क्यों नहीं मैं इस मन को मथ
ही पाता
झाँककर इसकी गहराई समझ पाता?
क्यों है सूक्ष्म इसके सोचने
का आलम
क्यों न किसी गूढ़ चिंतन में
रम जाता?
चिंतन क्या है, इसी परिभाषा
में तो डूबा
क्यों न कदम शुरुआत के बढ़ा हूँ पाता?
पंछी- मानिंद उड़ने की क्यों
न कोई चाह
क्यों न निज को एक विद्वद्जन बना पाता?
एक नाम होता है चिंतक और
मन्मथ दास
पर अपने को उन-अनुरूप न बना
पाता॥
तो ले ही लूँ सहारा मैं,
जगत-मनीषियों का
निज को उनका ही राह-पथिक सा
पाता॥
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