प्रकृति-सान्निध्य
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मृदुल-स्पंदन स्वयं का स्व में, सारी जीवन-चेष्टा एक उत्तम-अहसास हेतु मात्र
हम उसी क्षण हेतु तो जी रहें, जब आत्म का स्वयं में पूर्ण हो जाए आत्मसात।
इस जीवन का क्या उद्देश्य ही बनिस्पद हम, कुछ तो प्रयोजन रहता हेतु हर
क्या हम ईश्वर-निर्मित या बस प्रकृति की नवीनीकरण-शैली के फल-स्वरूप।
पर इतना तो अवश्य है मनन-चिंतन शक्ति दी, व मनुज विकसित सकता कर
कुछ प्रयोग तो प्रतिदिन होता रहता, पर क्या वही हमारा विकास है महत्तम।
हमारे स्वयं के प्रति क्या कर्त्तव्य ही हैं, व कितने गंभीर- प्रतिबद्ध उनके प्रति
क्यों नहीं तीक्ष्ण इच्छा एकाग्रचित्त हों, कर लें कोई बड़ी उत्तम-आत्मानुभूति।
दुनिया में तो बहुत बाह्य-कोलाहल हैं, पर कुछ क्षण ही दूर तक उछल सकते
जितना ही स्वयं के निकट आते जाऐंगे, बहु अनुपम-अहसास के द्वार खुलेंगे।
जब सारी कायनात ही स्व में समाने लगेगी, विराट कृष्ण-रूप विकसित होगा
सब विभेद पूर्णतया स्वतः प्रक्षीण हो जाऐंगे, अच्छा-बुरा एक सम हो जाएगा।
सभी जगत रूप अपना अंश लगेंगे, तब कितने विस्तृत होवोगे, कल्पनातीत
कुछ विलगता-पश्चाताप भी निज से हटेगा, क्योंकि सकल ही हमारा कोष्टक।
अभी इस कक्ष में वज्रासन-स्थित हूँ, ऊपर पंखा-चलने की ध्वनि स्पष्ट रही सुन
यह आवाज भी विचित्र स्वरूप लिए है, एकबार तीव्र फिर मंद हो जाती कुछ।
देह-अंगों पर अनिल-शीतलता व निपीड़ हैं, निज अहसास पूर्णतया करा रहा
नेत्रों पर चश्मा, उरु पर तकिया, पृष्ठ पर पॉयलट हाईटेक V5 पैन चल रहा।
बाहर कहीं-2 से रुक-रुक के, धीमे से चिड़ियों की गान सुनाई दिया जा रहा
क्या बताना चाहती अज्ञात ही, विशेष मित्रता न, समक्ष आ जाती तो देख लेता।
उनको भी मुझसे कोई प्रयोजन नहीं, मुझ जैसे अनेक प्राणी परिवेश में घूमते
फिर मैं ही कौन सा उनका विशेष ध्यान रखता, उनका भी जगत मस्त उसमें।
इस भाड़े के आवास-भवन के पीछे खेत हैं, सरसों कटने बाद इसे सुधार दिया
ट्रैक्टर से भूमि जुतवा दी, मृदा में वाबजे यु-खनिज मिश्रित होगी, बढ़ेगी ऊर्वरा।
अब कुछ नई फसल उगाने का विचार होगा खेत-स्वामी का, क्या होगा देखेंगे
पर मुझ हेतु तो हर दिवस नव-दर्शन व अनुभव ही, आनंदित प्रकृति संग में।
प्रात: करीब 50 मिनट छत पर घूमता हूँ, 5 किलोमीटर 6000 से ज्यादा कदम
अधिकांशतः 5 बजे ही जग जाता, गुनगुना जल पाने पश्चात शौचादि से निवृत्त।
तब स्पोर्टस-जूते पहनकर मोबाइल फोन ले, इस भवन की छत पर चला जाता
सैमसंग मोबाइल में हेल्थ-एप्प, जो समय-स्टैप्स, गति आदि अंकण कर लेता।
स्वास्थ्य उत्तम रखना कर्त्तव्य है, शरीर-मन स्वस्थ होने चाहिए हर व्याधि से दूर
खानपान का भी कुछ अच्छा असर रहता, फिर स्वस्थ-जीवन शैली बढ़ाते अग्र।
कुछ उत्तम देह-व्यायाम जरूरी नित्य, गत काफी दिनों से छूट सा गया लगभग
अभी प्रातः-सैर सैट कर रहा हूँ, व्यायाम, दंड, आसन को भी शनै कुछ समय।
उषा की शिकायत कि देह पर नहीं समुचित ध्यान, उदर कुछ निकला है बाहर
वपु देखने में शुभ-सौष्ठव लगनी चाहिए, प्रयास हो पेट वक्षस्थल के रहे अंदर।
कारण दिन-कर्म बैठना का अति, आजकल कार्यस्थल-निरीक्षण भी न अधिक
यदि एक घंटे की भी प्रातः-सैर नहीं होगी, तो स्वास्थ्य पर विलोम पड़ेगा असर।
बचपन में गाँव में चिड़ियाँ-गौरया देखते थे, दिल्ली में तो अब अति-न्यून दिखती
1992 में दिल्ली बसा तब बहुत चिड़ियाँ थी, रा.कृ.पुरम गृह में खूब चहचहाती।
वहाँ शौचालय बाहर बॉलकोनी में दर्पण टंगा, शक्ल देख उसे दूजी समझ लेती
प्रतिद्वंद्विता में युद्ध सा शीशे पर चोंच मारती, कदाचित लहू-लुहान भी हो जाती।
इस पृष्ठ के दूसरे पद्यांश से मैंने मुख पश्चिम में जालान्तर की ओर घुमा है लिया
लोचन-समक्ष खुला प्रकृति-दर्शन चाहता, बुद्धि भी उसी भाँति अनुभूति कराती।
दो चिड़ियाँ समक्ष-गृह के प्रथम तल-मुँडेर पर बैठी, अठखेलियाँ करती परस्पर
थोड़ा पूर्व रेलिंग पर स्वस्थ कबूतर बैठा था, महेंद्रगढ़ में आखेट न अतः सुरक्षित।
कुछ पूर्व रेलिंग पर एक काली रोबिन दिखी थी, बड़ा सुहाता है उसका सिर-ताज
प्रकृति-प्रदत्त उपकरण उनकी आँखें पैनी हैं, जीवन-आनंद हेतु व अपना बचाव।
चिड़ियों की चहचहाहट सुनाई दे रही, व यह तो आत्माभिव्यक्ति का मेरा ही रूप
कबूतरों की शालीन चाल पर तो अभिमान होता, अतिनिश्चिंत जीवों में एक है यह।
अब समक्ष क्षेत्र की भूरी मिट्टी दिखाई दे रही, बीच-2 में कटी सरसों के ढांसरे पड़े
जोतकर जमीन को स्पाट कर दिया है, पानी दे दिया, अब शीघ्र बिजाई भी होगी।
मुझ हेतु तो अति हर्षप्रद ही, एक हरित उपवन सा परिदृश्य नयनों के समक्ष होगा
प्रकृति-हरियाली का तो कोई पर्याय न, सुबह-सैर से मिल असर कई गुणा होगा।
लगभग पूरा ही खुला आसमान-सामीप्य है, बस प्रकृति-सान्निध्य पूर्णानुभूत करूँ
चाहता इसके आयामों को निज का अंश मानकर ही, निज आचार-व्यवहार करूँ।
जीवन-लक्ष्य तो अत्युच्च होना ही चाहिए, मन में गगन-ऊँचाई व समुद्र की गव्हरता
वैसे तो प्रत्येक ब्रह्मांड-अणु से सीधा रिश्ता, अहसास भी हो सके तो आ जाए मजा।
हेनरी डेविड थोरियू की पुस्तक 'वाल्डेन', प्रकृति-निकटता की अजीब दास्तान एक
स्वतंत्रता, सामाजिक-प्रयोग, आत्मिक-खोज, व्ययंग, व आत्मनिर्भरता हेतु विनिर्देश।
थोरियू दो वर्ष, दो मास, दो दिन, जंगल से घिरे वाल्डेन सरोवर निकट केबिन में रहा
यह मित्र-संरक्षक शल्फ-काल्डो-एमर्सन का यह मासेचुसेट्स कॉनकॉर्ड के पास था।
थोरियू ने प्रथम पुस्तक 'A Week on the Concord & Merrimack Rivers' लिखी
अनुभव से वाल्डेन की प्रेरणा मिली, समय को कैलेंडर-वर्ष में सिकोड़ा है एकाकी।
चारों ऋतु बीतने के अनुभव को मनुष्य-विकास को चिन्हित करने हेतु किया प्रयोग
प्रकृति में आत्म-लुप्त कर, उसने मंथन से निष्पक्ष-समाज समझने का किया प्रयास।
साधारण जीवन, आत्म-निर्भरता और उच्चतम कार्य-दर्शन थोरियू के हैं अन्य लक्ष्य
ये अमेरिकन रोमांटिक काल के मुख्य विचार, प्रकृति-परिवेश में जीवन-प्रतिबिंब।
थोरियू लिखता है मुख्य जीवन-तत्व समझने हेतु, वह इच्छा से आवास हेतु गया वन
यह भी कि जब मरूँगा तो न लगे कि जीया ही न, भागा न यावत अत्यावश्यक न।
गहन जीना व सर्व जीवन-रस पीना चाहता, सकल जो प्राण न था उबरने हेतु उससे
अतः जीवन को एक कोने में ले जाकर, अनुभव करना चाहता था अति निकट से।
यदि यह जीवन लघु तो क्यों नहीं, इसकी संपूर्ण व उचित-निम्नता की जाए ही ग्रहण
यदि सुन्दर तो अनुभव किया जाए, अग्रिम आनंद में इसका दे सकूँ सत्य विवरण।
मैं भी आजकल प्रकृति समीप रह रहा, कुछ बड़ा उद्देश्य थोरियू जैसा बना सकता
प्रत्येक जीवन-स्पंदन निकट से अनुभव कर सकूँ, वही प्राण जो अहसास हो गया।
ओ जीवन, मुझसे भी कुछ बड़ा उद्देश्य लिखवा देना, कृतज्ञ-ऋणी रहूँ ही आजीवन
इस सारी कायनात की जीवंतता मुझमें भर दे, अत्युत्तम स्तर का हो निज अनुभव।
पवन कुमार,
25 मई, 2024, शनिवार, समय 9:01 बजे प्रातः
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी 28 अप्रैल, २०१७ शुक्रवार, समय 9:18 बजे प्रातः से )