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Saturday, 8 March 2014

अन्तर भ्रमण

अन्तर भ्रमण 


एक कोशिश की कोशिश करो, शायद कुछ पा लोगे

बस एक सोच को ठीक करो, तो बड़े सार्थक होवोगे॥

 

लोगों ने एक ठीक कदम उठाया, पहुँचे हैं मुकाम बड़े

आलसी तो बस भ्रमित, चलने से कहीं भटक न जाए।

जीवन-उपलब्धि प्राप्त, समय पर अवसर पहचानने में

यदि साथ हो लिए तो, अवश्यमेव पार हो जाएगी नैया॥

 

कैसे अपने निज वृहद को बाहर लाऊँ, प्रश्न विशाल है

मस्तिष्क के छोटे कोने में, स्व को सकुचा ही लिया है।

अब तक मेरा आत्म से ही, जानकारी- परिचय न हुआ

तो अन्यों से क्या-कैसे-क्यों, बहुत संपर्क बना पाऊँगा॥

 

मेरा मन-स्वामी अंदर है, और मुलाकात तो हो न सकी

बहुत कम ही निखरा यह स्व, अपराध शायद मेरा ही।

किस विधि से बतिया सकूँ खुद से, पथ कुछ पता नहीं

कोई गुरु भी तो नहीं बनाया, जो कुछ समझा सके ही॥

 

स्वयं में निपट अज्ञानी हूँ, औरों का सहारा भी नहीं लेता

इतना आलस्य-लिप्त हूँ, कि साहस ही नहीं उठने का।

अपना हृदय पूरा ख़ाली पाया, या अवाँछितों से ही भरा

और कुछ भी अपने अन्दर, ललित जाने नहीं है दे रहा॥

 

सत्यम शिवम सुंदरम का तो, कभी ध्यान नहीं हो पाया

किया भी कभी तो, कुछ अधिक अहसास हो न सका।

अतः अपक्व ही कहता खुद को, पूर्णता-अलब्ध क्योंकि

क्या व कैसे आगे ही होगा, इसका भी पता है तो नहीं॥

 

फिर जीवन तो न सिर्फ साँस लेना, और चलना-फिरना

या बस खाना-सोना ही, या इसका कहीं गूढ़तर मायना।

किंतु कुछ सोच तो रही होगी, इसके रचनाकार की भी

अब कुछ रास्ता सुझाने की, जिम्मेवारी भी तो उसी की॥

 

ऊपर से मुस्कुराता हूँ, किंतु मन तो है मात्र संज्ञा शून्य

किंतु अब अंतः को कैसे पूर्ण प्रकट हो, विशाल है प्रश्न।

कर्मठ-महापुरुषों के कुछ नाम तो सज्जन लिया करते

परंतु उनसे भी कोई मेरा परिचय, बड़ा ज्यादा नहीं है॥

 

खाली दिन में तो खाली बातें, और खाली ही है अहसास

किंतु यह अति-क्षुधा ही तो, कुछ देगी जिज्ञासा-ढ़ाढ़स।

निज को फिर सक्षम बनाने हेतु, देगी यही कुछ सबक़

कुछ वर्ष समय बिताने का, मस्तिष्क को देगी अनुभव॥

 

मैं कहाँ जाऊँ, क्या सोचूँ, और क्या-कैसे शुरू करूँ ही

प्रश्न अति कठिन है, क्योंकि सुस्ती तो है मेरे अंदर ही।

अनेक लोगों ने थोड़े समय में ही, अति-महद कर लिया

और मैं एक सदा जो आत्म को, बस असहज ही पाता॥

 

कल मीटिंग में एक बिंदु था, सीखो निज-सम्मान करना

बात ठीक पर अहम पहलू, हम आदर-योग्य ही हैं क्या?

क्या वह मृदुल भाव जो, सबके सम्मान की बात है करता

उसके शुभ्र-आविर्भाव पर तो, स्वयं ही समझ जाऊँगा॥

 

फिर यह जीवन-सार ही कैसा, और मैं सत्यमेव हूँ क्या

भौतिक अवस्था से अधिक भी, मेरा अस्तित्व ही क्या ?

कब चार लोगों में खड़ा होकर, निज बात कह पाऊँगा

या अन्य -कथा सुनने में ही, एक प्रौढ़वय हो जाऊँगा॥

 

बात यह भी नहीं कि, उचित संदर्भ में विषय जानता न

पर कभी विषय समुचित ढ़ंग से प्रस्तुत न पाता हूँ कर।

यदा-कदा स्थिति ऐसी बनती है, पूर्ण कह नहीं पाता ही

यह अन्य कारण दूजों को असहजता से बचाने हेतु भी॥

 

परस्पर आदर भी जरुरी है, निवास हेतु सभ्य समाज में

यह सब पर लागू है, पर इशारा तो समझ लेना चाहिए।

आवश्यक नहीं किसी को, यूँ ही बस असहज बना देना

क्योंकि तुम्हारे साथ भी ऐसा, कहीं कभी है हो सकता॥

 

सतत प्रयास करो उत्थान का, यही तो आगे ले जाएगा

भ्रम में मत रहो, और अपनी आँखों से तो हटा दो पर्दा।

क्योंकि यही है उपाय, एवं उचित दर्शन का देगा साहस

तब इस हीरक आत्म को, दे सकोगे एक मृदुल सुनाम॥

 

यह भी तुम्हारी उसी, एक कोशिश का सुपरिणाम होगा

जो अद्यतन सब अनछुए पहलू का, अहसास कराएगा॥



पवन कुमार,

8 मार्च, 2014 
(लेखन - दि० ०३ मार्च. २०१०)   



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