एक आकांक्षा
मेरी मन की गुंजन, जीवन को कुछ सुस्पंदित कर दे
वसंत-सुरभि मेरे मन-मस्तिष्क को पुलकित कर दे।
बैठा हूँ असमंजसता में, कोई आकर फिर से दे जगा
जाग जाऊँ व होश में आऊँ, ऐसी एक ललक दे जगा।
कुंडलिनी तो सोई पड़ी है, उसकी कोई शक्ति दिखा
निज पहचान पा ही जाऊँ, ऐसा कोई दर्पण दे दिखा।
महबूब-मिलन की तमन्ना, कभी आकर तू पूरी कर
मिलन-खुशी का अहसास, मन में गुदगुदा दे कुछ।
पूरे प्रयास व उचित बुद्धि का, वो मधुर संयोग कहाँ
निरंतर चलायमान रहूँ, और तू सुस्ती को दूर भगा।
जिंदगी जीने का एक उचित पथ, फिर तू दे समझा
मन रहे नित विवेकशील, उत्साह-साहस संगी बना।
मैं तेरा और तू मेरा, आओ सब झूठे भेद दूर भी करें
सारी दूरियाँ मिट जाऐं पूरी, जगत को घर ही कर लें।
मेरी आकांक्षाओं को पंख लगा, सब डर दूर दे भगा
दुर्बलताओं का कर मर्दन, क्षमता- आकार दे बढ़ा।
यूँ न बैठा रहूँ मुर्दों सा, जीवन-सार फिर तू समझा
किंकर्त्तव्य- विमूढ़ता हटे, सब दायित्व याद दिला।
जीवन बनेगा सार्थक, जब सब प्रश्नचिन्ह जाऐंगे हट
और कुछ शेष रहें भी तो, उत्तर अंततः पा लेंगे हम।
करें जीवन-विस्तार, भिन्न कलाओं का हो कुछ सार
श्रेष्ठ साधक-तपी बन जाऐं, पूर्ण करें कुछ तो पसार।
पवन कुमार,
३ अप्रैल, २०२४, बुधवार, समय ११:२३ बजे रात्रि
(मेरी डायरी १० मार्च, २०१३, समय ६.०० सायं, नई दिल्ली से )
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