मूल-तत्व
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इस अंतरतम की क्या परिभाषा ही, व क्या वह वृहद विश्व-दृष्टिकोण सा है
क्या यहाँ निज भी मूल-तत्व है, हालाँकि बहु कारक एक समय वार किए।
क्या सत्यमेव कोई व्यक्तित्व भी है, या जहाँ कोई राग सुना वहीं के हो लिए।
माना बहु भाँति साहित्य-संवादों से तो संपर्क, पर मन निजानुरूप लेता रस
अन्य भी अपना पक्ष कहीं बघार रहें, कैसी प्रतिक्रिया ही यह तुमपर निर्भर।
माना बहु कर्म व अति सीमित ऊर्जा-समय, तो भी पूर्ण तो कभी न झोंका।
मन-कपाट कभी खुले नहीं, कक्ष में ऑक्सीजन-अल्पता है, साँस कैसे मिलें
इच्छा भी तो प्रगाढ़ न रही है, सामान्य प्रयासों से तो परिणाम वैसे निकलेंगे।
सुबह 5.30 या 6 बजे आसान जग सकता, क्यों बिताए अधिक घंटे शय्या में।
निज बिंदु भी क्रमवार न लिख पा रहा, पुनर्स्मरण करूँ तो कार्यान्वयन भी हो
कई पक्षों से डर सा, अल्प प्रयास से न सुफल, अत: अग्र-मनन रुद्ध गया हो।
हरपल जब तक नहीं मुखरित, कैसे अनुपम भुवन-ग्रंथ हाथों से होंगे निर्मित।
बस बुद्धि को बोझिल-अवस्था में ही रखना, और कहना कि नहीं पा रहा कर
सामर्थ्य अनुरूप तो यत्न करो, चेष्टा-प्राथमिकताओं का स्तर सदैव हो ऊर्ध्व।
फिर कौन प्रेरणा रजाई से अति-प्रात: जगा देती, बर्फ में दौड़ते, धावक बनते।
हमने एक सुविधाजनक जीवन-शैली बना ली, तरक्की न हो रही कहते फिर
फिर यदि अत्यावश्यक काम करते हो भी तो क्या, पेट तो सब जीव लेते भर।
पर मात्र उदर-भरण ही न उद्देश्य, बुद्ध-महावीर सा निखारने को मिला जीवन
निज से कमवय भी विद्वान-निपुण, हाँ शैशव में श्रेष्ठ विद्यालयों में हो शिक्षालब्ध।
कबतक स्वयं को अनक्षर ही मानोगे, तब शुभ न कर सके तो अब रोकता कौन
सामर्थ्य है तो खड़े होवो, कुछ उपाधि संग जोड़ लो, रुदन से तो नहीं बहु लाभ।
तथापि पुनर्नवीनीकरण होता रहता, वर्तमान सुधार लो तो वह भी है सुभीता।
जो बीता है उसका रोना क्या, हाँ हिम्मत तो उन जीवन-पलों का मूल्य दो भर
जब क्षतिपूरण सीख ही लोगे तो पीछे न रहोगे, जीवन बड़ी आशा से रहा देख।
इससे पूर्व इनकी पुस्तक Sapiens पढ़ी थी, तब भी काफी हुआ था प्रभावित।
वर्तमान History of Tomorrow है, नर-भविष्य विकास किस दिशा में चलित
अतिद्रुत वैज्ञानिक-तकनीकी-मानसिक भवंडर हैं, उल्लेख न आ रहा समझ।
तभी तो वह महाबली बन गया, सकल शक्तिसंपन्न जीव उसके हाथ नीचे हैं।
जो नर विश्व में प्रगति चाहते, कुछ न्यूनतम पाठ तो स्मरण करने होंगे निश्चित
सोते रहो व बहुलाभ-इच्छा भी रखो, बड़ा विरोधाभास है, न होवोगे ही सिद्ध।
इनकी दूरी से मनुजत्व भी कुप्रभावित, किंतु प्रगति के तो अनेक हैं अवसर।
कई पथ-बाधा मिल सकती पर रो-पीटकर शांत होंगी, यदि अंतः से हो भद्र
द्रुत विकासार्थ आदान-प्रदान, सहयोग करो, अन्य-वृद्धि में निज भी निहित।
अनेक प्रजाजन मुझ से अति-साधारण, उन्हें आवाज देने का लक्ष्य है बनाना।
जब यह सामान्य महानर में रूपांतरित, समझूँगा जीवन-अवतरण हुआ धन्य
वरन जीना-मरना तो नितांत प्राकृतिक चलन, जाने से कोई रिक्तता होगी न।
जब कुछ निश्चित शुभ परिभाषा बनेगी, तो अग्रिम रूप में होगा प्रस्फुरण।
जीवन तो अग्रगमन पर गतिवर्धन उद्देश्य, पर विद्वदजनों से मित्रता करनी
सद्चरित्र-सुसाहित्य के संग-समन्वय से ही, प्राण-बगिया मधुतर महकेगी।
१२ मई, २०२४, रविवार, समय १२:११ बजे मध्याह्न
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी 27 दिसंबर, २०१७ बुधवार, समय ९:२३ बजे प्रातः से )
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