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Sunday, 16 March 2014

कुछ बातें

कुछ बातें 


कुछ तो मैं लिखना चाहूँ, पर समझ नहीं पाऊँ

लगता बस यूँ कहीं, अपना वक्त तो न गवाऊँ॥

 

बातें तो बहुत सी, जिनका हो सकता है जिक्र

पर यह नींद भी मुझे बाँहों में लेने को उत्सुक।

मस्तिष्क-कपाट भी, उतारूँ होने को पूर्ण बंद

और मेरे मन-आँगन में अँधेरा भरने को तत्पर॥

 

और ऊपर से निद्रा-रानी भी निराली बिलकुल

पहले आगोश में लेती, नचाती स्वप्नों में फिर।

कभी-२ व आजकल कुछ भयावह ख्वाब-दौर

और असहजता में घबरा सा जाता हूँ डरकर॥

 

प्रश्न है कि, क्यों स्वयं से ही भयभीत हो जाता

क्यों न मेरे आँगन भी, संग सुहाने सपनों का?

क्यों नित तड़पन है, निज आतंरिक-वेदना से

और न संभाल पाता, स्वयं को इस कंपन से॥

 

जितना सोचता, उतना फँसता ही चला जाता

गुनगुनाना तो चाहता, लेकिन बेबस हूँ पाता।

मन भी तो इतना अबोध न है, कि जाने नहीं

पर यह दिल तो राजा है, और मानता नहीं॥

 

पर यह पीड़ा भी तो कोई कमतर तो नहीं है

किंतु इससे बड़ा घाव व दर्द भी तो नहीं है।

क्या समाधान-हल संभव, क्या दवा इसकी

कोई उत्तम वैद्य मिलें तो, दाम लूँ किसी भी॥

 

परंतु तड़पना सा बन गया, कुछ नियति मेरी

नहीं तो फिर, ऐसी भी क्या थी बड़ी मजबूरी।

जितना है बिछुड़ना-विरह, उतनी बहु वेदना

मुख शायद न बोलें, पर क्यों दिल खामोश ?

 

मैं कोई खुदा तो नहीं, और न ही कोई दवा

पर इतना समझ ले, एक झोंका हूँ हवा का ।

तो जीवन सफल हो जाये, और तर जाऊँगा

न तो तेरे गम में बस, जिंदा ही मर जाऊँगा॥

 

कौन समझाऐं यहाँ फिर, कहीं गैर नहीं हैं

सब फिर अपने, अगर मन में मैल नहीं है।

पर नहीं ऐसा, सब इतना शीघ्र जाऊँ भूल

समय लग ही जाता, मैल को जाने मैं धुल॥

 

ये बंधन जटिल, आसान नहीं है कोई तोड़

इस तरह की बातों का हल नहीं है 'छोड़'।

कहाँ तक भागूँगा, कोई जगह भी तो नहीं

बस यूँ ही निरुद्देश्य भटकन फितरत की॥

 

डर-भावना-तड़प, ऑंखें मीचना कपोत सी

पर ये तो हैं भय-परछाईयाँ सच्चे दिल की।

फिर भय भी तो यहाँ किसी और से नहीं है

खुद का खौफ ही तो सर्वाधिक डराता है॥

 

पर यहाँ डरने से भी तो कुछ होने वाला नहीं

सकारात्मक दृष्टिकोण भी  जीने हेतु जरूरी।

क्योंकि यही सुभाव तो, हम सबको बचाएगा

इस दुष्कर डगर में भी राह यही दिखायेगा॥

 

निकल मौत-चंगुल से, जीवन की ओर बढ़ो

जिंदगी जैसी समक्ष आए, इसे जीना है तो।

डर निकालना होगा, बाहर आना ही पड़ेगा

 फिर खुलकर जीना ही पड़ेगा, जीना पड़ेगा॥

 

अहसान इतने तो, इस खुद पर तू करता जा

कि निर्मल-गर्व हो अपने को अपना होने का।

जीवन को इतना तो, सौम्य-कोमल जा तू कर

एक स्वच्छ-निर्मल परंपरा भी बनें अनुरूप॥

 

'उदाहरण' बन जा, न हो वचन-आवश्यकता

कर कार्य ऐसा, कि बन जाए स्वयमेव प्रेरणा।

बोलने से अधिक महत्त्व करने का, चलने का

 वही राह एक पथ बन जाती, चाहने वालों का॥

 

फिर तुम जिम्मेवार हो, खुद के 'स्वयं' के लिए

कर्त्तव्य निबाहो, जितना कर सकते कर जाओ।

राह कितनी भी कठिन हो, निकल पार जाओगे

पैर थकें, घुटने छिलें, बस चलते तुम ही जाओ॥

 

इस 'महाजीवन' से कुछ तो विराट सार निकालो

खुद को जरा फिर समेटना, व सँभालना सीखो।

अपनी उपलब्ध-ऊर्जाओं की मात्रा, सँवारो बहुत

उसको बदल दो, निज भरे-पूरे उद्देश्यों में तुम॥

 

फिर यह जीवन ही क्या है, व तुम्हारी भूमिका ही

नचिकेता से विवेकानंद तक के समक्ष प्रश्न ये हीं।

मैं स्वयमेव ब्रह्म या उसका अकाट्य अंश हूँ एक

विभिन्न प्रचलित लोक-मान्यताऐं हैं सन्दर्भ में इस॥

 

जगतगुरु शंकर 'अद्वैत' बतलाते, तो रामानुज 'द्वैत'

एक बोलता है जग माया, दूजा इसे कहता सजीव।

कबीर जग को माया कहे, पर व्यवहार भी सिखाए

पर ये तो सक्षम गुरु थे, मेरी क्या विषय-धारणा है?

 

यही प्रश्न हैं बड़े-२ कि, जग पर मेरा क्या प्रभाव है

क्या तुम प्रभाव चाहते या स्वयं प्रभावित हुए जाते।

पर तुमको भी, निज जीवन का दर्शन ढूँढ़ना होगा

जीवन को एक खेल न समझ, इसे जीना ही होगा॥

 

मनुज जन्म लिया है, थोड़ी पढ़ाई भी की उसपर

इन्हीं संसाधनों से स्वयं को, महान बनाओ फिर।

अपने को ठीक चलना सिखा, स्वयं-राह दिखाओ

खुद को कदापि जगत-अहसानों तले न दबाओ॥

 

महाजनों से लेकर सुप्रेरणा, मैदान में निकल पड़ो

यावत न मिले निश्चित गंतव्य, बढ़े चलो-बढ़े चलो।

महा-लक्ष्य ही जीवन का हो, ऐसा तुम करो मनन

तब मत चिल्लाना कौए ज्यूँ, व बनो धैर्यवान तुम॥



पवन कुमार,
16 मार्च, 2014 समय 3:09 अपराह्न 
(मेरी डायरी दि० 13.01.1998 समय 12:50 म० रा०)

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