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Saturday 31 August 2024

स्वतंत्रता-अर्थ

स्वतंत्रता-अर्थ



स्वयं-सहायता महत्तम संबल, मानव इस दुर्धष जगत-जंजाल से मुक्ति पा सकते
सर्वत्र महालोलुप-दृष्टि है, कब सावधानी-च्युत हुए व बाज द्वारा लपक लिए गए। 

तुम कैसे यहाँ निज जीवन-घड़न चाहते, पूर्व-स्वतंत्रता तो नहीं, कोई तो है स्वामी
पर मौलिक महत्त्वपूर्ण, जितने उच्च को बनाओगे, कुछ निज-गुणवत्ता भी बढ़ेगी। 
जगत में ठग को पहचानना बड़ा कठिन है, फिर कौन निर्मल कल्याणक ही नित 
आरंभ में कुछ भद्र-चेतस संभव, पर सत्ता प्राप्ति कैसा ही रूप, जानना है कठिन। 

सत्य कि बहु संघर्षशील नर मृदुल-मानस ही, पर सत्ता-वैभव शनै कर देता गर्वित 
अच्छा-भला शक्त-प्राणी असहाय हो जाता, जगत-तष्णाऐं कर लेती पूर्ण पाशित। 
समय संग हमें मृदुतर होना चाहिए, किन्तु जरा सम्मान मिलते ही फूल से हैं जाते 
और पूर्व भले-समर्थकों को दास समझ लेते, जैसे मात्र हमारी सेवा हेतु यहाँ आए।

पर क्या मानव-कुसूर, वह सब बालपन-युवा-व्यस्क-प्रौढ़ आदि श्रेणियों से गुजरता
सबकी निज परवरिश होती जैसी संगति-विद्या-ज्ञान मिला, वैसे ही परिवर्तित होता। 
स्वयं को तो सोचते अति-बुद्धिमान, किंतु वास्तविकता में हैं विशेष परिस्थिति-रचना 
थोड़ा-बहुत विवेक मिला है हाथ-पैर मारने हेतु, व अति साहसी पार कर लेते बाधा।

चलो मदारी का खेल देखते हैं, वह अपने बंदरों से जो चाहे, वही काम करवा लेता
मदारी की रज्जु से बंधा वानर तो सेवक, स्वामी के हाथ में डंडा, खाना-पीना देता।
जरा सी शरारत की तो मार खानी पड़ती है, गुस्सा हो गया तो खाना भी नहीं प्राप्त 
अब बंदर का अल्प बुद्धि-साहस, अपने से बलशाली के चंगुल से मुक्ति है कठिन। 

जगत में सतत बहु प्रयोग, आखेटक वीभत्स-खूँखारु सिंह को पिंजरे में फाँस लेता 
महाकाय हाथी, गैंडा, जिराफ, मगर तक को फँसा लेता है, स्थायी ही अब उनका। 
माना ताकतवर किंतु नर युक्ति उनसे ऊपर की होती, बेबस जाल में फँस ही जाते 
तात्पर्य है कि चालक कब्जा जमा लेते निरीहों पर, चाहे देह-बल में कमतर उनसे।

अब एक काल तो मनुज-विशेष भी किसी स्तर, एक के ऊपर अनेक चढ़ी हैं परतें 
किंचित दुर्बलों से स्वयं को सुभग मानने लगता, मद में पाश में लेना चाहता उन्हें। 
प्राचीन काल में राजा बेगारी करवाते थे, सारे नर प्रस्तुति को बाध्य उनकी सेवा में 
न कोई प्रश्न, विरोध-स्वर ही, कभी कोई बोले तो कड़ाई से कुचलवा जाता सेना से। 

लोगों ने बड़े किले बनवा लिए, बड़बोलापन इतना अधिक कि गगन-छेद कर देगा 
विश्व की सकल-वैभव इच्छा-समक्ष कर लिए, अन्य-श्रम से फल चोखा है मिल रहा।
ऊपर से काम-प्रवृत्ति में पाशित, विश्वामित्र से तुलना सी जो मेनका से थे गए उलझ 
फिर रूपसी-संसर्ग को ही कुछ स्वर्ग सोचते, जीते-जी जो भोग सकते हो, लो भोग।

अब ताकत-नशा, दूजे को तुच्छ समझते, बात-2 पर औकात दिखाने की बात करते 
निज व्यवहार तो स्वयं से बली समक्ष कभी देखो, भीगी बिल्ली से कोने में दुबकते। 
युक्ति-व्यवहार तुम भी सीख जाते, निज जैसों से मिल महत्तम संभव लाभ लो उठा
यहाँ तुम उसकी सहायता करो और वह तुम्हारी, चोर-चोर तो मौसेरे ही होते भ्राता।

सब दमितों में से कुछ दुर्धष निकल जाते, साहस करके तंत्र समक्ष करतूतें कर देते
फिर सिकंजा धीरे-2 खिचना शुरू होता, विरोधी गुट अपना समस्त जोर लगा देते। 
कानून का पेंच तो बड़ा ही शक्त-पेचीदा है, चाहे तो किसी को भी फँसा देता कहीं 
सहायक-सहारा व निज बल भी अति काम न करते हैं, चक्रव्यूह निश्चित जटिल ही।

खैर ये बातें तो बलशालियों की, किंतु कुदरत समक्ष तो कभी पहाड़ भी है हिलता 
परंतु ये आमजन कहाँ जाऐं, उन पर तो सदा यह नहीं तो वह दबंग काबिज रहता।
स्वावलंबन की उसको कितनी स्वतंत्रता मिल रही है, उस देश-समाज के देन यही
लोकतंत्र ने बहुत आजादी दी, तथापि स्व-मतिमंदता व बली-युक्ति फँसाए रखती। 

चिंता यहाँ आम नर की, कैसे विमुक्त हो सकल सुलभ सुख-आस्वादन कर सकता
तब क्या स्वतंत्रता-अर्थ भी लेगा, क्या प्रज्ञाशील भाँति संयम से आचरण ही करेगा।  
क्या चरित्र-कसौटी, सब योगी-भोगी, राजा-गृहस्थ, साधु-पादरी पृथक आचार करते 
अब असंभव तो है समान प्रशिक्षित , किसको नायक मानें और पद-चिन्हों पर चलें। 

थोड़ा सरल करते हैं नर पूर्व पूर्ण-मुक्त होवे, तब स्वेच्छित पक्ष चिंतन कर ले अपना
यदि देश का शासन-तंत्र निर्मल, अवश्यमेव हरेक को पूर्ण-पनपन अवसर मिलेगा।  
वहाँ परिवेश शिक्षा-परक व मानव के उबार वाला होगा, ताकि ले सके उचित निर्णय 
विषमता भी शनै से मिट ही जाऐंगी, एक साहस होगा, करने को बुराई का प्रतिकार। 

ये धार्मिक तो यूँ ही मोक्ष-नाम लेते, स्वतंत्रता ही चरम उपलब्धि दिशा दिखा सकती 
साम्यवाद भी उत्तम चेतना है, मानव अन्य  का ग्रास न बने, व सुख से रहें दोनों ही। 



पवन कुमार,
ब्रह्मपुर (ओडिशा), ३१ अगस्त, २०२४, शनिवार, समय १०:२३ बजे प्रातः 
(मेरी महेंद्रगढ़ (हरि०)  डायरी ३१ अगस्त, २०१७, वीरवार समय ७:५३ बजे प्रातः से )


Sunday 4 August 2024

अनिश्चित आगामी

अनिश्चित आगामी



जीवन का यादगार दिन, अपनी छाप छोड़ जाएगा ही 

एक यात्रा पूरी हो रही, व कुछ अनिश्चित है आगामी। 


लिखकर इसको जी लूँ, फिर चिंतन कर सँवार ही लूँ 

हरेक पल को सार्थक ही बनाकर, पूर्ण-दिशा इसे दूँ। 

बीत गया है जो हँसी-खुशी में, उसको अनन्त बना दूँ 

नित आगामी दिन हेतु सदेच्छा ही, इसे मधुर बना दूँ। 


बहुत हो गया हँसी-खेलना, अब कुछ गंभीर हो जाऊँ 

मस्तिष्क की कर्कशता त्यागकर, कुछ कोमल जाऊँ। 

बीत गया जैसे बहुत कुछ ही, व अंतः में गया अति दूर 

कुछ मृदुल मनन फिर से कर, स्वयं के आऊँ निकट। 


कुछ खोना और अनुपम पाना है, चेष्ठा उधर इंगित करो 

चलाओ सुमार्ग पर ओ प्रभु, सकल उचित चिन्हित करो। 

प्राण-वायु दो श्वसन-तंत्र को, ज्ञानेंद्रियाँ संचालित ही करो 

छुड़वा व्यर्थ बचकाना, किंचित सार्थक में संवाहित करो। 


कुछ कर्त्तव्य बोध कराकर, प्रदत्त कर्मों हेतु सुप्रेरित करो 

अनुभव बताता कितने साथ ही हैं, तथापि तो उद्यत करो। 

नहीं चाह किसी यश-स्तुति की, करो विदूर मिथ्या श्लाघा 

किंतु प्रबलेच्छा कुछ समुचित हो, साक्षी बनूँ अनुपम का। 


आह्लादित करो मन-प्राण ही, एक करूँ मन-वचन-कर्म 

चिंतन हो कुछ विरल सा, जिससे हो आत्म-साक्षात्कार। 

छूटते जा रहे हैं व्यर्थ बहु बंधन, एक अच्छी बात यह तो 

किंतु मोह स्वजनों से बिछड़ने का, कैसे संभालूँ खुद को। 


स्वावलंबन अपनाने की ही शक्ति, मुझको ईश्वर दे देना 

मनुजता प्रति क्या हो दायित्व, उसको भला समझा देना। 

बना कलम को कुछ अंतः-साक्षी, किंचित जीवंत बनाऊँ 

व सार्थक चिंतन-व्याख्यान से, इसको निर्मोहित बनाऊँ। 



पवन कुमार, 

४ अगस्त, २०२४, रविवार, समय ५:४४ बजे अपराह्न 

(मेरी नई दिल्ली डायरी २५ जून, २०१४ बुधवार, ८:५३ बजे प्रातः से )

Monday 15 July 2024

वृक्ष-वरदान

वृक्ष-वरदान

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निहारो तरुनित जीवंतता-अहसास वृद्धि करताप्रफुल्लित रहता 

अल्प लेकर भी बहुत उत्पाद करताजन्म से लेकर उपयोगी सदा। 

 

विटप अंतः में जीवन रखतासमय-परिस्थिति मिलने पर प्रफुल्लित 

मृदा-खनिज पोषणजल भूमि सेआकाश-वायु दुलारती है आकर। 

भू-माता की छाती-खूंटे से ही बँधा रहता इतराता बड़ा भी होकर 

मूल अति प्रगाढ़दुम-जीवन है निर्भरअतः स्तुत्य ही भरण-पोषण।  

 

प्रायतो आनंदमय ही वह रहताइस जगत के सदा आता है काम 

भोजन-औषधिस्वच्छ-वायुछायाभवन-लकड़ी या भी ज्लावनार्थ। 

पल्लव-पुष्पफल, छालविविध वर्ण, सुंदरता बहु रूपों में है दर्शित 

निर्मलस्वच्छअनिल के स्नेह-झोंकेंकरते हैं प्रत्येक को अतिमुग्ध।  

 

अनेक जीवन उनपर पनपतेगिरगिट-सर्प  अन्य  खग-गिलहरी

खग नीड़ बना लेते बड़ी सहजता सेआसपास से लेकर सामग्री। 

समस्त जीवन उनके निकट हैउनसे ही हो जाता भोजन उपलब्ध 

वहीं खेलतेलड़तेदुलारतेजन्मते और अंत में प्राण भी देते निज। 

 

अपने आप में एक पूर्ण जीवन-शास्त्रअनेक जीवनों को सहारा देते 

निज आहार बनाने में पूर्ण-स्वावलंबी हैंपरजीवियों हेतु तो अमृत।  

भूमि-क्षरण रोकेजल-संरक्षण करते हैंवसुंधरा को गतिमान रखते 

जीवन-शास्त्र के तो अभिन्न अंग हैंजीवन तो असंभव बिना इनके। 

 

स्वावलम्बीनित्य प्रेरक हैंप्रत्येक स्थिति में अपने को सहेज रखते

असंख्य कीट-पतंगे इनकी शरण मेंकटकर भी उपयोगी बने रहते।

अनंत रूप लेते हैं रचनाओं मेंसाजो-सामान व खिड़कियाँ-दरवाजें 

कहीं धरन-बीमस्तम्भछतें भीतो पूर्ण भवन भी बनते लकड़ी से। 

 

असंख्य रूप-विकसितसमुद्र-नदियों के जल से विस्तारित भूमि पर 

सुंदर-सजीव कलाकृतियाँ बनती मनोहरपादप-विज्ञान बहु समृद्ध। 

सूक्ष्म से ले बड़े रूपों में विकसित हैसुकृति हरित-वर्ण नेत्रों हेतु शुभ 

हमारा श्वसन-तंत्र स्वस्थ इनके सान्निध्य में हैंप्रदूषण को करते अल्प। 

 

ये साक्षात नीलकंठ- शिव स्वरूप, दूषित वायु-गरल पीकर अमृत देते

बहु प्रकृति-मार बड़ी सहजता से सह लेते हैंकदापि नहीं क्रोध करते।

काटनहारे को भी छायाफल-फूल देते हैंसर्वहित पुनीत जीवन लक्ष्य 

इनका हर अवयव उपयोगी हैजीवन-सहयोगीसबको सदा उपलब्ध। 

 

प्रकाश-संश्लेषण से कार्बन डाई-आक्साइड को ऑक्सीजन में बदलते

जल -लवण वसुधा से लेते हैंभोजन-फलपल्लव-पुष्पशाखा बनाते। 

प्रतिवर्ष एक परत ऊपर चढ़ा लेते हैंगिनें तो ज्ञात हो सकती अवस्था 

आजकल कार्बन डेटिंग विधि ईजाद हैवृक्ष-आयु का पता लग सकता।

 

गल-जल-सड़ खादगैस-तेल बनाते हैंजीवन-चक्र में सहायतारत नित

शुष्क-बंजर भू को सुंदर हरित बनातेइनकी बहुलता समृद्धि प्रतीक। 

किञ्चित अल्प लेकर ही अति महद देतेयह एक बड़ा है उत्पाद-केन्द्र

मानव बहुत कुछ इनसे सीख सकता हैबस खोलो चक्षु  बनो शिष्य।

 

समग्रता अपने ढंग से निर्मित की हैविभिन्न परिस्थितियों में भी सहज 

दूजों की प्रसन्नता में तो हमेशा मुदित हैंहर दुःख में वे रहते बड़ा संग।

शक्तिशाली इसकी शाखाऐं हैंएक दण्ड कर में हो तो बनता सहायक

बहु कलाकृतियाँकंदुक-खिलौनेगृह-उपयोग सामग्री हैं प्रतिपादित। 

 

प्रत्येक वृक्ष यहाँ धरा पर वरदान हैजीवनार्थ इनका संरक्षण आवश्यक

पादप-गण सदा सुरुचिर परिवेश देते हैंहमारा कर्त्तव्य इनका बचाव। 

दूरस्थ मेघों को आकर्षित करते हैंपावस-जल से कराते वसुधा-सिंचित

सदा शीतलता है इनकी छाँव मेंविश्रांत पाते अनेक थके-मांद पथिक। 

 

तुम सूक्ष्मता से निहारो कैसे जीवन है महकताशिक्षा लो उपयुक्तता की

बहु कष्टों में भी ये कैसे अविचलित रह सकते हैंसदा बनते समवृत्ति ही।

चराचरों के संग भी मुस्कुराते-हर्षातेकर्त्तव्य एक बृहद पावन-उद्देश्यार्थ

जीवन-अमूल्य है समझो-सीखो ध्यान सेजब नहीं रहता कितना अलाभ।

 

इन वृक्ष-मुनियों सम जीवन में धीर-गंभीर रहकरउचित हित में हो मनन 

तुम भी जीवन इन वृक्षों सा बना लोउपयोगी बन करो विश्व में सुनिर्वहन।

 


पवन कुमार, 

१५ जुलाई, २०२४ सोमवार, समय १०:५५ बजे रात्रि  

(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० अगस्त, २०१५, शुक्रवार, समय :५० बजे सुबह से