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The postings in this blog are purely my personal views, and have nothing to do any commitment from Government, organization and other persons. The views in general respect all sections of society irrespective of class, race, religion, group, country or region, and are dedicated to pan-humanity. I sincerely apologize if any of my writing has hurt someone's sentiments even in the slightest way. Suggestions and comments are welcome.

Saturday, 29 March 2014

पकड़ जीवन की


पकड़ जीवन की 


समझो, समझो, समझो, समझो कुछ तो मेरे भाई

कैसा होगा ऐसे ही सब, जब नहीं की कोई कमाई?

 

एक-२ पल देखो, तुमने उत्तम ढ़ंग से है ही बिताना

पर खो दोगे उसको तो फिर, क्या होगी ही कमाई?

जीवन तो बीतता जा रहा है, अपनी त्वरित गति से

क्या पकड़ने की भी कोशिश, करके तुमने दिखाई?

 

क्या पुस्तकें ही खुद में तुम, पढ़ते सदैव रहते हो

क्या उनसे तुममें भी, कुछ समझ ही आया भाई?

उन्नति इतनी भी न आसान, जितना तुम समझे हो

खपना पड़ता निश-दिन, नहीं चलते किले हवाई॥

 

बीमार मन के स्वामी हो, तो है अति विषाद स्थिति

स्वस्थ करो तन-मन, चाहे पीनी ही पड़े कटु दवाई।

समय तेरा, तुम समय के, ऐसा सामंजस्य बना लो

कालातीत हो तुम, ताकि रह न जाये कोई कहाई॥

 

बहुत विकट है जीवन, इसको थोड़ा सरल बना लो

कटे पापों से फंदा इसका, और रहने सको रिहाई।

कुछ अहसान खुद पर भी, कर जा अपने चलन से

स्वयं को निज अनुरूप बना जा, ओ मेरे प्रिय भाई॥



पवन कुमार, 
29 मार्च, 2014 समय 10 :50 प्रातः 
(मेरी शिलौंग डायरी 11 जनवरी, 2000 से )

Friday, 28 March 2014

कुछ कामना


कुछ कामना 


मध्य-रात्रि का समय है, निस्तब्धता का आलम है, व आँखें उनींदी हैं। कमरा ऊष्म रखने हेतु चल रहे ब्लोअर का शोर है। शायद अन्य दिन होता तो सो जाता लेकिन मन ने कहा कि डायरी उठाओ और कुछ लिखो। लिखूँ क्या, यह तो नहीं जानता लेकिन शायद जो लिखता हूँ क्या वह पूर्व-लिखित दुहराने जैसा ही तो नहीं होता? अगर होता भी तो क्या, दुहराने से स्मृति और परिपक्व हो जाती है। अतः बुद्धि लगाओ कुछ अच्छी बातें करने में। अगर नया हो तो सर्वोत्तम, अन्यथा कुछ पुराना-स्मरण ही करो क्योंकि यह लेखन ही तुम्हें पूर्णता की ओर ले जाने का साधन बनेगा।

 

मैं स्व-लुप्त हूँ नर, निज राह ढूँढ़ता थोड़ा सा विचलित॥

 

भ्रमित क्योंकि राह न जानता, दुःखित क्योंकि हूँ भ्रमित

फिर क्या विश्रांति-उपाय, मनन तो राहत मिले किंचित॥

 

नववर्ष है आया पर न वार्ता, या अनेकों को ही शुभाकांक्षा

अन्य-संग हर्षित, सत्यानंद, पर सर्वार्थ व महत्तर कामना॥

 

पर क्या कामना से ही सर्वोत्तम, निश्चय से तो पूर्ण तरह न

मंशा निश्चित भली, बस जरुरी है जग-सुंदर निर्माण-यत्न॥

 

वर्तमान में क्या कर रहा, या बस सरकार से वेतन पा रहा

या परिवेश-भोजन बन गया, या और भी दूषित कर रहा॥

 

आत्म-मुग्ध उत्तम दशा न, यत्न अन्यों को भी प्रसन्न बनाना

यदि बस यूँ खुद में डूबा, तो ज़माने में मेरी क्या सार्थकता?

 

प्रश्न महद, उत्तर चाहिए। करो विचार, पर अब सोना चाहिए॥



पवन कुमार, 
28 मार्च, 2014 समय 10 :44 रात्रि 
(मेरी डायरी शिलौंग 8  जनवरी, 2000 समय 12 :45  मध्य रात्रि से)

Thursday, 27 March 2014

मेरी चाह

मेरी चाह 



जीवन तो अति विशाल है, लघु क्यों है बना फिर

स्मृतियाँ अनेक मन में हैं, कलम क्यों शांत तब?

 

अन्याय इतना चहुँ ओर व्याप्त, फिर मैं खामोश हूँ

अंधकार अत्यंत गहन है, और मैं ज्योति में ही रहूँ।

कितने ही जीवन कष्ट में हैं, और मैं बड़ा सुखी बनूँ

अनेक तो बेचारे अपढ़ हैं, मैं खुद को विद्वान कहूँ॥

 

अनेक सिकुड़े पेट भूखे हैं, और भोजन व्यर्थ करूँ

कितने ही तन नग्न हैं, व मैं वस्त्र-अपव्यय करूँ।

कितनी ही विभीषिकाऐं जीवन में, व मैं हूँ चुपचाप

न कोई स्पंदन-अहसास ही, बस मुर्दा हूँ शायद॥

 

इस एक मुर्दे शहर में, मैं हूँ शायद अधिक ही मृत

वरन क्या खड़ा न होता, मिटाने जगत के ही दर्द।

क्या कहूँगा खुद को, मैंने भी कोई जीवन है जीया

 या यूँ ही समय को गँवाया, और बालों को पकाया॥

 

क्या उत्तर दोगे भावी- पीढ़ियों को, कुछ न किया

झूठ दूजों से कुछ बोल दोगे, कि प्रयास है किया।

लेकिन स्वयं को कैसे कह सकोगे, वे विषाण शब्द

क्योंकि खुद की सत्यता तो, भली जानते हो स्वयं॥

 

साधन-अभाव हैं, पर क्या कोशिश खोजने की हल

चहुँ ओर के मनुजों में, गुणवत्ता फूँकने का है यत्न।

या स्वयं को, बुद्ध अनुरूप तपस्या-साँचे में है ढ़ाला

या फिर जीवन से, कुछ निष्कर्ष का कष्ट है किया॥

 

जब सकल जग प्रगति-पथ पर है, क्यों रहोगे पश्चग

'सापेक्ष गति' है एक भाव, समझो तो कितना अंतर।

फिर क्या होगी ही तेरी दशा, मुकाबला भी बली से

ये प्रजा-जन तो तुम्हें, उसके योग्य भी न समझेंगे?

 

हमारा भारत देश महान है, लोग न थकते गाते यश

पूर्वज-ज्ञान व निज सभ्यता-चर्चे, कुछ हेतु हैं राहत।

वह शायद विश्व की प्रथम एक, विकसित है सभ्यता

लेकिन उसी महान राष्ट्र को, आज क्या हो है गया?

 

इसके अंदर-बाह्य अनेक दोष तो, जानते हैं विद्वान

और कुछ कारणों का तो, मुझे स्वयं भी थोड़ा ज्ञान।

अनिवार्य है वर्तमान-भविष्य पर, चाहिए नजर होनी

कब तक यूँ गर्व करोगे, फिर मात्र भूतकाल पर ही?

 

बहुत दोष लिप्त हैं निकृति-अकर्मण्यता-अत्याचार,

तंद्रा-असमता के, फिर कैसे अपेक्षित राष्ट्र-उध्दार?

क्यों आज भी बहुजन, सवैंधानिक अधिकार-वंचित

व अत्याचार-पीड़ित, कभी तो प्रतीत शासन-मूक॥

 

किस-२ नाम से अत्याचार व विभेद होगा, लोगों पर

कब तक नकारोगे बुद्धिमता-योग्यता और परिश्रम?

शंबूक-एकलव्य-कर्ण इत्यादि, अनेक ही उदाहरण

जिनको ठगा गया है, बिना बात के बहाने बनाकर॥

 

आज भी बहु-विषमता व्यापक, जाति-धर्म नाम पर

क्यों लोग दोषार्पण करते, अतीव कृत्रिम मुद्दों पर?

प्रश्न यह न कि कुछ का, योग्य-बुद्धिमान होना अति

बल्कि कैसे शीघ्र सबको ही मिले, सम्मानित स्थिति?

 

जब साध्य सकल मनुजता, होगा तेरा विवेक साधन

सर्वत्र समृद्धि होगी, जन्में गांधी-सुभाष-भीम-वल्ल्भ।

सबको प्रगति-अधिकार, अनुभूति लोगों को दिलानी

श्रद्धा मन में जगानी, बावजूद अवरोध प्रगति करनी॥

 

अतः स्व-अंतः में झाँकने की एक प्रवृत्ति है ही डालनी

व्यर्थ संवाद-विवाद, अन्य-बुराई में शक्ति नहीं गँवानी।

 

तब कह सकोगे, सार्थक-निर्वाह की मैंने कोशिश की

जीवन-लक्ष्य अन्वेषण में भी, होगे फिर सफल-अति।



पवन कुमार, 
27 मार्च, 2014 समय 00:03 मध्य रात्रि 
( मेरी डायरी दि० 25.09.1999 समय 1:35 मध्य रात्रि  से )   

Sunday, 23 March 2014

सकारात्मक नजरिया -अपनी ताकत

सकारात्मक नजरिया -अपनी ताकत 


सुहृद राजीव ने कहा, शब्दों में है बड़ी जान

कहो कि चंगे हैं, न कि बस समय रहें काट॥

 

शब्द शायद हमारी मनोदशा का प्रतीक होते

जब ये कमजोर तो, हम भी निर्बल पड़ जाते।

अतः वचन सदा, शक्त-प्रेरक-आशावान बोलो

ताकि जीवन के प्रति भाव सकारात्मक ही हो॥

 

जब निज मान होगा, तब निकले उत्तम ध्वनि

फिर सदा अहसास रहेगा, इंसान हैं हम भी।

तुम क्यों अकारण दिल निज, लघु ही करते हो

एक सफल नर सम, सीधा खड़ा होना सीखो॥

 

जीवन में न कोई बड़ा होता, और न छोटा ही

स्वयं की सोच-गणना ही, उस श्रेणी में रखती।

अतः सु-उपायों से शक्य-तेजस्वी बना निज को

सदा उचित-सार्थक शब्द ही, इस्तेमाल करो॥

 

झुक कर चलने से तो, कमर पूरी ही झुक जाती

अतः नित सीधा खड़ा होने की, आवश्यकता ही।

दुनिया तो साथ देती है, सदा आशावानों का ही

निराशावादियों को तो मिलती, बस हमदर्दी ही॥

 

अतः क्यूँ न खड़ा हो, अचूक-साफल्य इच्छा रखें॥



 पवन कुमार,
23  मार्च, 2014 समय 11:09 रात्रि 
(मेरी डायरी दि०  23.07.1999 समय 11:48 रात्रि ) 

Saturday, 22 March 2014

दर्शन

दर्शन 


मेरी इन चक्षुओं से तू, अज्ञान का पर्दा हटा दे

और मुझको निज सच्चिदानंद-स्वरुप दिखा दे॥

 

इस सुख-दुःख के दौर में तो, जीवन यूँ कटता

मैं तो कदापि ना, स्व को ही कुछ समझ पाया।

यदा-कदा यत्न भी किया तब अंतर्मुखी होने का

किंतु बस सतही धरातल पर घिसरते ही पाया॥

 

मैं नहीं जानता, कितना है मेरा यह हृदय गहरा

बस इतना कहूँ, ऊपर बस जल समतल पाता।

विशालता या कहूँ लघुता, इनका नहीं ज्ञान मुझे

फिर जीवन कैसे चलता, यही बड़ा आश्चर्य है॥

 

मेरी अत्यल्प ही होती, स्व-विषयों में उत्सुकता

बाह्य-अध्यायों में ही यूँ, समय व्यर्थ सा बीतता।

निज सीमाओं का न ध्यान, न बनी कोई सारणी

न सोचा उत्तम लक्ष्य, न लक्ष्मण- रेखा ही बनी॥

 

क्या यहाँ थाह बूते की, और क्या थाती है फिर

या यूँ इतराता मात्र बुलबुलों सा ही क्षण-भंगुर।

न जानता कितने समय का, जीवन-जग में इस

व दीर्घ यापन-काल पश्चात, ग्रास बनता एक॥

 

मैं इस समस्त प्रक्रिया में कितना हुआ हूँ प्रगाढ़

कितना मैंने स्वयं को ही किया है शक्ति-संपन्न।

शौर्य या कहो क्षीणता, इनका नहीं मुझको भान

शायद पड़ा पत्थर सा धरातल पर बने हुए भार॥

 

एक अंजान पीड़ा का, कभी-२ होता है अहसास

और नहीं समझ पाता कि क्या है इसका कयास?

तब अतीव निकृष्ट-हताशा की सी अनुभूति होती

अंजान कि क्यूँ न मुझमें, स्पंदन न होता है कोई॥

 

एक सद्चित-अमिताभ स्वरुप रोशनी में भी तेरी

क्यूँ मुझ एक अनेत्र-पथिक को राह है न मिलती?

देखने को तो शायद, तूने दिए हैं उपकरण सभी

लेकिन मुझ दुर्मति को प्रयोग न आता करना भी॥

 

जीवन-उत्कृष्टता फिर क्या, और कैसे है मिलती

क्या निकट हैं कोई विधियाँ, जो काज हैं बनाती।

शायद ऐसे अनेक उपाय, प्रयोग करते हैं महानर

तभी तो कुछ ने असीम प्रतिभा करी है विकसित॥

 

तेरी शीतल तरु-छाँव का हूँ, एक मैं क्षुद्र-ग्राहक

पथिक जो अपने गंतव्य से भटक सा गया बहुत।

प्रार्थना कुछ राहत पहुँचा, फिर गति-प्रेरणा तू दे

व इस जग-प्रक्रिया में, कुछ कला-अदाकारी दे॥

 

प्रदत्त जीवन में, जीवंतता का अहसास तू भर दे

और अपना कुछ तो असीमता-अंश ही दिखा दे।

मेरी अपनी यदि आँखें हैं, उनको खोल तो जरा

अगर न भी तो, किसी भाँति आत्म-मिलन करा॥

 

इस क्षुद्र बीज को भी तू, एक तरु-पादप बना दे

जल-ऊष्मा व ध्यान से, मुझे भी विराट बना दे।

फिर मैं शायद तुम्हारा ही लघु स्वरुप बन जाऊँ

और तेरी प्रगति-राहों में नित चलता ही जाऊँ॥



पवन कुमार ,
21  मार्च 2014 समय 11:50 बजे म० रा० 
(मेरी शिलौंग डायरी दि० 19 जनवरी, 2002 से )
  

Friday, 21 March 2014

जीवन सार्थकता


जीवन सार्थकता



कैसे सुलेख लिखूँ, बस इस नींद में ही झूमूँ

 क्या करूँ समुचित, बस इसी उलझन में हूँ॥

 

जीवन तो बीता जा रहा, और मैं सो ही हूँ रहा

कैसे कटेगी आयु ऐसे, यह सोच न हूँ पा रहा।

 क्या यह इतना सस्ता, यूँ ही बिता जाए दिया?

या फिर जीने का, कोई सलीका भी आएगा॥

 

बहुत भावुक होकर शब्द ये लिख पा हूँ रहा

क्यों न कर्मयोग-सिद्धांत, अनुकरण हो रहा।

अहसास क्यों न होता, मैं अलाभ में हूँ शायद

और क्यों अधो स्थिति की, अनुभूति होती न॥

 

बस सोना ही जीवन, या कुछ आगे भी बढ़ना

क्या आत्म-वंचना के अलावा, और भी पाना?

तो क्यों न तय करते समय, स्व-उद्धार हेतु भी

 तब गुनगुनाओ, अट्ठाओ या ग़मों संग रो लो ही॥

 

बात बड़ी हो करते, परंतु कर्म तो महान नहीं

साथ मन-कर्म भी जोड़ो, तो सार्थकता होगी।

जीवन के वक्र-पथों में, कुछ निस्वार्थ-क्षण ढूँढ़

अन्यथा लगेगा कि, कभी समय मिला है ही न॥

 

दुर्भाग्यपूर्ण होगा वह पल, जब होवोगे रिक्त

जब उपलब्ध न पास समय-ऊर्जा, बल-बुद्धि

और शायद लिखने हेतु, ताज़ा याद भी नहीं॥

 

मनुष्य बड़ा भुलक्कड़, अतः है आवश्यकता

कि हर क्षण को अक्षर-कैद कर जाए लिया।

हर पल को अपने, पूर्ण रूपेण लिया जाए जी

ताकि कोई हसरत न रहे, हम जिए ही नहीं॥

 

महानर तो संग हैं, पठन-मिलन-वार्ता से कुछ भी

पर उनकी क्षमता, मुझ स्वयं में तो विकसित नहीं।

शिव खेरा निज कृति 'You Can Win' में हैं बताते

तथापि प्रभाव उसका, पढ़ते हुए तो रहता ही है॥

 

फिर मैं क्या हूँ, अवलोकन तो न आजतक हुआ

परिभाषा-यत्न किया भी तो, पर समझ न पाया।

किंचित इस आत्म को, कुछ ज्यादा न हूँ जानता

अतः अन्य सूचना-तंत्र पर ही मात्र निष्ठा करता॥

 

तथापि यह जीवन-लाभ, वरदान को सहेज लें

और उसे एक निष्णात सम समुचित प्रयोग लें॥



पवन कुमार,
20 मार्च, 2014 समय 12 बजे म० रा० 
(मेरी डायरी दि० 13.04.1999 से )  
  


Thursday, 20 March 2014

एक इच्छा

एक इच्छा 


क्यों नहीं मैं इस मन को मथ ही पाता

 झाँककर इसकी गहराई समझ पाता?

 

क्यों है सूक्ष्म इसके सोचने का आलम

क्यों न किसी गूढ़ चिंतन में रम जाता?

 

चिंतन क्या है, इसी परिभाषा में तो डूबा

 क्यों न कदम शुरुआत के बढ़ा हूँ पाता?

 

पंछी- मानिंद उड़ने की क्यों न कोई चाह

 क्यों न निज को एक विद्वद्जन बना पाता?

 

एक नाम होता है चिंतक और मन्मथ दास

पर अपने को उन-अनुरूप न बना पाता॥

 

तो ले ही लूँ सहारा मैं, जगत-मनीषियों का

निज को उनका ही राह-पथिक सा पाता॥



पवन कुमार,
20 मार्च, 2014 समय 18:13 सायं 
(मेरी डायरी दि० 07.12.1998 से ) 

नया सवेरा

नया सवेरा 


ऐ मेरे मन, तू कुछ सुरीला- मधुर गा तो ले जरा

कभी ना हो कोई, रुक-बैठने का तेरा माजरा॥

 

चलने में रहे इच्छा, न थमकर कभी बैठ जाने में

हरेक से प्रेम-रिश्ता, सदा मिल हँसकर सभी से॥

 

लगन-श्रम दामन न छूटे, कोई स्वप्न न रहे अधूरा

रात में बहु-ख्वाब जगें, पूर्णता हो भरपूर तमन्ना॥

 

आगे बढ़ना ले लो संग, विवेक आए मन में बहुत

 कभी न भूलूँ कर्त्तव्य, सदा बढ़ता चलूँ सत्पथ पर॥

 

माँ शारदा की अनुपम कृपा, गुह्यों का जानूँ रहस्य

अगर ज्ञान उनका हुआ, फिर नया सवेरा है नित्य॥

 

सब ओर के भय मिटा, मानवता नर-निकट लाऊँ॥



पवन कुमार, 
20 मार्च, 2014 समय 10:44 प्रातः 
( मेरी डायरी दि०  22.02.1999  से )

चलना ही जिंदगी


चलना ही जिंदगी 


आज फिर था देखा ध्यान से, उस शख़्स को

हमेशा सी वही बोझिल आँखें व थकी बाहें॥

 

सदा कुछ सोच रहा, वह फालतू दुनिया हेतु

पर यदि पहचाने मैं वह न, जो जमाना सोचता

बन जाए एक बल, जिससे जग झुक जाएगा॥

 

फिर हम हैं ही क्या, सिवाय अपनी सोच के

या फिर वे हैं, जो दूसरे हमें निर्धारित करते।

परिस्थितियाँ भी महत्त्वपूर्ण, निश्चित करने में

लेकिन प्रभाव निश्चित ही बहुत महत्त्वपूर्ण है॥

 

फिर परिस्थितियाँ भी तो इतनी कमजोर नहीं

मुझे तो हर शख़्श, संपूर्ण नजर आता है ही।

दुविधा वह दूसरे पूर्ण से मिलकर नहीं जुड़ना

अपितु स्वयं जीतने हेतु ही लड़ जाना चाहता॥

 

पर जीतना तो वही, खुद पर हो भरोसा जिसमें

रुकना न जिंदगी में, चाहे कितनी बाधा आऐं।

जिंदगी यूँ ही न रुक जाती, किसी भी मोड़ पर

बशर्ते कि बगैर थके बढ़ता ही चला जाए बस॥

 

यदि चलते रहोगे तो, जरुर कुछ दिखेगा नव

पर नहीं चलना, कोल्हू के एक बैल की तरह।

तुम विवेक, श्रम, सच्चाई का छोड़ना न दामन

फिर देखना कि सारी विजय ही तो हैं निकट॥



पवन कुमार, 
20 मार्च, 2014 समय 10:08 प्रातः 
( मेरी डायरी दि० 05.10.1998 से )   

Tuesday, 18 March 2014

समरसता

समरसता   


त्रासद समस्त मानवता, और तू प्रगाढ़ है सोया

त्राहि-२ सर्वत्र व्याप्त है, ऐसे में तू खोया कहाँ?

 

क्या तुममें पीड़ितों को समझने की संवेदना है

और क्या समझकर कुछ करने की भावना है?

क्या कथन है तेरा, इस त्रस्त मानवता के लिए

सदा लेता रहेगा, या कुछ दे भी जायेगा फिर॥

 

सचमुच लोग बहुत दुःखी, विविध व्यवधानों से

पर सब जिम्मेवार न अपनी स्थितियों के लिए।

यह सामाजिक ढाँचा भी, कहीं अपराधी ज्यादा

क्योंकि इससे तो निर्बल अधिक सताया जाता॥

 

क्यों बहु भेद दैहिक- कर्म व मानसिक- कर्म में

क्या प्रथम को खटना ही, कुछ कम भूख लगे है?

क्यों न मापा जाता है उसका श्रम, बहु-मुद्राओं में

और क्यों नहीं वह जी पाता, आदर की जिंदगी में?

 

फिर कौन बतायेगा कि, किसको कितना चाहिए

मेहनत- औजारों को बहु-कुशल बनाने के लिए?

कौन भरेगा अर्द्ध- भूखे पेट व आवश्यकता-पूर्ति,

मुक्ति नंगे-पीड़ितों की, जो कुछ मांगने हेतु जीते?

 

'समता' का सिद्धांत तो, प्रकृति में उपलब्ध नहीं

छोटी मछली ही बड़ी मछली का भोजन बनती।

किंतु कैसा लगे जब होगी, ग्राह्य किसी मगर का

तो फिर अनुभव, एक निर्दय होना कैसा लगता?

 

तो ऐ दुनिया के मानवों !, सबको अपने संग लो

डार्विन-सिद्धांत को लोलुपता-बहाना न बनाओ।

कोशिश करो सब उठें, साधनों में बराबर भागी

उनमें भी जगे अनुपम परम विकास-अनुभूति॥

 

हम कितने महामूढ़, और वे कितने बुद्धिमान हैं

या कितने अयोग्य, व हम कितने युक्तिमान हैं?

क्यों यह पैमाना लगाते, जबकि तुमको भी ज्ञात

पूर्णज्ञान का कितना स्वयमेव जानते तुच्छ भाग?

 

किंतु निकटवर्ती के किंचित अधिक जानने पर

शायद तुम स्वयं में गौरान्वित अनुभूत करते हो

पर क्या यह संकेत न है मानसिक दासता का॥

 

तो मेरे भाई आओ !, सभी जनों को गले लगाओ

यदि ज्ञान है तुममें तो, सभी में दीपक जलाओ।

फिर अगर ज्ञान तुम्हारा, उनमें भी है समा जाए

तो शायद कुछ गौरान्वित होने का कारण बने॥



पवन कुमार,
18 मार्च, 2014 समय 11:07 रात्रि
( मेरी डायरी दि० 13.12.1998 म० रा० से ) 

Sunday, 16 March 2014

कुछ बातें

कुछ बातें 


कुछ तो मैं लिखना चाहूँ, पर समझ नहीं पाऊँ

लगता बस यूँ कहीं, अपना वक्त तो न गवाऊँ॥

 

बातें तो बहुत सी, जिनका हो सकता है जिक्र

पर यह नींद भी मुझे बाँहों में लेने को उत्सुक।

मस्तिष्क-कपाट भी, उतारूँ होने को पूर्ण बंद

और मेरे मन-आँगन में अँधेरा भरने को तत्पर॥

 

और ऊपर से निद्रा-रानी भी निराली बिलकुल

पहले आगोश में लेती, नचाती स्वप्नों में फिर।

कभी-२ व आजकल कुछ भयावह ख्वाब-दौर

और असहजता में घबरा सा जाता हूँ डरकर॥

 

प्रश्न है कि, क्यों स्वयं से ही भयभीत हो जाता

क्यों न मेरे आँगन भी, संग सुहाने सपनों का?

क्यों नित तड़पन है, निज आतंरिक-वेदना से

और न संभाल पाता, स्वयं को इस कंपन से॥

 

जितना सोचता, उतना फँसता ही चला जाता

गुनगुनाना तो चाहता, लेकिन बेबस हूँ पाता।

मन भी तो इतना अबोध न है, कि जाने नहीं

पर यह दिल तो राजा है, और मानता नहीं॥

 

पर यह पीड़ा भी तो कोई कमतर तो नहीं है

किंतु इससे बड़ा घाव व दर्द भी तो नहीं है।

क्या समाधान-हल संभव, क्या दवा इसकी

कोई उत्तम वैद्य मिलें तो, दाम लूँ किसी भी॥

 

परंतु तड़पना सा बन गया, कुछ नियति मेरी

नहीं तो फिर, ऐसी भी क्या थी बड़ी मजबूरी।

जितना है बिछुड़ना-विरह, उतनी बहु वेदना

मुख शायद न बोलें, पर क्यों दिल खामोश ?

 

मैं कोई खुदा तो नहीं, और न ही कोई दवा

पर इतना समझ ले, एक झोंका हूँ हवा का ।

तो जीवन सफल हो जाये, और तर जाऊँगा

न तो तेरे गम में बस, जिंदा ही मर जाऊँगा॥

 

कौन समझाऐं यहाँ फिर, कहीं गैर नहीं हैं

सब फिर अपने, अगर मन में मैल नहीं है।

पर नहीं ऐसा, सब इतना शीघ्र जाऊँ भूल

समय लग ही जाता, मैल को जाने मैं धुल॥

 

ये बंधन जटिल, आसान नहीं है कोई तोड़

इस तरह की बातों का हल नहीं है 'छोड़'।

कहाँ तक भागूँगा, कोई जगह भी तो नहीं

बस यूँ ही निरुद्देश्य भटकन फितरत की॥

 

डर-भावना-तड़प, ऑंखें मीचना कपोत सी

पर ये तो हैं भय-परछाईयाँ सच्चे दिल की।

फिर भय भी तो यहाँ किसी और से नहीं है

खुद का खौफ ही तो सर्वाधिक डराता है॥

 

पर यहाँ डरने से भी तो कुछ होने वाला नहीं

सकारात्मक दृष्टिकोण भी  जीने हेतु जरूरी।

क्योंकि यही सुभाव तो, हम सबको बचाएगा

इस दुष्कर डगर में भी राह यही दिखायेगा॥

 

निकल मौत-चंगुल से, जीवन की ओर बढ़ो

जिंदगी जैसी समक्ष आए, इसे जीना है तो।

डर निकालना होगा, बाहर आना ही पड़ेगा

 फिर खुलकर जीना ही पड़ेगा, जीना पड़ेगा॥

 

अहसान इतने तो, इस खुद पर तू करता जा

कि निर्मल-गर्व हो अपने को अपना होने का।

जीवन को इतना तो, सौम्य-कोमल जा तू कर

एक स्वच्छ-निर्मल परंपरा भी बनें अनुरूप॥

 

'उदाहरण' बन जा, न हो वचन-आवश्यकता

कर कार्य ऐसा, कि बन जाए स्वयमेव प्रेरणा।

बोलने से अधिक महत्त्व करने का, चलने का

 वही राह एक पथ बन जाती, चाहने वालों का॥

 

फिर तुम जिम्मेवार हो, खुद के 'स्वयं' के लिए

कर्त्तव्य निबाहो, जितना कर सकते कर जाओ।

राह कितनी भी कठिन हो, निकल पार जाओगे

पैर थकें, घुटने छिलें, बस चलते तुम ही जाओ॥

 

इस 'महाजीवन' से कुछ तो विराट सार निकालो

खुद को जरा फिर समेटना, व सँभालना सीखो।

अपनी उपलब्ध-ऊर्जाओं की मात्रा, सँवारो बहुत

उसको बदल दो, निज भरे-पूरे उद्देश्यों में तुम॥

 

फिर यह जीवन ही क्या है, व तुम्हारी भूमिका ही

नचिकेता से विवेकानंद तक के समक्ष प्रश्न ये हीं।

मैं स्वयमेव ब्रह्म या उसका अकाट्य अंश हूँ एक

विभिन्न प्रचलित लोक-मान्यताऐं हैं सन्दर्भ में इस॥

 

जगतगुरु शंकर 'अद्वैत' बतलाते, तो रामानुज 'द्वैत'

एक बोलता है जग माया, दूजा इसे कहता सजीव।

कबीर जग को माया कहे, पर व्यवहार भी सिखाए

पर ये तो सक्षम गुरु थे, मेरी क्या विषय-धारणा है?

 

यही प्रश्न हैं बड़े-२ कि, जग पर मेरा क्या प्रभाव है

क्या तुम प्रभाव चाहते या स्वयं प्रभावित हुए जाते।

पर तुमको भी, निज जीवन का दर्शन ढूँढ़ना होगा

जीवन को एक खेल न समझ, इसे जीना ही होगा॥

 

मनुज जन्म लिया है, थोड़ी पढ़ाई भी की उसपर

इन्हीं संसाधनों से स्वयं को, महान बनाओ फिर।

अपने को ठीक चलना सिखा, स्वयं-राह दिखाओ

खुद को कदापि जगत-अहसानों तले न दबाओ॥

 

महाजनों से लेकर सुप्रेरणा, मैदान में निकल पड़ो

यावत न मिले निश्चित गंतव्य, बढ़े चलो-बढ़े चलो।

महा-लक्ष्य ही जीवन का हो, ऐसा तुम करो मनन

तब मत चिल्लाना कौए ज्यूँ, व बनो धैर्यवान तुम॥



पवन कुमार,
16 मार्च, 2014 समय 3:09 अपराह्न 
(मेरी डायरी दि० 13.01.1998 समय 12:50 म० रा०)

Saturday, 15 March 2014

उसके प्रश्न और मेरे उत्तर

 उसके प्रश्न  और मेरे उत्तर 


उसने पूछा क्या करते हो, मैंने कहा क्यों पूछते

जब पहले ही निद्रागोश जाने की हूँ प्रतीक्षा में॥

 

सचमुच ही एक बहुत अद्भुत, अंदर की बात है

इस नींद और मस्तिष्क का एक घोर युद्ध सा है।

शरीर की थकान कहती है, कि मैं सो ही जाऊँ

पर मन और कहता, कि कुछ करके ही सोऊँ॥

 

चाहे उनींदी आँखें पूरी खुल भी न रहीं, तथापि

अवचेतन मन से एक क्रांति-कार्यवाही है जारी॥

 

उसने पूछा, मेरे भाई कि जीते ही क्यों हो ऐसे

जब चहुँ ओर अनेक लोग नित मरे जा रहे हैं।

मैंने कहा, समुचित मुक्ति हेतु ही तो जीता हूँ

ताकि मृत्यु बाद यह न लगे कि जिया ही नहीं॥

 

उसने पूछा, क्यों नहीं पढ़ते हो जीवन-पुस्तक

मैंने कहा कि ऐ भाई, करता तो हूँ बहु प्रयत्न।

पर हाथ से यह छूट जाती, पुनः यत्न हूँ करता

शनै पढ़-समझने का कुछ आदी हो जाऊँगा॥

 

उसने कहा, तुम कितना बचपना और करोगे

मैंने कहा, दुनिया में सब यहाँ बच्चे ही तो हैं।

संभवतया कुछ थोड़े कम हैं, और कुछ ज्यादा

और फिर क्या एक बच्चा होना, इतना है बुरा?

 

फिर उन बचपन की शोखियों का क्या होगा

काश ! मुझमें वह बालसुलभ रहती जिज्ञासा।

तब ज्ञान के मार्ग पर लगातार बढ़ता ही जाता

मैं स्पॉन्ज बन जाता, विद्या-द्रव सोखता रहता॥

 

उसने कहा, ऐसे क्यों विचारते से मौन बैठे हो

मैंने कहा, यह सीधा खड़े होने हेतु ही बैठा हूँ।

ताकि इससे फिर, और अधिक स्फूर्ति आएगी

और मैं जब सतत चलता- बढ़ता जाऊँगा ही॥

 

उसने कहा कि कभी अंतरिक्ष-सैर की है क्या

पृथ्वी-जहाज पर बैठ अनंत यात्रा-सुख लिया?

मैंने कहा कि भाई अभी मात्र सुना ही, काश !

आनंदित होता, यदि कुछ अनुभव कर पाता।

 

उसने कहा कि चलो, कुछ उत्तम बता जाओ

और फिर यदि चाहो तो, बेशक ही सो जाओ॥

 

तब मैंने कहा, भाई तुम यूँ प्रेरित किए जाना

इन हाथों से कुछ शब्द रोज लिखवाते रहना

ताकि मैं जी सकूँ अपना व बनकर तुम्हारा॥



पवन कुमार, 
15 मार्च, 2014 समय 11:27 बजे म० रा० 
(मेरी डायरी दि० 11.12.1998 से )