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Saturday, 31 May 2014

दर्द-ए -दिल

दर्द-ए -दिल 


मैं तो परिवार के ख्यालों में ही, बहुदा खोया रहता

बाह्य निर्गम-असक्षम, मात्र उनमें ही हूँ डूबा रहता॥

 

तुम तो हार कर भी जीते, मैं जीतकर भी हार जाता

मन तो सेवक है सनम, अगर बोले तो मर भी जाता।

क्या कसक दी दिल में, अपने ही दर्द में हूँ कराहता

 न जानूँ गति इस स्व की, बस तुझमें ही हूँ बहा जाता॥

 

बरबस यूँ ख्याल है तेरा, मैं तो अपने से ही डरा जाता

न पता डगर ही अपनी, क्यों हवा में तेरी उड़ा जाता।

आजीवन का संग पकड़ा, पर चंद लमहों से घबराया

तुम तो दूर बैठे हो सनम, मैं ख़्वाबों में ही डर जाता॥

 

दे निज कुछ शक्ति-अंश, मैं तो अपना लुटा बैठा सब

तेरी बाहों का गर मिले साथ, हर पल को दूँ शिकस्त।

तेरी यादों में खोया हूँ बहुत, कुछ पता नहीं जिंदगी का

कैसे चलती किसकी भांति, कब निज-ज्ञान ही होगा॥

 

झोली में पड़े बहुत से चमन, तुझसे जो साथ हो जाए

किस्मत भी खपा सी, होते मिलन को भी दूर ले जाए।

हालात पर यूँ दया न, किसी शख्स को न रोना आता

किससे कहूँ दास्ताने-अपनी, कुछ समझ नहीं आता॥

 

बन गया कुछ मजनूँ सा, दिन-रैन लैला किया करता

मुझे कुछ भी सूझे न ऐ साथी, आके जरा संभाल जा।

खो गया अपनी धुन में ही, क्यों दूर चले गए हो मुझसे

हालात पर आंसू बहें, संभालने वाला भी न है पथ में॥

 

ये गम-लम्हें उसपर यादें, दर्द पर नमक सा छिड़का

दर्द कुछ अजीब सा, पर मुझे तो पता न क्या माजरा?

दुनिया ने तो बहुत पीड़ाऐं दी, पर सहन लिए जाता मैं

कुछ पथ दिखा जानूँ, करूँ शिकायत भी तेरी किससे॥

 

मेरा भाग्य-दोष शायद, वरन क्यूँ रोता जाता इतनी दूर

तू भी तड़पे बिना मेरे वहाँ, हालत तेरी भी न है बेहतर।

किससे गिला करूँ सनम, यहाँ हर कोई एक सा लगता

दीवाना सा फिरूँ उलझा, किस कदर खुद में हूँ खोया॥

 

भोली सूरत पर दया कर, मुझ पर नहीं तो महबूब ही पर

बिछुड़ा उनसे व हमसे वह, दर्द में तड़पाएगा कब तक?

नीयत में खोट हो तो बता, मैं क्या करूँ नहीं पाऊँ समझ

सुना तू बड़ा निर्णयी, मुझसे क्यूँ नयन चुरा जाता फिर॥

 

क्या हालत बन गई मेरी, खुद पर आंसू बहाता हूँ जाता

तेरी आँखों में सुना है दया, फिर क्यूँ मैं नज़र न आता?

जीवन- शक्ति दे मुझको, तेरी ही इबादत में लगा रहता

भूल गया हूँ सकल विद्या, अपनी हालात पर रोए जाता॥

 

मैं तेरी डगर का पथिक, जिसको दया का फूल न मिला

बड़ा सूखा हो गया दिल, कोई आकर तसल्ली दे जाए।

बेड़ी कोई काट दे तो, उम्रभर उसका गुलाम हो जाऊँ

तेरे जगत में कोई मरहम भी, या घायल ही चला जाऊँ॥

 

कैसे करूँ सामना मैं तेरा, दोषी हूँ भाग आया छोड़ कर

शायद किस्मत को रोती, कहती भगोड़े से मिली किस?

मुझको भी समझ ले तो ऐ जानूँ, इतना भी नहीं हूँ नाशुक्रा

माना मुज़रिम हूँ, पर दर्द जितना वहाँ, अधिक ही यहाँ॥

 

किसे कराऊँ अहसास दर्द का, मुझे ऐसा नज़र ना आता

सब सुनते बनावटी रहम खा, बाद में कर देते अनदेखा।

सीने की जलन सही न जाती है, कैसे सहूँ समझ न आए

 कोई वैद्य भी नज़र न आता, आके जो मरहम लगा जाए॥

 

दूरियाँ स्थान की हैं बड़ी, कैसे पार करूँ पंख भी तो नहीं

अच्छे फंदे में डाला जिंदगी, सहेजना तुझे न आता सही।

डर सा गया हूँ अपने ही साये से, ढ़ाढ़स न कभी मिलता

कोई कहता न पीड़ा बहुत, किसी को न आती भी दया॥

 

भटकता हूँ इस जग में अकेला, कोई साथी न आए नज़र

किससे रोऊँ- कहूँ -बखानूँ, हर तो अपने में ही हैं मस्त।

मैं भी स्वार्थी बहुत ज्यादा, और किसका ध्यान करता ही

डूबा हूँ अपने ही ग़म में, पर किसी से शिकायत है नहीं॥

 

पर कब तक चलेगा ऐसा ही, मुझे मौला तू दे दे होंसला

सुना था तू दयालु बहुत, मुझको दया का पात्र तो बना।

बहुत तड़पा हूँ ऐ मेरे मौला, अब और नहीं सहा है जाता

 कहीं सब्र-बाँध टूट गया, तो दया का अर्थ न रह जाएगा॥

 

किस कदर मैं यूँ ही भटकूँ, ऐ सनम तू आकर सुला जा

घायल हो गए हैं पाँव मेरे, चलते-२ लड़खड़ा हूँ जाता।

दुनिया मेरी रोशन कर दे, औरों के भी तो घर बसते हैं

फिर ख़फ़ा ही क्यों मौला, बता तेरा क्या बिगाड़ा मैंने॥

 

ज्ञात है थोड़ा बुरा हूँ, पर ऐसा नहीं बिलकुल खराब ही

फिर कैसा बदला लिया, चाहे शक्ल दिखा अपनी ही।

तू फिर बाप है सबका, क्यों संतानों पर ही ढ़ाता कहर

इस सूने रात्रि- प्रहर में, क्या मेरी नहीं दिखती शक्ल?

 

अगर आत्मा है मुझमें, तो वो भी तुझको फिर याद करें

जाकर संभाल ले उसे, वरन बेचारी ना जाने क्या करें।

चाहूँ तो हूँ लेख रोकना, पर दिल है कि मानता ही नहीं

गर्दिश- शिकंजे ही सही, पर कलम तो साथ दे जाती॥

 

मैं इसका ही तो सहारा पाता, पर रोते हुए है रोक देती

कहती है मत घबरा अज़ीज़, तपस्या ज़रूर रंग लाएगी।

किस कदर खो गया बातों में, नहीं ख्याल कोई जग का

शिकायत न ज़माने से है, अपने ही रंज में डूबा जाता॥

 

दिल बहलाने का संग दे, कैसे कटे कुछ ढ़ंग कर दे

मैं अपने ही क़त्ल का मुज़रिम, फिर चाहे तो भंज दे।

तेरी ही दया का चाही, तू कुछ ऐसा करिश्मा कर दे

मिला दे मेरे साथी से, मेरे जाने का इंतज़ाम कर दे॥


पवन कुमार,
31 मई, 2014 समय 20:38 सायं 
(मेरी शिलोंग डायरी दि० 20 अगस्त, 2001 समय 12:55 म ० रा ० से )   

Tuesday, 27 May 2014

कुछ बात

कुछ बात 


दुनिया के सितमों का शिकवा है क्या करना

ये हम खुद, फिर और किसी से क्यों डरना?

 

तरफदारी तो सुनी थी, देखा कुछ ही ज्यादा

पर ग़ौर से निकट देखा तो अधिक ही पाया।

सोचे थे, कि हर ग़म से महफूज़ होंगे ही हम

पर आँख खुली, सर्वत्र काँटों से पाया परित॥

 

हर बनावट के पीछे, एक कलाकार होता है

हर सज़ावट के पीछे, कोई होनहार होता है।

मैं तो मूरत भी कोई अच्छी सी न बना पाया

न जानता मेरा भी कोई पालनहार है होता॥

 

ठोकर खाकर गिरें, फिर लहू-लुहान हो चले

वक्त का धक्का जो लगा, तो बेहाल हो गिरे।

न समझ पाए, आखिर क्या हमारी क़िस्मत है

 दुनिया में क्या आए इसलिए, कि पड़ें या गिरें॥

 

अपने मन की लगाम, हम कभी खो बैठते हैं

कहाँ भागे है यह अश्वरथ, संभाल ना पाते हैं।

कैसे बनें हम सारथी, अपने इस मनरथ ही के

इस भ्रमित अर्जुन को, कृष्ण न मिल पाते हैं॥

 

पूजा हेतु चुना था जिन फूलों को, मैंने चमन से

देखा तो, एक बदनाम पथ में ही पड़े थे मिलें।

सोचा था सफल होगी, मेरे पुष्प की अभिलाषा

पर भाग्य में यही था कि गिरे यहाँ, पड़े वहाँ॥

 

मन के खिलाड़ी थे हम, शायद कभी तो जीते

थोड़े होश में आए, तो पाया कि धड़ाम-गिरे।

पर कैसे संगदिल-बुज़दिल हो, ऐ तुम बन्धु मन

बिन कुछ लड़े ही समझ लिया, कि मरे हम॥

 

प्राण-जीवन्तता तो खुलकर जीने से ही होती

फिर हार मान लिया तो, क्या ख़ाक जिए ही।

उठ खड़े हो, बढ़ो मन में अरमान लिए ही नए

और बनाओ संग मुस्काने का आलम मन में॥

 

कोई कुछ बड़ा काम करे, तो ही नाम मिलेगा

फिर अच्छा ना सही, तो बदनाम ही मिलेगा।

जो घोड़े पर चढ़ भी सकते हैं, वे ही तो गिरेंगे

जो पहले ही नीचे गिरे, तो क्या ख़ाक करेंगे॥

 

क्यों कुछ दीवार की बाड़ सी ली मन में बना

रखो खुला, व आने दो ताज़ी हवा का झोंका।

रखोगे यदि अनावश्यक ही पहरे लगा इसपर

तो किसी दिन दे जाएगा, बहुत धोखा ही यह॥

 

इस मध्य रात्रि-प्रहर में, हर तरफ़ है शून्यता

केवल कहना ही, तो बड़ी है मन-बोझिलता।

एक लेखन का कारण, वह शून्य है दूर भगाना

तब आऐंगे नव-विचार, व निकट है सफलता॥

 

अतः अनुरोध है, माँ सरस्वती का करो ध्यान

वह तुम्हें सब विद्या, प्रखर-ज्ञान, दे कलादान।

कविभाव-लेख की हो, ज्योति प्रकाशित अक्षत

फिर हितार्थ मन-दीप, दिव्यता फैलाए सर्वत्र॥



पवन कुमार,
27 मई, 2014 समय 23:47 म० रा० 
(मेरी शिलोंग डायरी दि० 12.10.2001 समय 12:15 म० रा० से )     


Saturday, 24 May 2014

कलम के प्रश्न

कलम के प्रश्न


दुनिया में दर्द का एक रिश्ता, और इसी में बहे जा रहे हैं हम

कथन तो कुछ न मन में, लेखनी ही सफर बढ़ाए जा रही बस

हम तो जिंदगी तय करने में जुटे थे, यही भरन-यत्न रही कर॥

 

कैसे कहूँ जब समझ न, बुद्धि कुछ शिथिल व नींद सा आलम

फिर लेखनी उठाई, इसी सहारे ही अग्रिम पंक्ति-भविष्य अब।

जग में जीने हेतु मरना पड़ता, बहु-लाभ हेतु खोना पड़ता कुछ

अजीब दास्ताँ जीवने-मुहब्बत, मर जाएँ, शिकायत भी करें न॥

 

आज भी यूँ ही बीत गया, कुछ पढ़-सो या मशगूल होकर वार्ता में

उषा से बात की, भाई का इंजीनियरिंग सेवा-फलक जानने हेतु।

राजीव के भाई का तो उत्तीर्ण, विनोद विषय में नहीं बहु-आश्वस्त

पर अग्रिम-तैयारी हाथ में है, प्रयास-ईमानदारी से भविष्य संभव॥

 

जीवन में योजना जरूरी है, उसी से नर बड़ी बाधाऐं पार करता

आत्म-विश्वास व साहस से, दुर्गम कंटक-पथ भी सुगम हो जाता।

क्यों कुटिलता- जटिलता हममें, इससे ही कहानी जाती बन सब

क्यों लघु-लाभार्थ घृणित-हरकत, जैसे ठीक विषयों हेतु न समय?

 

नेक-नीयत व उचित ईमानदार ढ़ंग से भी, गुजर-यापन है संभव

कुकृत्यों से तो न मात्र निज, बल्कि अन्य-जीवन भी होते हैं नरक।

सत्य कि असंभव पूर्ण-आदर्शवादिता, और नमक चलता आटे में

किंतु कितनी मात्रा चाहिए, जब सब तो नमकीन रोटी ही चाहते॥

 

कब हूँगा फिर सत्य-आमुख,  जीवन में नेक-नियति, सच्चाई-बल

जब आदर्श बस नाम का ही नहीं, दिन-चर्या का बन जाएगा अंग।

स्व की काबिलियत पर ही भरोसा होगा, पैर ज़मीं पर जमा सकेंगे

कब गर्व होगा मनुजता पर, जग से अधमता-अन्धकार हटा देंगे॥

 

कब माँ सरस्वती की कृपा हो, लेखनी-मुख से सार-शब्द निकलें

मात्र नहीं सतही सन्तुष्ट,  आदर्श व्यक्ति जन्म हेतु भी छटपटाए।

कब अस्तित्व-पूर्ण जीवन निकट, कह सकूँ जग-आना भी सार्थक

कब यह चेतना-अहसास  मुझमें भी,  करेगा प्राण का सुस्पंदन॥

 

कब याज्ञवलक्य सा खोजी ही, दुर्धर्ष प्रश्न-उत्तर अन्वेषण को तत्पर

सार्थक प्रश्न करने में सक्षम हूँगा, निज-तम निवारण हेतु विचलित।

कब वास्तविक स्थिति से अवगत हूँगा, निज विफल-दुर्बलता ज्ञान

सकल जाँच-परिभाषा में सक्षम हूँगा, फिर जी सकूँ संग पहचान॥

 

कब सच्चाई-अहसास हो, कठिनता-निर्गम का पथ खोज-करबद्ध

लघु-बड़ी विफलता से नहीं हार, सत्य सफलता-अर्थ सकूँ समझ।

कब आत्म-विजय के स्वप्न लूँगा, जीवन पूर्णरूपेण जी ही सकूँगा

माँ-पिता, कुटुंब व विश्व-कर्त्तव्य समझ, उन अनुकूल बन सकूँगा॥

 

कब सब-दायित्व समझकर, जग-निर्वाह में कोई कसर न छोड़ूँगा।

अन्य-टिप्पणी लूँगा उचित परिपेक्ष्य में, व सुधार-पथ अग्रसर हूँगा।

 

मेरे माता-पिता के मुझ पर बड़े अहसान हैं। उनका पालन उतनी दृढ़ता से नहीं कर रहा हूँ जितना कि करना चाहिए। उन्हें कई बार शब्दों द्वारा दुःखी कर देता हूँ हालाँकि ऐसी कोई इच्छा नहीं होती। प्रभु ! समझ दे कि जीवित माता-पिता में तुम्हारे दर्शन करने लग जाऊँ। केवल तार्किक न बनाकर सच्ची बुद्धि व भक्ति दे। बहुत दिनों तक शायद इस कर्त्तव्य को उतनी कर्मठता से न पाया जितनी करनी चाहिए। प्रभु ! सद्बुद्धि दे कि चीजों को ठीक रूप में देखूँ। किसी से वैमनस्य न हो और कार्य सुचारू रूप से करूँ। सब हेतु अच्छी भावनाऐं रखूँ और भला चाहूँ।


पवन कुमार,
24 मई, 2014 समय 22:18 रात्रि 
(मेरी शिलोंग डायरी दि० 5 फरवरी, 2001 समय 12:15 म० रा० से )
      

Sunday, 18 May 2014

आम आदमी

आम आदमी



देखें मैंने भाँति-२ के लोग, अजीब ही शैली वाले

कुछ अति सीधे, कुछ चलते गहरी कुटिल चालें॥

 

फिर भी अंदर का दर्पण, बाहर झलक ही जाता

और आम आदमी, अपनी ही चाल में फँस जाता।

कभी तो बहुत चालाक बनकर, कुछ छुपा जाता

लेकिन क्या उस खोजी नज़र से, कोई बच पाया?

 

किससे चालाकियाँ, किसे प्रभावित चाहते करना

क्या उनके मन में, तनिक अपराध भाव न होता?

क्यों मनसा-वचसा-कर्मणा भेद, सदा दर्शित होते

 जब जानते सच में तो, कुछ छिपा ही नहीं सकते॥

 

फिर चालाकियाँ करके, क्या अधिक ही पा लेंगे

जब पावन न स्वयं में, किससे फिर वफ़ा करेंगे?

हम घर से निकले, क़त्ल करने चले दुश्मन का

आकर देखा यह हमारा ही जहाँ है लहू-लुहान॥

 

अंतराल में आदतों कारण, स्थिर चरित्र जाते बन

किञ्चित झुकाव अधिक होने लगता, एक तरफ।

तब स्व-मूलभूत अस्तित्व-कर्त्तव्य भूलने हैं लगते

 आत्मा पर 'दुरा' या 'महा' का संबोधन लगा देते॥

 

क्यों छोटी बातों पर प्रतिक्रिया करने लगते तुरंत

माना हर एक क्रिया पीछे, प्रतिक्रिया स्वाभाविक।

फिर क्रियाऐं ऐसी क्यों न, भान हो परिणाम शुभ्र

तो क्या आग में हाथ बढ़ाने से, नहीं जलता वह ?

 

फिर हम चेहरों पर बेशक, मासूम-मुखौटा लगाऐं

कुछ भोले-शरीफों को, निज बहरूपिए से भ्रमाऐं।

किंचित कुछ स्वार्थ सिद्धि पर, निज मन में हर्षाऐं

पर यथार्थ स्थिति हम भी जानते, वो भी जानता है॥

 

हममें कुछ लोभी, कुटिल, सीधे व कुछ यथार्थ पुरुष

अधिकांशतः शैतान-भगवान का कुछ मिश्रित-असर।

कुछ गुण-प्राधिक्य, एक खास श्रेणी में कर देते खड़ा

फिर एक विशेष छवि-ठप्पा, हम पर लग है जाता॥

 

पर हम एक अच्छे इंसान, क्यों बने रह सकते नहीं

कौन चीज़ आ, एक खास गुणों वाला बना है देती।

यदि वस्तुतः मानव ही हो, फिर क्यों भ्रमित हो जाते

वास्तविक स्वरूप भूल, ऊल-जुलूल बात हैं करते॥

 

फिर अन्यों से स्वयं हेतु, क्या भद्र व्यवहार चाहते

यदि प्यार-स्नेह चाहतें, तो सद्भावना रखना सीखें।

सम्मान चाहते यदि, विनीत-कारुणेय अपनाऐं गुण

अन्यथा क्या नीम-वृक्ष पर, कभी लगा आम-फल?

 

देखो यह जग तो कुआँ है, जैसे बोलोगे, गूँजेगा वैसे

पर मूर्ख वह चीख-चीत्कार सुनकर भी नहीं चेतते।

अभी तक तो वय में तुमने, बहु-प्रयोग लिए होंगे कर

 फिर प्रयोग से निष्कर्ष, अपनाना हुआ होगा आरंभ॥

 

अनेकों को कष्ट करके, महद महानता मिल जाती

क्या अभी तक उनके, रास्ते पर है ध्यान दिया ही?

कार्य को सुभीता करने हेतु, उचित रास्ता जरुरी है

ढूँढ़ो एक भला नर, अनुभव से लाभान्वित कर दे॥

 

तब महानता बहु-संदर्भों में, अलग परिभाषा प्रदत्त

कोई महात्मा बनता, परम-पिता में ध्यान लगा उस।

कर्मयोगी बनता जग-हितार्थ, ले समर्थ कर्म-भावना

अध्ययन में जुट जाता, नई विधाऐं जग समक्ष रखता

अन्य पथ-दर्शन से पूर्व, स्व-अन्वेषण में चल पड़ता॥

 

फिर रास्ता इतना भी न सुलभ, कि हर कोई चल पड़े

पर उतना भी न कठिन, यदि चाहे तो वह बन न पड़े।

पर इन सब हेतु चाहिए, एक मंसूबा व आदर्श-किरण

ताकि तुम सब ऊर्जावान हो, उसमें रह सको एकाग्र॥

 

फिर इस विश्व में सभी जन तो, महान-विकर्म न करते

अनेक तो बस अति साधारण, जीवन बिताना हैं चाहते।

कुछ को तो उलटे-सीधे मार्ग, अपनाने में भी न संकोच

फिर अनेक आम आदमी रहते ही, दुनिया से प्रस्थान॥

 

अंततः यह सत्य है कि इस दुनिया में सबका बड़ा नाम नहीं हो सकता क्योंकि जिनके पास वाँछित साधन यथा धन, विद्या, ज्ञान, कुशलता, आचरण आदि किञ्चित अधिक उपलब्ध हैं, वे ही बहुदा प्रसिद्धि पाते हैं। तो भी आम जनता का न्यूनतम स्तर बढ़ाया जा सकता है और फिर ऐसा क्यों न हो कि किसी को बहुत बड़ा बनने जरुरत न पड़े। सब एक पारस्परिक सोच-समझ से अपने संग अन्यों का स्तर भी उच्चतर करने का यत्न करें॥

 

प्रभु का धन्यवाद करो, प्रज्ञान में हो उत्तरोतर वृद्धि 

शेष-कर्म तुरंत निर्वाह-यत्न हो, हित अवश्यमेव ही॥ 



धन्यवाद, शुभ रात्रि। 


पवन कुमार,
18 मई, 2014  समय 15:25 दोपहर 
(मेरी शिलोंग डायरी दि० 28 फरवरी, 2001 समय 1:10 म० रा० से)

Wednesday, 14 May 2014

मेरी दुंदुभी

मेरी दुंदुभी 

इस कालखंड में आया हूँ, लेकर मैं अपनी दुंदुभी

कुछ गर्जन निज का, कुछ उस शक्ति की बंदगी॥

 

कहाँ से आया, कोई और जहाँ नज़र नहीं आता है

लगता यहीं कहीं था, किसी रुप या सुप्तावस्था में।

परिवर्तित कर दिया पुरुष देह में, कुछ चेतना संगी

छोड़ दिया जग में, कि जा व बजा अपनी दुंदुभी॥

 

वह देखता सब कार्यकलाप, कितनी शक्ति उसमें

फिर यह पता, कितने चूर्ण के साथ बनाया गया है।

वह कदाचित घड़-रचता है, एक सम तत्वों से सब

 पर विभिन्न प्राणियों में गुण-दोष डाले हैं अनुरूप ॥

 

सब व्यवहार करते हैं, अपने गुण-चेतन सामान से

उसी में उन्हें कुछ करने का, मिलता अधिकार है।

माना कि वृहद रूप में हैं, सबके कर्म एक ही जैसे

सूक्ष्म दर्शन से, विविधता-रोमांच भरे प्राणियों में॥

 

वो मदारी खेल देखा करता, कैसे खेल करते चेलें

पर मैं कहूँगा, कितना भला सिखाया गया है उन्हें?

पर कुछ गुणवत्ता, विविधता में भी डाली जा सकती

फिर तभी रोमांच तो, एक-जैसे न हो सकते सभी॥

 

पर खेल में तो हम हैं, आओ कुछ उछलें-उल्लासें

तन-मन रखें स्वस्थ, यह जगत-बगिया महका लें।

सीखें किंचित अच्छे दाँव-पेंच, दक्ष गुरु-निगरानी में

मिले समय को न्यूनाधिक, समर्थ-सार्थक बना लें॥

 

आया था बड़े अभिमान में, मैं ही वह श्रेष्ठ धनुर्धर

पर देखा चुनौती दुसाध्य, महारथी-समर में इस।

और कुछ ध्यान लगाया तो, हेंकड़ी पर हँसी आई

लघु सामान, ऊपर से मिथ्या-गर्व, अतिश्योक्ति॥

 

अनेक अभ्यासरत, निज के सबल-सफल निर्माणार्थ

नहीं कभी संतुष्ट ही स्वयं से, अभी जारी है अन्वेषण।

कैसे बैठे अलसाकर, जब जीवन मिला इतना अल्प

इसी को जितना जी लिया जाए, उतना ही है कम॥

 

सोचा था विजयी हूँगा, यह तो खेल बहुत है आसान

पर यहाँ सीखा-जाना, कितना था मैं यूँ मूढ़-अज्ञान।

हँसा मूढ़ता पर अपनी, क्यों यह है अभिमान व्यर्थ

उठो, कुछ बेहतर सीखो व स्व-दशा करो सक्षम॥

 

यहीं से उठा, यहीं रहा, व यहीं तो मिल ही जाना है

सब कुछ अपना यहाँ, और न कोई ही बेगाना है।

मैं तुझमें और तू मुझमें, सब कुछ तो एकरूपता है

किंचित व्यवहार-शैली में, शायद कुछ श्रेष्ठ हूँ मैं॥

 

क्या करूँ फिर स्वयं का, जब निम्न धरातल पाता

कुछ शिक्षण-यंत्र तो मिलें, पर गुरु नज़र न आता।

बहुत आँखों पर परदा है, पहचान करनी है प्रगाढ़

शायद गर्वित सब एक से, या औरों पर अविश्वास॥

 

गौतम बुद्ध में श्रद्धा बहुतों की, बनाया जीवन सफल

आनंद-उलूपी, तपस्सु-भुल्लिक, अनेकों हुए विरूप।

चलें उस विश्वास के साथ, कि कोई है संगी-सहायक

फिर बिन तजे कुछ लब्ध नहीं, यह लेना-देना संबंध॥

 

कुछ विलम्ब से सही, आओ अब कुछ अच्छा कर लें

छोड़ प्रगल्भ-प्रवचन, काल का कुछ आदर करे लें।

प्राप्त यह वर्तमान स्व-वश, आगे का पता नहीं कुछ

सीखो-बनो कुछ, संपूर्णता- सार्थकता साथ लें हम॥

 

'आप मरे ही जग-प्रलय', अतः प्रतिक्षण सफल बनें

अन्यों में भी निज स्वरुप देखें, सदैव हेतु साथी बनें।

जीवन-कला सीख, रचें अनेकानेक उत्तम सी कृति

वरन लगेगा व्यर्थ ढ़ोया भार, खाली ही रही दुंदुभी॥


पवन कुमार,
13 मई, 2014 समय 23:25 बजे म० रा० 
(मेरी डायरी दि० 9 मई, 2014 समय 8:40 प्रातः से)


Sunday, 11 May 2014

नींद का सफ़र

नींद का सफ़र 


आँखों में शयन हेतु, निद्रा पूरी तरह से है छाई

तथापि गहन मन-इच्छा, कुछ लिख डालूँ ही॥

 

दरअसल अभी लाइट बंद ही करने वाला था

कि अंतः-तमस ने अनायास ही है जगा दिया।

जीवन कैसे बीत रहा है, मालूम पड़ता न कुछ

सुबह-शाम के चक्कर में, बीत रही यह उम्र॥

 

ऑफिस से घर या उल्टा, जीवन-सफ़र दर्शित

इस जिंदगी का कुछ अर्थ भी, कोई नहीं सुध।

या तो ऑफिस- कार्य करता, या कुछ हूँ पढ़ता

कुछ बैठ-सोचकर भी लेखन समय न हूँ पाता॥

 

फिर मैं क्या करूँ, बस किंकर्त्तव्य-विमूढ़ हूँ सा

प्राण-मंज़िल पहचान में निज असमर्थ सा पाता।

दूजों द्वारा विषय न समझने पर, खीज़ सी होती

पर क्या मैं इस स्वयं को ही, समझ पाया कभी॥

 

क्यों छोटी बातों पर, अपना मन दुःखी करते हो

कुछ अपूर्ण- आशाओं हेतु, क्यों छटपटाते हो?

जीवन ऐसे न वरदान, व्यर्थ- शोक में ही बिताऐं

कुछ क्षण निश्चितेव, आनंद-सुख के भी चाहिए॥

 

बुद्ध-सिद्धान्त है, कि दुःखों का कारण ही इच्छा

आत्म-नियंत्रण करो, व्यर्थ-शोक में दिल न दुखा।

सुखी होओगे तब, जब मन अंतः से होगा निर्मल

तब खुद को समझोगे, दूजों को भी दोगे आदर॥

 

उषा का विचार आता, तो जाता है मन अति-क्षुब्ध

कितनी घबराई सी लगती है, वह टेलीफोन पर।

जैसे तो अभी रो ही देगी, और मैं बस हूँ समझाता

कि ऐसा भी कभी होता है, ऐसा न चाहिए करना

फिर परिस्थिति जैसी भी हों, हमें करना सामना॥

 

दोनों स्थानों के मध्य दूरी भी, तो बहुत अधिक है

और हमारा परिवार भी तो, बड़ा छोटा सा ही है।

मात्र दो ही अन्य प्राणीजन हैं, मेरे यहाँ के सिवाय

क्या मेरी अनुपस्थिति, उन्हें नहीं करेगी व्याकुल?

 

फिर कोई रास्ता भी न, समय बिताना ही पड़ेगा

सिर पर जब बला पड़ी है, तो बजाना ही पड़ता।

यहाँ किसे शिकायत करें, मामला है खुद का ही

पर ये जिम्मेवारियाँ सब सहन-विवश कर देती॥

 

कल ही फोन पर मेरी बिटिया सौम्या से बात हुई

उस समय वह दूरदर्शन का प्रोग्राम देख रही थी।

उसके मीठे बोल सुन मानो स्वर्ग-सुख गया प्राप्त

फिर वही है तो मेरी सच्ची जिंदगी का अहसास॥

 

वास्तव में मैं उनका, और वे मेरे ही पूरे हिस्से हैं

वे मुझमें और उनमें, पूर्णतया ही समाहित हूँ मैं।

यहाँ किंचित भी किसी विलगाव की बात नहीं है

बस हृदय को समझाने का एक बहाना चाहिए॥

 

वैसे यह मील-पत्थर दौर भी, हो जाएगा तब पार

फिर तुम उनके और वे होंगें, पूर्णतया तेरे साथ।

फिर पुनः होंगी पहले सी स्नेह, प्रेम-प्रणय की बातें

जीवंत हो उठेंगी शयनित-दिवस, व रंगीनी रातें॥

 

मैं यहाँ वैसा नहीं हूँ, जो अनुभव ही न कर सकूँ

ऐसा कौन सा दर्द है उनका, जिसे जान न सकूँ?

चोट तुम्हें उधर लगती, पर दर्द इधर होता जान

फिर तुम कैसे कहती हो, कोई नहीं है परवाह॥

 

विश्वास तो करो, मैं पूरे का पूरा तुम्हारा ही हूँ

फिर तुम्हारी चिर निहित स्मृतियों में ही तो हूँ।

फिर कैसे ही सोचती हो, कि बड़ा दूर हूँ तुमसें

यहाँ 'आँख से दूर, मन से दूर ' सूत्र न है चले॥

 

माना मैं इस नींद-प्रवाह में, बहुत नहीं हूँ चेतन

फिर जैसे चाहती, लिखवा लेती यह है कलम।

किंतु ऐ कलम!, बड़ी शिकायत है मुझे तुमसे

क्यों तुम बहुत स्फूर्ति जगाती, नहीं हो मुझमें॥

 

फिर मैं हूँ ही क्या, तुम्हारी संगति से विहीन

पर काल बीता तो, कुछ शेष न होगा समीप।

और बस इस कागज-पटल स्थित स्मृतियाँ ही

वे ही तो मेरी चिर विरासत, बनी रह पाऐंगी॥

 

फिर इस जीवन में, कब वह समय मिलेगा

जब कुछ महान कार्य, संभव होने लगेगा ?

चेतो भाई, यही समय है कुछ करने-पाने का

सचेत हो अंतः-विद्या सरस्वती को तो जगा॥

 

फिर खोलो स्व ज्ञान-रंध्र व तृतीय शिव-नेत्र

तभी जाकर होगी तुम्हारी आराधना सफल।

 

आराधना क्या है इसका अर्थ तो समझ में नहीं आता। जीवन को सफल बनाने व इसके परम-तत्व को समझने के लिए जो शक्ति, चिन्तन या समय लगता है, वह शायद आराधना है। जीवन में आगे बढ़ने का सबसे उत्तम उपाय है इस मन को ढृढ़ रखना, निर्मल रखना और नित को पहचानना। फिर सार्थकता तुम्हारे पास ही होगी।

 

ऐ भाई, आका ! मन-प्राण व कार्य-स्वामी बनो

स्व-विजयी हो, मन-ढृढ़ता का अहसास करो।

न कहता बस संज्ञा-शून्य, सवेंदनहीन हो जाओ

बल्कि विषय शुभ-परिप्रेक्ष्य दर्शन शुरू करो॥

 

जब देखना सीख जाओगे, जाओगे बोलना भूल

इसका अर्थ, अपने अंतः की ओर होना आकृष्ट।

वह परम स्थिति होगी, तप -मौन -व्रत -जप की

और फिर तुम एक-मौनी हो जाओगे स्व में ही॥

 

किंतु इस मौन का है अपना एक अनूठा ही सुख

इसके अभ्यास से निज के, बनते हो अच्छे मित्र।

अन्यथा भी कई दुख-संचालक विवादों से बचोगे

मात्र आवश्यक-परमोचित स्थितिपरक बोलोगे॥

 

वह चिर ऊर्ध्व संतोष की ही चरम स्थिति होगी

जो शायद सबका समुचित अपेक्षा-लक्ष्य है भी॥


पवन कुमार ,
11 मई, 2014 समय 18:16 सायं
(मेरी शिलोंग डायरी दि० 2 फरवरी, 2001 समय 12:05 म० रा० से)

Thursday, 8 May 2014

मेरे मनमीत

मेरे मनमीत 


ऐ मेरे मौजी मन, तू बन जा मन का मीत

पुलकित हो जाऊँ, सुन तेरा मधुर संगीत॥

 

तेरी संगति में तो मुझे है, आनंद ही आनंद

बन जाता हूँ कन्हैया, व तू बाँसुरी की धुन।

मन में हूकें उठेंगी, मिलने की मनमीत से

और जाग उठूँगा, इच्छा से तुमको मिलने॥

 

मेरे मन, क्यूँ अब तक दूरी का है आभास

तू मेरा व मैं तेरा, तब भी दिल क्यूँ उदास?

जब निराश तो लगता, सारा जहाँ है उबास

साथ यदि तेरा मिले, तो हर क्षण उल्लास॥

 

मन का तू प्रणेता, मीत भी फिर बनता जा

भरकर ढ़ेर उमंगें, जीवन हर्षित करता जा।

बसते एक दूजे में हम, दूरी नज़र नहीं आती

मधुर गीत गाने से, छवि चहुँ ओर दिखती॥

 

अहसान होगा मुझ पर, पहचान करा जा

कान हैं तरस गए, एक प्रेम-धुन सुना जा।

इस दिल की आशा, कथा मेरी सुनता जा

कुछ क्षण सुख के भी, दर्शन कराता जा॥

 

बिन तेरे कुछ नहीं मैं, मुझको तेरी तड़पन

मिलन-आस मन में, मुझमें ऎसी धड़कन।

क्या जग-बात करें, निज ही नहीं होती अंत

 कैसे होगा गुजर हमारा, इसी में बीते समय॥

 

कालातीत हो जीवन, स्पंदन इसका संगी हो

धड़कनें बनें मीत, हर क्षण प्रसन्न- चित्त हो।

कार्य होवें कुछ ऐसे, जिन पर गर्वानुभूति हो

फिर पट जाये सब दूरी, ऐसी एक दृष्टि हो॥

 

सुंदरता मन में देखूँ, आ जाए आचरण में भी

ख़ुशी मात्र निज ही न, ध्यान हो दूजों का भी।

विश्व में न होती मित्रता, ऐसे ही किसी से भी

अंतरंग समझोगे, कुछ हो अहसास उन्हें भी॥

 

मन में समपर्ण-भाव, ईर्ष्या-द्वेष का काम क्या

ऐसी भावना से हम, जीवन महकाऐं सबका।

तब होगा 'आत्मवत् सर्व-भूतेषु ' का सुप्रयोग

मन-प्रतिष्ठा शिखर पर, गुण-कारण ही निज॥

 

मैं उन जैसा वे मेरे जैसे, भेद विचारों का बस

कहीं वे या मैं जरा भारी, क्या यह भी अंतर?

फिर क्यों मात्र शिकायतों का पुलिंदा बनें हम

व्यर्थ मन-दुखाऐं क्यों स्वयं व अन्यों का हम?

 

कई श्रेष्ठ काम शेष, क्यों अनुपयोगी पर ध्यान

अच्छी सौदेबाजी न यह, चीजों की न पहचान।

प्राथमिकताऐं पहचानोगे तो सब जान जाओगे

यदि स्वयं-मित्र बनो, बाह्यों से अधिक पाओगे॥

 

माता सरस्वती की, विवेक से आराधना करो

वही सहायक होगी, पहचानने में मंजिल को॥


पवन कुमार,
07 मई, 2014 समय 23:59 म० रा० 
(मेरी शिलौंग डायरी दि० 20 फरवरी, 2001 समय 12 :52 म० रा० से )