क्षुद्र मन-प्राण को ही निर्मल

बहुत अवाँछित धूल-कचरा भरा पड़ा है इसमें जब॥

 

नहीं छूटता है किंचित भी, अन्य-निंदा का आस्वादन

चाहे न चाहे यह जिव्हा, नश्तर चुभा ही देती है निज।

हालाँकि यह देती है, अपने मन को भी कष्टक-व्यथा

परन्तु मन तो निज अल्पत्व प्रदर्शित कर ही है देता॥

 

न तो छूटा मन लोभ से, स्वाँग चाहे ऊपर से लूँ कर

कहीं न कहीं स्व हेतु ज्यादा, करता ही तो कोशिश।

वह भी तो नहीं मैं शायद उतना बुरा, जितना हूँ अंदर

सुस्ती-अनियमितता, कार्य टालना आदि उसी ही में॥

 

पर लोभ की किञ्चित एक अति विस्तृत परिभाषा है

जब कष्ट होता `वसुधैव-कुटुंबकम' सूत्र अपनाने में।

जब स्वार्थ पूर्ण हावी हैं, न प्राथमिकता सर्वजन हित

जब सूर्य-चन्द्र-पवन-धरती सम, न है प्रवृत्ति-बाँटन॥

 

किंचित हमारे स्वार्थ-स्तेय व लोभ ही संकुचा हैं देते

व्यापक-दृष्टिकोण से हटा, बस स्व-साधन सिखाते।

अति लघु बनाते, संभावना नर-विस्तृतता की अपेक्षा

श्रेष्ठ जो जगत को कुछ देते, बदले में कोई न आशा॥

 

फिर स्वयं को कैसे बनाऐं ही, जब कुछ संचित हो न

पर बुद्धि-मार्ग से, स्वारूढ़ होना शायद न बस लोभ।

हाँ, तय अपेक्षा-नियमों में लज़ीलापन दुर्बलता-द्योतक

वह तो लोभ ही, क्यूँ कि पार जाने में हम होते अक्षम॥

 

कैसे सोचूँ बेहतर जग विषय, क्यों टिप्पणी जाने बिन

कितना बोलना उचित, व क्या वह नितांत आवश्यक?

चंडूखाने की ख़बरों का कोई वज़ूद न हो जीवन में इस

फिर भी कर्ण-संतुष्टि व जिव्हा-स्वाद कारण हैं भ्रमित॥

 

निस्वार्थी होने का तात्पर्य, स्व-विकास मार्ग त्याजना न

अपितु सर्व हिताय स्व- सक्षम बनाना, उसका है भाग।

बाहर निकलूँ ज्ञानेन्द्रियों की, लेने आनन्द-लोलुपता से

तभी मन की अनुपम शांति, अनुभव भी कर सकूँगा॥

 

मेरे मन-अहंकार को तो हटाकर, प्रेम-मार्ग दिखा दे

कैसे बने जीवन सुंदर ही, इस हेतु कुछ पाठ पढ़ा दे।

टिप्पणी एक विशेष कारण के, वशीभूत होकर न दें

सकल तथ्य ध्यान-विचार, निज से कुछ उत्तम करें॥

 

प्रतिबद्धताऐं हों विस्तृत, मन-मस्तिष्क-उर मृदुल बना

निकालूँ मन-कायरता बाहर, उचित शब्द में न लज्जा

जहाँ भी मिले कोई विचार-मंच, सर्वहित कथन न बुरा।

बनूँ एक निर्मल मनस्वी, न झिझक स्वस्थ-यश वचन में

प्रश्न उत्थित हो निज से, जिसको समर्थ भी महत्त्व देते?

 

उचित-निर्वाह और थकान को बाधा करने से रोकना

निज-सामर्थ्य बढ़ा, एक निर्भीक का व्यवहार करना।

जब असमर्थ हो समझने में, पूछना न है गलत नितांत

ज्ञान वह शक्त करता, अतः रोक-निवारण अनिवार्य॥

 

कैसे बनूँ सुविचारक, जब हो निज-कर्मठता पर विश्वास

कैसे अन्यों को लगे सत्य-उचित सार्वभौमिक ही कहा।

हालाँकि यह किंचित स्वार्थ ही, न तो आकांक्षा न करत

तथापि उचित हेतु निष्ठा, इस मंज़िल की है सीढ़ी प्रथम॥

 

ओ मौला, दूर कर सब अंधकार, जीवन उचित-मृदुतर

मन बने अति पावन-संयमित, दूर हों लोभ-प्रलाप सब।

मदर टेरेसा, बाबा आमटे, गाँधी सम सबको गले लगाना

सब बाधाओं को हटाकर, हमें सुमार्ग का यत्न है करना॥

 

धन्यवाद॥


पवन कुमार,
29 मार्च, 2015 समय 00:05 
 ( मेरी डायरी दि० 29 मई, 2014 समय 9:20 प्रातः से )  

Monday, 23 March 2015

सुबह की बारिश

सुबह की बारिश 

भोर की वर्षा, घोर मेघ-गर्जन, बाहर चहुँ हरीतिमा-प्रसार है

कुछ वसुंधरा-प्यास बुझी है, इस चिर-प्रतीक्षित रिमझिम से॥

 

वस्तुतः अत्यल्प वृष्टि है इस वर्ष, भारत-देश के बढ़ा रही कष्ट

अतः जाते से मानसून में वर्षा-दर्शन, अहसास है अति सुखद।

सब धन-धान्य है निर्भर, समस्त कृषक-मज़दूर जोह रहें बाट

 जल-अल्पता एक गंभीर विश्व-समस्या, वर्षा है उसका निदान॥

 

इस पोषक नीर के धरा-आगमन से, तरु-पादप सब हैं हर्षित

धुल जाता मैल पल्लवों का, देखो सब हैं लहलहाते आनंदित।

सर्व-कृषि विशेषकर धान-फसल हेतु, यह जल तो है वरदान

नलकूपों से भूजल-निकास महँगा, अतः है बारिश-आव्हान॥

 

झरने-नदी-नालें सब आह्लादित होते, जैसे भर गए उनमें प्राण

सिंचित करें धरा- क्षेत्र को, परिवहन होती जल-राशि विशाल।

तरु-पादप खिल से उठते, उनकी वृद्धि अमल प्राण-वायु देती

धूल-दूषण वातावरण कम होता, अनिल स्वच्छ-निर्मल होती॥

 

वसुधा के शुष्क वक्ष-स्थल पर, यूँ बाँट जो रही तृण-वनस्पति

हर नीर-बूंद उन हेतु सुधा, तब सुंदर छटा विस्तृत है करती।

समस्त प्राण वारि ही निर्भर, न्यूनता है उसकी कितनी विद्रूप

 नगरों में मारा-मारी जल की, ग्राम्य-जीवन और कठिन रूप॥

 

सिञ्चन इस पावस अम्बु से, सब कुछ है निःशुल्क प्रोत्साहित

यह प्रकृति का अमूल्य उपहार, सब इससे ही हैं प्रतिपादित।

पानी का हम आदर करें, उसकी उपलब्धि से है जीवन-संचार

 वर्षा निश्चय ही एक सुमाध्यम, जल-चक्र करे सबका उपकार॥



 पवन कुमार,
23 मार्च, 2014 समय रात्रि 22:31
( मेरी डायरी दि० 30 अगस्त, 2014 समय 8:15 प्रातः से ) 

Tuesday, 17 March 2015

प्रबुद्ध चिन्तन

प्रबुद्ध चिन्तन 



ओ प्रज्ञा-विवेक ! प्रयास करो, मन मेरा तो निर्मल करो

अनेक भ्रांतियाँ अंतः-स्थित हैं, स्वच्छ कर मृदुल करो॥

 

मन में कुछ प्रश्न हैं, सर्वश्रेष्ठ-प्रभुता सहज न स्वीकारता

निकट तो पाया न उसको, व बाहर से समझ न आता।

कुछ इधर-उधर से देख-पढ़कर ही, हुई है बुद्धि गठन

जग-प्रक्रिया स्वतः या संचालित, विषयों से न है संपर्क॥

 

बुद्धि तो कदापि सीधी न, अपनी तरह परिभाषा बनाती

अन्य व्याख्या सहज-अस्वीकृत, निकट हेतु प्रयत्न करती।

कुछ तो उचित होगा, कार्य करने का सलीका आ जाता

उचित सामंजस्य हेतु आवश्यक, ठोक-पीट कर देखना॥

 

अनेक आस्तिक इस जग में, परम-सत्ता में विश्वास सहज

देव ही कर्ता-पालक-संहारक, उसे वे जोड़ते प्रकृति संग।

जनों ने रचें रूप निज अनुरूप, पर कितने हैं सत्य-निकट

हुआ बड़ा कार्य इस क्षेत्र, एकाधिक हैं व्याख्या उपलब्ध॥

 

यदि नर हम छोड़ दे, अन्य जीवों में ईश-नमन न देखते

कुछ मुद्रा प्रभु-प्रेम समझते, पर ज्ञान बुद्धि का न उनके।

देख प्रकृति को निकट, कुछ बंधुओं ने किया जग-चित्रण

जोड़ा उसे परा-शक्ति से, अन्यों की चाहे आए समझ न॥

 

देव-चेहरे भी बदलते रहे, कुछ हट गए, कुछ नए आ गए

विभिन्न सभ्यताओं के स्व-आराध्य, निज भाँति स्तुति गाए।

अनेक दंत-कथाऐं जोड़ी चरित्रों में, मानव-परे बनाना-यत्न

पर तत्वज्ञ करते प्रश्न, तोलते ढ़ंग-कर्म-वाक्य व हर चरित्र॥

 

देव भी न आलोचनाओं से परे, अंततः वे हैं नर-कल्पना

कैसे कोई परिभाषा सक्षम, दुष्कर खुद को ही समझना।

मनुज ने कुछ देख-समझ कर, अनेक खड़े हैं किए पात्र

क्या सत्य या सहज श्रेष्ठ-भक्ति या पेट पालने के उपाय ?

 

कैसे चरित्र खड़े कर लिए, देव-२ कहकर प्रचार किया

कुछ प्रजा में श्रद्धा जगाई, खाने-पीने का प्रबन्ध किया।

कितने अनुष्ठान-बलियाँ, उन देवों के नाम पर गई लाई

लोभ निज व नाम देव का, यह तो कोई भक्ति न भाई॥

 

चारण-भाट नृप-स्तुति में, जीविकोपार्जन सुनिश्चित कुछ

निज-अमरता की प्रखर इच्छा, विद्वान करते प्रचार कुछ।

वस्तुतः क्या व्याख्या ग्रंथ-जड़ित है, व बढ़ाते कथा-वाचक

या रचनात्मक बुद्धि की, स्व-वृद्धि हेतु रचवाती साहित्य॥

 

क्या यह ज्ञान है मनीषी-रचित, वा प्रवृद्ध भाटों की स्तुति

या सहज लोक-प्रकृति, जो कुछ श्रेष्ठ को उच्च मान लेती।

माना सदा कुछ चरित्र अनुपम होते, जो सत्य ही हैं स्तुत्य

पर ईश-सृष्टिकार तक जाना, उचित-तार्किक कहाँ तक?

 

दयानंद-कबीर से चिंतक, किया है पात्र समझने का कष्ट

रूढ़िवादिता पर किया प्रहार, सत्य समक्ष लाना है प्रयत्न।

 ब्रह्म-ज्ञान तत्वज्ञ सा भी कुछ, या इच्छा निज-दर्शन प्रचलन

 संपूर्ण में तो कुछ उचित भी हो, पर क्या सत्य वाक्यांश हर?

 

क्या है धर्म-ग्रंथों का इतिहास, कैसे मनुज द्वारा देव चित्रित

 कैसे मंदिर-गिरजे-मस्जिदें खड़ी हुई, अनुशंषा में महायज्ञ?

क्या कृति नर-कला पक्ष, या एकांत पलों का चिंतन-एकत्रण

या स्व-संवाद वृद्धि-लालसा, कुछ भक्त-अनुचर जोड़े संग?

 

नर दक्ष परिभाषा में, उनके लघु-कार्यों में भी भरता सौंदर्य

फिर जहाँ श्रद्धा, सब दोष किनारे, भला पक्ष ही करे समक्ष।

कवि हृदय विशाल है, निज पक्ष-कथन का सुघड़ ढ़ंग रखता

विशेष ज्ञान पात्र-वदन बोलता, कल्पना सत्य-रूप है लेता॥

 

कुछ हो मानव मन विशाल, वृहद रचने का रखता सामर्थ्य

सब प्रकार के प्रयोग करता, ईश्वर-चिन्तन उनमें से है एक।

कुछ चपलों ने निर्वाह हेतु भी, अनेक युक्ति इस क्षेत्र लगाई

मन रहे नित्य सहज भक्तिमय, गुह्यता ने भीत है दिखाई॥

 

तुम चलते चलो, निर्मित करते देवानुष्ठान हेतु स्थल अपना

अपने शिविर लगाए बस दूकान चल निकली, चोखा धन्धा।

क्या यह देववर्धन, या यथासंभव कर्षण करना बहु-ग्राहक

दान-दक्षिणा महद थी पूर्व, अब भी मठ-आश्रम हैं समृद्ध॥

 

प्रतिष्ठानों से उच्च संस्कृति निर्माण, विद्वान-तर्क से आकर्षण

यह प्रायः नगरों में होता, एक व्यवसायिक केंद्र सा है रूप।

छोटी जगह लघु संस्कृति पनपे, जन देव-समर्पित ही अपने

थोड़े में ही निर्वाह, यदा-कदा शक्ति अनुसार लगते हैं मेले॥

 

प्रचार-योग बड़ा बढ़ने में, युक्ति हेतु लोग व्यय वहन करते

सफलता कई कारक-निर्भर, कुछ प्रसिद्ध-समृद्ध हो जाते।

माना अति-स्पर्धा उनमें भी, महत्तम अनुचर बनाने का यत्न

आम समय भी छोटी-मोटी दुकान से, भृत्ति होती है सुलभ॥

 

पर शुरुआत थी ओ मेरे मन, चितवन अपने को करो पवित्र

हटकर दंभी-मिथ्या आवरण विचार से, प्रबुद्ध करो चिन्तन।

चाहे सत्य विज्ञान या परम-सत्ता, मात्र उचित हेतु ही समुद्यम

जीव हेतु जो सुवाँछित-सुअनुकूल, उसी में बुद्धि-अग्रसरण॥

 

कुछ अलग ही, और बेहतर करो, मन-दिशा करो प्रखर।

कितना उचित न हूँ जानता, जो मन में आया दिया लिख।

 

धन्यवाद॥



पवन कुमार,
17 मार्च, 2015 समय 20:08 सायं 
( मेरी डायरी 17 फरवरी, 2015 समय 10:52 प्रातः से )

Saturday, 14 March 2015

गमले के कपोत शावक

गमले के कपोत शावक 


एक कबूतरी ने दिए, हमारे पौधों के गमले में दो अण्डें

फिर आकर वहा बैठने वहाँ लगी, उन्हें सेने के ही लिए॥

 

हम हेतु कुतूहल-विषय, कि एक गमला ख़राब कर दिया

क्योंकि हटाकर तो, अन्य जगह भी नहीं रखा जा सकता।

अपने पुराने अनुभव से जानते हैं, कि उनको नहीं है छूना

तत्पश्चात कबूतरी समीप न आती, व जीवन नष्ट हो जाता॥

 

फिर हौले से उसने समय बढ़ा दिया, अण्डें सेने के लिए

बाद में तो बड़ी देर तक वह, एक-मुद्रा में ही रहती बैठे।

पहले हमें देख उड़ जाती थी, किंतु अब तो थी दुस्साहसी

रक्षा-मुद्रा में पंख फड़फड़ाकर, हटाने का प्रयत्न करती॥

 

गिने तो न पर कुछ १८-२० दिवस बाद, हुआ अण्ड-फूटन

निकले उनमें से दो चूजें, बिलकुल छोटे और पंख-रहित।

अब तो कबूतरी माँ उनपर ही बैठी रहती, निज ऊष्मा देती

लेकिन उनके पैर या देह का, कुछ भाग दे जाता दिखाई॥

 

हम हैरान, देख कबूतरी की संतति प्रति प्रतिबद्धता-त्याग

इस व्यस्तता में न तो उसे खाने का, न पीने का ही ध्यान।

चूजें बहुत छोटे, पर हमने माता द्वारा कुछ खिलाते न देखा

कैसे उन्हें ऊर्जा-भोजन मिलता, हमारी समझ में न आता॥

 

अब लगभग २० दिवस के हो गए, शरीर कुछ बढ़ गया है

हमें देख वे गर्दन हिलाते, व मनोरम हाव-भाव दिखलाते।

अपनी चोंच हिलाकर, कभी डराने की कोशिश भी करते

और हमारी हर क्रिया पर अपनी जरूर प्रतिक्रिया करते॥

 

अब तो वे हमारा एक भाग बन गए, करते पुकार-प्रतीक्षा

मैं भी सवेरे जागकर, सर्वप्रथम उनको ही देखने जाता।

उषा, शीनू व सौम्या भी, उनकी अदाओं को खूब सराहते

अब तो चेष्टा सी करते कि उनके पास रहे, बतियाते रहे॥

 

आश्चर्य-चकित हैं, क्या मात्र माता-देह गर्मी से पालन होता

क्योंकि मैंने अभी तक, उनको कुछ खाते हुए नहीं देखा।

अवश्य ही कुछ समय बाद, खाना शुरू तो करना होगा ही

पर तब तक समझना, हमारी बुद्धि के बूते में न है अभी॥

 

यह सच है कि बड़े होकर जल्द, किसी दिन जाऐंगे ही उड़

रहेंगे कुछ आस-पास ही, व किसी कोटर में नीड़ बनाकर।

पर तब क्या हम उन्हें पहचान न पाऐंगे, और मित्रता रहेगी

तो क्या हमारा संपर्क, मात्र उनके शिशु- काल तक है ही ?

 

पहले भी घर के गमलों में कुछ कपोत शावक पले-बढ़े थे

पर इस बार तो लगाव कुछ ज्यादा ही, इन छोटे चूजों में।

मैं नितांत मुग्ध-अचंभित ही होता, उनकी भिन्न-अदाओं में

शायद लगता कि मेरा ही भाग हैं, और कभी जुदा न होंगे॥

 

मैं कुछ न अंतर कर पाता हूँ, एक मानव शिशु और उनमें

उषा से कहता कि पड़ोस के सोनू व उनमें क्या भिन्नता है?

फिर ये भी जीवन हमारी तरह, अंतर है किस्म का ही मात्र

क्या ये हमारा भाग नहीं संभव, जब हाव-भाव लेते संज्ञान?

 

पर मुझे कबूतर पालने का कोई बिलकुल पूर्व-अनुभव नहीं

गाँव में सिकलीगर-लड़कों को उन्हें पालते-उड़ाते था देखा।

विलियम डेलरिंपल की प्रसिद्ध पुस्तक 'City of Dzinns' में

पुरानी दिल्ली के कई कबूतर -प्रेमियों के विषय में पढ़ा है॥

 

फिर दिल्ली-जयपुर-मुंबई के चौंक-चौराहों-पगडंडियों पर

बाजरे-मक्की-गेहूँ के दानों हेतु कबूतर- जमावड़ा दर्शित॥

 

फिर भी अब मेरे जीवन का, एक रिश्ता तो बना है उनसे

ये मुझे चिरकाल याद रहेंगे, अब वे रमे हैं मेरी आत्मा में।

लगता वे सोचते होंगे, बड़ा होने पर भुला दोगे हमको तुम

पर मुझे अभी तो उनके प्रश्नों का उत्तर नहीं आता समझ॥

 

मैंने सोचा था कभी कुछ लिखूँगा, इन नन्हें पक्षी-जीवों पर

थोड़ा प्रयास किया है आदर्श-उत्तम तो नहीं सकता कह॥

 

धन्यवाद॥


पवन कुमार,
14 मार्च, 2015 समय 17:28 अपराह्न 
( मेरी डायरी दि० 18 अप्रैल, 2014 समय 12:53 से ) 

Saturday, 7 March 2015

तृतीय नेत्र

तृतीय नेत्र 


कुछ लघु सा मस्तिष्क-कक्ष, जिसमें परम- शून्यता सी

यूँ मद्धम लहरें उठती-बैठती, गति का कोई पता नहीं॥

 

कहाँ से उदित हैं ये विचार, जब बाह्य सब कुछ है शान्त

न निकल पाता हूँ तम-गुम्फा से, व मात्र है छटपटाहट।

पर अन्य तो चिंतन कर ही लेते हैं, ऐसे सुक्षणों में एकांत

अंतरतम-मृदुलता ही होती, चितवन होता कृपा-निधान॥

 

किञ्चित सुसंवाद इस स्वयं से ही, वीणा-तार हों झंकृत

फूटें तान सुरीली-रसीली यहाँ, व जीवन हो मधुरमय।

हो जीवन-संचालित, उपलब्ध क्षणों का सार्थक उपयोग

सारी कवायद आत्म-उन्नति हेतु, रचनाऐं है अपरिमित॥

 

कलम-वाहन हाथ ने अपना कर्म किया, पर न है चाल

कागज़-कलम संबंध अनुपम है, स्वतः ही होते प्रयोग।

उत्तम उपजता सामंजस्य से, यदा-कदा अपूर्व है आता

महान-ग्रंथ रचित मंथन से, जो सदा कल्याणक होता॥

 

यूँ धाराऐं निकले शैल-गर्भ से, मिल परस्पर बनाती गंगा

एक-२ तार विचार का मिल, देता अनुपम सितार बना।

अंतः-मन की पीड़ा, कुछ व्यूह-रचना को करे तब प्रेरित

माना संघर्ष इतना विरल न, कुछ तो पार चले ही जात॥

 

तूलिका-चलायमान आत्म-प्रक्रिया से, चलने दो स्व गति

कोई बलात्कार न कलम से, महत्त्वपूर्ण इसकी रूचि भी।

सब विस्मय ही जग में, उभो जय-विजय हैं इसके प्रभाग

किञ्चित संघर्ष दर्शन-कुतूहल, अनुपम अनुभूति चित्रित॥

 

परा-अपरा विद्या न समीप अभी, न ही वह संजीवनी ज्ञान

न पहचान रहा हूँ वाँछित, उठा पर्वत दौडूँ भाँति हनुमान।

बड़ा बोझ है चढ़ा शिखर पर, क्षमताऐं न पाता हूँ पहचान

कोई वैद्य न, अतः प्रस्तुत औषधियों की न है कोई जाँच॥

 

कैसे कुछ जीते हैं दुनिया में, धन्य किया अकिंचन जीवन

आऐं धरा पवित्रीकरण को, है विकसित सोच सकारात्मक।

वचन-कर्मों से लघु बुद्धि-कोष्ठक में, जन्मते परम-प्रकाश

देख पाते गुण-दोष अपूर्वाग्रह, व्याधि मुक्ति का आभास॥

 

डूब जाते हैं चिन्तन में, ज्ञान-दीपक की वे उपासना करते

कितना हित संभव अल्प समय में, पूर्णतः ही प्रयास करते।

न फुर्सत विभूति के महिमा-मंडन की ही, क्यूँकि हैं कर्मठ

देव-स्तुति न प्रार्थना-याचना, अपितु करने हैं कर्म-सुकृत्य॥

 

कहाँ छुपा है वह जीवन, जिससे साक्षात्कार करना चाहता

जीवन-स्पंदन ध्येय इस क्षण में, कालजयी हूँ बनना चाहता।

महाकाल ने काल जीता है, पूजनीय हुए सब भारत धरा पर

सर्व दिशा लिंग स्थापित हैं, लगाने हेतु परम-शिव में ध्यान॥

 

मेरी तपस्या है चराचर जग में, कैसे पहुँचूँ चरम तत्व तक

गंतव्य मार्ग तो मुझे पता नहीं है, वेदना भारी भी तिस पर।

न मैं उपासक हूँ जाग्तिक दृष्टि से, न रूचि है कर्म-कांड में

तथापि समर्थों के सार्थक चिंतन से, बुद्धियंत्र हूँ चलाता मैं॥

 

एकांत बैठ कैलाश शिखर सम, ध्यान लगा परम का चाही

महादेव तो बने परमेष्ट-देव, प्रभावित मात्र स्तुति से है नहीं।

ध्यान लेकर प्रेरणा उनसे, तृतीय नेत्र खुलें अपरिमितता को

इसमें स्वार्थ मात्र इतना है, एक संजीवन-झलक पाने को॥

 

बोझिल पलों का एक संघर्ष। धन्यवाद॥



पवन  कुमार,
7 मार्च, 2015 समय 22;44 रात्रि  
( मेरी डायरी दि० 13 नवम्बर, 2014 समय 7:10 प्रातः से )

Tuesday, 3 March 2015

ऋतु-संहारम : वसन्त

ऋतु-संहारम 
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सर्ग-६: वसन्त   
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प्रफुल्ल आम्र अंकुरों के तीक्ष्ण बाणों से,

गुनगुनाती भ्रमरमाला का धनुष पकड़े। 

काम प्रसंग एवं हृदय विदिरण हेतु 

     वसंत योद्धा आ पहुँचा है, ओ प्रिये !१।

 

द्रुम (वृक्ष) पुष्प संग, सलिल पद्म संग,

स्त्रियाँ कामोन्मादित व सुगन्धित पवन। 

सुखकारी संध्या और रमणीय दिवस,

     इस वसंत में ये सब लगते हैं चारुतर।२। 


ओ प्रेयसी
! वापी (सरोवर) जल, मणि मेखलाऐं,

शशांक कान्ति, वनिता गर्वित अपने सौन्दर्य से। 

कुसुमों (बौर) से झुके आम्र वृक्ष,

सभी वस्तुऐं वसंत में दायिनी-सौभाग्य हैं।३। 


  कुसुम राग से रुणित (रक्तिम) सुन्दर रेशमी दुकूलों के 

चौड़े पट्ट से विलासिनियों के ढंके जाते नितंब-बिम्ब। 

एक शिष्टता से वे केसरी रंग के लाल अंशुक से, 

 ढंक लेती हैं अपने गोरे कुच-मण्डल।४। 


अपने कर्णों में सुयोग्य, नूतन कर्णिकार कुसुम लगाती,

और चमेली के नीले एवं कृष्ण-वर्णी चंचल पुष्प अशोक के। 

रंग-बिरंगे झूमते कंपित नव-मल्लिका पुष्प, अति महत्ता पाते

जब चुने जाते हैं मादक वनिताओं की सुन्दरता बढ़ाने।५। 


श्वेत-चन्दन से आर्द्र मुक्ताहार स्तनों में 

पहने जाते और भुजा-अंगों में कंगन। 

मन्मथ आतुर-कांचियों के नितम्बों एवं 

      कंचन-नूपुर करते हैं जंघा - आलिंगन।६। 


रमणियों के कांचन पद्म-मुखों पर, 

फूल-पत्ती रेखाऐं सजाई जातीं सुघड़ता से। 

मंजुल, जैसे रत्नों से मोती जड़ा जाता,

        स्वेद बिन्दुओं के मध्य अलंकरण सा है।७। 


नारियाँ, जिनके अंग-बन्धन शिथिल हैं 

और गात्र आकुल हैं प्रेम-पीड़ा से। 

प्रिय-समीपता से सजीव हो उठती, 

अब भी भरी हुई हैं अधीरता से।८। 


काम योषिताओं को तनु-पाण्डु बनाता,

 अब मुर्हमुह* खिंचती हैं चाह से दुर्बल। 

और जम्हाई लेती हैं, अपने ही 

लावण्य के संवेग हैं भ्रमित।९।

                                                                                                                                                                    मुर्हमुह* : बारम्बार


काम अब बहु प्रकार से 
कामिनी-मनों में

उपस्थित होता, मादक मटकते नैनों में।

पीले कपोलों में और सख्त स्तनों में,

        जंघा नीचे मध्य में, पुष्ट नितम्बों में।१०। 


काम ने अब रमणियों के अंगों को कर दिया है 

निद्रा से विभ्रम, वाणी उनकी लड़खड़ा जाती है। 

मदिरा से ऊँघती सी हुई, वक्र भौंहें, 

  उनकी तिरछी नजरें मटकती हैं।११। 

 

विलासिनियाँ तीव्र कामेच्छा से निर्बल अपने 

गोरे स्तन व नाभि को लेपती आर्द्र चन्दन से। 

और कुंकुम, प्रियंगु बीज एवं 

        कस्तूरी मिश्रित सुगन्धि से।१२। 


इस वासन्ती काममद काल में
निज देहों को शीतल 

करने हेतु, शीघ्रता से उतार देते हैं नर भारी वस्त्र। 

और पहन लेते इनके बजाय, लाक्ष-रस रंजित लाल

और कृष्ण धूप से सुगन्धित तनु अंशुक।१३। 


आम्र वृक्षों की सुवास से हर्षित, 

प्रमत्त कोकिल प्रिया को चूमता। 

अम्बुज-कुञ्जों में भँवरा अपनी प्रिया हेतु,

        मधुर गुनगुनाता, चाटुकारिता सा करता।१४। 


ताम्र वर्ण के प्रवाल गुच्छों से नम्र नत हैं 

आम्र-तरुओं की चारु, पुष्पित शाखाऐं। 

पवन-कम्पित वे वनिताओं के अन्तःकरण 

       एवं अंगों में अति कामोत्सुकता हैं जगाते।१५। 


अशोक तरु के ताम्र पुष्पों का निरीक्षण कर, 

जो कलियों की विपुलता से ढंके हैं मूलों तक। 

        नव-तरुणियों के हृदय अत्यंत शोक से जाते भर।१६। 


उन्मत्त भ्रमर चारु पुष्पों को चूमता है, 

मृदु नव-किसलय* मन्द बयार से आकुल होते। 

आम्र की अभिराम* कलिकाओं को देख सत्य ही, 

     कामी-हृदय सहसा ही उत्सुकता से भर जाते।१७।  

 

किसलय* : पल्लव; अभिराम* : सुन्दर    


कुरबक (आम्र) मंजरी की उत्कृष्ट शोभा देखकर,

प्रिया कान्ता के वदन (मुख) की अप्रतिम शोभा। 

 जो अभी निर्गम हुई है, काम के भेदित बाणों से, 

  ओ प्रिया ! किसका चित्त न व्यथित होगा?।१८। 


वसन्त काल में सर्वत्र अग्नि सी 

प्रज्वलित है और मरुत से कम्पित। 

रक्तिम पलाश* के वन-उपवन झुके हुए हैं 

भूमि नव वधू भाँति होती शोभित।१९। 

 

रक्तिम पलाश* : किंशुक पुष्प


प्रथम ही सुवदना* में स्थापित तरुण मन आकुल हैं,

 शुक मुख-छवि सी किशुंक-कुसुम आलोक देखकर। 

क्या वे मनोरम चम्पा कुसुमों को देख होंगे न दग्ध,

           व क्या मृदु-मिश्री सी बोली मृत्यु-संदेश सुनाएगी न?।२०। 

 

सुवदना* : रमणीय मुख


भाव-विभोर कोकिलाओं की मधुर कल उनको 

हर्षाती, उन्मत्त भ्रमर अपना मधुर गान सुनाते। 

ये सब लज्जाशील, विनयी कुलगृह वधुओं के 

        हृदय भी महद आकुल हैं कर देते।२१।       


वसंत में हिमपात चला गया है, आम्र द्रुमों की 

 सुरभित पवन से कुसुमित शाखाऐं कंपकंपाती।  

कोकिला की मधुर कुहुँ-कुहुँ को विस्तारती, 

पुरुषों के हृदय का हरण करती।२२। 


मालिनी कुन्द* भरे मनोहर उपवन विस्मित करते,

रमणीय वधुओं की हँसी-ठिठोली से शुभ्र होते। 

जो निवृत्त रागी मुनियों के चित्त भी हर लेती,

   तो क्या युवा हृदय राग से उद्विग्न न होंगे?।२३। 

 

मालिनी कुन्द* : कुसुम


कटि पर सुवर्ण-मेखला व स्तनों पर उनके मुक्ताहार, कुसुम-बाण 

मन्मथ की अनल, छरहरी कामिनियों की काया करते शिथिल। 

मधुमास में मधुर कोकिला और भ्रमर नाद संग,

रमणियाँ पुरुष हृदय लेती हैं अत्यंत हर।२४।

 

पर्वतिका नाना प्रकार के सुन्दर कुसुम वृक्षों से 

सुशोभित होती और जन उनको देखकर प्रमुदित। 

शैलों के ऊँचे शिखर पुष्पित तरुओं से पूरित और

       घाटियाँ हर्षित कोकिला-निनाद* से होती विस्तृत।२५।

 

कोकिला-निनाद* : आकुल-स्वर 


आम्र-वृक्ष कुसुमित देखकर कान्ता-वियोग से 

एक खिन्न पथिक अपने नेत्र बन्द कर लेता है। 

शोक से रुदन करता है, अपनी नासिका को 

    कर से ढाँप लेता और जोर से रो पड़ता है।२६। 


रम्य कुसुम मास में मत्त ये भ्रमर व कोकिला मधुर-नाद,

कुसुमित आम्र-शाखाऐं, चम्पा-पुष्पों से परिपूर्ण सुनहरी। 

ये अपने काम- बाणों से माननीया रमणियों के गर्वित 

 हृदय आकुल करते और कामाग्नि जाती ही बढ़ती।२७। 


उसके उत्कृष्ट बाण - आम्र कुसुमों की मंजुल मंजरी 

उसका धनुष       - पलाश कुसुमों का उत्तम वक्र 

उसकी धनुष डोरी                   - भ्रमर माला  

उसका दोष रहित श्वेत छत्र        - सितांशु चन्द्र 

उसका मत्त गजराज - मलय पर्वत से आती पवन 

कोकिला          - उसकी वैतालिक (भाट) ।२८। 

 

जगत - विजेता कामदेव इस वसंत से मिलकर 

तुम सभी को अधिकाधिक कल्याण देवें।२९। 


(महाकवि कालिदास के मूल ऋतु-संहारम, सर्ग-६ : वसन्त 

के हिन्दी रूपान्तरण का प्रयास)


फाल्गुनी वसन्त के होली के पावन, उल्लासमय पर्व पर ऋतु-संहारम के अन्तिम सर्ग-६ : वसन्त का अनुवाद हिन्दी प्रेमियों को उपहार। काव्य की प्रथम ५ सर्ग ऋतुऐं पूर्व ही पाठकों
को समर्पित की जा चुकी हैं। आशा है महाकवि कालिदास के इस महाकाव्य का पूर्ण अनुवाद पाठकों का पसन्द आगा।

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पवन कुमार,

 ०१ मार्च, २०१५ समय १२: अपराह्न 

(रचना काल  जनवरी, २०१५ समय १२:५० म०रात्रि)