काव्य और कवि-दृष्टि
पवन कुमार,
ब्रह्मपुर (ओडीशा), 19 जनवरी 2024 रविवार, समय 11:26 प्रातः
(मेरी उदयपुर (राज०) डायरी, 25 जनवरी 2016, सोमवार, प्रातः 7:45 बजे से)
Every human being starts his life's journey with perplexed, enchanted sight of world. He uses his intellect to understand life's complexities with his fears, frustrations, joys, meditations, actions or so. He evolves from very simple stage to maturity throughout this journey. Every day to him is a challenge facing hard facts of life and merging into its numerous realms. My whole invigoration is to understand self and make it useful to the vast humanity.
काव्य और कवि-दृष्टि
पवन कुमार,
ब्रह्मपुर (ओडीशा), 19 जनवरी 2024 रविवार, समय 11:26 प्रातः
(मेरी उदयपुर (राज०) डायरी, 25 जनवरी 2016, सोमवार, प्रातः 7:45 बजे से)
तमसो मा ज्योतिर्गमय
प्रभु से प्रार्थना है कि सबको सद्बुद्धि दें और हृदय में एकता व विशालता का भाव जगाएं। माना कि इस लघु जीवन में हम साधारण प्राणियों के लिए इसे पूरी तरह समझ पाना असंभव है। बहुआयामी जीवन-रूपों को उनकी संपूर्णता में देख पाने में भी हम अक्सर असफल रहते हैं। जीवन की अनेक परतें इतनी गहरी हैं कि उनका आभास तक नहीं हो पाता। फिर भी, समय की धारा यह सतत प्रवाहमान जीवन हमें हर पल, हर क्षण अपने साथ बहाए लिए जा रही है। माना कि हम तट-दृश्यों को देखने में भी असमर्थ रहते हैं। यह विचार आता है कि जीवन से हमारी अपेक्षाएँ क्या हैं और क्या यह हमारे लिए सार्थक हो सका है? क्या हम अपनी प्राथमिकताओं को समझ सके हैं या मात्र एक स्वप्निल अवस्था में जी रहे हैं?
पुस्तकें तो ज्ञान से भरी हैं,
लेकिन क्या वह हमारा जीवन-अंश बन पाई हैं? जब हम लिखने बैठते हैं, तो ऐसा लगता है जैसे
शून्य-अवस्था में प्रवेश कर रहे हों। लेखनी अपने आप रास्ता बना लेती है और ऐसा प्रतीत
होता है कि हम महज एक माध्यम हैं। यह तभी चलती है जब स्वयं चलना चाहती है। हमारे हाथ
और कागज दोनों उसकी प्रतीक्षा करते रहते हैं। जैसे कोई सागर के किनारे बैठकर उसके प्रवाह
में अनंतता का अनुभव करना चाहता है, वैसे ही यह कागज भी संभावना-अन्वेषण के लिए व्याकुल
रहता है।
हम सभी जीवन को विस्तृत करना
चाहते हैं—चाहे वह ज्ञान, सामर्थ्य, या रूप में हो। हर कोई सर्वशक्तिमान बनने की आकांक्षा
रखता है। जीवन-तत्व बहुत सूक्ष्म है। जितना इसे समझने का प्रयास किया जाए, यह उतना
ही गहन और रहस्यमय हो जाता है। सर्वत्र समानता-भाव दिखाई देता है। सजीव और निर्जीव
का भेद भी तुच्छ लगने लगता है। यही समानता-भाव हमें सिखाता है कि हर जीव-तत्व अपने
भीतर एक ही ऊर्जा संजोए हुए है।
हमारी साधना प्रायः सतही होती
है, क्योंकि गहराई तक जाने के लिए साहस और शक्ति की आवश्यकता होती है। जैसे गहरे समुद्र
में छिपे मोती तक पहुँचने के लिए लहरों से संघर्ष करना पड़ता है, अंधेरे का सामना करना
होता है और सटीक दिशा का पता लगाना पड़ता है, वैसे ही जीवन की गहराई में उतरने के लिए
हमें अपनी ऊर्जा और इच्छाशक्ति को संगठित करना होता है। यह विचार उपनिषद की पंक्ति 'तमसो
मा ज्योतिर्गमय' की याद दिलाता है। अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ने का प्रयास
ही तो जीवन का सार है। यह सभी के लिए प्रासंगिक है, क्योंकि प्रकाश की ओर बढ़ना आत्मा
की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। दिशाहीन और बिखरी जीवन-ऊर्जा को संगठित करना 'समाधि' का
सार है। यह विकिरित किरणों को एक लेंस के माध्यम से अग्निपुंज में बदलने जैसा है। इस
संगठित ऊर्जा से जीवन में नए आयाम प्राप्त हो सकते हैं।
प्रत्येक जीवन-पहलू में सुधार
की संभावना है। यह हम पर निर्भर करता है कि अपने प्रयासों को कितना सार्थक बना पाते
हैं। भले ही हमारे प्रयास टकराएँ या विरोधाभासी लगें, 'पूर्णता' की ओर बढ़ने का प्रयास
हर किसी के भीतर होता है। हर दिन एक नई संभावना लेकर आता है—जैसे सूरज का उगना, जो
हर अंधकार को मिटाने का वादा करता है। जब हम इस वादे को अपने जीवन में अपनाते हैं,
तो हर दिन नए अवसरों से भर जाता है।
इसके लिए हमें कुछ प्रयास करने
होंगे। एक सरल उपाय है—हर दिन थोड़ी देर ध्यान करें, अपनी प्राथमिकताओं
को लिखें और उन पर विचार करें। एक अन्य प्रभावी उपाय है—प्रातः अपने प्रति आभार
व्यक्त करें और उन छोटी-छोटी सफलताओं को याद करें जो हमें प्रेरित करती हैं।
यह छोटा-सा अभ्यास हमें अपनी ऊर्जा को सही दिशा में केंद्रित करने में सहायक बन सकता
है। जब मानव अपनी अज्ञानताओं को स्वीकार करता है और सुधार के प्रयास करता है, तो वह
सामर्थ्य-वर्धन में सक्षम होता है। जब ऊर्जा सही दिशा में लगती है, तो यह न केवल हमें
बल्कि हमारे आसपास के लोगों को भी सकारात्मक रूप से प्रभावित करती है।
यह सत्य है कि मानव-जीवन में
अपार संभावनाएँ छिपी हैं। यदि सुप्त शक्तियाँ जागृत हों और उचित दिशा में केंद्रित
हों, तो जीवन न केवल सार्थक बल्कि सुंदर और प्रेरणादायक हो सकता है। हर दिन अपनी ऊर्जा
को जागृत कर, उद्देश्य की ओर बढ़ने का प्रयास ही जीवन का सर्वोत्तम अर्थ हो सकता है।
जीवन की सबसे बड़ी सौगात उसकी अनंत संभावनाएँ हैं। जब हम इन्हें पहचानते हैं और उनका
उपयोग करते हैं, तो न केवल हमारा जीवन बल्कि पूरा समाज भी उज्ज्वल बनता है। जब हर व्यक्ति
अपनी ऊर्जा सकारात्मक दिशा में लगाएगा, तभी समाज और संसार में वास्तविक परिवर्तन संभव
होगा। यह प्रयास ही हमारे संसार को और बेहतर बनाएगा।
इन्हीं शुभकामनाओं के साथ।
पवन कुमार,
ब्रह्मपुर (ओडिशा), 4 जनवरी 2025, शनिवार, समय 9:08 बजे
सायं
(मेरी नई दिल्ली डायरी दि० 21 जनवरी 2007, रविवार, समय: 7:10 सायं से)
नववर्ष-संदेश : एक स्मृति
नए वर्ष में एक बार फिर लिखने का प्रयास
कर रहा हूँ। समय सीमित है, और कार्यालय के लिए तैयार भी होना है, किंतु इस नववर्ष के
आगमन पर विचारों को शब्दों में बाँधने का मन हुआ। नववर्ष हमेशा नई उम्मीदों और ऊर्जा
का संचार करता है। कल तक जो भविष्य था, वह अब वर्तमान बनकर हमारे सामने खड़ा है। हम
सभी इस नए साल का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। लेकिन अब, जब यह आ गया है, तो यह प्रश्न
उठता है—क्या हमने इसे विशेष बनाने के लिए कुछ सोचा है? क्या इसके लिए कोई ठोस उम्मीदें
हैं? और क्या इसे सार्थक बनाने का कोई संकल्प लिया है?
नूतन वर्ष असीम संभावनाएँ लेकर आता है।
लेकिन यह हम पर निर्भर करता है कि हम इसे कितना सार्थक बना पाते हैं। जो बीत गया, वह
हमारा था। वर्तमान भी हमारा है। और भविष्य भी हमारा होगा—इस विश्वास के साथ हमें आगे
बढ़ना चाहिए। लेकिन भविष्य का स्वरूप इस बात पर निर्भर करेगा कि हम अपने आज को कैसे
जीते हैं। वास्तव में, भविष्य जैसी कोई वस्तु नहीं होती। यह सब कुछ वर्तमान ही है।
यदि हम वर्तमान को उसकी संपूर्णता और जीवंतता से भर दें, तो कोई कारण नहीं कि भविष्य
उज्ज्वल न हो।
हर क्षण को, उसके भूत बनने से पहले, चेतना
और ऊर्जा से भर दें। जब प्रत्येक क्षण पूर्णता से भरा होगा, तो जीवन भी उसी पूर्णता
का अंश बन जाएगा। यही जीवन की कला है। इसे समझना और आंतरिक द्वंद्व या हिचकिचाहट को
शांत करना सरल नहीं है, लेकिन समय और अवसर को गहराई से समझने का प्रयास करना चाहिए।
दूसरों के समक्ष दार्शनिक दिखने के बजाय, मनन-प्रवृत्ति अपनानी चाहिए। अपनी शक्तियों
को संगठित करें और सार्थक उद्देश्यों में लगाएँ।
जीवन की योजना बनाना और इसके आयामों को
सुंदर बनाना हमारी जिम्मेदारी है। संसार के शुभतर निर्माण हेतु विचार करें और इसे क्रियाशीलता
का भाग बनाएं। पूर्णता के ज्ञानार्थ आत्म को भी पूर्ण बनाना होगा। प्रभु के सब गुणों
का वर्णन करना सरल नहीं है, लेकिन हर किया गया प्रयास हमें उनके समीप ले जाता है। एक
पूर्णता का अहसास, कुछ उत्तम कर दिखाने का अरमान, सभी की बेहतरी की उत्सुकता,
और एक शैली जो चारों ओर मुस्कान बिखेरे—यही जीवन को सार्थक बनाता है।
एक ऐसा मनोचरित्र जो गहन विचारशीलता को
जन्म दे, और एक उद्देश्य जो जीवन-मौलिकता को समझने का मार्ग प्रशस्त करे—यही हमारे
प्रयासों का सार होना चाहिए। जो भी कार्य हमें सौंपा गया, उसे उत्कृष्टता के साथ पूरा
करना ही हमारा धर्म है। इन विचारों के साथ, नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ। मन सदा सकारात्मक
विचारमय हों, और प्रयास कभी अल्प न हों। शीघ्र चिर-प्रतीक्षित लक्ष्य मिले, और स्वजनों
से पुनः जुड़ सको। माता-पिता, भाई-बहन, एवं सभी प्रियजन सदा प्रसन्न रहें। मित्रों
में समझदारी, खुशहाली एवं आनंद बना रहे।
पुनः एक बार नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ। धन्यवाद।
पवन कुमार,
ब्रह्मपुर, ०१ जनवरी २०२५, बुधवार समय ९:०२ बजे प्रातः(मेरी शिलोंग
डायरी ३ जनवरी २००२, समय ९:१५ बजे प्रातः से)
समर्पण : यह कविता महाकवि जयशंकर प्रसाद और उनकी कालजयी कृति कामायनी को समर्पित है, जो मानवता, विश्वास, और पुरुषार्थ का पथ आलोकित करती है।
पवन कुमार,
26 दिसंबर 2024 वीरवार, समय रात्रि 21:28 बजे
(मेरी महेंद्रगढ़ (हरि०) डायरी दि० 6 मई 2015, बुधवार, 9:06 बजे प्रातः, से)
अनावश्यक को मत अति तूल दो, ऊर्जा-समय दोनों अनमोल हैं।
अति घटित होता दिन-प्रतिदिन, जो हो चुका उसमें तुम सहभागी,
क्रिया-प्रतिक्रिया से वार्तालाप चलता,
प्रश्नों ने खींची है
जिम्मेदारी।
वे गठित करते बैठक की रूपरेखा, पूछें कितना, क्यों व किससे,
पूर्वाग्रह
से पूरे भरे रहते
फिर भी, हमें सभ्यता
का धैर्य रखना है।
जो बीत चुका उसकी पुनरावृत्ति क्यों, प्रतिक्रिया बस उपयुक्त ही,
एक
समय बाद भूलना ही
अच्छा, सेहत व मन
दोनों के लिए ही।
प्रतिबद्धताएँ समय माँगती हैं, पर क्या जीवन जोड़-तोड़ में बीते?
स्वार्थ
के स्वर बदलते रहते
हैं, रह-रह कर
अपना रूप दिखाते।
एक सीमा तक छोड़ना आवश्यक, देखो क्या समाधान संभव है,
कार्यालय ही तो सब कुछ न, घर-परिवार और स्व-चिंतन भी हैं।
प्रतिष्ठा हेतु प्रतिबद्ध रहो, पर जीवन-संतुलन भी है अति जरूरी,
अपनों
को संभालो, आपकी व्यस्तता
से कहीं वे बिखर न
जाएं।
एक आयाम में सिमटे ही रहना, अन्य आयामों से बनाता है दूरी,
वे तुम्हारी उपयोगिता बिसराते, जानते कि तुम उनके लिए नहीं।
जहाँ जन्मे, वहाँ का फर्ज निभाना है, मूल्य तो चुकाना ही होगा,
चेतना
क्षेत्र एक श्रेष्ठ आयाम
है, उसमें सबके लिए जगह
बनाओ।
सारी ऊर्जा एक जगह झोंकना, कभी समय की माँग सकती हो,
पर
स्वयं को भी सहेजना
सीखो, स्वास्थ्य नियम सदा अपनाओ।
इस
विश्व को अति गंभीर न लो, वे अधिकांशतः स्वार्थ में उलझे,
कर्त्तव्य
पहचान निर्वाह करो, पर अन्य
को दैव-विधाता न
मानें।
यहाँ
नए-नए लोग उभरते हैं, बुद्धिमता का लोहा मनवाने निज,
जैसा समझ में आए, वैसा करो, पर उचित परिप्रेक्ष्य में दो उत्तर।
निकट
नेताओं से सीखो, वे लड़ते-झगड़ते भी संग खाते-पीते हैं,
आलोचनाऐं
दिल से नहीं लेते
रोज़ की बातें, सहजता
से निभाते।
लघु विषयों पर तुनकमिजाजी न उत्तम, धैर्य का फल मीठा होगा,
सत्य
रंग समय बाद दिखता है,
नए लोगों का सच सामने
आएगा।
लोग पहले स्वपक्ष में विश्वास कराते, जोड़-तोड़ का खेल चलता है,
परिणाम का पता नहीं, किंतु वर्तमान का आनंद तो ले सकते हैं।
विषय जो हो, भुलाओ भी, घर-कुटुंब को समय देना आवश्यक है,
लोगों
के पीछे न भागो,
जब आवश्यकता होगी तो वे
स्वयं आयेंगे।
देखो
यह युग प्रयास करने वालों का है, बड़ा लाभ-अंश वे ही पाते,
जो बिना प्रयास किए मात्र सोचते ही, प्रायः भाग्य को दोष हैं देते।
तुम्हारी चेष्ठा रंग लाएगी, यदि मंशा होगी ईमानदार एवं सर्वहित
परंतप शक्तिवान बनो, किंतु धैर्य से करना भी सीखो निवारण।
बंधुओं के संपर्क में रहो, संवाद तुम्हें देगा शांति, सम्बल एवं वेग
जगत के कार्य बहुत पेचीदा हैं, अतः प्रयास करो सुबुद्धि ही संग।
मत
उलझो बहु रहस्यों में, दर्पण-चेहरे
दोनों होना मांगते
निज दृष्टि को दूरदर्शी बनाओ, सब जुड़े अवयव करो ही स्वस्थ।
उच्चता
के तुम सत्य ही
प्रतिभागी, किंतु प्रयास का न
छोड़ो संग
चंचल बाल मन-सुलभता
उसे उबासी होती पुराने से, बस सतत प्रयास नव-सम्पर्क का।
कभी सोचा था नियमित लिखूँगा, अब अध्याय कहाँ से ढूँढ़ें
नव,
किंतु मन भी ढ़र्रे में सोचता, तथापि बहुरंगी माँगता निज वचन।
यह तो एक टीवी मीडिया सा, इसे 24x7 भरण-सामग्री चाहिए,
नित्य ही नवीन-रोचक खबरें हों, कभी अमिताभ बच्चन बोले थे।
वहाँ रतों का काम यही, खोज-संकलन, संपादन बाद करें प्रस्तुति,
अंततः दर्शकों को कुछ नवीन मिलेगा, उनकी टीआरपी भी बढ़ेगी।
इसीलिए भिन्न-भिन्न विषय चुनते
, और पृथक व्यक्तित्वों से मिलते,
लघु-महद संवाद करते, नमक-मिर्च लगाकर खबर प्रस्तुत करते।
सब संग्रहालयों की भी एक प्रक्रिया, अप्रतिमों को करना एकत्रित,
जैसा रोचक-अनुपम, विचित्र-दुर्लभ मिल जाए, यत्न से हैं सज्जित
किंतु ज्ञान एवं शोध इतना सरल भी न, कि सोचा और हुआ
संभव,
'गीत गाया पत्थरों ने' जैसे शीर्षक ढूँढ़ते,
वाणियों में पिरोते हैं शब्द।
संग्रहालय-लक्ष्य तो दर्शकों को विभिन्न ज्ञान एक स्थान पर दिखाना,
दर्शक तभी आनंदित होते, जब बहु नूतन विधाओं से सम्पर्क होता।
ये ग्रंथागार-वाचनालय, कलाकृति प्रदर्शनी, विशेषज्ञ सम रखते पक्ष,
पाठक-दर्शक होते हैं प्रेरित, समय के सदुपयोग से बढ़ता मनोबल।
विभिन्न पुस्तकें, अनेक अध्याय, लेखकों के अपने विभिन्न मंतव्य,
सबमें कुछ विशेषता भी, रूचि अनुरूप चाहे तो सकते कुछ गुन।
सब उद्देश्य बहु आयामों से संपर्क कराना, मानव आत्म में अत्यल्प,
इतर-तितर संयोग से विस्तार होता
है, किञ्चित और होता बुद्धिमान।
मन एक बावला है, स्वयं से नहीं संभव, तथापि ले लेता महद वचन,
इस क्षुद्र मस्तिष्क का कौन संगी
है, जिससे नित करा सके निर्मित?
महारथी अर्जुन ने सूर्यास्त तक जयद्रथ
के वध का ले लिया प्रण तो,
किंतु कौरवों ने सफल न होने दिया, लाज बचानी पड़ी कृष्ण को।
वो चीज कहाँ से लाऊँ, तेरी दुल्हन जिसे बनाऊँ, कोई पसंद न आए छोरी
मन किञ्चित तो अचंभित होता, परंतु नवीन हेतु लगाता छलाँग भी।
इस अल्पता का तो भोगी, फिर परजीवी कुछ न रच सकता निज से
युक्ति करने की भी न अति समझ, अतः यूँ ही इधर-उधर हाथ मारे।
नदी में कूदने पर ही तैरना आता, अतः सीख सकते यदि हो प्रयास
अनेक बाहर आते कूप-मंडूकता से, सोच लिया तो दिखेगा भी मार्ग।
बिन कुछ किए तो जगत में, मनुज की नहीं हुआ करती प्रगति बहुत
ध्यान करो, कर्म-इंगित करो, एक साहसी सम बढ़ाओ अग्र कदम।
मेरी भी चेष्टा लेखन सार हेतु, कुछ सुस्त हूँ स्वयं से ही बनाता नव
माना बाह्य अध्ययन भी आवश्यक, जो स्वयं को करते देने महत्तर।
जब अभ्यंतर सुघड़-श्रेष्ठ हो जाएगा, तो बाहर भी उत्तम ही आएगा
यही एक आदान-प्रदान का सिलसिला, बिना किए यश न मिलेगा।
किञ्चित आत्म-प्रयास ही सराहनीय है, किंतु बहुत न होता पर्याप्त
मनीषियों ने बहु विषय सामंजस्य-मंथन कर कुछ बनाए
हैं सिद्धांत।
वे उत्तम क्योंकि अनेक प्रयोगों बाद ही आऐं, उनसे आगम लो अत:
चिंतन-मनन की वांछित सामग्री देगा, उत्पादकता तो बढ़ेगी कुछ।
माना लेखन कर्म तो स्वयं से जूझना ही, पर वहीं से निकलेगा अमृत
किंतु पूर्व कृत-संचित ऊर्जा-ज्ञान बड़ी शक्ति देता, तन-मन को इस।
अतः सीखो जितना भी बन पाए इस जग में, उत्तमता की कुंजी है वह
निर्मल स्वरूप तो शुभ-मिलन से ही बनेगा, सांझी सोच का है महत्त्व।
हम नित्य तो उत्तीर्ण-अनुत्तीर्ण होते हैं, प्रश्न मात्र सम्मान का न अत:
यह मात्र एक चेष्टा दक्ष बनने की, आत्म-आदर की यात्रा है निरंतर।
अतः बस सोच लो लिखने को नव अध्याय, नहीं कोई विषय-अल्पता
अनेक प्रयास करते, इसकी साक्षी हैं सकल उपलब्ध रचनात्मकता।
खिलौनें तो अनेक पर आनंदित-आविर्भूत होकर जाओ नए पर ही
ग्रंथालय-संग्रहालय सा कुछ सहेजो, गर्व-संतोष की होगी अनुभूति।
पवन
कुमार,
ब्रह्मपुर,
2 दिसंबर 2024, सोमवार, समय 9:19 प्रातः
(मेरी
महेंद्रगढ़ डायरी दि० 17 अप्रैल 2015, शुक्रवार, समय 9:17 बजे प्रातः से)