विचरण - दिशाहीन
क्या लिखना ही शुरू करूँ, कुछ भी सूझे ना, मस्तिष्क बोझिल है तो कलम चले ना।
अपनी दुनिया ढूँढ़ा करता, जैसे कस्तूरी-मालिक होकर भी हरिण दर-बदर भटकता।
मेरी दुनिया कैसी, कोई पता नहीं, बस साँसें आने-जाने से ही क्या सब बात बन जाती?
बहुत मन-गहराई, पर छलाँग लगाए कौन, डरते जब खुद से, कष्टों को अपनाए कौन।
सारा ढोंग किया करते कि हूँ ढूँढ़नवारा, खुद में शांति तो निज से कुछ जुड़ेगा रिश्ता।।
बड़ी मन-उद्विग्नता पर न बाहर आती, भयभीत सा हो जाता खुद से बात कहने में भी।
कोशिश की तो कोशिश की थी पर कोशिश बेकार गई, विश्वास-संबल जोड़ा था नहीं।।
अनेक विद्वान हुऐ व कलम बन जाती सरस्वती, किंतु आत्म-विश्वास करने में डरता ही।
कब होगा रुग्ण-उन्मादों का परिष्कार कुछ, क्योंकि जीने की भी थोड़ी इच्छा है तब।।
अपने में विचरना चाहूँ तब मार्ग दिखेगा, कृपा करो मन के नाविक, कुछ पथ दो सुझा।
दुनियादारी-चक्कर में अधिक लिखा-पढ़ा ना, निज संग बैठकर भी तो गुनगुनाया ना।।
कीमत तो बहुतेरी होगी पर आँका ना, कोई किस भाव मोल करे तुमको पता ही ना।
सवाल करोगे तो उत्तर जाऐंगे मिल ही, किंतु प्रश्न करने की कला भी तो आती नहीं।।
कब तक व्यर्थ-शब्दों से कागज काला करोगे, कुछ ठोस कर्म-प्रेरणा से निज न भरते।
दुनिया की अदना सा नर, न जानूँ वजूद, तो भी जीतूँगा अंतः-कोने में कहीं है विश्वास।।
दृष्टि को देखने के अनुरूप कर्म करना ही, पर उस हेतु आवश्यक है उसे खुला रखना
अपनी ज्ञानेन्द्रियाँ तो चाहूँ उपयोग करना, लेकिन कुछ ऐसा जो स्पंदन नहीं होने देता।।
पर यूँ न अपने को विनिष्ट होने दूँगा, वजूद की बेहतरी हेतु और अधिक चमकाऊँगा।
जब कोशिशों के जरिए ही दमकूँगा, तो खुद पर मान करने के काबिल बन जाऊँगा।।
अहसान तो खुद पर करना होगा ही, वरना तो जिन्दगी यूँ ही निरर्थक निकल जाएगी।
यह वर्तमान, वो भूत-भविष्य, सब अपना, जब भी जीवन-क्षण प्राप्त हो वरदान वहाँ।।
वह क्या चीज है जो एक समाधि-स्थिति से मिला दे, अपने को निज अहसास करा दे।
अपनी सरलता पर हँसना सिखा दे, कभी मौका मिले तो खुद पर रोना भी सिखा दे।।
मैं और मेरा आत्म दोनों अकेले हैं, देखने में लगते पास, लेकिन कोसों ही दूर शायद।
किञ्चित परस्पर का तो ज्ञान न कोई, मैं झुँझलाता सा गुनगुनाता रहता अपने में ही।।
कब वो क्षण ही आएगा, जब मित्र बन जाऐंगे, परस्पर के अंतरंग बन एक हो जाऐंगे।
तब दूरी न होगी, कुछ चैन की साँस ले सकूँगा, मेरा भी कुछ वजूद है कह पाऊँगा।।
सोचना तो और चाहता पर जुकाम है हुआ, मस्तिष्क भारी, ज्यादा जोर न दे पा रहा।
प्रभु तू अपना करुणा-आशीर्वाद रखना, सुलेखन-रुचि हो ऐसा पथ-प्रसस्त करना।।
धन्यवाद। शुभ रात्रि।
पवन कुमार,
०१ मई, २०२४ बुधवार, समय ८:५५ बजे सायं
(मेरी डायरी २७ अक्टूबर, २००५, वीरवार, समय ११:३० बजे मध्य रात्रि से)
Dr. (Mrs.) Sukhvarsha Chopra : Very sensitive and pure portrayal of human mind caught up in the confusion of the complex world beset with traps of different types .This is very touching and painful account of life.There are questions of which man searchesthe answers. Very meaningful and comes from the depth of the poets heart Thanks for sharing. GOD BLESS YOU 🌹🌻🌺
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