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Sunday, 17 November 2024

मनोबल महिमा

मनोबल महिमा 



 हे उच्च मनोबल के नायक, संस्थानों के प्रणेता अपने

आत्मा को दबने न देना, चाहे कैसी भी वेदना हो गहरी।

 

जीवन रणक्षेत्र में विजयी होना, हर रूप में सक्षम बनाना, 

निज प्रेरणा पथ पार कराती है, पहले स्वयं से विजय पाना।

 अपनी हार में जो विशाल आनंद है, वह स्वयं से मिलने में है

सब दंभ हटते, सच्चा रूप दिखता, अंधकार भी जाता हट।

 

माना कुछ क्षीण हम, किंतु सब बाधाऐं हटाता मनोबल,

ज्ञान-चक्षु कराते दर्शन, घावों पर प्रेरणा लगाती मरहम।

हर क्षण घायल होतें, तथापि सशक्त से संघर्ष में डटे रहते,

माना संघर्ष थकाऊ ही, परंतु सबसे बड़ा जीवन-धर्म है

 

मूर्खताजनक मुग्धता न श्लाघ्य, पर आशा करना दोष नहीं, 

अबतक न घटित तो आगे भी न होगा, ऐसा मानना न सही।

क्षमताएँ बढ़ सकती हैं, यदि प्रयास हो निरंतर व स्वाभाविक, 

मनुज सीमाओं से बाहर आया, तभी लब्ध सफलता अद्भुत।

 

मरकर जी उठेंगे, धैर्य नहीं छोडेंगे, बाधाएँ नहीं रोकेंगी पथ 

ठोकरें लगेंगी, काँटे चुभेंगे, मजाक भी होगा, कभी गर्व मर्दन।

अपनी असली दशा जानकर, गंतव्य की दूरी भी पहचान लेंगे,

कौन से उपकरण आवश्यक हैं, जुटाकर उन्हें बलवान बनेंगे।

 

अपना स्तर जान दूसरों की शक्ति आँकेंगे, रण-नीति बनाएंगे, 

न स्वयं को कभी दुर्बल आँकेंगे, परिवेश को सशक्त बनाएंगे।

सब लगें अपने को स्थापित करने में यहाँ, होड़ एक जबरदस्त,

क्षीण पीछे छूट जाता, कमसकम प्रतियोगिता में तो हो चयन।

 

माना अब तक संपर्क अपने जैसों से, पर अब महा-मुकाबला,

सब आयुध सहेजो, शस्त्र पैने करो, समर तो अब शुरू हुआ।

यहाँ कृष्ण-वचन सत्य हैं, 'युद्ध कर', जो बहुतों को देते प्रेरणा,

विशाल सेना तत्पर झपटने को, पर मनोबल है महान प्रणेता।

 

अनीति पर सुनीति की विजय, अंधकार को चीर डालता प्रकाश,

असत्य पर सच्चाई की जयश्री है, मृत्यु भी अमृत से जाती हार।

लुब्ध-प्रवृत्तियों पर ईमानदारी की जीत, परिश्रम से विद्या मिलती, 

सुयश प्राप्त है योग्य कर्मों से, चाटुकारिता कभी काम न आती।

 

मेहंदी का रंग चढ़े धीरे-धीरे, सहज पककर ही तब मीठा होए, 

सुगुण-सुगंध तो स्वतः फैलते हैं, अच्छे-बुरे सभी लाभान्वित होते।

आत्म प्रयासों का ही अधिक सहारा, अन्य भी योग्य का साथ देंगे, 

उत्तम बुद्धि में ज्ञानमय होकर, अपनी प्रतिभा हम मनवा ही लेंगे। 

 

कर्मठता का यश दूर तक फैलेगा, यदि मन में होंगे सच्चे प्रयास,

माना जग में कुछ भेदभाव है, प्रतिभा को भी करने में स्वीकार।

एक दिन मेहनत रंग लाएगी, परम श्लाघ्य को न झुठलाता कोई

देखो कहाँ से कहाँ पहुँच गए हो, घबराने का कोई कारण नहीं।

 

आत्मसम्मान के योग्य बनो, कह सको, "निर्मल प्रयास किया", 

संस्तुति परम-आराध्य की होगी तो सरस्वती-लक्ष्मी भी चलेगी।

मन में हों बहु सकारात्मक भाव, सुकथन का बनाओ संकल्प, 

किसी को रुष्ट करना अनावश्यक, छोटी-मोटी बातें लो सह।  

 

सदैव प्रतिक्रिया अनावश्यक, शांतभाव उच्च-मन का प्रतीक, 

जल में रहकर मगर से शत्रुता मारक, सत्य क्षेम में बहु उन्नति।

वरिष्ठों का आशीर्वाद आवश्यक, सब योग्यों से गुण ग्रहण करो, 

उजले मानव-पक्षों को अपनाओ, बात-बात पर न उद्विग्न ही हों।

 

सभी उद्योग बढ़ाओ सकारात्मक दिशा में, स्थिति को सुदृढ़ करो

संपर्क करो कुछ योग्यों से, सुसंवाद से आत्म परिवेश शुद्ध करो।

जहाँ सूई काम कर सकती अनावश्यक तलवार, ऊर्जा हो संचित,

बहु कर्म अति-बल मांगेंगे, अतः सीमित ऊर्जा को न करो व्यर्थ

 

लाभान्वित हों सहकर्मी भी, राष्ट्र-विभाग का नाम करो उज्ज्वल, 

बनकर नियमित प्रदत्त शुभ कर्त्तव्यों में, आधार खूब करो सुदृढ़।



पवन कुमार,

17 नवंबर, 2024 रविवार समय 11:33 बजे प्रातः 

(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दिनांक 4 जून, 2015 वीरवार समय 8:15 बजे प्रातः से)  


Thursday, 14 November 2024

पूर्व दिशा चिंतन


पूर्व दिशा चिंतन  

 

पूर्व दिशा में दृष्टि करना, योग का है एक मुख्य नियम,

यदि पूर्ण उचित नहीं भी लगे, तो भी प्रयास हो अनुपम।

 

सूर्य प्रातः उदित होता, पूर्व से भू को देता ऊर्जा अपार,

शुभ दिशा मानी जाती, भास्कर से सीधा संबंध साकार।

मस्तिष्क का संयोग उचित ही, ध्यान का होता है संगम,

महद चिंतन हो जाता, शरीर की क्रियाएँ होतीं संगठित

 

वास्तु-शास्त्र है दिशा-आधारित, शुभ-अशुभ करे इंगित,

मंदिर-मुख पूर्व को, आजकल किए जाते भवन-द्वार भी।

सारे योगासन पूर्व दिशा ओर ही मुख करके किए जाते,

कारण तो अधिक न मालूम, बस शुभ-अशुभ से जुड़ते।

 

भारतवर्ष उत्तरी-पूर्वी गोलार्ध में, सूर्य यहीं उगता पहले,

यूरोप-अमेरिका को पश्चिम कहते हैं, वे पश्चिम में बसते।

हम पूर्वी, हमारी संस्कृति उनसे विलग ही बताई जाती,

दक्षिण-पूर्व का क्षेत्र कमोबेश सम विचारधारा अपनाता।

 

मस्जिद-प्रवेश पश्चिम में निर्मित, मक्का-मदीना हैं उधर,

मुस्लिम  हिन्दू संस्कृतियों में बताई जाती है भिन्नता कुछ

शैली अनगिनत बना लेते, मनुज इन्हें जीवन में अपनाता,

जो अन्य किंचित भिन्न होते, उनमें सहज विरोध हो जाता।

 

भोजन समय पूर्व को मुख करते, पूर्व-दक्षिण को सोते सिर 

दक्षिण ओर पैर न करते, दिशाओं का भी कहा जाता चरित्र।

पर कहते हैं गुरु नानक के पैर, पूर्व व पश्चिम में रख दिए थे,

किंतु वह योगी थे, जिधर देखें, मक्का की मस्जिद ही दिखे।

 

पूर्व दिशा की ओर मुख करके, मनन-चिंतन लगाया जाता,

लेखनी से कुछ बेहतर ही निकालेगा, ऐसा माना है जाता।

पृथ्वी की उत्तर-दक्षिण ध्रुवीय चुंबकीय किरणें हैं निर्धारक,

उत्तर सिर करने से सिर भारी किरणें सीधी होती हैं प्रवेश। 

                                                                 

दक्षिण में ऐसा दुष्प्रभाव न, नियम भी बनें आधार पर इसी,

दक्षिण दिशा में सिर करके सोना, प्राणी को देता है शांति।

इसलिए ध्यान-योग विषयों में, दिशाओं का विशेष स्थान,

प्राचीन नियमों में यह छिपा है, समझो इसको महा ज्ञान।

 

                                      

पवन कुमार,

14 नवंबर, २०२४, गुरुवार समय 7. 37 बजे

(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दिनांक 1 अप्रैल, 2015, बुधवार, समय 8.30 बजे प्रातः से)



Sunday, 10 November 2024

शिक्षक त्रुटियाँ

शिक्षक त्रुटियाँ 
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हम सहसा कुछ गलत हो जाते हैं, एक छोटी सी भूल बन जाती महद
फिर अन्य हमें कैसे ही आँकते, अपने ढंग से विवेचना करते है सब। 

कई संभावनाऐं होती हैं एक काज हेतु, किंतु निर्णय तो एक पर होता ही
इसको करूँ और उसको छोड़ूँ, कितने परिपक्व हैं बाहर निकलने में ही।
एक अंतर्द्वन्द्र नित्य चलता रहता है, भिन्न जीवन-पहलुओं के समन्वय में
सब अपनी कुछ-2 श्रेष्ठता भी रखते, पर सर्वोत्तम तो सदा आवश्यक है। 

हम जीवन में अनेक ही अहम निर्णय भी, यूँ भावावेश में हैं लेते बहकर
परिणाम तो उस समय चिंतन न कर पाते, मात्र सहसा हो जाता कुछ। 
हाँ हरेक क्रिया की एक प्रतिक्रिया भी, आवश्यक न अनुरूप हो हमारे
कदाचित जानकर भी अनाड़ी बने रहते, व्यस्क सम व्यवहार न करते।

दुनिया हमें अपने दृष्टिकोण से देखती है, एक विशेष धारणा ही बनाती
पर वह तो होती मात्र बाहरी दर्शक, तुम्हारे अन्तर्मन की न वह साक्षी।
वास्तविक जगत में तो हम सभी, अपने विभिन्न मनोविज्ञान लिए हुए हैं 
सब अपने ढंग से एक दूजे से जुदा हैं,  निज परिवेशों में विकसित हुए।

क्या हैं ये हमारी बेचकानियाँ या त्रुटियाँ, क्या करते या हो जाती मात्र 
क्या बाह्य-अपेक्षाओं से समन्वय-अभाव, या यकायक बेसमझे बर्ताव।
किन्तु कई बार तो जानते-समझते हुए भी, हम गलती करते हैं जाते 
जैसे स्व पर कोई वश ही न, बस मूढ़ता ही निर्णयों पर भारी होती है।

तब हमारा क्या जीवन-दर्शन होता, उसी अनुरूप मनन-बर्ताव करते
संसार में कुछ देख-समझ कर ही, स्वयं को फिर बदलने की सोचते। 
बहुत बार हाथ जलाऐं हमने मूढ़ता में, फटकार से ही आती कुछ सुध
समझ में आता कि हम ही सही नहीं होते, बहुत मार्ग तुमसे हैं श्रेष्ठतर।

बहु विद्याऐं, पूर्व गमित पथ, प्रयोग-अभ्यास, जिनका जगत रखता ज्ञान 
पर हम अदने से व्यक्तित्व हैं, सब विधाओं में कैसे हो सकते पारंगत। 
मात्र यदि निज क्षेत्र में व्यवहार करना हो, तो भी कुछ संभावना उचित 
परंतु अपरिचित, ज्ञान-विद्या दोनों में अनाड़ी हैं, यह स्वीकार लो तुम।

क्यों हम एक मूढ़ी बन जाते हैं, अपनी जटिलताओं से हो जाते कुत्सित
इस निर्बल मन-देह में बहुत व्यसन पाल लेते, जबकि ज्ञात हैं हानिकर। 
क्यों दुनिया को यह दिखाना चाहते, हम भी अपनी मर्जी के हैं मालिक 
क्यों अनावश्यक प्रतिलोम स्पर्धा, जबकि सत्य असर तो होता स्वयं पर। 

क्यों बदला-भावना से आचार करते, जबकि आत्म पर ही असर अधिक 
'आप तो मरे ही पर तुम्हें सिखा देंगे', युक्ति निज की हानि करती अधिक।
क्यों न आत्म-अंतः शुभ करते, एवं एक विज्ञ-बुद्धिमान सा व्यवहार करते 
और मात्र यूँ परेशान रहते, मानो समस्त जगत का भार इन स्कंधों पर है।

क्यों नहीं स्वयं को हल्का ही करते हो, बोझ अधिक तो लो अन्य सहयोग 
जीवन-प्रबंधन के कुछ नियम सीख लो, बाँटो कार्य रूचि-योग्यतानुरूप। 
एकदम यूँ नहीं चिंतित हो जाओ, अन्यों को भी निष्पादन में लगता समय 
पर देखो लापरवाही न हो कर्त्तव्य-निर्वाह में, यह लागू ही होता सब पर। 

गलतियाँ हमारी ढ़ीलता से भी होती, अनुरूप समय पर गंभीर नहीं होना 
गलत व्यक्ति पर विश्वास करना भी एक, वह स्वयं मरेगा तुम्हें भी मारेगा।
जब घटित हो रहा है सुधरने की महत्तम संभावना, बाद मे रोना-धोना ही 
बाद में त्रुटि-सुधार अति महँगा पड़ता, अतः सब समझदारी है समय की।

हम एक क्षेत्र में, किंतु हेतु यत्न न करते हैं, सीखेंगे नहीं तो गलती ही होगी 
क्यों अनाड़ी ही बने रहना चाहते, जबकि पता परिश्रम से सीख सकते ही।
विश्व सम्मान देता है चेष्टालूओं को, पर छोटी-2 गलतियों की बहुत कीमत
समय-बर्बादी, संसाधन-अपव्यय, मानसिक-व्यथा और हैं व्यर्थ-उपहास।

अनर्थक टिप्पणी, अयोग्य कहने से तो टूटे अवर-विश्वास व वरिष्ठ-झिड़क
ये कुछ सीमा तक तो ये नियमित किए जा सकते, सावधानी ही है बचाव।
पर गलतियाँ मात्र अपुण्यी नहीं, अहसास सजग रहने की प्रेरणा सकती दे
अन्यों को हलके में ही नहीं ले सकते हो, कि जो तुम सोचों वे उसे मान ले।

तो कुछ श्रेष्ठ मानक बनाओं निर्वाह में, हर निर्णय से पूर्व ठीक से देख लो 
तथापि कुछ त्रुटियाँ अवश्यंभावी, एक मजबूत व्यक्ति सम बर्दाश्त करो। 


पवन कुमार,
10 नवंबर, 2024 रविवार समय 8:39 बजे सायं  
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दिनांक 9 अप्रैल, 2015 वीरवार से)


Saturday, 31 August 2024

स्वतंत्रता-अर्थ

स्वतंत्रता-अर्थ



स्वयं-सहायता महत्तम संबल, मानव इस दुर्धष जगत-जंजाल से मुक्ति पा सकते
सर्वत्र महालोलुप-दृष्टि है, कब सावधानी-च्युत हुए व बाज द्वारा लपक लिए गए। 

तुम कैसे यहाँ निज जीवन-घड़न चाहते, पूर्व-स्वतंत्रता तो नहीं, कोई तो है स्वामी
पर मौलिक महत्त्वपूर्ण, जितने उच्च को बनाओगे, कुछ निज-गुणवत्ता भी बढ़ेगी। 
जगत में ठग को पहचानना बड़ा कठिन है, फिर कौन निर्मल कल्याणक ही नित 
आरंभ में कुछ भद्र-चेतस संभव, पर सत्ता प्राप्ति कैसा ही रूप, जानना है कठिन। 

सत्य कि बहु संघर्षशील नर मृदुल-मानस ही, पर सत्ता-वैभव शनै कर देता गर्वित 
अच्छा-भला शक्त-प्राणी असहाय हो जाता, जगत-तष्णाऐं कर लेती पूर्ण पाशित। 
समय संग हमें मृदुतर होना चाहिए, किन्तु जरा सम्मान मिलते ही फूल से हैं जाते 
और पूर्व भले-समर्थकों को दास समझ लेते, जैसे मात्र हमारी सेवा हेतु यहाँ आए।

पर क्या मानव-कुसूर, वह सब बालपन-युवा-व्यस्क-प्रौढ़ आदि श्रेणियों से गुजरता
सबकी निज परवरिश होती जैसी संगति-विद्या-ज्ञान मिला, वैसे ही परिवर्तित होता। 
स्वयं को तो सोचते अति-बुद्धिमान, किंतु वास्तविकता में हैं विशेष परिस्थिति-रचना 
थोड़ा-बहुत विवेक मिला है हाथ-पैर मारने हेतु, व अति साहसी पार कर लेते बाधा।

चलो मदारी का खेल देखते हैं, वह अपने बंदरों से जो चाहे, वही काम करवा लेता
मदारी की रज्जु से बंधा वानर तो सेवक, स्वामी के हाथ में डंडा, खाना-पीना देता।
जरा सी शरारत की तो मार खानी पड़ती है, गुस्सा हो गया तो खाना भी नहीं प्राप्त 
अब बंदर का अल्प बुद्धि-साहस, अपने से बलशाली के चंगुल से मुक्ति है कठिन। 

जगत में सतत बहु प्रयोग, आखेटक वीभत्स-खूँखारु सिंह को पिंजरे में फाँस लेता 
महाकाय हाथी, गैंडा, जिराफ, मगर तक को फँसा लेता है, स्थायी ही अब उनका। 
माना ताकतवर किंतु नर युक्ति उनसे ऊपर की होती, बेबस जाल में फँस ही जाते 
तात्पर्य है कि चालक कब्जा जमा लेते निरीहों पर, चाहे देह-बल में कमतर उनसे।

अब एक काल तो मनुज-विशेष भी किसी स्तर, एक के ऊपर अनेक चढ़ी हैं परतें 
किंचित दुर्बलों से स्वयं को सुभग मानने लगता, मद में पाश में लेना चाहता उन्हें। 
प्राचीन काल में राजा बेगारी करवाते थे, सारे नर प्रस्तुति को बाध्य उनकी सेवा में 
न कोई प्रश्न, विरोध-स्वर ही, कभी कोई बोले तो कड़ाई से कुचलवा जाता सेना से। 

लोगों ने बड़े किले बनवा लिए, बड़बोलापन इतना अधिक कि गगन-छेद कर देगा 
विश्व की सकल-वैभव इच्छा-समक्ष कर लिए, अन्य-श्रम से फल चोखा है मिल रहा।
ऊपर से काम-प्रवृत्ति में पाशित, विश्वामित्र से तुलना सी जो मेनका से थे गए उलझ 
फिर रूपसी-संसर्ग को ही कुछ स्वर्ग सोचते, जीते-जी जो भोग सकते हो, लो भोग।

अब ताकत-नशा, दूजे को तुच्छ समझते, बात-2 पर औकात दिखाने की बात करते 
निज व्यवहार तो स्वयं से बली समक्ष कभी देखो, भीगी बिल्ली से कोने में दुबकते। 
युक्ति-व्यवहार तुम भी सीख जाते, निज जैसों से मिल महत्तम संभव लाभ लो उठा
यहाँ तुम उसकी सहायता करो और वह तुम्हारी, चोर-चोर तो मौसेरे ही होते भ्राता।

सब दमितों में से कुछ दुर्धष निकल जाते, साहस करके तंत्र समक्ष करतूतें कर देते
फिर सिकंजा धीरे-2 खिचना शुरू होता, विरोधी गुट अपना समस्त जोर लगा देते। 
कानून का पेंच तो बड़ा ही शक्त-पेचीदा है, चाहे तो किसी को भी फँसा देता कहीं 
सहायक-सहारा व निज बल भी अति काम न करते हैं, चक्रव्यूह निश्चित जटिल ही।

खैर ये बातें तो बलशालियों की, किंतु कुदरत समक्ष तो कभी पहाड़ भी है हिलता 
परंतु ये आमजन कहाँ जाऐं, उन पर तो सदा यह नहीं तो वह दबंग काबिज रहता।
स्वावलंबन की उसको कितनी स्वतंत्रता मिल रही है, उस देश-समाज के देन यही
लोकतंत्र ने बहुत आजादी दी, तथापि स्व-मतिमंदता व बली-युक्ति फँसाए रखती। 

चिंता यहाँ आम नर की, कैसे विमुक्त हो सकल सुलभ सुख-आस्वादन कर सकता
तब क्या स्वतंत्रता-अर्थ भी लेगा, क्या प्रज्ञाशील भाँति संयम से आचरण ही करेगा।  
क्या चरित्र-कसौटी, सब योगी-भोगी, राजा-गृहस्थ, साधु-पादरी पृथक आचार करते 
अब असंभव तो है समान प्रशिक्षित , किसको नायक मानें और पद-चिन्हों पर चलें। 

थोड़ा सरल करते हैं नर पूर्व पूर्ण-मुक्त होवे, तब स्वेच्छित पक्ष चिंतन कर ले अपना
यदि देश का शासन-तंत्र निर्मल, अवश्यमेव हरेक को पूर्ण-पनपन अवसर मिलेगा।  
वहाँ परिवेश शिक्षा-परक व मानव के उबार वाला होगा, ताकि ले सके उचित निर्णय 
विषमता भी शनै से मिट ही जाऐंगी, एक साहस होगा, करने को बुराई का प्रतिकार। 

ये धार्मिक तो यूँ ही मोक्ष-नाम लेते, स्वतंत्रता ही चरम उपलब्धि दिशा दिखा सकती 
साम्यवाद भी उत्तम चेतना है, मानव अन्य  का ग्रास न बने, व सुख से रहें दोनों ही। 



पवन कुमार,
ब्रह्मपुर (ओडिशा), ३१ अगस्त, २०२४, शनिवार, समय १०:२३ बजे प्रातः 
(मेरी महेंद्रगढ़ (हरि०)  डायरी ३१ अगस्त, २०१७, वीरवार समय ७:५३ बजे प्रातः से )


Sunday, 4 August 2024

अनिश्चित आगामी

अनिश्चित आगामी



जीवन का यादगार दिन, अपनी छाप छोड़ जाएगा ही 

एक यात्रा पूरी हो रही, व कुछ अनिश्चित है आगामी। 


लिखकर इसको जी लूँ, फिर चिंतन कर सँवार ही लूँ 

हरेक पल को सार्थक ही बनाकर, पूर्ण-दिशा इसे दूँ। 

बीत गया है जो हँसी-खुशी में, उसको अनन्त बना दूँ 

नित आगामी दिन हेतु सदेच्छा ही, इसे मधुर बना दूँ। 


बहुत हो गया हँसी-खेलना, अब कुछ गंभीर हो जाऊँ 

मस्तिष्क की कर्कशता त्यागकर, कुछ कोमल जाऊँ। 

बीत गया जैसे बहुत कुछ ही, व अंतः में गया अति दूर 

कुछ मृदुल मनन फिर से कर, स्वयं के आऊँ निकट। 


कुछ खोना और अनुपम पाना है, चेष्ठा उधर इंगित करो 

चलाओ सुमार्ग पर ओ प्रभु, सकल उचित चिन्हित करो। 

प्राण-वायु दो श्वसन-तंत्र को, ज्ञानेंद्रियाँ संचालित ही करो 

छुड़वा व्यर्थ बचकाना, किंचित सार्थक में संवाहित करो। 


कुछ कर्त्तव्य बोध कराकर, प्रदत्त कर्मों हेतु सुप्रेरित करो 

अनुभव बताता कितने साथ ही हैं, तथापि तो उद्यत करो। 

नहीं चाह किसी यश-स्तुति की, करो विदूर मिथ्या श्लाघा 

किंतु प्रबलेच्छा कुछ समुचित हो, साक्षी बनूँ अनुपम का। 


आह्लादित करो मन-प्राण ही, एक करूँ मन-वचन-कर्म 

चिंतन हो कुछ विरल सा, जिससे हो आत्म-साक्षात्कार। 

छूटते जा रहे हैं व्यर्थ बहु बंधन, एक अच्छी बात यह तो 

किंतु मोह स्वजनों से बिछड़ने का, कैसे संभालूँ खुद को। 


स्वावलंबन अपनाने की ही शक्ति, मुझको ईश्वर दे देना 

मनुजता प्रति क्या हो दायित्व, उसको भला समझा देना। 

बना कलम को कुछ अंतः-साक्षी, किंचित जीवंत बनाऊँ 

व सार्थक चिंतन-व्याख्यान से, इसको निर्मोहित बनाऊँ। 



पवन कुमार, 

४ अगस्त, २०२४, रविवार, समय ५:४४ बजे अपराह्न 

(मेरी नई दिल्ली डायरी २५ जून, २०१४ बुधवार, ८:५३ बजे प्रातः से )

Monday, 15 July 2024

वृक्ष-वरदान

वृक्ष-वरदान

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निहारो तरुनित जीवंतता-अहसास वृद्धि करताप्रफुल्लित रहता 

अल्प लेकर भी बहुत उत्पाद करताजन्म से लेकर उपयोगी सदा। 

 

विटप अंतः में जीवन रखतासमय-परिस्थिति मिलने पर प्रफुल्लित 

मृदा-खनिज पोषणजल भूमि सेआकाश-वायु दुलारती है आकर। 

भू-माता की छाती-खूंटे से ही बँधा रहता इतराता बड़ा भी होकर 

मूल अति प्रगाढ़दुम-जीवन है निर्भरअतः स्तुत्य ही भरण-पोषण।  

 

प्रायतो आनंदमय ही वह रहताइस जगत के सदा आता है काम 

भोजन-औषधिस्वच्छ-वायुछायाभवन-लकड़ी या भी ज्लावनार्थ। 

पल्लव-पुष्पफल, छालविविध वर्ण, सुंदरता बहु रूपों में है दर्शित 

निर्मलस्वच्छअनिल के स्नेह-झोंकेंकरते हैं प्रत्येक को अतिमुग्ध।  

 

अनेक जीवन उनपर पनपतेगिरगिट-सर्प  अन्य  खग-गिलहरी

खग नीड़ बना लेते बड़ी सहजता सेआसपास से लेकर सामग्री। 

समस्त जीवन उनके निकट हैउनसे ही हो जाता भोजन उपलब्ध 

वहीं खेलतेलड़तेदुलारतेजन्मते और अंत में प्राण भी देते निज। 

 

अपने आप में एक पूर्ण जीवन-शास्त्रअनेक जीवनों को सहारा देते 

निज आहार बनाने में पूर्ण-स्वावलंबी हैंपरजीवियों हेतु तो अमृत।  

भूमि-क्षरण रोकेजल-संरक्षण करते हैंवसुंधरा को गतिमान रखते 

जीवन-शास्त्र के तो अभिन्न अंग हैंजीवन तो असंभव बिना इनके। 

 

स्वावलम्बीनित्य प्रेरक हैंप्रत्येक स्थिति में अपने को सहेज रखते

असंख्य कीट-पतंगे इनकी शरण मेंकटकर भी उपयोगी बने रहते।

अनंत रूप लेते हैं रचनाओं मेंसाजो-सामान व खिड़कियाँ-दरवाजें 

कहीं धरन-बीमस्तम्भछतें भीतो पूर्ण भवन भी बनते लकड़ी से। 

 

असंख्य रूप-विकसितसमुद्र-नदियों के जल से विस्तारित भूमि पर 

सुंदर-सजीव कलाकृतियाँ बनती मनोहरपादप-विज्ञान बहु समृद्ध। 

सूक्ष्म से ले बड़े रूपों में विकसित हैसुकृति हरित-वर्ण नेत्रों हेतु शुभ 

हमारा श्वसन-तंत्र स्वस्थ इनके सान्निध्य में हैंप्रदूषण को करते अल्प। 

 

ये साक्षात नीलकंठ- शिव स्वरूप, दूषित वायु-गरल पीकर अमृत देते

बहु प्रकृति-मार बड़ी सहजता से सह लेते हैंकदापि नहीं क्रोध करते।

काटनहारे को भी छायाफल-फूल देते हैंसर्वहित पुनीत जीवन लक्ष्य 

इनका हर अवयव उपयोगी हैजीवन-सहयोगीसबको सदा उपलब्ध। 

 

प्रकाश-संश्लेषण से कार्बन डाई-आक्साइड को ऑक्सीजन में बदलते

जल -लवण वसुधा से लेते हैंभोजन-फलपल्लव-पुष्पशाखा बनाते। 

प्रतिवर्ष एक परत ऊपर चढ़ा लेते हैंगिनें तो ज्ञात हो सकती अवस्था 

आजकल कार्बन डेटिंग विधि ईजाद हैवृक्ष-आयु का पता लग सकता।

 

गल-जल-सड़ खादगैस-तेल बनाते हैंजीवन-चक्र में सहायतारत नित

शुष्क-बंजर भू को सुंदर हरित बनातेइनकी बहुलता समृद्धि प्रतीक। 

किञ्चित अल्प लेकर ही अति महद देतेयह एक बड़ा है उत्पाद-केन्द्र

मानव बहुत कुछ इनसे सीख सकता हैबस खोलो चक्षु  बनो शिष्य।

 

समग्रता अपने ढंग से निर्मित की हैविभिन्न परिस्थितियों में भी सहज 

दूजों की प्रसन्नता में तो हमेशा मुदित हैंहर दुःख में वे रहते बड़ा संग।

शक्तिशाली इसकी शाखाऐं हैंएक दण्ड कर में हो तो बनता सहायक

बहु कलाकृतियाँकंदुक-खिलौनेगृह-उपयोग सामग्री हैं प्रतिपादित। 

 

प्रत्येक वृक्ष यहाँ धरा पर वरदान हैजीवनार्थ इनका संरक्षण आवश्यक

पादप-गण सदा सुरुचिर परिवेश देते हैंहमारा कर्त्तव्य इनका बचाव। 

दूरस्थ मेघों को आकर्षित करते हैंपावस-जल से कराते वसुधा-सिंचित

सदा शीतलता है इनकी छाँव मेंविश्रांत पाते अनेक थके-मांद पथिक। 

 

तुम सूक्ष्मता से निहारो कैसे जीवन है महकताशिक्षा लो उपयुक्तता की

बहु कष्टों में भी ये कैसे अविचलित रह सकते हैंसदा बनते समवृत्ति ही।

चराचरों के संग भी मुस्कुराते-हर्षातेकर्त्तव्य एक बृहद पावन-उद्देश्यार्थ

जीवन-अमूल्य है समझो-सीखो ध्यान सेजब नहीं रहता कितना अलाभ।

 

इन वृक्ष-मुनियों सम जीवन में धीर-गंभीर रहकरउचित हित में हो मनन 

तुम भी जीवन इन वृक्षों सा बना लोउपयोगी बन करो विश्व में सुनिर्वहन।

 


पवन कुमार, 

१५ जुलाई, २०२४ सोमवार, समय १०:५५ बजे रात्रि  

(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० अगस्त, २०१५, शुक्रवार, समय :५० बजे सुबह से