काव्य और कवि-दृष्टि
हम संतुष्ट लघु अनुभव में, वह विशाल उर से अवलोकित।
कैसे रचती जाती कविता, निर्मल, मृदु और मधुरतर भाव,
जहाँ चेष्ठा, विचार व कृति का समन्वय, होता प्रखर प्रभाव।
कैसे सामान्य घटना बनती, अति रोचक और अप्रत्याशित,
एक मधुर सौंदर्य भाव संग अध्येता-श्रोता, हो जाते विस्मृत।
किस सम्मोहनी मूर्च्छा में, कवि करता है शब्द-आच्छादित,
जैसे हो अपरा विद्या का भर्ता, नव निर्माण कर रहा निरंतर।
हर शब्द मणि-सा दमक रहा है, लेखनी की शेफालिका में,
एक दैवी प्रेरणा से ही संभव, वरन सीमाएँ मनुज प्रचंड रचें।
कैसे गुरु-वाक्य कलम से ही निकले, और बन जाते मंत्र सम,
पाठक, श्रोता, प्रजा सभी मान लेते इनको, जीवन के तंत्र सम।
सब मन-मलिनता धुल जाती, जैसे मंदाकिनी के पवित्र जल में,
कुछ हिचकोले भी यदि लगते, तो सह जाते प्रबल मन-तन में।
कैसे रहस्य प्रस्फुटित हो जाते, जो छिपे थे अज्ञान के पर्दों में,
अब ज्ञान तंत्र सबल होकर ही, अंतर्चक्षु खोल देता है क्षणों में।
जब सामान्य एक विलक्षण हो जाता, सकल दर्शित ही विचित्र,
घटनाएँ यकायक प्रस्तुत होती, व चमत्कार बनते जाते दृश्य।
कैसे खुलती ही दृष्टि मनोरम, प्रकृति के अद्भुत प्रयोगों पर,
आत्म-सत्य और मनोचिंतन से, नवसृजन की जागती है लहर।
विशाल जगत का संजोया सार है, करता अनुभव को सार्थक,
प्रेरणा देती है कृतियाँ रचने को, नवीन ऊर्जा से है प्रचालित।
कैसे अलंकृत हो जाते हैं शब्द, वे मानवेतर गुणों से भरपूर,
शब्द वीर-गाथाओं संग मिलकर, बन जाते हैं प्रेरक एवं पूर्ण।
यहाँ बाणभट्ट सा एक अनुभव, मणियों से चरित्र पिरोते जहाँ,
हम विस्मित खड़े देखते हैं, वहाँ हो जाती कृतियों की रचना।
पवन कुमार,
ब्रह्मपुर (ओडीशा), 19 जनवरी 2024 रविवार, समय 11:26 प्रातः
(मेरी उदयपुर (राज०) डायरी, 25 जनवरी 2016, सोमवार, प्रातः 7:45 बजे से)
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