साकार-निराकर
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एक बहु-आयामी व्यक्तित्व-छवि, निश्चित ही अमुक की एक विशेष-पूँजी
यदि आत्म को महत्तम विस्तृत कर सकें, नर कुछ हो सकता पुञ्ज-शक्ति।
सत्य में क्या आंतरिक बल ही, बाह्य दैहिक-बल, बुद्धि-वैभव भी बड़े सखा
गिर्द सक्षम-सहयोगी, बंधु-मित्रों का सहारा भी नर-मनोबल बनाए रखता।
यदि कुटुंब-परिवेश एक प्रेरक, तो अधिक संभावना अमुक हो प्रगतिपथ
हर आयाम-परिणति हेतु साकार-निराकर बल वाँछित, क्षुद्र-अणु तो निज।
हम बहुदा किनसे ही घिरें, निकट परिवेश का हमसे व्यवहार भाँति किस
माना हममें आकर्षण संभव है, पर निज अनुभूति से ही लोग आते निकट।
बलात तो किसी से न चिपक सकते, जब अगला दूर से भी न चाहे संवाद
विरोधाभास कि एक आशा-संपर्क चाहे, जबकि दूसरा रहा ही है दुत्कार।
एक मनुजत्व कैसे निखरता, क्या महक सकता बहुकाल दमन पश्चात भी
फूल कुम्हलता तो प्राण-स्पंदन मंद, व घोर कुपोषण तो अकाल मृत्यु ही।
क्या यही व्यक्तित्वों-समाजों का प्रगति-दर्शन, हाँ हर दौर से गुजरते सब
पर कुछ घोर कष्ट झेले हैं, हाँ अंतः-साहस से लड़ने-झूझने का बल लब्ध।
जब बुद्धि बस गरीबी-बदहाली से निकास में, महद ऊर्जा न देखें मृदु पक्ष
जिंदगी कथञ्चित चल रहती, नर-समाज का जीवन-स्तर रह जाता मद्धम।
माना मूढ़ता सर्वत्र व्यापत, लोग लिप्त बहु भाँति के मारक-अंधविश्वासों में
अपने अलावा अन्य को न आदर ही, श्रेष्ठ-निम्नता के मनोभाव पाले रखते।
प्रश्न क्यों समूह व नर-विशेष मद्धम, जब सुव्यवहार से पनपन-मौकें संभव
जब स्कूल-संस्थान, अस्पताल-सड़कें, फैक्ट्री खूब, तो बहु प्रगति-अवसर।
क्यों अभाव जग-व्याप्त हैं, जब धन-प्रसारण से वस्तु-उत्पादन संभव अति
हाँ प्रजा की क्रय-शक्ति भी वर्धित हो, तो क्या निर्माण-लाभ बिका न यदि?
सबको विकसन-अवसर प्राप्त हों, हाँ कुछ को चाहे करना पड़े अतिश्रम
यह समाज-अग्रणी, राष्ट्रों का दायित्व, होनहारों हेतु शिक्षा-दान हो सुंदर।
सब पूर्वाग्रह भुलाकर परस्पर कंठ लगाऐं, सबके भले में लाभ ही है निज
व्यक्तित्व स्वतः खिल उठेंगे जब प्रगति-स्थिति, सुपरिवेश जरूरी ही बस।
पवन कुमार,
१८ मई, २०२४, शनिवार, समय ११:३२ बजे म० रा०
(मेरी महेंद्रगढ़ २९ दिसंबर, २०१७, शुक्रवार, समय ८:३२ सुबह से )
Rajkumar Patni : अति उत्तम
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