त्रासद समस्त मानवता, और तू
प्रगाढ़ है सोया
त्राहि-२ सर्वत्र व्याप्त
है, ऐसे में तू खोया कहाँ?
क्या तुममें पीड़ितों को
समझने की संवेदना है
और क्या समझकर कुछ करने की
भावना है?
क्या कथन है तेरा, इस त्रस्त
मानवता के लिए
सदा लेता रहेगा, या कुछ दे
भी जायेगा फिर॥
सचमुच लोग बहुत दुःखी, विविध
व्यवधानों से
पर सब जिम्मेवार न अपनी
स्थितियों के लिए।
यह सामाजिक ढाँचा भी, कहीं
अपराधी ज्यादा
क्योंकि इससे तो निर्बल अधिक
सताया जाता॥
क्यों बहु भेद दैहिक- कर्म व
मानसिक- कर्म में
क्या प्रथम को खटना ही, कुछ
कम भूख लगे है?
क्यों न मापा जाता है उसका
श्रम, बहु-मुद्राओं में
और क्यों नहीं वह जी पाता,
आदर की जिंदगी में?
फिर कौन बतायेगा कि, किसको
कितना चाहिए
मेहनत- औजारों को बहु-कुशल
बनाने के लिए?
कौन भरेगा अर्द्ध- भूखे पेट
व आवश्यकता-पूर्ति,
मुक्ति नंगे-पीड़ितों की, जो
कुछ मांगने हेतु जीते?
'समता' का सिद्धांत
तो, प्रकृति में उपलब्ध नहीं
छोटी मछली ही बड़ी मछली का
भोजन बनती।
किंतु कैसा लगे जब होगी,
ग्राह्य किसी मगर का
तो फिर अनुभव, एक निर्दय
होना कैसा लगता?
तो ऐ दुनिया के मानवों !,
सबको अपने संग लो
डार्विन-सिद्धांत को
लोलुपता-बहाना न बनाओ।
कोशिश करो सब उठें, साधनों
में बराबर भागी
उनमें भी जगे अनुपम परम
विकास-अनुभूति॥
हम कितने महामूढ़, और वे
कितने बुद्धिमान हैं
या कितने अयोग्य, व हम कितने
युक्तिमान हैं?
क्यों यह पैमाना लगाते, जबकि
तुमको भी ज्ञात
पूर्णज्ञान का कितना स्वयमेव
जानते तुच्छ भाग?
किंतु निकटवर्ती के किंचित
अधिक जानने पर
शायद तुम स्वयं में
गौरान्वित अनुभूत करते हो
पर क्या यह संकेत न है
मानसिक दासता का॥
तो मेरे भाई आओ !, सभी जनों
को गले लगाओ
यदि ज्ञान है तुममें तो, सभी
में दीपक जलाओ।
फिर अगर ज्ञान तुम्हारा,
उनमें भी है समा जाए
तो शायद कुछ गौरान्वित होने
का कारण बने॥
दो क्षण को मजबूत बने हो ,वृद्धावस्था भूल गए !
ReplyDeleteनिश्चित मृत्यु भूलकर ऐंठे,बस्ती में अज्ञान वही है !
निर्बल वृद्धों की सेवा को , कभी विवेक तो आयेगा !
ReplyDeleteइस संस्कृति के सपने देखे,सच्चा हिंदुस्तान वही है !