जीवन तो अति विशाल है, लघु
क्यों है बना फिर
स्मृतियाँ अनेक मन में हैं,
कलम क्यों शांत तब?
अन्याय इतना चहुँ ओर
व्याप्त, फिर मैं खामोश हूँ
अंधकार अत्यंत गहन है, और
मैं ज्योति में ही रहूँ।
कितने ही जीवन कष्ट में हैं,
और मैं बड़ा सुखी बनूँ
अनेक तो बेचारे अपढ़ हैं, मैं
खुद को विद्वान कहूँ॥
अनेक सिकुड़े पेट भूखे हैं,
और भोजन व्यर्थ करूँ
कितने ही तन नग्न हैं, व मैं
वस्त्र-अपव्यय करूँ।
कितनी ही विभीषिकाऐं जीवन
में, व मैं हूँ चुपचाप
न कोई स्पंदन-अहसास ही, बस
मुर्दा हूँ शायद॥
इस एक मुर्दे शहर में, मैं
हूँ शायद अधिक ही मृत
वरन क्या खड़ा न होता, मिटाने
जगत के ही दर्द।
क्या कहूँगा खुद को, मैंने
भी कोई जीवन है जीया
या यूँ ही समय को गँवाया, और बालों को पकाया॥
क्या उत्तर दोगे भावी-
पीढ़ियों को, कुछ न किया
झूठ दूजों से कुछ बोल दोगे,
कि प्रयास है किया।
लेकिन स्वयं को कैसे कह
सकोगे, वे विषाण शब्द
क्योंकि खुद की सत्यता तो,
भली जानते हो स्वयं॥
साधन-अभाव हैं, पर क्या
कोशिश खोजने की हल
चहुँ ओर के मनुजों में,
गुणवत्ता फूँकने का है यत्न।
या स्वयं को, बुद्ध अनुरूप
तपस्या-साँचे में है ढ़ाला
या फिर जीवन से, कुछ
निष्कर्ष का कष्ट है किया॥
जब सकल जग प्रगति-पथ पर है,
क्यों रहोगे पश्चग
'सापेक्ष गति' है एक
भाव, समझो तो कितना अंतर।
फिर क्या होगी ही तेरी दशा,
मुकाबला भी बली से
ये प्रजा-जन तो तुम्हें,
उसके योग्य भी न समझेंगे?
हमारा भारत देश महान है, लोग
न थकते गाते यश
पूर्वज-ज्ञान व निज
सभ्यता-चर्चे, कुछ हेतु हैं राहत।
वह शायद विश्व की प्रथम एक,
विकसित है सभ्यता
लेकिन उसी महान राष्ट्र को,
आज क्या हो है गया?
इसके अंदर-बाह्य अनेक दोष
तो, जानते हैं विद्वान
और कुछ कारणों का तो, मुझे
स्वयं भी थोड़ा ज्ञान।
अनिवार्य है वर्तमान-भविष्य
पर, चाहिए नजर होनी
कब तक यूँ गर्व करोगे, फिर
मात्र भूतकाल पर ही?
बहुत दोष लिप्त हैं
निकृति-अकर्मण्यता-अत्याचार,
तंद्रा-असमता के, फिर कैसे
अपेक्षित राष्ट्र-उध्दार?
क्यों आज भी बहुजन,
सवैंधानिक अधिकार-वंचित
व अत्याचार-पीड़ित, कभी तो
प्रतीत शासन-मूक॥
किस-२ नाम से अत्याचार व
विभेद होगा, लोगों पर
कब तक नकारोगे
बुद्धिमता-योग्यता और परिश्रम?
शंबूक-एकलव्य-कर्ण इत्यादि,
अनेक ही उदाहरण
जिनको ठगा गया है, बिना बात
के बहाने बनाकर॥
आज भी बहु-विषमता व्यापक,
जाति-धर्म नाम पर
क्यों लोग दोषार्पण करते,
अतीव कृत्रिम मुद्दों पर?
प्रश्न यह न कि कुछ का,
योग्य-बुद्धिमान होना अति
बल्कि कैसे शीघ्र सबको ही
मिले, सम्मानित स्थिति?
जब साध्य सकल मनुजता, होगा
तेरा विवेक साधन
सर्वत्र समृद्धि होगी,
जन्में गांधी-सुभाष-भीम-वल्ल्भ।
सबको प्रगति-अधिकार, अनुभूति
लोगों को दिलानी
श्रद्धा मन में जगानी,
बावजूद अवरोध प्रगति करनी॥
अतः स्व-अंतः में झाँकने की
एक प्रवृत्ति है ही डालनी
व्यर्थ संवाद-विवाद,
अन्य-बुराई में शक्ति नहीं गँवानी।
तब कह सकोगे, सार्थक-निर्वाह
की मैंने कोशिश की
जीवन-लक्ष्य अन्वेषण में भी,
होगे फिर सफल-अति।
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