यह नितांत खाली सा समय है,
छटपटाता हूँ
स्वयं का सामना करने में कुछ
कतराता हूँ॥
मैंने इस 'जीवन' का, क्या से
क्या बना लिया
बढ़ना जो था प्रगति-पथ, शिथिल
कर दिया।
विचार जो होने चाहिए, एक
यौवनमय उमंग
मैंने एक तंद्रित-स्थूल,
मंद-बुद्धि में ला दिया॥
क्या इतना आसान है, स्वयं की
खोज करना
और क्यों व्यर्थ ही,
निरुद्देश्य बीतता हूँ जाता?
क्यों अंतः-आंदोलन, स्वयं पर
विजय न करते
उनमें से तो कुछ ठोस बात
निकलनी चाहिए॥
'आंदोलन' है भी या
नहीं, सभी कुछ अज्ञात सा
ऐसी बातें करते ही, अमूल्य
समय है निकला।
राह तो बन ही न पाई, लक्ष्य
भी है अचिन्हित
तो क्या यह जीवन नाम,
संज्ञा-शून्य है केवल?
तो फिर क्या यह 'जीवन-विचार'
होना चाहिए
'जीवन'
क्यों-कैसे-कब-कहाँ पथ होना चाहिए।
थोड़ा-बहुत क़ुछ पढ़ा, हूँ मूढ़
बावजूद उसके
जीवन एक मिसाल, स्वयं-सिद्धा
होना चाहिए॥
अपने इस अंतः 'आत्म' की तो
पहचान करनी है
इसकी खोज ही तो, प्रथम
प्राथमिकता चाहिए।
किंतु चिंतन ही न करता, एवं
शीघ्र थक हूँ जाता
विश्व के ज्ञानी-पुरुषों से
भी, शिक्षा नहीं ले पाता॥
विवेकानंद कहते, स्वयं को
निर्बल समझना तो
वीरता न हो सकती, पर क्या
बिना समझे स्वयं
क्या नहीं यह एक व्यर्थ
गर्व-अतिश्योक्ति बस?
मैं तो खुद को अभी
दुर्बल-मंद प्राणी हूँ मानता
जो इस दुनिया की भूल-भलैया
में खो सा गया॥
क्या स्वयं का रिक्तता ज्ञान
व ग्राह्य-शैली बनाना
क्या न देता, जन्म
नव-सम्भावनाओं की रचना?
जब खाली होते, तो पूर्णता
स्वयमेव आने लगाती
क्योंकि गति बस पूर्ण से
न्यूनता की ओर होती॥
तो जब खाली हूँ, सकल गुण
मुझमें आने लगेंगे
पर 'सेफ्टी -वाल्व' तो लगें,
अवाँछित-रोध हेतु।
तभी मेरी व सबकी प्रगति,
उत्तम दिशा में संभव
तब न कोई दिग्भ्रांति होगी,
न ही शोक अंतः॥
क्या विद्युत्
मस्तिष्क-तरंगें हैं, व उनका उद्देश्य
अगर उनमें कुछ उत्तम भी, तो
गतिमान क्यों न ?
यदि चलायमान भी, तो मुझमें
क्यों नहीं चेतना वह
'पूर्ण-चेतना' ज्ञान
ही शायद, है जीवन-मूल परम॥
थॉमस एडीसन लिखते हैं कि
उन्होंने व साथियों ने
छः वर्ष सप्ताह में ७ दिन,
१८ घंटे रोज कार्य किया।
शुरू में थकान थी, किंतु नर
नींद को ४-५ घंटे तक
सीमित कर सकता है, क्षमता
नहीं होती कोई क्षीण।
किंतु उस हेतु प्रबल विचार-
शक्ति, आत्म- विश्वास,
संयम व एक उत्तम लक्ष्य की
आवश्यकता होती है॥
एक अर्जुन-नाम 'गुडाकेश',
अर्थ है जीना बिना नींद
'लक्ष्मण' के विषय में
ज्ञात, वे १४ वर्ष तक सोए ही न।
तब ऐसी क्या ग्रंथि, जो
तुम्हें अग्रसर होने से है रोकती
प्रथम स्व-विश्वास करो, तब न
कोई आवश्यकता भी॥
मानवीय शक्ति अथाह है , हम आजतक इसकी सीमायें खोज ही नहीं पाए ! हम जो चाहें कर सकते हैं बस संकल्प और इच्छा शक्ति होनी चाहिए ……
ReplyDeleteये विचार अनुपम हैं जो हज़ारों बरसों से ज्ञानियों को परेशान करते रहे हैं , कभी तो जवाब मिलेगा ही !
आभार आंदोलित करने के लिए !
This is just a thrust which pervade us all always, the only thing is to express. Those who are self-understanding can fairly comment on the self-questioner. Thanks for the applause.
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