वृहद-मानवाधिकार
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क्या सुपथ संभव मानव-मनन का, सुरुचिकर वातावरण बने विश्व-यापन का
सर्वत्र तो हिंसा-अत्याचार-भेदभाव, मिल-बैठकर उत्तम हल न संभव क्या।
क्यों विश्व में इतनी श्रेणियाँ, क्या ये स्वतः ही या किसी ने जबरदस्ती थोप दी
हालाँकि दलों का एक गुण, नेतृत्व- प्रवृत्ति उपस्थितों में से स्व-उदित होती।
हममें ही विभिन्न गुणों की विशेष-स्थिति होती, अपने ढंग से देते प्रतिक्रिया
सब निज विधाओं में निष्णात, माना प्रकृति-दत्त कहने-सुनने की विविधता।
इसे छोड़ भी दें व्यापक तौर पर, घर में भी चार-प्राणियों में कुछ हावी रहते
अन्य मौन रहकर उनकी बात सुनते, बहुदा सलाह का सम्मान भी करते।
जब वही समूह किञ्चित बड़ा है, वहाँ भी लोग बात कहने को खड़े हो जाते
देख-समझ कर सीमित प्रतिक्रिया, कुछ मन मसोस लेते, बेबस सह जाते।
यह क्या गुण कि घर में तो शेर होते, बाहर सवा-शेर को देख नानी मर जाती
जो हमारे ऊपर गरज-बरस रहें, उनको सबक सिखाने वाला मिल जाता ही।
हम जगत में सदा एक स्तर होते, अपनी वस्तुस्थिति को सहज रूप मान लेते
सब सम पारंगत न, कई बार अन्य-गुण देख अपना मानते प्रमुदित हो जाते।
पर सकल मात्र बौद्धिक न चलता, अनेक हिंसा से बात मनाने को रहते प्रवृत्त
संसाधनों पर महत्तम कब्जा चाहते, वैभव-लालसा बुराईयाँ पैदा करती सब।
येन-केन प्रकारेण अधिकतम पा लें, एक-बार आधिपत्य तो वैध लेंगे बना ही
अतिलोभ व मानव अल्प में असन्तुष्ट, कई बार जरूरतें भी हाथ-पैर मरवाती।
एक बात कि मानव है महत्वाकांक्षी, लक्ष्य प्राप्ति में लगा देता समस्त शक्ति
एक जबरदस्त मन-युद्ध चलता रहता, बाहर तो कुछ ही अभिव्यक्ति होती।
सदा सोचता मन में वर्तमान से निजात पाने में, दूसरे की भी ऐंठ है निकालनी
कदाचित सफलों को देख ईर्ष्यालू, कुछ पूर्वकृत अत्याचारों के बदले सोच भी।
चाहे लघु स्तर पर देखें या राज्यीय-राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय, यह विश्व अतिदग्ध है
युवा हिंसा-शिकार हैं, स्कूल-कॉलेज तो जा न रहें, शासन रोजगार दे पा न रहें।
धर्म-जाति प्रमाद, अन्य देश-प्रभाव हैं, जिसमें बाहुबल अतिचार कर लेता वही
निर्बल प्रतिक्रिया छुपकर ही देता, दबंग दर्ज कराते रहते कुत्सित-उपस्थिति।
इतना भी विश्व में तय, कुछ रणनीतिकार सदा इसे विव्हलित करने में रत रहते
उनका दर्शन ही जगत में हावी रहे, बौद्धिक- शारीरिक दोनों बल चलते रहते।
जहाँ मीठी बात कहनी हो कह दो, कहीं चेले छोड़ दिए, चलाओ प्रोपेगेंडा-युद्ध
अन्य पक्ष की सदा कमियाँ बखानो, विज्ञापन-नियम अनुसार मानने लगेंगे नर।
बौधिकों ने भिन्न दर्शन बनाए, निर्मल-चेतस निर्माता का उद्देश्य संभव विश्वहित
पर अनुयायी तो आवश्यक न तथैव भाव रहेंगे, स्वार्थ पुट देखते प्रत्येक स्थल।
निश्चिततेव बड़े काज-करणार्थ, निर्मल-भाव व चरित्र-शुचिता होनी आवश्यक
सामान्यतया सत्य अर्थों में कर्मठ विजयी, वृहद-उद्देश्यों में जुटते स्वार्थ तज।
अधिकांशतया हमारे उद्देश्य मात्र स्वार्थी होते, मात्र आत्मार्थ ही चाहें सफलता
जब श्रम कर रहें तो साहस-कर्मठता कई गुण होंगे, पर प्रधान उद्देश्य है क्या।
जीवन-यापन तो सबकी आवश्यकता है, सर्वहित में योग से होगा बड़ा ही फल
तब आत्म अति विराट बन जाता, समस्त कायनात अपनी ही लगने लगती घर।
पर जब वर्तमान व पूर्व-संपन्नों को देखते, संपूर्ण मानवता हेतु क्या वे समर्पित हैं
या बस निज तिजौरियाँ भर रहें, क्या कभी अपने कर्मियों के बारे में भी सोचते।
मजदूर भूखे मर रहें मैं सतत संपन्न, अन्य-विषय में भी सोचना शुरू करेंगे क्या
आप सब पाप करते, पर अन्यों से सदा उत्तम अपेक्षा, यह है विरोधाभास बड़ा।
स्वार्थ में हम मित्र-अधीनस्थ-वरिष्ठ व सब जग को समर्पित-पुण्यी चाहते देखना
पर हम स्वयं सत्य में क्या दे रहें, न्यूटन के तीसरे नियमानुसार तो वही मिलेगा।
यह दिखता कुछ दूजे को मार चुपके से कट लिए, उसका तो दिया बहु-ह्रास कर
तुमको क्या-कब-कैसे सजा मिलेगी उसे न मतलब, भाग्य-दोष मानकर ही चुप।
अभी सीरिया में रासायनिक-शस्त्र प्रयोग से, बच्चों संग कई मृत्यु-मुख में दिए सुला
क्यों यह बहु-बर्बरता अनेक विश्व-भागों में दर्शित, उसमें उनका क्या कसूर ही था।
क्या जन्म लेना कोई बड़ा अपराध है, व क्या जग दैहिक-मानसिक बलियों ही का
युक्ति से अनेकों को निर्गम कर देंगे, फिर नैतिक-धार्मिक शिक्षाओं का अर्थ क्या।
विश्व में सुशिक्षा, समझ व आपसी-हित की प्रसारण-सोच ही कुछ बनाएगी मृदुल
वृहद मानवाधिकार देखें न मात्र एक पक्ष-गुणगान ही, मिलकर कर लें कुछ प्रयत्न।
पवन कुमार,
२७ अप्रैल, २०२४ शनिवार, समय १६:४२ बजे अपराह्न
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी १८ अप्रैल, २०१७, मंगलवार, समय ७:०७ बजे प्रातः से)
बहुत सुन्दर 🌹🌹
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