अंतः समृद्धि
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कैसे मैं भी
विराट हो सकता, सीमित
प्रदत्त मन-काया में
इस
चेष्टाऐं-अनुभूतियाँ हों चहुँ-विस्तृत,
और हो जाऊँ सर्वव्यापक।
यूँ तो सकल
घट-2 में व्यापक, पर
अबूझ ही रखती अज्ञानता
पर शुद्ध चेतना-फैलाव, उसमें सुरुचिकर आयाम हैं जोड़ता।
कैसे फैले स्व-घटक चहुँ दिशा,
और क्या चेष्ठा वाँछित
इसमें
कब तक गुह्य
रहोगे कोष्टक में, जब इतना
विकास सम्भव है।
केवल मनुज बड़ी
सोच के तहत, अनेक
दूरियाँ तय कर लेते
उद्घाटित करते मन निज,
समस्त ब्रह्माण्ड बसा है जिसमें।
सकल मनुजता स्व
में समाहित करते, न कोई अपना-पराया
प्रजाजन निकट आकर पुलकित
होते, जैसे उनका ही अपना।
यह उसका विस्तार
ही तो है, बहुतों
का विश्वास जमा जिसमें
ज्ञान-वाहक सदैव बन
रहता, व सबके लिए
दरवाजे खुले हैं।
प्रचारक होने की न
इच्छा, कथित बरगलाते गुरुओं
सा कुछ
तथापि संवेदनशील नर बन चाहूँ,
जिसमें अनुभूत होंवे सब।
पर क्या इसके
आयाम संभव हैं, बौधिक-चिन्तन तल संभव
या कुछ ऐसा
रचित ही करूँ, जिसमें
अपना सा पाए सर्वस्व।
या ऐसे आविष्कार
ही, जिनसे सकल मानवता हो
लाभान्वित
या महानेता सम
विश्व-नीति में योगदान,
जो सर्व-हितैषी हो।
सूर, तुलसी, रसखान
सम काव्य, अंतः समृद्धि का
बाह्य भी दान
आपके शब्द अमर
हो जाते, निज जीवन-दर्शन
पाते उनमें प्रज्ञ।
वचन भी करते
अनेक पुण्य, शक्ति खड़ग से भी
अधिक उनमें
यदि किसी का
मन जीत सको, तो
बड़ी विजय न कहीं उससे।
ये कार्य-कलाप
व मुक्ति-चाह, आहूति से
है यज्ञ-धूम्र विस्तारित
फैले उसकी सुगन्धि
चहुँ दिशा, और सबके लिए
हो उपलब्ध।
मात्र कीर्ति की तो नहीं
चाह, किंतु सकल व्यक्तित्व हो
समर्पण
बेशक नाम अज्ञात
ही, तथापि लाभ परोक्ष-अपरोक्ष
हों प्रस्तुत।
विस्तार हो राम-कृष्ण
सा, समक्ष न होते भी
पहुँचाते अति लाभ
मृत्यु उपरांत भी बुद्ध, महावीर,
जीसस, गांधी चलते प्रजा संग।
सुकृत्यों से जीत लिया
कुछ काल, मनुज जब
उन्हें करते स्मरण
नहीं नाम किसी
व्यक्ति का, अपितु सोच
जो सब-ग्राह्यी उचित।
फैलाव तो है उचित
या अश्रेय, पर कर्त्तव्य सकारात्मकता-योग
वसुधैव कुटुंबकम सन्यासी-भाव है स्तुत्य,
तभी सर्वहित संभव।
जब समर्पित सकल
मानवता हेतु, कटेंगी बेड़ियाँ जड़ता की तब
संदर्शन हो उच्च स्तर
का ही, जो असंकुचित
भाव से करें कर्म।
पूर्वाग्रह त्याग बनाऐं सार्वजनिक विकास, अलोभ का परिवेश
कुछ जगत-गुत्थियाँ
सुलझाने में, योगदान अपना
करें प्रस्तुत।
अज्ञानता-कालिमा को, निज प्रखर
ज्ञान-रश्मि से निर्गम भगाए
बजाए कोसने के
सब जगत को, कुचेष्टाऐं
अपनी तर्पण करें।
भाव-भंगिमा व
सत्य धरातली कर्मों से, विश्वात्मा जैसे
बनो तुम
दमित बन्धुओं के
उत्थान की साचो, कैसे
वे भी हों विकासरत।
कैसे सम्माननीय- गोष्ठियों
में, आपकी रचनाऐं भी
हों स्वीकृत
यदि किसी विद्वान
की सुटिप्पणी, तो मानो लेख-दिशा उचित।
सुमनन संगति तो व्यापक करो,
प्रस्तुत कर्म करो सुव्यवस्थित
लघु-2 सुलझनें भी जुड़, किया
करती महद दीघकालिक हित।
निज को न
समझो निम्न कदापि, महालक्ष्य-पूर्ति हेतु उदित हो
उचित दृष्टि-मार्ग
संग है, निस्संदेह सर्वव्यापी-सार्थक बनोगे तो ।
धन्यवाद। और साधु प्रयास
करो। तुमसे बहुत अपेक्षित है।
पवन कुमार,
17 अप्रैल, 2024, बुधवार (रामनवमी), समय 8:59 बजे प्रातः
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी 9 दिसंबर, 2014 मंगलवार समय 9:05 बजे प्रातः से)
Raj Kumar Patni : 🙏🏻𝕐𝕠𝕦 𝕒𝕣𝕖 𝕛𝕦𝕤𝕥 𝕘𝕣𝕖𝕒𝕥 𝕤𝕚𝕣🙏🏻
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