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Saturday 20 April 2024

चलो सखी उस देश

चलो सखी उस देश 

इस आवास-निकट रेलगाड़ी की दीर्घ सायरन-ध्वनि, शंख सी पुन: हुंकार भरती

निज दीर्घसूत्री-उपस्थिति दर्शित करती है, यात्री-फेरीवालों को सावधान करती।


'डॉपलर इफ्फेक्ट' से उसकी दूरी-अंदाजा होता, समय जान लेते निकट निवासी

उनका सोना-जागना ट्रेन आवागमन से प्रभावित, नींद जगा देता कोलाहल अति।

यह मालगाड़ी पैसेंजर या एक्सप्रेस, गाड़ी 5 बजे वाली या 6 वाली, आज लेट है  

अरे आज बड़ी धुंध है, धीमे चल रही, वहाँ पीछे दो गाड़ी दुर्घटनाग्रस्त बची होते।


मेरे पिता सोनीपत से रोज दिल्ली आते थे, प्रथम नौकरी-वर्षों मे दिल्ली भी रहें  

परंतु अपने बाल्यकाल से मुझे याद है, निरंतर वे रोज गाँव से ही आते-जाते थे।

सुबह 6 बजे वाली गाड़ी लेते, अत: घर से कमसकम 1-1/4 घंटे पहले चलते थे

पहले साइकिल वाहन था, कभी पैदल, और बाद में कोई छोड़ता था हममें से। 


सायं को स्वयं आ जाते, कभी ऑटो, कभी किसी से लिफ्ट लेकर या पैदल ही

यह दैहिक-कार्य शक्तिवान बनाता, प्रत्येक अंग कार्यान्वित है रहता क्योंकि। 

किञ्चित सुबह सर्दी में अधिक गर्म पानी से नहाने से, उनको खाँसी हो जाती 

सिक्का कॉलोनी के डॉ० इंद्रजीत गाँधी से उपचार कराते, कहते है जरूरी। 


उनको धूम्रपान की आदत थी, दवाई भी एक निश्चित असर ही कर पाती अतः

हालाँकि कमोबेश स्वस्थ थे, सर्दी में कभी-2 खाँसी या बुखार हो जाता था पर।

अपनी युवा-दिनों में वे एक बेहतर गवैये थे, और उचित गुरु से दीक्षा भी ली थी

बाद में कंठ-अस्वस्थता के चलते अधिक न गाते, किंचित इसका था दुःख भी। 


हमारा गाँव नगर रेलवे स्टेशन से 5 कि.मी. दूर, ट्रेन-ध्वनि अधिक न सकती पहुँच

किंतु समयानुमान ECE व एटलस फैक्ट्री के हूटर से हो जाता, निश्चित था समय।

अंतराल व विविध ध्वनियों से पता रहता, यह हूटर 7, 7.30, 8 या 8.30 बजे का है  

सुबह-2 ज्यादा बजते थे, शायद कर्मियों को संदेश देने हेतु प्रयोजन था समय से। 


5 वर्ष सोनीपत से दिल्ली डेली-पैसेंजर रहा, सुबह 7.30 बजे वाली ट्रेन से आता 

इसके समय का अनुमान होता, यदि छूट जाती तो अगली ट्रेन में जाना पड़ता। 

हम छटी कक्षा से सोनीपत में पढ़े, अति सुबह जल्दी पहुँचना होता था विद्यालय

सायरन ही मार्ग-दर्शक थे घड़ी तो न थी, अधिकाधिक किसी से पूछ लेते समय। 


स्कूल में हर पीरियड बाद घंटानाद, मध्यावकाश का ज्ञान भी घण्टी द्वारा ही होता

उसका तो सबको खूब इन्तजार रहता, तब आराम मिलेगा, खेलेंगे व खाऐंगे खाना।

स्कूल बंद होने की घंटी बड़ा सुकून देती, कमसकम आज के काम से मुक्ति मिली

घर पहुँचने की जल्दी पर भारी बस्ता, ट्रैक्टर-साईकिल-ट्रक-ऑटो या पैदल कभी।


यह घड़ी की टिक-2, अलार्म का बजना, हमारी चेतना को जगाने हेतु ही समय से

जब कभी सुबह जल्दी जगना होता तो अलार्म लगा देते, मानते हैं कि उठ जाऐंगे। 

अवचेतन मस्तिष्क उसके बजने की प्रतीक्षा करता, हम सुप्तावस्था में ही हों भले 

मनुष्य-मन सदा प्रयोजन में लगा रहता, जागरण-विश्राम-शयन वपु-अवस्थाऐं है।


पर जिनका आवास रेल-पथ के साथ ही, उनका जीवन ध्वनियों मध्य होता कैसा

बताते कि रात्रि में बार-2 जाग जाते, अति-कोलाहल में शयन-आदी हो जाते या। 

पर अति-चीत्कार से कर्ण-तन्तुओं पर असर पड़ता, जैसे फैक्ट्रियों में करना काम

निश्चिततया हर निकट वस्तु निज असर छोड़ती, हम माने या न माने और है बात।


विभिन्न वातावरणों का प्रभाव, जीव-जन्तु-पादपों पर स्पष्ट पहचाना जा है सकता 

विभिन्न जलवायु-सृष्टि भी, उनका स्वरूप देख स्पष्ट अनुमान निवासी है कहाँ का।

सबकी निज बोली, रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज़ हैं, हर पर परिवेश-असर

तब कैसे हम अप्रभावित रह सकते हैं, यहीं का चुग्गा-पानी शरीर को मिलें जब। 


हमारा परिवेश एक बहुत निकट लघु साँचा-नीड़ है, जिसमें हम प्रतिदिवस ढ़लते 

अनेक हाथ सतत हम हेतु मृदा कूट रहें, पानी दे रहें, नर्म बना, चाक पर रख रहें। 

फालतू को उतार रहें, ऊँगालियों से सहारते, स्व अनुरूप आकार-आकृति दे रहें 

सुखा-पका-रंग रहें, भंडार में रखते, बेच रहें, विक्रेता प्रयोग करता निज शैली से।


पर क्या हमारी भी कोई इच्छा या प्रभाव भी, इस निकटस्थ को बनाने में अनुरूप

क्या हम अनुभूत या विवेचन कर सकते हैं, कि यह बेहतर या सुधार आवश्यक।

या छोड़कर इस दुनियादारी के झंझट, अपनी एक छोटी सी दुनिया ही बना ली 

सभी घोंसले, स्कूल-अस्पताल, गृह-आवास, उपवन, सुधारार्थ हैं परिवेश में ही। 


हम जंगलवासी, अन्य जीव-जंतुओं संग रहें, वर्तमान में गाँव-शहर-बेड़ें लिए बना

पुराने पेड़, पक्षी-जीवों से संपर्क छूटता, फिर भी प्रकृति में कुछ दिख ही जाता।

वे भी प्रभावित हो रहें हमारे क्रिया-कलापों से, प्रभावित करते सभी परस्पर को  

पर जिसमें अधिक शक्ति है वही अधिक प्रभाव जमाता, सहना पड़ता अन्यों को।


सम-परिवेश में भी पृथक जन-व्यवहार दर्शित, कोई आवश्यक नहीं हों मशगूल 

वे अपनी प्रतिक्रिया स्व-अनुरूप ही देते, अन्यों को चाहे आऐ या न आए पसन्द।

अपनी छलाँगें लगाना स्वयमेव सीखते हैं, गृह-वातावरण से ही तो चलता न काम

चलो सखी उस देश जहाँ कृष्ण का वास, जल भरें दर्शन करें, पूर्ण हों सब आस। 


सूक्ति हैं घर का जोगी-जोगणा, बाहर का सिद्ध हो, या घर की मुर्गी दाल बराबर

अपनी माँ को छोड़कर देवी-आराधना, निज असहायों को छोड़ दानी बनें अन्यत्र। 

निज भाषा छोड़ अन्यों की सुश्रुषा, या अपना विकास न कर, रुचि लें अन्यों में ही 

या अपने परिवेश का उचितीकरण न, अनेक अनावश्यक वस्तुओं पर ध्यान ही।


मैं मानता कि यह विश्व मेरा परिवेश ही, जहाँ भी विसंगति है वहाँ मेरी जिम्मेवारी

देखिए मैं कैसे अछूता रह सकता, जब सर्वस्व मेरा ही, व अंग अस्वस्थ है कोई।

यह सारा ब्रह्माण्ड मेरा ही स्वरूप तो, क्या इसके बहु दुःख मुझे न करेंगे विव्हल

मेरी भी अनेक व्यथाऐं जग ने शमित की, और पाल-पोसकर किया इस निपुण। 


किंतु परिवेश तो निश्चिततेव सुधारो, व आवश्यकता है इसके महद विकास की 

अपने कार्य-कलाप तो जाँचने ही चाहिए, अपने बहु-घावों को भी होगा देखना ही।

तन-मन का पूर्ण स्वास्थ्य तभी संभव है, जब इसका प्रत्येक अवयव पूर्ण हो स्वस्थ
 
समय पर रुग्ण अंग का उपचार विधिवत कराना, व चेतना-विस्तार हेतु सर्वहित। 


अनेक निकट विश्व-वस्तुऐं सुरुचिर, खूब मनन-भोग करो, आत्मसात करो सकल 

जितना अधिक स्नेह इस कायनात से कर सकता, निज वृहदता-विकास ही वह। 

मीरा दीवानी कृष्ण-प्रेम में का मतलब है, आत्म परम-रूप का सान्निध्य पाना इस 

पर कृष्ण विश्वरूप-प्रतिबिंब ही, वह भी विव्हलित उसके अवयव अस्वस्थ हैं जब। 


तुम भी दो आहूति श्रम की इस विश्व-यज्ञ में, एक बेहतर परिवेश बनाओ लोकार्थ  

फिर दीर्घ निनाद होने दो इस सुकृत शंख का, आयुर्विद्या-यशोबलम होंगे विस्तृत।  



पवन कुमार,

२० अप्रैल, २०२४ ब्रह्मपुर, शनिवार, समय प्रातः ९:२० बजे प्रातः

(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी डायरी १३ जनवरी, २०१६, बुधवार समय प्रातः :१६ बजे से ) 

Wednesday 17 April 2024

अंतः समृद्धि

अंतः समृद्धि 

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कैसे मैं भी विराट हो सकता, सीमित प्रदत्त मन-काया में इस

चेष्टाऐं-अनुभूतियाँ हों चहुँ-विस्तृत, और हो जाऊँ सर्वव्यापक।

 

यूँ तो सकल घट-2 में व्यापक, पर अबूझ ही रखती अज्ञानता

पर शुद्ध चेतना-फैलाव, उसमें सुरुचिकर आयाम हैं जोड़ता। 

कैसे फैले स्व-घटक चहुँ दिशा, और क्या चेष्ठा वाँछित इसमें

कब तक गुह्य रहोगे कोष्टक में, जब इतना विकास सम्भव है।

 

केवल मनुज बड़ी सोच के तहत, अनेक दूरियाँ तय कर लेते

उद्घाटित करते मन निज, समस्त ब्रह्माण्ड बसा है जिसमें। 

सकल मनुजता स्व में समाहित करते, कोई अपना-पराया 

प्रजाजन निकट आकर पुलकित होते, जैसे उनका ही अपना।

 

यह उसका विस्तार ही तो है, बहुतों का विश्वास जमा जिसमें 

ज्ञान-वाहक सदैव बन रहता, सबके लिए दरवाजे खुले हैं।

प्रचारक होने की इच्छा, कथित बरगलाते गुरुओं सा कुछ 

तथापि संवेदनशील नर बन चाहूँ, जिसमें अनुभूत होंवे सब। 

 

पर क्या इसके आयाम संभव हैं, बौधिक-चिन्तन तल संभव 

या कुछ ऐसा रचित ही करूँ, जिसमें अपना सा पाए सर्वस्व।

या ऐसे आविष्कार ही, जिनसे सकल मानवता हो लाभान्वित 

या महानेता सम विश्व-नीति में योगदान, जो सर्व-हितैषी हो। 

 

सूर, तुलसी, रसखान सम काव्य, अंतः समृद्धि का बाह्य भी दान  

आपके शब्द अमर हो जाते, निज जीवन-दर्शन पाते उनमें प्रज्ञ। 

वचन भी करते अनेक पुण्य, शक्ति खड़ग से भी अधिक उनमें 

यदि किसी का मन जीत सको, तो बड़ी विजय कहीं उससे। 

 

ये कार्य-कलाप मुक्ति-चाह, आहूति से है यज्ञ-धूम्र विस्तारित 

फैले उसकी सुगन्धि चहुँ दिशा, और सबके लिए हो उपलब्ध। 

मात्र कीर्ति की तो नहीं चाह, किंतु सकल व्यक्तित्व हो समर्पण 

बेशक नाम अज्ञात ही, तथापि लाभ परोक्ष-अपरोक्ष हों प्रस्तुत।

 

विस्तार हो राम-कृष्ण सा, समक्ष होते भी पहुँचाते अति लाभ 

मृत्यु उपरांत भी बुद्ध, महावीर, जीसस, गांधी चलते प्रजा संग। 

सुकृत्यों से जीत लिया कुछ काल, मनुज जब उन्हें करते स्मरण

नहीं नाम किसी व्यक्ति का, अपितु सोच जो सब-ग्राह्यी उचित।

 

फैलाव तो है उचित या अश्रेय, पर कर्त्तव्य सकारात्मकता-योग 

वसुधैव कुटुंबकम सन्यासी-भाव है स्तुत्य, तभी सर्वहित संभव। 

जब समर्पित सकल मानवता हेतु, कटेंगी बेड़ियाँ जड़ता की तब

संदर्शन हो उच्च स्तर का ही, जो असंकुचित भाव से करें कर्म। 

 

पूर्वाग्रह त्याग बनाऐं सार्वजनिक विकास, अलोभ का परिवेश  

 कुछ जगत-गुत्थियाँ सुलझाने में, योगदान अपना करें प्रस्तुत। 

अज्ञानता-कालिमा को, निज प्रखर ज्ञान-रश्मि से निर्गम भगाए

बजाए कोसने के सब जगत को, कुचेष्टाऐं अपनी तर्पण करें।

 

भाव-भंगिमा सत्य धरातली कर्मों से, विश्वात्मा जैसे बनो तुम

दमित बन्धुओं के उत्थान की साचो, कैसे वे भी हों विकासरत।

कैसे सम्माननीय- गोष्ठियों में, आपकी रचनाऐं भी हों स्वीकृत 

यदि किसी विद्वान की सुटिप्पणी, तो मानो लेख-दिशा उचित। 

 

सुमनन संगति तो व्यापक करो, प्रस्तुत कर्म करो सुव्यवस्थित

लघु-2 सुलझनें भी जुड़, किया करती महद दीघकालिक हित।

निज को समझो निम्न कदापि, महालक्ष्य-पूर्ति हेतु उदित हो 

उचित दृष्टि-मार्ग संग है, निस्संदेह सर्वव्यापी-सार्थक बनोगे तो  

 

धन्यवाद। और साधु प्रयास करो। तुमसे बहुत अपेक्षित है। 

 

 

पवन कुमार, 

17 अप्रैल, 2024, बुधवार (रामनवमी), समय 8:59 बजे प्रातः  

(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी 9 दिसंबर, 2014 मंगलवार समय 9:05 बजे प्रातः से)  

Tuesday 9 April 2024

कर्मयोग-सिद्धांत


कर्मयोग-सिद्धांत 


क्या वर्तमान की आवश्यकताऐं, प्राथमिकताऐं हो चाहती 

जीवन तो फिर बहा जा रहा, कोशिश है इसे पकड़ने की।


समय सीमित, जरुरतें अधिक, बड़ी भागम-दौड़ जिंदगी 

इसको करें या उसको देखें, सोच में समय है बीते इसी। 

हर पल का हिसाब कौन देगा, जब वो तुम्हें सौंपा जो गया

व्यर्थ किया या फिर सदुपयोग, इसका निर्णय होने वाला।


कौन है इन सब कर्मों का द्रष्टा, व फिर प्रतिबद्धता जाँचे 

कौन इसका गुरु-पर्यवेक्षक, और कौन रिपोर्ट बनाता है।

फिर कौन भेजता अग्रिम श्रेणी में, अथवा अवनति करता 

कौन इस हेतु फिर नियोक्ता, और जिम्मेवारी है ठहराता।


हमारे कर्मों का महीन परीक्षण, शायद स्व-अंतः ही चलता

प्रकृति देख रही नित हमको, कुछ नहीं उससे बच पाता। 

जैसा किया फिर वैसा पाया, यह जग का पुराना मुहावरा  

तुम चेतो तो सब कुछ अपना, वरना सब निरर्थक है यहाँ।


हम झेलते समझ-मूढ़ता दोनों से, कदाचित न है स्ववश में 

फिर दंड लेकर स्वामी खड़ा है, मार पड़ेगी शिथिलता से।

पर कैसे सुधारें स्व आचरण, अवश्यंभावी से हैं डरते किस 

फिर ज्ञात हो तो भी न सुधरते, यही विसंगति आश्चर्यजनक।


हम यदा-कदा प्रशंसा भी पाते, किए उचित कर्मों के लिए

किन्तु बहुदा तो दंडित ही होते रहते, शिथिलता के लिए।

क्या सब मनन-सावधानी बरतकर भी, मात्र होते हैं सफल 

शायद न, क्योंकि समस्त जग-कारक बस में नहीं हैं निज। 


फिर हम सचेत या विमूढ़, क्या मस्तिष्क की स्थितियाँ हैं

कैसे बढ़े इस चेतना का क्षेत्र, और मोघ स्वार्थ को त्यागे।

यह मस्तिष्क प्राय: क्या सोचता है, कैसे हम करते कर्म 

जो प्रतिबिंब है परस्परता का, एक दूजे का करता वर्धन। 


निकलें जग की भूल-भलैया से, स्व मार्ग की पहचान करें

कुछ सुबिंदु चयनित करके, उन्हें अपनाने का यत्न करें। 

सहारा दें तब अन्यों के गुणों को, वे तुम्हें करेंगे शक्तिमान 

प्रत्येक भ्रांति दूर करके, सदा समुचित में रमा लो ध्यान। 


कौन बाँध सकता यहाँ समय को, किसमें इतनी हिम्मत 

कैसे स्व-नियमबद्धता संभव, जिसमें कर्त्तव्य इंगित सब।

कैसे बनाता वह दैनंदिनी, और बहु-विस्तृत क्षेत्र में विचरे 

कृष्ण सम सोलह कला-स्वामी, इसी जीवन में अति करे। 


सबको प्राप्त एक सा समय, तब क्यों कुछ ही प्रगतिपथ 

कुछ कोसते रहते दैव को, कि उन्हें कुछ ही नहीं लब्ध।

न केवल चाहने से ही मिलता, कर्म वास्तविक हैं वाँछित  

जग में कुछ प्राप्ति हेतु, हैं लक्ष्य व अनुशासन आवश्यक। 


समय तब पकड़ा जा सकता, जब कुछ सूचीबद्ध करोगे

समुचित में निष्ठा समेकित कर, सुढ़ंग सुनिश्चित करोगे। 

हम तो बढ़ेंगें और तुम्हें भी बढ़ाएँगे, जीवन में न रोऐंगे 

आनंद स्वरूप के साथी बनकर, प्रभु में ध्यान लगाऐंगे।


हम सच्चे कर्म-वाहक, उचित दिशा में करेंगे प्रस्थान 

पहचानें प्रतिबद्धताऐं. व जीवन-प्राथामिकताऐं महद।

सदैव चलेंगे सत्पथ जो, समय उनका सहायक बनेगा 

काल तो नित्य सुहृद, किंतु वह समेकित ही जाँचता। 


इसे परिपूरित करना, जीवन सक्षम बहु कुछ देने में 

क्रम में वर्धित विषय ध्यान में लाते, अमल हैं करते। 

करते हैं हित अपना, प्रत्येक क्षण में जीवन फूंककर

फिर बनते पुरुस्कार-पात्र, क्योंकि किया है सुकर्म। 


लयबद्ध हो जाओ कर्त्तव्यों में, समय फिर संग बहेगा 

वह सुमित्र बन जाएगा तुम्हारा, फिर न कोई ही चिंता।

चलो नियम- अनुबन्धों पर भी, कल्याण हेतु सार्वभौम 

और समय-सारथी बनकर, लगाम से कुछ करें मुक्त। 


पवन कुमार, 

९ अप्रैल, २०२४ मंगलवार समय १ : २८ बजे मध्य रात्रि 

( मेरी डायरी ४ जुलाई, २०१४, शुक्रवार, समय ९:३५ बजे सुबह, द्वारका, नई दिल्ली से ) 


Sunday 7 April 2024

पतंग की डोर

पतंग की डोर


करतार के प्रताप से, जन्म हुआ एक पादप का
शनै भू-जल-हवा मिले, बनने लगा रूप वृक्ष का। 

बहुत बार छटपटाया वह, और टूटता था धैर्य भी
फिर भी सहारा बहुत मिला, पैर कुछ जमाए ही।
जिंदगी-प्राण मिली, सूरज का साथ मिला सुबह
और तब चल निकला, हिचकोले खाए वायु संग।

मन पूरा उसने बनाया था, सबके संग रहने का 
फिर भी तो सब कुछ निज अनुरूप न हो पाया।
फिर इन जगत के भेदों के संग जीना ही नियति
पर जब स्व बंधु-मस्त, निजों को फरमाते वे भी।

यह लोकतांत्रिक देश है, हरेक को अधिकार पूर्ण 
कहने-सुनने व जरूरत तो, करने का भी  विरोध। 
तुम भी तो बहुत बार, औरों को गलत ही हो कहते
तो क्या उनका मंतव्य न हो सकता, जैसा तुम्हारे।

सब अपने को उचित ठीक करने में लगे रहें यहाँ 
तथापि किसी को स्वयं को भी संभालना ना आया
बस बड़बड़ाते रहते, जीने का सलीका ना आया।

महक-रौनक चहुँ ओर थी, पर मैं रूठा बैठा रहा
क्यों न हल्का होकर, भौरे-तितली भाँति ही उड़ा
और उस मधुरतम, शहद का स्वाद ही न लिया।

क्यों अपने को दूसरों की ही लगाया आलोचना में
जबकि उनसे ही तो बहुत अच्छा सीख सकते थे।

पर क्या मेरा वजूद ठीक है, और न्यायपूर्ण क्या 
और क्या मैं अपने से ही बड़ा न्याय कर पा रहा।
मेरी जिंदगी की आस तुमसे लगी है, ओ मौला 
गुजारिश है कि इस जगत में तू जीना दे सिखा। 

मेरे इस जीवन की डोर का मालिक है तू बड़ा
इसकी पतंग को तब ठीक से उड़ना दे सिखा। 
तू सर्वस्व अधिकारी इसका, मैं बस दास हूँ तेरा 
समझदारी से इसे सेवक का सच्चा धर्म दे बता। 


पवन  कुमार,
7 अप्रैल, 2024, रविवार, समय 12:49 बजे मध्य रात्रि
(मेरी  डायरी 21 फरवरी, 2009, शनिवार, नई दिल्ली से)

Wednesday 3 April 2024

एक आकांक्षा



एक आकांक्षा 




मेरी मन की गुंजन, जीवन को कुछ सुस्पंदित कर दे
वसंत-सुरभि मेरे मन-मस्तिष्क को पुलकित कर दे। 

बैठा हूँ असमंजसता में, कोई आकर फिर से दे जगा 
जाग जाऊँ व होश में आऊँ, ऐसी एक ललक दे जगा।
कुंडलिनी तो सोई पड़ी है, उसकी कोई शक्ति दिखा 
निज पहचान पा ही जाऊँ, ऐसा कोई दर्पण दे दिखा।

महबूब-मिलन की तमन्ना, कभी आकर तू पूरी कर 
मिलन-खुशी का अहसास, मन में गुदगुदा दे कुछ। 
पूरे प्रयास व उचित बुद्धि का, वो मधुर संयोग कहाँ 
निरंतर चलायमान रहूँ, और तू सुस्ती को दूर भगा। 

जिंदगी जीने का एक उचित पथ, फिर तू दे समझा  
मन रहे नित विवेकशील, उत्साह-साहस संगी बना। 
मैं तेरा और तू मेरा, आओ सब झूठे भेद दूर भी करें 
सारी दूरियाँ मिट जाऐं पूरी, जगत को घर ही कर लें।

मेरी आकांक्षाओं को पंख लगा, सब डर दूर दे भगा
दुर्बलताओं का कर मर्दन, क्षमता- आकार दे बढ़ा।
यूँ न बैठा रहूँ मुर्दों सा, जीवन-सार फिर तू समझा 
किंकर्त्तव्य- विमूढ़ता हटे, सब दायित्व याद दिला।

जीवन बनेगा सार्थक, जब सब प्रश्नचिन्ह जाऐंगे हट 
और कुछ शेष रहें भी तो, उत्तर अंततः पा लेंगे हम। 
करें जीवन-विस्तार, भिन्न कलाओं का हो कुछ सार
श्रेष्ठ साधक-तपी बन जाऐं, पूर्ण करें कुछ तो पसार।


पवन कुमार,
३ अप्रैल, २०२४, बुधवार, समय ११:२३ बजे रात्रि 
(मेरी डायरी १० मार्च, २०१३, समय ६.०० सायं, नई दिल्ली से ) 

 

Monday 1 April 2024

फूंका जीवन फिर एक बार

फूंका जीवन फिर एक बार

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आज अपने आत्म में, मैं भ्रमित सा हो गया

विश्वास के संग से, कुछ विरक्त सा हो गया।


चाहकर भी बल अपने अंतः में न जुटा पाता 

पता नहीं क्यों भय, मन में घुस सा है आया। 

हालाँकि बिलकुल निश्चिन्त, सब शुभ होगा ही

लेकिन कभी-२ शायद, ऐसे क्षण आते हैं भी।


कभी साहस का दामन तो पकड़ा था हमने

फिर शक्ति का ह्रास, क्यूँ अनुभव मन में? 

क्या तुमने आत्म-विश्वास दिया बिलकुल खो

जो जरा सी यहाँ ठोकर लगी, और दिए रो।


शक्तिशाली को ही, यह जगत शीश नवाता 

फिर गरदन झुकी रही, तो जीना ही कैसा ?

फिर से फूंक दे उस अग्नि को इस स्वांतः में

जो कि पुन: तुम्हें पूर्ण ज्योतिर्मय ही कर दे।


उठकर प्रभु नाम ले, सबकुछ अच्छा कर देगा

नित रहो साथ तिहारे, नाम अमर वो कर देगा।

श्रेष्ठता -ध्येय बना, जीवन-सीढ़ी चढ़ते चला जा

देखोगे कुछ समय में ही, स्तर अति बढ़ गया।


कदापि न सोचो क्षीण तुम, वीरता-संवाद करो 

भागेगी पराजय मुख छुपा, यदि तुम संयम धरो।

अपने मन-मीत बनो तुम, सब अच्छा हो जाएगा

बंसी निज मधुर बजा, कन्हैया स्वयं तान देगा।



 पवन कुमार, 

१ अप्रैल, २०२४, ब्रह्मपुर ओडिशा समय १२:४८ म० रात्रि  

(मेरी डायरी २७ जनवरी, २००२, रविवार, समय ११ बजे रात्रि, 

क्लीव कॉलोनी, के.लो.नि.वि., शिलाँग - ३, मेघालय से ) 


Monday 18 March 2024

दिशा बदली

दिशा बदली

    

दिशा बदली तो दशा बदलीएक विचार-ढ़ंग बदला तो दुनिया ही बदल गई

पर आश्चर्य यह सब मेरे कारण हुआमैं तो जमाने को दोष दे रहा था वैसे ही।

 

सर्वस्व निज कर में हीमैंने उत्तर दिशा से कुर्सी घुमाकर ली दक्षिण-पूर्व कर 

कहते हैं दक्षिण या पूर्व ओर मुख कर मनन करोतो लाभ होगा आश्चर्यकर।

वैसे भी बिस्तर पर लेटताप्रातः जल्द उठ भ्रमण-व्यायाम तो सेहत हुई श्रेष्ठ 

मन जरा सकारात्मक तो सर्वत्र आत्मरूप-दर्शनदूर हो गए वैमनस्य सब।

 

मैंने भोजन-मात्रा में जरा कमी कीउदर से अनावश्यक बोझ कम हो गया 

थोड़ी सी वसा-मात्रा खाने में अल्प की, तो हृदय-स्वास्थ्य प्रफुटित हो चला।

किञ्चित चाय कम पीनी शुरू कीउदर-अम्लता बहुत हद तक हो गई दूर

प्रातः उठ गुनगुना जल पीना शुरू कियापाचन-शोधन सब हो गया दुरस्त।

 

सुबह उठकर मुख धोकर नेत्रों पर लार मलनी चालू कीतो दृष्टि सुधर गई 

अपराह्न-भोजन बाद अल्प-निद्रा चाहे कुछ देर हीअनुपम ताजगी मिलती।

शयन-पूर्व रात को एक गिलास दूध पीना शुरू कियातो स्वास्थ्य सुधर गया

सुबह आवास को बुहारना शुरू कियातो एक स्वस्थ परिवेश का बोध हुआ।

 

चुनींदी कहावत-दोहे-शेर-कविता-गजल लोगों में बाँटीलोग सजदा लगे करने 

कुछ ग्रुपों से जुड़ा समरूचि-मित्रों केबहु ज्ञान-सहयोग-समझ पास लगी होने। 

थोड़ा हँसी-मजाकमुस्कुराना शुरू जो कियालोग खुश होकर पास आने लगे

लोक के हित  मन की क्या बात कह दीतो बड़ी आशा-आदर से देखने लगे।

 

कुछ थोड़ा साहस किया  पदानुरूप झिड़क दी, कार्य-अनुशासन दिखने लगा

समक्ष कार्यों में कुछ अधिक लीन हुआतो मुझमें अधीनस्थ-विश्वास बढ़ गया। 

निज पक्ष कुछ शालीनता से स्पष्ट कह दिए तो अन्य उन्हें सकारात्मक ही लेते 

दूजों को समझने की जरा कोशिश कीसारी दुनिया दिखने लगी एक दर्पण में। 

 

शरीर की कुछ योग-मुद्राऐं बनाई तो उन विशेष अंगों का भी होने लगा व्यायाम

सब संधियाँ तनय होनी चाहिएजिंदगी जीने हेतु स्वस्थ-बली होना आवश्यक।

प्रजाजनों से जरा मधुर-सवांद शुरू कियावे और अधिक सम्मान करने लगे 

पर ढ़ीठ-कर्मियों से कुछ कठोरता कीतो वे भी शनै उचित पथ आने लगे। 

 

जरा सा सार्वजनिक कल्याणार्थ सोचातो एकदम शासन-प्रबंधन बदल गया 

लोगों को सुढंग से परखना शुरू कियाउन्हें निज शैली अनुभव होने लगा। 

किंचित दृढ़ता दिखाई तो सुस्तों में बेचैनी बढ़ीया तो काम करेंगे या भागेंगे

दोनों चीजें निज हाथों में पर दोषारोपण सुधरोगे तो अति लाभ ही होंगे।   

 

सुबह उठकर थोड़ा चिंतन-लेखन शुरू कियावृद्धि हुई बौद्धिक क्षमता में

कुछ महापुरुष-चरित्र अध्ययन, तो थोड़े-2 जुड़कर अनेक पास  गए। 

एक का अन्वेषण-यत्न हुआ, तो अनेक अन्यों से इस बहाने हो गया परिचय

संगी-साथ बढ़ापरस्पर-निष्ठा वर्धितजरूरी तो नहीं सब सदा हों समक्ष।

 

एक पुस्तक-परिचय तो अनेक नाम समक्ष आएधीरे कड़ी सी बनने लगी

एक कदम अग्र बढ़ा तो पथ दिखादृष्टि निर्मल हो दूर तक देखने लगी। 

मनसितार तार झनकायाएक आश्चर्यजनक तरंग सर्वांग में हुई झंकृत

अभी अज्ञात था मैं भी थिरक सकताअपने से परिचय होना हुआ आरंभ।

 

अपनी अनेक शक्तियों से अबतक अनभिज्ञ थाएक दिन देख ली झलक

आश्चर्यजनक रूप से मन-बली बना, आत्म-विश्वास कौशल हुआ वर्धित। 

तन्द्रा में भी खुद से झूझने की कोशिश कीतो नव-विचार उदित होने लगे

समय-सदुपयोग होकुछ घंटे चुराए तो जीवन निर्माणार्थ उपलब्ध हो गए। 

 

संस्था-कारवाईयों में भाग लिया तो खुलती दिखाई दी अनेक रहस्य-परत 

अनेक आयाम-दृष्टिकोण से भिज्ञ हुआमानस-पटल किञ्चित हुआ संपन्न।

विनीत हो वरिष्ठों की बात सुननी शुरू कीतो उनका स्नेह-पात्र गया बन

कुछ देर वज्रासन में बैठासौष्ठव बढ़ादेह सशक्त  पाचन-बल वर्धित।

 

जैसे ही अधीनस्थों प्रति कुछ दयावान हुआवे दिल से सम्मान करने लगे

कथन हृदयस्थ करके पूरी शक्ति लगा, प्रदत्त कार्य-पूर्णता का यत्न करते।

किञ्चित अधिक काम करना शुरू किया, तो वे कायल होकर बिछने लगे

कीर्ति दूर तक पहुँचीहरेक वाँछित कर्म पूरा करने की कोशिश करते। 

 

मुझे असहजता आभास होते हुए भी, यह लेखन-क्रिया आगे बढ़ा हूँ रहा

इसी संहति में से ही कुछ उम्दा निकलेगाआशावादी हूँ सदा कुछ पाया।

माना मैंने बहुत कुछ सोचा इस स्वयं हेतुपरंतु कुछ को तो बिसरा दिया

तथापि ईमानदार-नेक यत्न हूँ करता, आत्म को सदा  सजा दे सकता।

 

माना भविष्य की न कोई सुधहाँ वर्तमान में पूर्ण झोंकने का करता यत्न

पर कुछ योजना तो बना सकतास्पष्ट देखने की पूरी कोशिश है संभव।

कैसे वर्तमान की सुस्ती को भगाऊँआँखों में नींद चढ़ी पर कलम सतत 

यह विचित्र विरोधाभासग्रीवा झुकाताफिर उठाकर हो जाता गतिरत।

 

किंचित यदि निज वित्तीय-प्रबंधन सुधार लिया, तो धनराशि जुड़ने लगी

व्यय के बाद अनिवार्य संचय तो नित लाभप्रदबाद में आएगा काम ही। 

संतान संग बैठ समय लगाना शुरूतो उनकी पढ़ाई ठीक से लगी होने

प्रोत्साहन से उत्साह वर्धन होताउद्देश्य कि वे अधिकतम तरक्की करें।

 

अभी बहु-विषयों पर ध्यान  दे पा रहाफिर अपने से कैसे सुधार होगा

किंतु प्रथम विषय-ज्ञान तो होफिर वाँछित को भी चिन्हित करना होगा। 

अज्ञात कितने आयाम हैं संभवक्या अपनी विषय-वस्तु बढ़ा सकता नहीं

बहु-आयामी ही प्रतिभा-नाम कमातेकुंभकर्ण  उठते नगाड़े सुनकर भी।

 

जरा निर्मोही हुए तो कबीर सम स्पष्ट दृष्टिसमक्ष जग यूँ  गया हथेली पर 

बहु-भाँति के सुवचन वदन से निकलेकौन सरस्वती उनमें करती ही वास। 

पर ऐसा क्या नैसर्गिक होता या नियति-वृत्ति ठीक कर लीराह निकली चल

दुकान खोलो ग्राहक भी  जाऐंगेप्रयास से सकल समाधान होंगे समक्ष। 

 

निज की मिथ्या-मुक्ति हेतु आदि कीअनुपम हल्कापन मन-देह में अनुभूत 

विश्व तो बहुत ऊल-जुलूल से पूरितनिज अग्रताऐं ही करनी होती चिन्हित। 

यह जीवन मेरा इसे सर्वश्रेष्ठ कैसे बनाऊँकुछ गुरुओ से तो लेने होंगे सबक

सारा जोर ढंग-तरीके परउनके प्रयोग करनेतब तो गाड़ी निकलेगी चल।

 

किञ्चित सामान्य से अधिक प्रयास, तो निश्चितेव चरम सफलता ओर गमन  

यह जीवन संवारना तुम्हारी जिम्मेवारी हैजो भी वाँछित ढूँढ़ ही लो उपाय।

'यह जीवन  मिलेगा दुबारा', अतः प्रत्येक पल पूरी तरह से जी जाए लिया 

एक वृहद-जीवंतता प्रतीक्षा करतीजो भी उचित संभव खड़े होलो अपना। 

 

 

पवन कुमार,

१८ मार्च, २०२४, सोमवार, समय ००:२७ बजे म० रात्रि 

(मेरी महेंद्रगढ़ (हरि०) डायरी २० अप्रैल, २०१७, वीरवार, समय :१७ बजे प्रातः से)