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Saturday, 25 May 2024

प्रकृति-सान्निध्य

प्रकृति-सान्निध्य

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मृदुल-स्पंदन स्वयं का स्व में, सारी जीवन-चेष्टा एक उत्तम-अहसास हेतु मात्र 

हम उसी क्षण हेतु तो जी रहें, जब आत्म का स्वयं में पूर्ण हो जाए आत्मसात।


इस जीवन का क्या उद्देश्य ही बनिस्पद हम, कुछ तो प्रयोजन रहता हेतु हर

क्या हम ईश्वर-निर्मित या बस प्रकृति की नवीनीकरण-शैली के फल-स्वरूप।

पर इतना तो अवश्य है मनन-चिंतन शक्ति दी, व मनुज विकसित सकता कर

कुछ प्रयोग तो प्रतिदिन होता रहता, पर क्या वही हमारा विकास है महत्तम। 


हमारे स्वयं के प्रति क्या कर्त्तव्य ही हैं, व कितने गंभीर- प्रतिबद्ध उनके प्रति 

क्यों नहीं तीक्ष्ण इच्छा एकाग्रचित्त हों, कर लें कोई बड़ी उत्तम-आत्मानुभूति। 

दुनिया में तो बहुत बाह्य-कोलाहल हैं, पर कुछ क्षण ही दूर तक उछल सकते 

जितना ही स्वयं के निकट आते जाऐंगे, बहु अनुपम-अहसास के द्वार खुलेंगे।


जब सारी कायनात ही स्व में समाने लगेगी, विराट कृष्ण-रूप विकसित होगा

सब विभेद पूर्णतया स्वतः प्रक्षीण हो जाऐंगे, अच्छा-बुरा एक सम हो जाएगा।

सभी जगत रूप अपना अंश लगेंगे, तब कितने विस्तृत होवोगे, कल्पनातीत 

कुछ विलगता-पश्चाताप भी निज से हटेगा, क्योंकि सकल ही हमारा कोष्टक।


अभी इस कक्ष में वज्रासन-स्थित हूँ, ऊपर पंखा-चलने की ध्वनि स्पष्ट रही सुन

यह आवाज भी विचित्र स्वरूप लिए है, एकबार तीव्र फिर मंद हो जाती कुछ।

देह-अंगों पर अनिल-शीतलता व निपीड़ हैं, निज अहसास पूर्णतया करा रहा

नेत्रों पर चश्मा, उरु पर तकिया, पृष्ठ पर पॉयलट हाईटेक V5 पैन चल रहा। 


बाहर कहीं-2 से रुक-रुक के, धीमे से चिड़ियों की गान सुनाई दिया जा रहा 

क्या बताना चाहती अज्ञात ही, विशेष मित्रता न, समक्ष आ जाती तो देख लेता।

उनको भी मुझसे कोई प्रयोजन नहीं, मुझ जैसे अनेक प्राणी परिवेश में घूमते 

फिर मैं ही कौन सा उनका विशेष ध्यान रखता, उनका भी जगत मस्त उसमें।


इस भाड़े के आवास-भवन के पीछे खेत हैं, सरसों कटने बाद इसे सुधार दिया

ट्रैक्टर से भूमि जुतवा दी, मृदा में वाबजे यु-खनिज मिश्रित होगी, बढ़ेगी ऊर्वरा। 

अब कुछ नई फसल उगाने का विचार होगा खेत-स्वामी का, क्या होगा देखेंगे  

पर मुझ हेतु तो हर दिवस नव-दर्शन व अनुभव ही, आनंदित प्रकृति संग में। 


प्रात: करीब 50 मिनट छत पर घूमता हूँ, 5 किलोमीटर 6000 से ज्यादा कदम 

अधिकांशतः 5 बजे ही जग जाता, गुनगुना जल पाने पश्चात शौचादि से निवृत्त। 

तब स्पोर्टस-जूते पहनकर मोबाइल फोन ले, इस भवन की छत पर चला जाता 

सैमसंग मोबाइल में हेल्थ-एप्प, जो समय-स्टैप्स, गति आदि अंकण कर लेता।


स्वास्थ्य उत्तम रखना कर्त्तव्य है, शरीर-मन स्वस्थ होने चाहिए हर व्याधि से दूर  

खानपान का भी कुछ अच्छा असर रहता, फिर स्वस्थ-जीवन शैली बढ़ाते अग्र।

कुछ उत्तम देह-व्यायाम जरूरी नित्य, गत काफी दिनों से छूट सा गया लगभग

अभी प्रातः-सैर सैट कर रहा हूँ, व्यायाम, दंड, आसन को भी शनै कुछ समय। 


उषा की शिकायत कि देह पर नहीं समुचित ध्यान, उदर कुछ निकला है बाहर

वपु देखने में शुभ-सौष्ठव लगनी चाहिए, प्रयास हो पेट वक्षस्थल के रहे अंदर। 

कारण दिन-कर्म बैठना का अति, आजकल कार्यस्थल-निरीक्षण भी न अधिक 

यदि एक घंटे की भी प्रातः-सैर नहीं होगी, तो स्वास्थ्य पर विलोम पड़ेगा असर।


बचपन में गाँव में चिड़ियाँ-गौरया देखते थे, दिल्ली में तो अब अति-न्यून दिखती

1992 में दिल्ली बसा तब बहुत चिड़ियाँ थी, रा.कृ.पुरम गृह में खूब चहचहाती। 

वहाँ शौचालय बाहर बॉलकोनी में दर्पण टंगा, शक्ल देख उसे दूजी समझ लेती

प्रतिद्वंद्विता में युद्ध सा शीशे पर चोंच मारती, कदाचित लहू-लुहान भी हो जाती।


इस पृष्ठ के दूसरे पद्यांश से मैंने मुख पश्चिम में जालान्तर की ओर घुमा है लिया 

लोचन-समक्ष खुला प्रकृति-दर्शन चाहता, बुद्धि भी उसी भाँति अनुभूति कराती। 

दो चिड़ियाँ समक्ष-गृह के प्रथम तल-मुँडेर पर बैठी, अठखेलियाँ करती परस्पर 

थोड़ा पूर्व रेलिंग पर स्वस्थ कबूतर बैठा था, महेंद्रगढ़ में आखेट न अतः सुरक्षित।


कुछ पूर्व रेलिंग पर एक काली रोबिन दिखी थी, बड़ा सुहाता है उसका सिर-ताज 

प्रकृति-प्रदत्त उपकरण उनकी आँखें पैनी हैं, जीवन-आनंद हेतु व अपना बचाव।  

चिड़ियों की चहचहाहट सुनाई दे रही, व यह तो आत्माभिव्यक्ति का मेरा ही रूप

कबूतरों की शालीन चाल पर तो अभिमान होता, अतिनिश्चिंत जीवों में एक है यह।


अब समक्ष क्षेत्र की भूरी मिट्टी दिखाई दे रही, बीच-2 में कटी सरसों के ढांसरे पड़े 

जोतकर जमीन को स्पाट कर दिया है, पानी दे दिया, अब शीघ्र बिजाई भी होगी। 

मुझ हेतु तो अति हर्षप्रद ही, एक हरित उपवन सा परिदृश्य नयनों के समक्ष होगा

प्रकृति-हरियाली का तो कोई पर्याय न, सुबह-सैर से मिल असर कई गुणा होगा। 


लगभग पूरा ही खुला आसमान-सामीप्य है, बस प्रकृति-सान्निध्य पूर्णानुभूत करूँ

चाहता इसके आयामों को निज का अंश मानकर ही, निज आचार-व्यवहार करूँ।

जीवन-लक्ष्य तो अत्युच्च होना ही चाहिए, मन में गगन-ऊँचाई व समुद्र की गव्हरता 

वैसे तो प्रत्येक ब्रह्मांड-अणु से सीधा रिश्ता, अहसास भी हो सके तो आ जाए मजा।


हेनरी डेविड थोरियू की पुस्तक 'वाल्डेन', प्रकृति-निकटता की अजीब दास्तान एक 

स्वतंत्रता, सामाजिक-प्रयोग, आत्मिक-खोज, व्ययंग, व आत्मनिर्भरता हेतु विनिर्देश।

थोरियू दो वर्ष, दो मास, दो दिन, जंगल से घिरे वाल्डेन सरोवर निकट केबिन में रहा  

यह मित्र-संरक्षक शल्फ-काल्डो-एमर्सन का यह मासेचुसेट्स कॉनकॉर्ड के पास था। 


थोरियू ने प्रथम पुस्तक 'A Week on the Concord & Merrimack Rivers' लिखी 

अनुभव से वाल्डेन की प्रेरणा मिली, समय को कैलेंडर-वर्ष में सिकोड़ा है एकाकी। 

चारों ऋतु बीतने के अनुभव को मनुष्य-विकास को चिन्हित करने हेतु  किया प्रयोग

प्रकृति में आत्म-लुप्त कर, उसने मंथन से निष्पक्ष-समाज समझने का किया प्रयास। 


साधारण जीवन, आत्म-निर्भरता और उच्चतम कार्य-दर्शन थोरियू के हैं अन्य लक्ष्य  

ये अमेरिकन रोमांटिक काल के मुख्य विचार, प्रकृति-परिवेश में जीवन-प्रतिबिंब। 

थोरियू लिखता है मुख्य जीवन-तत्व समझने हेतु, वह इच्छा से आवास हेतु गया वन 

यह भी कि जब मरूँगा तो न लगे कि जीया ही न, भागा न यावत अत्यावश्यक न। 


गहन जीना व सर्व जीवन-रस पीना चाहता, सकल जो प्राण न था उबरने हेतु उससे

अतः जीवन को एक कोने में ले जाकर, अनुभव करना चाहता था अति निकट से। 

यदि यह जीवन लघु तो क्यों नहीं, इसकी संपूर्ण व उचित-निम्नता की जाए ही ग्रहण

यदि सुन्दर तो अनुभव किया जाए, अग्रिम आनंद में इसका दे सकूँ सत्य विवरण। 


मैं भी आजकल प्रकृति समीप रह रहा, कुछ बड़ा उद्देश्य थोरियू जैसा बना सकता

प्रत्येक जीवन-स्पंदन निकट से अनुभव कर सकूँ, वही प्राण जो अहसास हो गया।

 ओ जीवन, मुझसे भी कुछ बड़ा उद्देश्य लिखवा देना, कृतज्ञ-ऋणी रहूँ ही आजीवन 

इस सारी कायनात की जीवंतता मुझमें भर दे, अत्युत्तम स्तर का हो निज अनुभव।


पवन कुमार,

25 मई, 2024, शनिवार, समय 9:01 बजे प्रातः 

(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी 28 अप्रैल, २०१७ शुक्रवार, समय 9:18 बजे प्रातः से ) 

Saturday, 18 May 2024

साकार-निराकर

साकार-निराकर
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एक बहु-आयामी व्यक्तित्व-छवि, निश्चित ही अमुक की एक विशेष-पूँजी 
यदि आत्म को महत्तम विस्तृत कर सकें, नर कुछ हो सकता पुञ्ज-शक्ति।

सत्य में क्या आंतरिक बल ही, बाह्य दैहिक-बल, बुद्धि-वैभव भी बड़े सखा 
गिर्द सक्षम-सहयोगी, बंधु-मित्रों का सहारा भी नर-मनोबल बनाए रखता।
यदि कुटुंब-परिवेश एक प्रेरक, तो अधिक संभावना अमुक हो प्रगतिपथ 
हर आयाम-परिणति हेतु साकार-निराकर बल वाँछित, क्षुद्र-अणु तो निज।

हम बहुदा किनसे ही घिरें, निकट परिवेश का हमसे व्यवहार भाँति किस 
माना हममें आकर्षण संभव है, पर निज अनुभूति से ही लोग आते निकट।
बलात तो किसी से न चिपक सकते, जब अगला दूर से भी न चाहे संवाद 
विरोधाभास कि एक आशा-संपर्क चाहे, जबकि दूसरा रहा ही है दुत्कार। 

एक मनुजत्व कैसे निखरता, क्या महक सकता बहुकाल दमन पश्चात भी 
फूल कुम्हलता तो प्राण-स्पंदन मंद, व घोर कुपोषण तो अकाल मृत्यु ही। 
क्या यही व्यक्तित्वों-समाजों का प्रगति-दर्शन, हाँ हर दौर से गुजरते सब 
पर कुछ घोर कष्ट झेले हैं, हाँ अंतः-साहस से लड़ने-झूझने का बल लब्ध।

जब बुद्धि बस गरीबी-बदहाली से निकास में, महद ऊर्जा न देखें मृदु पक्ष 
जिंदगी कथञ्चित चल रहती, नर-समाज का जीवन-स्तर रह जाता मद्धम।
माना मूढ़ता सर्वत्र व्यापत, लोग लिप्त बहु भाँति के मारक-अंधविश्वासों में 
अपने अलावा अन्य को न आदर ही, श्रेष्ठ-निम्नता के मनोभाव पाले रखते।

प्रश्न क्यों समूह व नर-विशेष मद्धम, जब सुव्यवहार से पनपन-मौकें संभव 
जब स्कूल-संस्थान, अस्पताल-सड़कें, फैक्ट्री खूब, तो बहु प्रगति-अवसर। 
क्यों अभाव जग-व्याप्त हैं, जब धन-प्रसारण से वस्तु-उत्पादन संभव अति 
हाँ प्रजा की क्रय-शक्ति भी वर्धित हो, तो क्या निर्माण-लाभ बिका न यदि?

सबको विकसन-अवसर प्राप्त हों, हाँ कुछ को चाहे करना पड़े अतिश्रम
यह समाज-अग्रणी, राष्ट्रों का दायित्व, होनहारों हेतु शिक्षा-दान हो सुंदर। 
सब पूर्वाग्रह भुलाकर परस्पर कंठ लगाऐं, सबके भले में लाभ ही है निज  
व्यक्तित्व स्वतः खिल उठेंगे जब प्रगति-स्थिति, सुपरिवेश जरूरी ही बस।



पवन कुमार,
१८ मई, २०२४, शनिवार, समय ११:३२ बजे म० रा० 
(मेरी महेंद्रगढ़ २९ दिसंबर, २०१७, शुक्रवार, समय ८:३२ सुबह से )

Sunday, 12 May 2024

मूल-तत्व

मूल-तत्व 

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इस अंतरतम की क्या परिभाषा ही, क्या वह वृहद विश्व-दृष्टिकोण सा है 

क्या यहाँ निज भी मूल-तत्व है, हालाँकि बहु कारक एक समय वार किए।

 

 कितना सोचता हूँ स्वयं के विषय में ही, कैसे भाव मुझमें बहुदा उदित होते

क्या सत्यमेव कोई व्यक्तित्व भी है, या जहाँ कोई राग सुना वहीं के हो लिए।

माना बहु भाँति साहित्य-संवादों से तो संपर्क, पर मन निजानुरूप लेता रस

अन्य भी अपना पक्ष कहीं बघार रहें, कैसी प्रतिक्रिया ही यह तुमपर निर्भर।

 

 जगत अति विशाल, मैं नितांत क्षुद्र-साधारण, विशेष प्रयास तो प्रगति का

माना बहु कर्म अति सीमित ऊर्जा-समय, तो भी पूर्ण तो कभी  झोंका।

मन-कपाट कभी खुले नहीं, कक्ष में ऑक्सीजन-अल्पता है, साँस कैसे मिलें

इच्छा भी तो प्रगाढ़ रही है, सामान्य प्रयासों से तो परिणाम वैसे निकलेंगे।

 

 रिक्त समय में अतिशुभ्र का प्रयास संभव, लेकिन तंद्रा पूर्ण तत्पर देती होने

सुबह 5.30 या 6 बजे आसान जग सकता, क्यों बिताए अधिक घंटे शय्या में।

निज बिंदु भी क्रमवार लिख पा रहा, पुनर्स्मरण करूँ तो कार्यान्वयन भी हो

कई पक्षों से डर सा, अल्प प्रयास से सुफल, अत: अग्र-मनन रुद्ध गया हो। 

 

 फिर जीवन को कैसे प्रखर गति दूँ, आधे से अधिक अंश हाथ से गया निकल

हरपल जब तक नहीं मुखरित, कैसे अनुपम भुवन-ग्रंथ हाथों से होंगे निर्मित। 

बस बुद्धि को बोझिल-अवस्था में ही रखना, और कहना कि नहीं पा रहा कर 

सामर्थ्य अनुरूप तो यत्न करो, चेष्टा-प्राथमिकताओं का स्तर सदैव हो ऊर्ध्व।

 

 सफल बिंदु तक पहुँचे सक्षमों को देखो, वे भी सब भाँति हाड़-माँस के पुत‌ले 

फिर कौन प्रेरणा रजाई से अति-प्रात: जगा देती, बर्फ में दौड़ते, धावक बनते।

हमने एक सुविधाजनक जीवन-शैली बना ली, तरक्की हो रही कहते फिर

फिर यदि अत्यावश्यक काम करते हो भी तो क्या, पेट तो सब जीव लेते भर।

  

पर मात्र उदर-भरण ही उद्देश्य, बुद्ध-महावीर सा निखारने को मिला जीवन 

 निज से कमवय भी विद्वान-निपुण, हाँ शैशव में श्रेष्ठ विद्यालयों में हो शिक्षालब्ध।  

कबतक स्वयं को अनक्षर ही मानोगे, तब शुभ कर सके तो अब रोकता कौन 

सामर्थ्य है तो खड़े होवो, कुछ उपाधि संग जोड़ लो, रुदन से तो नहीं बहु लाभ। 

 

 प्रति पल-मूल्य अनुभूत हो, कोई भी विश्व-शक्ति भूत को  सकती वापस ला 

तथापि पुनर्नवीनीकरण होता रहता, वर्तमान सुधार लो तो वह भी है सुभीता। 

जो बीता है उसका रोना क्या, हाँ हिम्मत तो उन जीवन-पलों का मूल्य दो भर 

जब क्षतिपूरण सीख ही लोगे तो पीछे रहोगे, जीवन बड़ी आशा से रहा देख। 

 

 Yuval Noah Harari की पोथी Homo Deus पढ़ रहा, एक अनुभूति अनुपम 

इससे पूर्व इनकी पुस्तक Sapiens पढ़ी थी, तब भी काफी हुआ था प्रभावित।

वर्तमान History of Tomorrow है, नर-भविष्य विकास किस दिशा में चलित 

अतिद्रुत वैज्ञानिक-तकनीकी-मानसिक भवंडर हैं, उल्लेख रहा समझ। 

 

 एक बात मानव-विकास के विषय में, परस्पर सहयोग-शैली सीख ली उसने 

तभी तो वह महाबली बन गया, सकल शक्तिसंपन्न जीव उसके हाथ नीचे हैं।  

जो नर विश्व में प्रगति चाहते, कुछ न्यूनतम पाठ तो स्मरण करने होंगे निश्चित  

सोते रहो बहुलाभ-इच्छा भी रखो, बड़ा विरोधाभास है, होवोगे ही सिद्ध। 

 

 देखो सोच प्रथम-स्तर की हो, फिर लक्ष्य क्या बनाते हो और किया ही प्रयोग

इनकी दूरी से मनुजत्व भी कुप्रभावित, किंतु प्रगति के तो अनेक हैं अवसर।

कई पथ-बाधा मिल सकती पर रो-पीटकर शांत होंगी, यदि अंतः से हो भद्र  

द्रुत विकासार्थ आदान-प्रदान, सहयोग करो, अन्य-वृद्धि में निज भी निहित। 

 

 मुझे यह निज अंत:-सुदृढ़ पर निर्मल बनाना , सबकी बात कर उच्च उठाना 

अनेक प्रजाजन मुझ से अति-साधारण, उन्हें आवाज देने का लक्ष्य है बनाना। 

जब यह सामान्य महानर में रूपांतरित, समझूँगा जीवन-अवतरण हुआ धन्य  

वरन जीना-मरना तो नितांत प्राकृतिक चलन, जाने से कोई रिक्तता होगी न। 

 

 चलो यह लेख बंद करना ही होगा, तथापि आज के फलसफे को लूँ निचौड़

जब कुछ निश्चित शुभ परिभाषा बनेगी, तो अग्रिम रूप में होगा प्रस्फुरण। 

जीवन तो अग्रगमन पर गतिवर्धन उद्देश्य, पर विद्वदजनों से मित्रता करनी 

सद्चरित्र-सुसाहित्य के संग-समन्वय से ही, प्राण-बगिया मधुतर महकेगी।

 

 [मेरी माँ की पुण्यतिथि (१२ मई, २०११) पर समर्पित ]

 

 पवन कुमार,

१२ मई, २०२४, रविवार, समय १२:११ बजे मध्याह्न 

(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी 27 दिसंबर, २०१७ बुधवार, समय :२३ बजे प्रातः से )