कुछ उलझन
देह सोने की कह रही, पर हिम्मत
जागने की करता।
मेरे मन की अभिलाषा का, गूढ़
तात्पर्य तू समझा देना
बता क्या वो अनूठी पहली है, कुछ
छोर नहीं जिसका।
फिर तड़पन तो देती है, जैसे किसी
कमी को दिखाती
पर अपने को उजागर नहीं करती, यह
दुविधा है बड़ी।
तड़पन है किंतु मर्ज अबोध, मूर्ख
रोगी सा ही सुबकता
कैसी यह विचित्र परिस्थिति, जो
कुछ समझ न आ रहा।
बस जीवन की कशमकशों में,
अबूझ ही भटका करता
कभी नहीं उनका विश्लेषण-विचार,
मस्तिष्क में आया।
बस जैसे आया, वैसे ही जी लिया, और
हो गया विश्रांत
फिर आए-गए का क्या अर्थ
हुआ, शून्य हैं सब स्थान।
कब सुलझेंगी मन-पहेलियाँ, कभी
ज्ञात हो कैसे रहा जी
कुछ बोल, खीझ- झुँझला कर, कभी
मुस्कुरा कर भी।
समय गँवाया, न कुछ कमाया और न
रोतों का हँसाया
न नालायक योग्य बनाए, खुद को भी न
समर्थ बनाया।
बस खुद में साथी बनने की, तमन्ना
रखता एक कीमती
सोचता जब स्वयं से न्याय करूँगा,
तो जाएगा सबसे ही
सब मम सम, मैं उनका व वे मेरे, न
कोई भेद ही कहीं।
जब खड़ा होऊँगा अपने पैरों पर, व
सक्षम पैर जमाऊँगा
मानवता के प्रति सजग होकर ही, चरण
आगे बढ़ाऊँगा।
करूँगा स्थापित पहचान स्वयं की,
अच्छा कमाकर कर्म
कुछ होगा मेरा भी कल्याण,
औरों को भी है उसी के संग।
पवन कुमार,
५ मई, २०२४, रविवार,
समय १ : १३ मध्य रात्रि
(मेरी नई दिल्ली डायरी 21 मार्च,
2011, सोमवार, समय 12.35 बजे म० रा० से)
Anil Kumar Gupta : Wah wah sir ji.
ReplyDeletePradeep Kumar Hans : Very Nice Sir
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