कर्मयोग-सिद्धांत
क्या वर्तमान की आवश्यकताऐं, प्राथमिकताऐं हो चाहती
जीवन तो फिर बहा जा रहा, कोशिश है इसे पकड़ने की।
इसको करें या उसको देखें, सोच में समय है बीते इसी।
हर पल का हिसाब कौन देगा, जब वो तुम्हें सौंपा जो गया
व्यर्थ किया या फिर सदुपयोग, इसका निर्णय होने वाला।
कौन है इन सब कर्मों का द्रष्टा, व फिर प्रतिबद्धता जाँचे
कौन इसका गुरु-पर्यवेक्षक, और कौन रिपोर्ट बनाता है।
फिर कौन भेजता अग्रिम श्रेणी में, अथवा अवनति करता
हमारे कर्मों का महीन परीक्षण, शायद स्व-अंतः ही चलता
जैसा किया फिर वैसा पाया, यह जग का पुराना मुहावरा
तुम चेतो तो सब कुछ अपना, वरना सब निरर्थक है यहाँ।
हम झेलते समझ-मूढ़ता दोनों से, कदाचित न है स्ववश में
फिर दंड लेकर स्वामी खड़ा है, मार पड़ेगी शिथिलता से।
पर कैसे सुधारें स्व आचरण, अवश्यंभावी से हैं डरते किस
फिर ज्ञात हो तो भी न सुधरते, यही विसंगति आश्चर्यजनक।
हम यदा-कदा प्रशंसा भी पाते, किए उचित कर्मों के लिए
किन्तु बहुदा तो दंडित ही होते रहते, शिथिलता के लिए।
क्या सब मनन-सावधानी बरतकर भी, मात्र होते हैं सफल
शायद न, क्योंकि समस्त जग-कारक बस में नहीं हैं निज।
फिर हम सचेत या विमूढ़, क्या मस्तिष्क की स्थितियाँ हैं
कैसे बढ़े इस चेतना का क्षेत्र, और मोघ स्वार्थ को त्यागे।
यह मस्तिष्क प्राय: क्या सोचता है, कैसे हम करते कर्म
जो प्रतिबिंब है परस्परता का, एक दूजे का करता वर्धन।
कुछ सुबिंदु चयनित करके, उन्हें अपनाने का यत्न करें।
सहारा दें तब अन्यों के गुणों को, वे तुम्हें करेंगे शक्तिमान
प्रत्येक भ्रांति दूर करके, सदा समुचित में रमा लो ध्यान।
कौन बाँध सकता यहाँ समय को, किसमें इतनी हिम्मत
कैसे स्व-नियमबद्धता संभव, जिसमें कर्त्तव्य इंगित सब।
कैसे बनाता वह दैनंदिनी, और बहु-विस्तृत क्षेत्र में विचरे
कृष्ण सम सोलह कला-स्वामी, इसी जीवन में अति करे।
सबको प्राप्त एक सा समय, तब क्यों कुछ ही प्रगतिपथ
कुछ कोसते रहते दैव को, कि उन्हें कुछ ही नहीं लब्ध।
न केवल चाहने से ही मिलता, कर्म वास्तविक हैं वाँछित
जग में कुछ प्राप्ति हेतु, हैं लक्ष्य व अनुशासन आवश्यक।
समय तब पकड़ा जा सकता, जब कुछ सूचीबद्ध करोगे
आनंद स्वरूप के साथी बनकर, प्रभु में ध्यान लगाऐंगे।
हम सच्चे कर्म-वाहक, उचित दिशा में करेंगे प्रस्थान
पहचानें प्रतिबद्धताऐं. व जीवन-प्राथामिकताऐं महद।
सदैव चलेंगे सत्पथ जो, समय उनका सहायक बनेगा
काल तो नित्य सुहृद, किंतु वह समेकित ही जाँचता।
इसे परिपूरित करना, जीवन सक्षम बहु कुछ देने में
क्रम में वर्धित विषय ध्यान में लाते, अमल हैं करते।
करते हैं हित अपना, प्रत्येक क्षण में जीवन फूंककर
फिर बनते पुरुस्कार-पात्र, क्योंकि किया है सुकर्म।
लयबद्ध हो जाओ कर्त्तव्यों में, समय फिर संग बहेगा
वह सुमित्र बन जाएगा तुम्हारा, फिर न कोई ही चिंता।
चलो नियम- अनुबन्धों पर भी, कल्याण हेतु सार्वभौम
और समय-सारथी बनकर, लगाम से कुछ करें मुक्त।
पवन कुमार,
९ अप्रैल, २०२४ मंगलवार समय १ : २८ बजे मध्य रात्रि
( मेरी डायरी ४ जुलाई, २०१४, शुक्रवार, समय ९:३५ बजे सुबह, द्वारका, नई दिल्ली से )
Raj Kumar Patni : 🙏🏻𝕐𝕠𝕦 𝕒𝕣𝕖 𝕛𝕦𝕤𝕥 𝕘𝕣𝕖𝕒𝕥 𝕤𝕚𝕣🙏🏻
ReplyDeleteBharat Sharma : Ati sundar
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