पतंग की डोर
करतार के प्रताप से, जन्म हुआ एक पादप का
शनै भू-जल-हवा मिले, बनने लगा रूप वृक्ष का।
बहुत बार छटपटाया वह, और टूटता था धैर्य भी
फिर भी सहारा बहुत मिला, पैर कुछ जमाए ही।
जिंदगी-प्राण मिली, सूरज का साथ मिला सुबह
और तब चल निकला, हिचकोले खाए वायु संग।
मन पूरा उसने बनाया था, सबके संग रहने का
फिर भी तो सब कुछ निज अनुरूप न हो पाया।
फिर इन जगत के भेदों के संग जीना ही नियति
पर जब स्व बंधु-मस्त, निजों को फरमाते वे भी।
यह लोकतांत्रिक देश है, हरेक को अधिकार पूर्ण
कहने-सुनने व जरूरत तो, करने का भी विरोध।
तुम भी तो बहुत बार, औरों को गलत ही हो कहते
तो क्या उनका मंतव्य न हो सकता, जैसा तुम्हारे।
सब अपने को उचित ठीक करने में लगे रहें यहाँ
तथापि किसी को स्वयं को भी संभालना ना आया
बस बड़बड़ाते रहते, जीने का सलीका ना आया।
महक-रौनक चहुँ ओर थी, पर मैं रूठा बैठा रहा
क्यों न हल्का होकर, भौरे-तितली भाँति ही उड़ा
और उस मधुरतम, शहद का स्वाद ही न लिया।
क्यों अपने को दूसरों की ही लगाया आलोचना में
जबकि उनसे ही तो बहुत अच्छा सीख सकते थे।
पर क्या मेरा वजूद ठीक है, और न्यायपूर्ण क्या
और क्या मैं अपने से ही बड़ा न्याय कर पा रहा।
मेरी जिंदगी की आस तुमसे लगी है, ओ मौला
गुजारिश है कि इस जगत में तू जीना दे सिखा।
मेरे इस जीवन की डोर का मालिक है तू बड़ा
इसकी पतंग को तब ठीक से उड़ना दे सिखा।
तू सर्वस्व अधिकारी इसका, मैं बस दास हूँ तेरा
समझदारी से इसे सेवक का सच्चा धर्म दे बता।
पवन कुमार,
7 अप्रैल, 2024, रविवार, समय 12:49 बजे मध्य रात्रि
(मेरी डायरी 21 फरवरी, 2009, शनिवार, नई दिल्ली से)
Gulshan Kumar Dahiya : Wha Kya Khub🙏👍
ReplyDeleteJai Raghavendra : बहुत खूब बहुत खूब I
ReplyDeleteRavi Dutt Sharma : बहुत सुन्दर I
ReplyDeleteMithilesh Bansal : Wah wah... अतिउत्तम
ReplyDeleteBalldev Singh : Bahut Anmol aur behtarin lajawab likha aapane dhanyvad aur बहुत-बहुत Mubarak
ReplyDeleteSatish Saxena : वाह
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