चेतना-स्पंदन
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कुछ विचार-मनन, जतन -कष्ट करूँ, विचरकर स्वयं ही में, कुछ तो करूँ स्वोद्धार
मृदुल मन बनाने का कुछ यत्न करना होगा, बुराईयाँ जीवन से ही भगानी होगी दूर।
अपनी पहचान की कोशिश तो करो, फिर देखो कैसे स्वयं की अवमानना करते हो
क्या बलवान बनने हेतु विचार ही पर्याप्त है, परंतु वह प्रथम कदम अत्यावश्यक जो।
उसकी अहमियत कम ना आँकना, यदि चढ़ गए तो काफी नजदीक लगती मंजिल
सबसे अहम प्रश्न निज-पहचान नहीं हो रही, कैसे खुद से सवाल हों, पा ना रहा राह।
क्या-कैसे-क्यों सोचूँ, इसकी सोच न मुझमें, और न ही गुरु बना पा रहा किसी को
शायद सर्वोत्तम, जब खुद को मित्र बन पाओ, पर बेहतर जब अंतः में उतर जाओ।
क्या पास वर्तमान में, क्या सत्य निज परिचय ही, खुद से कैसे-कितने प्रश्न हैं संभव ?
प्रश्न
सार्थक हों, पर उत्तर ढूँढ़ने का भी यत्न, पहचान हेतु खुद का मुखड़ा तो देखो।
शील विचारो, अन्य कहें इससे पूर्वेव त्रुटि-सुधार का विचार, यथाशीघ्र हो परिष्कार
पूर्णता ओर बढ़ना, किंतु उसका दायरा क्या, क्षितिज-बुलंदियाँ, मंजिलें व चाहें क्या?
क्या यह निज विस्तृततर न बन सकता, व ब्रह्माण्ड का अकाट्य अंश न सकता बन
निश्चित तो पूर्व से किंतु प्रश्न अनुभूति का, तब सब नभ-तारों को भी कह सकता निज।
इस समस्त जग-प्रक्रिया में मेरी क्या भूमिका
है, बिना रोल जाने ही क्या सिर्फ नाचूँगा
क्या आचरण उचित, कौन निर्देशक, क्या सुधार वाँछित हैं, या चलते-२ गिर जाऊँगा।
सर्वत्र महामानव-झुंड हैं, अत्यधिक नित्य-निर्मित, मैं अनाड़ी ठीक से न पाता भी चल
क्या संभव मैं भी सर्वत्र नवीनतम रहूँ, विशाल न तो कुछ लघु
ही सकारात्मक दूँ रच।
जीवन को कदापि क्षुद्र नहीं समझना, माना कुछ या सब आयामों में हो भी सकते अवर
किंतु कोटि उच्च न क्यों निर्धारित
करते, क्या किसी ने मना किया बड़ा करने हेतु कुछ।
क्यों न पथ में जी-जान से जुट जाते, मातृ-भूमि व प्राणीमात्र की सेवार्थ पूर्णतया समर्पित
आत्म संग सबका ही सफलीकरण
-यत्न, सब हृदयाकाशों में जला देते कर्त्तव्य-दीपक।
कभी
अपने को हीन-दीन-पराधीन मत समझना, उठो व पूर्ण जीवन-अहसास का करो
जीवन को एक पूर्ण चेतना-स्पंदन संग ही जीओ, छोटी-क्षुद्र बातों से अत्युच्च उठ जाओ।
सबको आत्म के अनुरूप समझो, अपना बना लो, अच्छा-बुरा पहचानना भी सीख लो पर
दुर्जनों को बदलने का उपाय स्वयं को सज्जन बनाना
है, पुण्यता ही जग में फैलेगी फिर।
कुछ महात्माओं को अंतरंग मित्र बनाओ, व उन्नति-मार्ग पर अनवरत बढ़ते चले जाओ।
पवन कुमार,
५
मई, २०२४, रविवार, समय ७:१७ बजे सायं
(मेरी शिलोंग डायरी २४ जुलाई, २०००, सोमवार, समय १:०४ बजे मध्य रात्रि
से)
Deep philosophy
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