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The postings in this blog are purely my personal views, and have nothing to do any commitment from Government, organization and other persons. The views in general respect all sections of society irrespective of class, race, religion, group, country or region, and are dedicated to pan-humanity. I sincerely apologize if any of my writing has hurt someone's sentiments even in the slightest way. Suggestions and comments are welcome.

Saturday 31 May 2014

दर्द-ए -दिल

दर्द-ए -दिल 
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मैं तो ख्यालों में ही खोया रहता हूँ 
पता नहीं क्यों उनमें ही डूबा रहता हूँ। 

तुम तो हार कर भी जीते 
मैं तो जीतकर भी हार जाता हूँ। 
मेरा मन तो है दास तेरा ऐ सनम 
तू अगर बोले तो मर भी जाता हूँ। 

क्या कसक दी है दिल में ऐ तूने 
अपने ही दर्द में करहा जाता हूँ। 
न जानूँ मैं गति अपनी  
मैं तो बस तुझमें ही बहा जाता हूँ। 

बरबस यूँ ख्याल तेरा ही 
मैं तो अपने से डरा जाता हूँ। 
नहीं पता है डगर अपनी का 
क्यों मैं हवा में तेरी उड़ा जाता हूँ।

जिंदगी भर का साथ पकड़ा है 
लेकिन चन्द लमहों से घबरा जाता हूँ। 
तुम तो दूर बैठे  हो सनम 
मैं ख्वाबों में डर जाता हूँ। 

तू अपनी शक्ति का कुछ अंश दे 
मैं तो अपना सब लुटा बैठा हूँ। 
तेरी बाहों का गर मिल जाये साथ 
तो हर पल को शिकस्त देता हूँ। 

तेरी यादों में मैं खोया हूँ बहुत 
मुझे कुछ पता नहीं जिंदगी का। 
कैसे चल रही किसके मानिंद 
कैसे मैं अपना पता पाऊँगा।

मेरी झोली में पड़े बहुत से चमन 
मेरा तुझसे जो साथ हो जाए। 
किस्मत भी है शायद कुछ खपा सी हमसे 
होते मिलन को भी दूर ले जाए। 

मेरी हालात पर यूँ दया भी नहीं 
किसी शख्स को न रोना आता। 
मैं किससे कहूँ दास्तान-ए-अपनी 
मुझे कुछ भी समझ नहीं आता।  

मैं तो बन गया हूँ कुछ मजनूँ सा 
दिन-रैन लैला किया करता हूँ। 
मुझे कुछ सूझे नहीं ऐ साथी 
तू आके मुझे संभाल तो ले। 

मैं खो गया हूँ अपने में ही 
तुम मुझसे दूर क्यों चले गए। 
मैं हालात पर अपनी आंसू बहाता चला 
पर कोई रास्ते में संभालने वाला न मिला। 

ये गम के लम्हें और उस पर तेरी यादें 
जैसे दर्द पर कोई नमक छिड़क जाए। 
मेरा गम है कुछ अजीब सा 
मुझे  तो पता नहीं यह है क्या माजरा। 

दुनिया ने कष्ट है बहुत दीजे 
पर मैं तो सहे ही जाता हूँ। 
मुझे कुछ मार्ग दिखा दे ऐ जानूँ 
मैं तो किससे करूँ शिकायत भी। 

अपनी किस्मत का दोष है शायद
वरना दूर इतनी क्यों रोता जाता हूँ। 
तू भी तड़पे है बिना मेरे वहाँ 
तेरी हालत भी नहीं बेहतर है। 

किस-2 का गिला करूँ मैं ऐ सनम 
यहाँ तो हर कोई एक जैसा लगता है। 
मैं दीवाना सा फिरूँ उलझा सा 
किस कदर खुद में खोया हूँ। 

मेरी भोली सूरत पर दया कर मौला 
गर मुझ पर नहीं तो मेरे महबूब पर कर। 
मैं बिछुड़ा हूँ उनसे और वह बिछड़े हमसे 
कब तलक दर्द में यूँ तू तड़पाएगा। 

मेरी नीयत में खोट हो तो बता 
मैं क्या करूँ समझ न पाऊँ। 
तू है बड़ा निर्णयी हमने है सुना 
मुझसे फिर क्यूँ आँख चुरा जाता है। 

क्या हालत बन गई है मेरी, है देखी 
मैं तो खुद पर आंसू बहाता जाता।  
तेरी आँखों में सुना दया है बहुत 
फिर क्यूँ तुझे मैं नज़र नहीं आता। 

मेरी जीवन की शक्ति दे दे मुझको 
मैं तेरी ही इबादत में लगा रहता हूँ। 
मैं भूल गया हूँ समस्त विद्या मेरी 
अपनी ही हालत में रोए जाता हूँ।    

मैं तो हूँ डगर का पथिक 
जिस पर न दया का फूल मिला। 
बहुत शुष्क हो गया है ह्रदय मेरा 
कोई आकर तसल्ली दे जाए। 

मेरी बेड़ियों को कोई काट डाले तो 
उम्र भर उसका गुलाम हो जाऊँ। 
तेरी दुनिया में है कोई मरहम ही 
या तो यूँ घायल ही चला जाऊँ। 

कैसे करूँ सामना मैं तेरा 
तेरा दोषी हूँ भाग आया हूँ। 
तू तो शायद अपनी किस्मत को रोती 
कहती होगी किस भगोड़े से मिली। 

मुझे भी समझ ले तो ऐ जानूँ 
इतना भी नाशुक्रा भी नहीं हूँ।  
तेरा मुज़रिम हूँ मैंने माना है 
दर्द जितना वहाँ, यहाँ उससे अधिक है। 

किससे कराऊँ अहसास इस दर्द का  
मुझे तो ऐसा नज़र ना आता है। 
सब सुनते है कुछ बनावटी रहम खाकर 
बाद में तो अनदेखा कर देते। 

पीड़ा की जलन सीने में सही जाती नहीं 
फिर कैसे सहूँ समझ आए री। 
कोई वैद्य भी नज़र नहीं आता 
जो आकर मरहम लगा जाए। 

दूरियाँ स्थान की है रे बहुत 
मैं कैसे पार करूँ पंख तो नहीं हैं। 
अच्छे फंदे में डाला है जिंदगी 
अच्छी तरह से सहजना तुझे आता है। 

मैं तो डर गया हूँ अपने ही साये से ऐ सनम 
मुझे ढाढस न कभी मिलता है। 
कोई कहता नहीं तकलीफ है तुम्हे बहुत 
किसी को न फिर दया ही आती। 

भटकता रहता हूँ इस दुनिया में मैं अकेला 
कोई साथी नज़र नहीं आता। 
रोऊँ तो किससे रोऊँ, किससे कहूँ, किससे बखानूँ 
हर कोई तो अपने में ही मस्त है। 

मैं भी तो हूँ स्वार्थी बहुत ज्यादा ही 
मैं किसका ही ध्यान करता हूँ। 
मैं भी डूबा अपने ही ग़म में 
मुझे तो किसी से शिकायत भी नहीं। 

पर कब तक चलेगा ऐसा 
मुझे मौला तू होंसला दे दे। 
तू तो सुना था दयालु है बहुत 
मुझको अपनी दया का पात्र बना। 

बहुत तड़पा हूँ ऐ मेरे मौला 
सहा अब और नहीं जाता है। 
मेरे सब्र का बाँध टूट न जाए 
फिर तेरी दया का मतलब न रह जाएगा। 

किस कदर मैं तो यूँ ही भटकूँ 
तू आकर सुला जा ऐ सनम। 
घायल हो गए हैं पैर मेरे 
चलते-2 तो लड़खड़ा जाता हूँ। 

मेरी दुनिया में रोशनी कर दे 
औरों के भी तो घर बसते ही हैं। 
फिर मुझसे तू ख़फ़ा क्यों मौला 
बता मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है। 

मैं थोड़ा बुरा हूँ मुझे  है पता 
    पर ऐसा भी नहीं कि बिलकुल ऐसा ही हूँ। 
फिर कैसा बदला लिया है तूने 
मुझको अपनी ही चाहे शक्ल दिखा दे। 

तू तो फिर बाप है सबका 
क्यों अपनी ही संतानों पर  कहर है ढाता। 
इस रात के सूने प्रहर में 
क्या तुझे मेरी शक्ल नहीं दिखती। 

मेरी अगर आत्मा है मुझमें 
तो वो तुझको फिर याद करें। 
तू आकर उसे संभल तो ले 
वरन तो ये बेचारी ना जाने क्या करें। 

मैं चाहूँ तो हूँ रुकना 
पर दिल है कि मानता ही नहीं। 
गर्दिशों के शिकंजे में ही सही 
पर कलम ये साथ दे जाती। 

मैं तो इसका ही सहारा पाता 
पर ये तो रोते-2 मुझे रोक देती। 
कहती है शायद तू मत घबरा ऐ अज़ीज़ 
तेरी तपस्या ज़रूर रंग लाएगी। 

मैं किस कदर खो गया हूँ अपनी ही बातों में 
कभी न ख्याल ज़माने का किया करता हूँ। 
मुझे शिकायत नहीं ज़माने से 
मैं तो अपने ही रंज में डूबा जाता हूँ। 

दिल बहलाने का कुछ संग कर दे
कैसे कटेगी कुछ ढंग तो कर दे। 
मैं अपने ही क़त्ल का हूँ मुज़रिम 
फिर चाहे तो मुझे भंज दे। 

तेरी ही दया का मैं चाही 
तू कुछ ऐसा करिश्मा कर दे। 
मुझे मिला दे मेरे साथी से 
मेरे जाने का इंतज़ाम कर दे। 

पवन कुमार,
31 मई, 2014 समय 20:38 सायं 
(मेरी शिलोंग डायरी दि० 20 अगस्त, 2001 समय 12:55 म ० रा ० से ) 
  
  

Tuesday 27 May 2014

कुछ बात

कुछ बात 
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दुनिया के सितमों का शिकवा क्या करना 
   यह तो हम खुद हैं, फिर और किसी से भला क्या डरना। 

तरफदारी तो सुनी थी, ज्यादा ही होती है 
पर देखा तो ज़रा ग़ौर से तो कुछ ज्यादा ही पाया। 
सोचे थे कि हर ग़म से महफूज़ हैं हम  
पर आँख खुली तो हर तरफ़ काँटों से घिरा पाया। 

हर बनावट के पीछे एक कलाकार होता है 
हर सज़ावट के पीछे कोई होनहार होता है। 
मैं तो मूरत भी कोई अच्छी सी नहीं बना पाया  
नहीं जानता मेरा भी कोई पालनहार है। 

ठोकर खाकर गिरें तो लहू-लुहान हो चले 
धक्का जो लगा तो बेहाल हो गिरे। 
नहीं समझ पाए हमारी है क्या क़िस्मत 
दुनिया में क्या इसीलिए आऐं कि पड़े या गिरे। 

मन की लगाम हम कभी खो बैठते हैं 
कहाँ भागे हैं यह, संभाल ना पाते है। 
कैसे बनें सारथी, हम अपने इस मन के
इस भ्रमित अर्जुन को कृष्ण न मिल पाते हैं। 

पूजा के लिए चुना था जिन फूलों को हमने चमन से 
देखा तो एक बदनाम रास्ते में ये पड़े मिलें।  
सोचा था कि सफल होगी एक पुष्प की अभिलाषा 
पर किस्मत में  लिखा था शायद कि यहाँ गिरे, वहाँ पड़े।  

मन के खिलाड़ी थे कभी हम,  शायद कभी तो जीते 
थोड़े से होश में आए तो पाया हम गिरे। 
कैसे बुज़दिल हो तुम बन्धु 
बिन लड़े ही समझ लिया कि मरे। 

जीवन की जीवन्तता जीने से होती है 
फिर हार मान लिया तो क्या ख़ाक जिए रे। 
उठो, बढ़ो अपने मन अरमान लिए नए 
और संग मुस्कुराने का आलम मन में।  

कोई कुछ करेगा तो नाम मिलेगा 
अच्छा ना सही तो बदनाम ही मिलेगा। 
जो चलेंगे वे ही तो गिरेंगे 
जो पहले ही गिरे हैं तो क्या ख़ाक मिलेगा। 

 दीवारों की कुछ बाड़ बना ली है क्यों मन में 
रखो इसे खुला और आने दो ताज़ी हवा का झोंका। 
रखोगे अगर पहरे लगाकर इस पर 
किसी दिन दे जाएगा यह बहुत धोखा। 

रात्रि के मध्य प्रहर में, हर तरफ़ शून्यता है 
कहने के लिए कहें तो मन में बड़ी बोझिलता है। 
लिखने का एक कारण उस शून्य को दूर भगाना है 
फिर आएंगे  नए विचार और निकट सफलता है। 

माँ सरस्वती का ध्यान करो 
वह तुम्हे विद्या दे, विद्या दे, विद्या दे। 
मन में तुम्हारे ज्ञान की ज्वाला जलाए 
और तुम्हारा मन-दीपक चहुँ ओर प्रकाश फैलाए। 

धन्यवाद, शुभ रात्रि। 

पवन कुमार,
27 मई, 2014 समय 23:47 म० रा० 
(मेरी शिलोंग डायरी दि० 12.10.2001 समय 12:15 म० रा० से )     


Saturday 24 May 2014

कलम के प्रश्न

कलम के प्रश्न


दुनिया में दर्द का एक रिश्ता  है 
और इसी में हम बहे जा रहे हैं। 

कहने को तो कुछ भी नहीं है मन में 
बस यह लेखनी ही है जो सफर को बढ़ाए जा रही। 
हम तो बस यूँ ही जिंदगी तय करने में जुटे थे 
यही प्रिय जीवन में कुछ प्राण फूँकने का प्रयत्न कर रही। 

मैं कैसे कहूँ और क्या कहूँ जब मन में समझ नहीं आती 
दिमाग कुछ थम सा गया है और नींद जैसा आलम है। 
मैंने फिर यह लेखनी उठा ली है 
अब इसके कमाल के सहारे ही अगली पंक्तियों का भविष्य है। 

दुनिया में जीने के लिए स्वयं को मारना पड़ता है 
कुछ पाने के लिए बहुत कुछ खोना पड़ता है। 
अजीब दास्तान है ये जीवन -ए- मुहब्बत 
अजी हम मर भी जाऐं और शिकायत भी न करें। 

आज का दिवस भी बस यूँ ही  बीत गया
कुछ पढ़कर, कुछ सोकर, कुछ बातचीत में मशगूल होकर। 
दो बार बहन को टेलीफोन किया, विनोद का इंजीनियरिंग सर्विसेज का रिजल्ट जानने को, 
एक बार अपनी प्रियतमा से बात की उसी सिलसिले में। 

राजीव के भाई का एग्जाम पास हो गया है 
विनोद के बारे में बहुत आश्वस्त नहीं हूँ। 
लेकिन अगली परीक्षा की तैयारी तो उसके हाथ में है 
केवल मेहनत व ईमानदारी से भविष्य बना सकता है। 

जीवन में योजना भी कोई चीज होती है, 
उसी के बूते मनुष्य बड़ी बाधाऐं पार कर जाता है। 
हम अपने ऊपर विश्वास तथा साहस द्वारा 
जीवन के दुर्गम मार्ग सुगमता से पार कर सकते हैं। 

क्यों इतनी कुटिलता है, क्यों इतनी जटिलता है 
इसमें ही यह सब क्यों कहानी बन जाती है ?  
मनुष्य क्षुद्र लाभों हेतु घिनौनी हरकत कर जाता है 
जैसे जीवन में उचित विषयों हेतु कोई स्थान ही न है। 

हम अपना गुजर नेक नीयत से भी कर सकते हैं 
 ईमानदारी व ठीक तरीके द्वारा यापन कर सकते हैं। 
लेकिन कुछ प्राणी निज कुकृत्यों द्वारा न केवल अपना 
अपितु दूसरों का भी जीवन नरक कर देते हैं। 

यह सत्य कि सभी पूर्णरूपेण आदर्शवादी न हो सकते 
पर यह भी सत्य है कि आटे में नमक चलता है। 
लेकिन यह नमक भी कितना लगेगा 
सभी को तो नमकीन रोटी चाहिए ही। 

कब होगा वह जमाना जब सब सत्य प्रति आमुख होंगें, 
हमारे जीवन में नेक-नियति, सच्चाई की ताकत होगी। 
जब आदर्श केवल आदर्श न होकर 
हमारी दिन-चर्या का एक अंग बन जाएगा। 

कब ऐसा ज़माना होगा जब निज योग्यता पर भरोसा होगा 
और कब अपने पैर ज़मीं पर जमा सकेंगे ? 
कब गर्व कर सकेंगे अपनी आदमियत पर, 
और दुनिया से अधमता का अंधकार मिटा सकेंगे ? 

कब होगा वह दिन जब माँ सरस्वती की कृपा होगी
कब मुख-लेखनी से कुछ सारगर्भित शब्द निकलेंगे ?  
कब मैं केवल खोखली बातों से ही सन्तुष्ट हो न हूँगा  
और कब आदर्श व्यक्तित्व पैदा होने को छटपटाएगा ? 

कब आऐंगे वो क्षण, जब अस्तित्व-पूर्ण जीवन हूँगा, 
और कह सकूंगा मेरा भी आना दुनिया में सार्थक है। 
कब मुझमें परम जीवंत-चेतना का अहसास होगा, 
कि मुझमें में भी सारगर्भित जीवन का स्पंदन है। 

कब मैं प्राचीन याज्ञवलक्य सा खोजी हूँगा 
कब कठिनतम प्रश्नों के उत्तर खोजने को तत्पर हूँगा ? 
कब स्वयं से सार्थक प्रश्न करने में सक्षम हूँगा 
और इस तम को दूर करने हेतु विचलित हूँगा ? 

कब अपनी वास्तविक स्थिति से अवगत हूँगा 
और निज विफलताओं / दुर्बलताओं को ज्ञाता हूँगा ?  
कब अपनी परिभाषा देने में सक्षम हूँगा 
और फिर सच्ची पहचान के संग जी सकूँगा। 

कब जीवन में सच्चाई का अहसास होगा, 
कब कष्टों के निकास-पथ ढूँढने हेतु करबद्ध हूँगा ?
कब छोटी -2 विफलताओं में हार न  मानूँगा 
और सफलता के सच्चे अर्थ को समझ सकूँगा ?

कब स्वयं पर पूर्ण विजय का सपना लूँगा 
कब जीवन को पूरा जी ही सकूँगा ? 
कब माता-पिता, भाई-बहन व जग के कर्त्तव्य समझूँगा 
और कब वे मेरे और मैं उनके अनुकूल बन सकेंगे ? 

कब मुझे दी गई जिम्मेवारियों को समझ सकूँगा 
कब उनका निर्वाह करने में कोई कसर न छोड़ूँगा ? 
कब दूजों की टिप्पणियों को ठीक परिपेक्ष्य में लूँगा 
और कब स्वयं सुधार वाले रास्ते पर अग्रसर हूँगा ?

मेरे माता-पिता के मुझ पर बड़े अहसान हैं। उनका पालन मैं उतनी दृढ़ता से नहीं कर रहा हूँ जितना कि मुझे करना चाहिए। मैं उन्हें कई बार तो शब्दों द्वारा दुःखी कर देता हूँ हालाँकि ऐसी कोई मेरी इच्छा नहीं होती। हे प्रभु ! मुझे समझ दे कि मैं अपने जीवित माता-पिता में तुम्हारे दर्शन करने लग जाऊँ। मुझे केवल तार्किक न बनाकर सच्ची बुद्धि दे और भक्ति दे। बहुत दिनों तक मैं शायद अपने इस कर्त्तव्य को उतनी कर्मठता से नहीं पाया जितनी मुझे करनी चाहिए। हे प्रभु ! मुझे सद्बुद्धि दे कि चीजों को ठीक रूप में देखूं। किसी से मेरा वैमनस्य न हो और मैं अपना कार्य सुचारू रूप से करूँ। सभी के लिए अच्छी भावनाऐं रखूँ और सभी का भला चाहूँ। 


धन्यवाद, शुभ रात्रि। 


पवन कुमार,
24 मई, 2014 समय 22:18 रात्रि 
(मेरी शिलोंग डायरी दि० 5 फरवरी, 2001 समय 12:15 म० रा० से )
      

Sunday 18 May 2014

आम आदमी

आम आदमी
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देखें हैं मैंने  मानव भाँति -2 के, अजीब -2 ढंगों वाले 
कुछ तो उनमें अतीव सीधे, कुछ चलते गहरी कुटिल चालें। 

फिर भी अंदर का दर्पण तो बाहर झलक ही जाता है 
और एक आम आदमी अपनी ही चाल में फँस जाता है। 
कभी तो वह बहुत चालाक बनकर कुछ छुपा जाता है 
लेकिन क्या उस खोजी की नज़र से कोई बच पाया है ?

किससे करतें चालाकियाँ व किसे प्रभावित करना चाहतें 
फिर क्या उनके मन में तनिक अपराध भाव नहीं होता। 
क्यों मनसा-वचसा-कर्मणा का भेद क्षणभर में समक्ष करतें 
जबकि जानते हैं सच में तो वे कुछ छिपा ही नहीं सकतें। 

फिर चालाकियाँ करके क्या वे अधिक पा लेंगें 
जब ईमानदारी स्वयं से ही नहीं, तो किससे वफ़ा करेंगे? 
जब हम क़त्ल करने चलें थे शत्रु का 
तो आकर देखा तो हमारा ही रक्त बह रहा है। 

फिर कालांतर में आदतों के कारण एक स्थिर चरित्र बन जाते 
किञ्चित हममें झुकाव एक तरफ अधिक होने लगता है। 
तब हम अपना अस्तित्व भूलने लगते हैं 
अपनी आत्मा पर 'दुरा' या 'महा' का सम्बोधन लगा देते। 

फिर क्यों छोटी-2 बातों पर तुरंत प्रतिक्रिया करने लगते 
माना कि हर एक क्रिया के पीछे प्रतिक्रिया स्वाभाविक है। 
फिर क्रियाऐं ही ऐसी क्यों न हो जिससे ठीक परिणाम भान हो 
नहीं तो क्या आग में हाथ देने से, वह नहीं जलता। 

फिर हम चेहरों पर बेशक मासूमों का मुखौटा लगाऐं 
कुछ भोले, शरीफों को अपने बहरूपिएपन से भ्रमाऐं। 
किंचित कुछ स्वार्थ सिद्धि पर अपने मन में हर्षाऐं 
लेकिन यथार्थ स्थिति हम भी जानतें व 'वो' भी जानता  है। 

हम में से हैं कुछ लोभी, कुटिल, सीधे व कुछ यथार्थ मानव हैं 
लेकिन अधिकतर शैतान व ईश्वर का कुछ मिला हुआ असर हैं। 
कुछ गुणों की अधिकता हमें एक श्रेणी में खड़ा कर देती 
और फिर एक खास छवि का ठप्पा लग जाता है। 

पर फिर हम एक अच्छे इन्सान क्यों नहीं बनें रह सकते
कौन सी चीज़ आकर हमें एक खास गुणों वाला बना देती। 
यदि हम वस्तुतः मानव ही है तो फिर क्यों भ्रमित हो जाते 
और वास्तविक स्वरूप को भूल कर इधर-उधर की बात करतें। 

फिर स्वयं के लिए क्या व्यवहार  चाहते हैं 
यदि हम प्यार चाहतें हैं तो प्यार करना  सीखें। 
हम सम्मान चाहतें हैं तो सम्मान करना सीखें 
क्योंकि क्या कभी नीम के पेड़ पर आम का फल लगा है ?

फिर यह सब तो कुआँ है जैसे बोलोगे, वैसा गूँजेगा 
लेकिन तुम मूर्ख अपनी वह चीख सुनकर भी नहीं चेतते। 
अभी तक तो तुमने बहुत अधिक प्रयोग कर लिए होंगे 
प्रयोगों से निष्कर्ष व निष्कर्ष से अपनाना शुरू कर दिया होगा। 

कैसे कुछ जीवन में कष्ट से महानता की चरम अवस्था प्राप्त कर लेते 
क्या तुमने कभी उनके रास्ते पर ध्यान दिया है?
कार्य को ठीक करने के लिए उचित रास्ता जरुरी है 
अच्छा हो कि कोई भला मानुष अपने अनुभव से लाभान्वित कर दें। 

फिर महानता अलग सन्दर्भों में पृथक ढंग से परिभाषित की जा सकती 
कोई महात्मा बनता है उस परम-पिता  में ध्यान लगाकर। 
कोई कर्मयोगी बन जाता इस जग में हित, समर्थ कर्म-भावना लेकर
कोई अध्ययन में जुट जाता और नई -2 विधाऐं जग के समक्ष रखता 
और कोई अनेकों को राह दिखाने हेतु प्रथम निज-पथ ढूँढ़ने चल पड़ता। 

फिर  रास्ता इतना आसान भी नहीं है कि हर कोई चल पड़े 
लेकिन इतना मुश्किल भी न, अगर चाहे तो उससे बन न पड़े। 
पर इन सबके लिए एक मंसूबा, आदर्श, किरण चाहिए 
ताकि तुम अपनी सब ऊर्जा उसमें एकाग्र कर सकों।  

फिर सभी तो महानता के कर्म नहीं करते 
कुछ तो केवल बहुत ही साधारण जीवन बिताना चाहते। 
कुछ उलटे-सीधे रास्ता अपनाने में भी  संकोच नहीं करते 
और फिर अति-साधारण मनुज बन दुनिया से चले जाते हैं। 


अंततः यह सत्य है कि इस दुनिया में सबका बड़ा नाम नहीं हो सकता क्योंकि जिनके पास वाँछित साधन यथा धन, विद्या, ज्ञान, कुशलता, आचरण आदि किञ्चित अधिक उपलब्ध हैं, वे ही बहुदा प्रसिद्धि पाते हैं। तो भी आम जनता का न्यूनतम स्तर बढ़ाया जा सकता है और फिर ऐसा क्यों न हो कि किसी को बहुत बड़ा बनने जरुरत न पड़े। सब एक पारस्परिक सोच-समझ से अपना स्तर और ऊंचा उठने का यत्न करें। 

प्रभु का धन्यवाद करो 
अपने ज्ञान में उत्तरोतर वृद्धि करों। 
बाकी पड़े कार्यों को तुरन्त निबटाने की कोशिश करो 
तुम्हारा कल्याण होगा। 


धन्यवाद, शुभ रात्रि। 

पवन कुमार,
18 मई, 2014  समय 15:25 दोपहर 
(मेरी शिलोंग डायरी दि० 28 फरवरी, 2001 समय 1:10 म० रा० से )  
        


    
   


Wednesday 14 May 2014

मेरी दुंदुभी

मेरी दुंदुभी 

इस कालखण्ड में आया हूँ लेकर अपनी दुंदुभी 
कुछ गर्जन अपना करने को और कुछ उस शक्ति की बन्दगी। 

कहाँ से आया हूँ, कोई और जहाँ तो नज़र नहीं आता 
लगता है कि कहीं यहीं था किसी स्वरुप में, सुप्त अवस्था में। 
परिवर्तित कर दिया मनुज देह में कुछ चेतना के संग 
और छोड़ दिया इस जग में कि जा और बजा अपनी दुंदुभी। 

वह देख रहा है सब मानवों के कार्यकलाप, कि कितनी शक्ति है उनमें 
पर फिर उसे भी पता है कितने चूर्ण के साथ उनको बनाया गया है। 
वह कदाचित निर्मित करता एक जैसे तत्वों से सबको 
पर विभिन्न प्राणियों में गुण उनके अनुरूप डाले। 

सब करते हैं व्यवहार अपने गुण, चेतन सामान से 
और उसी में उनको कुछ करने का मिलता है अधिकार। 
माना कि वृहद् रूप में सबके कर्म एक जैसे ही है 
लेकिन सूक्ष्म दर्शन से विविधता और रोमांच भरे पड़े है प्राणियों में। 

यहीं पर वो मदारी खेल देख करता है कि कैसे खेल करते मेरे चेलें 
पर मैं कहूंगा कि कैसे उन्हें सिखाया गया है। 
फिर भी तो वे एक-जैसे तो नहीं हो सकते 
लेकिन उस विविधता में भी कुछ गुणवत्ता डाली जा सकती है। 

पर खेल में तो है हम आओ कुछ उछलें, कुछ उल्लासें 
तन-मन को रखें स्वस्थ यहाँ, इस जग की बगिया महका लें। 
सीखें कुछ अच्छे दाँव -पेंच यहाँ किसी गुरु की निगरानी में 
और जो भी कुछ समय मिला है, कम से कम अपने लिए सार्थक बना लें। 

मैं आया था अभिमान में अपने कि मैं ही श्रेष्ठ धनुर्धर हूँ 
पर देखा तो मुकाबला कठिन है इन महारथियों के समर में। 
और कुछ ध्यान लगाया तो  अपनी हेंकड़ी पर हॅंसी आई 
इतना थोड़ा सामान और ऊपर से अभिमान, यह तो अतिश्योक्ति है भाई।

बहुत करते है अभ्यास यहाँ सदा, आपने को सबल, सफल बनने में 
नहीं कभी संतुष्ट रहते स्वयं से क्यों कि अन्वेषण अभी जारी है। 
अरे कैसे बैठना अलसाकर जब जीवन इतने अल्प मिला है 
इसी को जितना जी लिया जाए, उतना ही कम है। 

सोचा था मैं विजयी हूँगा यह तो है खेल बहुत आसान 
पर जितना सीखूँ उतना जानूँ कि मैं कितना था निपट अज्ञान। 
मैं हँसा मूढ़ता पर अपनी कि क्यों है यह व्यर्थ अभिमान 
अरे उठो भाई, कुछ सीखो बेहतर और दशा बनाओ सक्षमतर। 

यहीं से उठा, यहीं पर रहा और यहीं मुझे मिल जाना है 
सब कुछ है अपना यहाँ और न कोई बेगाना है। 
में तुझमें और तू मुझमें, सब कुछ एकरूपता है 
पर शायद व्यवहार करने में निश्चय ही कुछ श्रेष्ठ हैँ। 

फिर मैं क्या करूँ स्वयं का जब इतने निम्न धरातल पर पाता 
कुछ सीखने के यन्त्र मिलें यहॉँ पर, कोई गुरु नज़र नहीँ आता। 
हैं तो बहुत आँखों पर परदा, पहचान करना फ़िर मुश्किल है 
और शायद मेरा अहंकार कि सब एक जैसे हैं या औरोँ पर अविश्वास।  

पर बुद्ध पर भी विश्वास किया कुछों ने, और जीवन सफल बना ही लिया 
आनंद, उलूपी, तपस्सु, भुल्लिक आदि कितनों ने परिवर्तित किया। 
वे चलें उस विश्वास के साथ कि कोई सहारे वाला है 
फिर बिन छोड़े कुछ मिलता नहीं, यह लेन-देन का रिश्ता है। 

कुछ विलम्ब से सही आओ कुछ अच्छा कर लें 
छोड़कर अपनी प्रगल्भ प्रवचना,  समय की कुछ इज्जत कर लें। 
मिला है यह अभी, आगे का कुछ पता नहीं है 
सीखों कुछ, बनो कुछ और सार्थकता का साथ हम ले लेँ। 

अपना मरना ही जग -प्रलय अतः एक-एक क्षण को सफल बना लें 
दूसरों में अपना स्वरुप देखने लगे तो शायद सदैव को साथी बना लें। 
फिर जीवन की कला सीख और कुछ अच्छी सी धुन तो निकाल  
वरना तो लगेगा व्यर्थ ढोया भार और खाली रही दुदुंभी। 

धन्यवाद। 

पवन कुमार ,
13 मई, 2014 समय 23:25 बजे म० रा० 
(मेरी डायरी दि० 9 मई, 2014 समय 8:40 प्रातः से)


Sunday 11 May 2014

नींद का सफ़र

नींद का सफ़र 

आँखों में निद्रा पूरी तरह छाई है 
फिर भी इच्छा है कि कुछ लिख ही डालूँ। 

दरअसल मैं अभी बस प्रकाश बन्द करने ही वाला था 
कि अन्दर के अन्धकार ने अकस्मात् मुझको जगा दिया। 
जीवन कैसे बीत रहा है कुछ मालूम नहीं पड़ता 
सुबह-शाम के चक्कर में उम्र बीत रही है। 

कार्यालय से घर, घर से कार्यालय, जीवन का यही सफ़र नज़र आया 
फिर जीवन का अर्थ भी है कुछ, इसकी सुध नहीं है। 
या तो बस ऑफिस में कार्य करता हूँ या फ़िर कुछ पढता हूँ 
लेकिन बैठकर कुछ सोचकर लिखने का समय ही नहीं निकाल पाता।

फिर मैं क्या करूँ, किंकर्तव्य-विमूढ़ हूँ 
अपनी मंज़िल को पहचानने असमर्थ सा पाता हूँ। 
कभी-2 दूसरों द्वारा मुझे न समझने पर खीज़ सी होती है 
पर क्या मैन स्वयं खुद को कभी समझ पाया हूँ। 

क्यों छोटी सी बात पर मन दुःखी करते हो 
आशाऐं जो पूर्ण न हो, क्यों उनके लिए छटपटाते हो ? 
जीवन ऐसे तो नहीं है कि व्यर्थ शोक मेँ बिताया जाए 
कुछ क्षण निश्चय ही सुख के भी होने चाहिए। 

बुद्ध का सिद्धान्त है -इच्छा दुखों का कारण है 
अतः अपने पर नियंत्रण करो, व्यर्थ में जी न दुखाओ। 
सुखी होओगे तभी मन अन्दर से निर्मल होगा 
तब तुम खुद को समझोगे और दूसरोँ को सम्मान दोगे। 

उषा का विचार आता है मन क्षुब्ध हो जाता है 
कितनी घबराई सी लगती है वह फोन पर। 
जैसे तो अभी रो देगी और मैं बस समझाता हूँ  
कि ऐसा कभी होता है, ऐसा नहीं करना चाहिए
परिस्थितियाँ जैसी भी हो, मुकाबला करना चाहिए। 

फिर स्थान की दूरी भी तो कम नहीं है,
और हमारा परिवार ही कितना बड़ा है। 
मात्र दो प्राणी हैं मेरे सिवाय 
क्या उन्हें मेरी अनुपस्थिति अनुभव नहीं होगी। 

फिर रास्ता क्या है, समय तो बिताना ही पड़ेगा 
सिर पर जब पड़ी है तो बजाना ही पड़ेगा। 
किससे शिकायत करें जब मामला खुद का ही है 
जिम्मेवारियों का तकाज़ा सब कुछ करने पर मज़बूर कर देता है। 

कल फोन पर मेरी बिटिया सौम्या से बात हुई 
उस समय वह दूरदर्शन देख रही थी। 
आवाज़ सुनकर मानो स्वर्ग का सुख मिल गया 
फिर वह ही तो मेरी जिंदगी है। 

मैं क्या हूँ, मैं उनका और वे मेरे हिस्से हैँ 
वे मुझमें और मैं उनमें समाहित हूँ। 
कुछ भी तो अलग नहीं है 
बस दिल को समझाने का बहाना चाहिए। 

यह दौर भी रास्ते का पत्थर है, पार हो ही जाएगा 
फिर तुम उनके और वे तुम्हारे संग ही होंगें। 
फिर होंगी वह प्रेम-प्रणय की बातें 
और जीवन्त हो उठेंगें दिवस और रंगीनी रातें। 

मैं कोई वैसा तो नहीं हूँ जो अनुभव न कर सकूँ 
क्या  दर्द है उनका, इसको जान न सकूँ ? 
चोट तुम्हें लगती है तो दर्द इधर होता है जानम
फिर तुम कैसे कहती हो तुम्हें क़ोई परवाह नहीँ है। 

मैं पूरा का पूरा तुम्हारा हूँ, तुम विश्वास तो करो 
फिर मैं चिर तुम्हारी स्मृतियों में तो हूँ ही। 
फिर कैसे सोचती हो कि मैं दूर हूँ तुमसे 
यहाँ पर 'आँख से दूर, मन से दूर ' का सूत्र नहीं चलता। 

मैं नींद के प्रवाह में कोई बहुत चेतन नहीँ हूँ 
फिर भी यह कलम जैसे चाहती है, चलती जाती है। 
लेकिन ऐ कलम! यह शिकायत है मुझे तुमसे 
कि तुम मुझमें बहुत स्फूर्ति जगाती नहीं हो। 

फिर मैं हूँ ही क्या तुम्हारे बिना  
समय जब बीत जाएगा तो कुछ नहीं बचेगा मेरे पास, तुम्हारे सिवाय। 
जो स्मृति-पटल की बातें इस कागज-पटल पर विद्यमान होंगी 
वे ही तो मेरी विरासत बनी रह पाऐंगी। 

फिर जीवन में कब तुम्हें वह समय मिलेगा 
जब तुम कुछ महान कार्य करने लगोगे।

चेतो, चेतो मेरे भाई, यही समय है कुछ करने, कुछ पाने का 
अपने अन्दर की सरस्वती को जगाओ। 
अपने ज्ञान-रंध्र खोलो और तीसरा नेत्र खोलो 
तभी होगी तुम्हारी सफल आराधना।

आराधना क्या है इसका अर्थ तो समझ में नहीं आता। जीवन को सफल बनाने को और इसके परम-तत्व को समझने के लिए जो शक्ति, जो चिन्तन या जो समय लगता है, वह शायद आराधना है। जीवन में आगे बढ़ने का सबसे उत्तम उपाय हैं इस मन को ढृढ़ रखना, निर्मल रखना और अपने को पहचानना, फ़िर तुम्हारी सार्थकता तुम्हारे पास ही होगी।

कैसे भाई, मेरे आका ! अपने मन, प्राणों और कार्यो के स्वामी बनो
स्वयं पर विजय प्राप्त करो और मन में ढृढ़ता का अहसास करो। 
मैं यह नहीं कहता कि संज्ञा-शून्य, सवेंदनहीन हो जाओ 
बल्कि इसका अर्थ हैं कि विषयों को उचित परिप्रेक्षय में देखना शुरु करो। 

देखना सीख जाओगे तो बोलना भूल जाओगे 
और बोलना भूलने का अर्थ अपने अंतः की तरफ़ आकृष्ट होना। 
वह स्थिति है तप की, मौन की, व्रत की और जप की 
और फिर तुम स्वयं में ही मौनी हो जाओगे। 

परन्तु फिर मौन का अपना एक अनूठा ही सुख है 
इसमें तुम स्वयं के बहुत अच्छे मित्र बन जाते हो। 

विवाद जो अन्यथा दुखों का संचालक है, से बचोगे 
और फिर जितना आवश्यक, परमोचित, उतना ही बोलोगे। 
वह स्थिति होगी एक संतोष की स्थिति, 
जो कि शायद सही मंज़िल है। 

पवन कुमार ,
11 मई, 2014 समय 18:16 सायं
(मेरी शिलोंग डायरी दि० 2 फरवरी, 2001 समय 12:05 म० रा० से ) 

        

    
     


Thursday 8 May 2014

मेरे मनमीत

मेरे मनमीत 
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ऐ मेरे मौजी मन, बन जा मन का मीत 
मन मेरा पुलकित हो जाए सुनकर तेरा मधुर संगीत। 

जब तेरी संगति में हूँ तो मुझे आनंद ही आनंद है 
मैं बन जाता हूँ कन्हैया और तू बाँसुरी की मधुर धुन। 
मन में मेरे हूँक उठेंगी, अपने मनमीत से मिलने की 
और मैं जाग उठूँगा, इच्छा से तुमको मिलने की। 

मेरे मन, क्यूँ अब तक दूरी का आभास है 
जब तू मेरा और मैं तेरा, फ़िर भी दिल क्यूँ उदास है। 
जब मैं निराश हूँ तो लगता कि सारा जहॉं निराश है 
साथ अगर तेरा मिल जाए तो हर क्षण उल्लास है। 

मन का तू प्रणेता मेरा, मीत भी तो फिर बनता जा 
भरकर ढ़ेर उमंगें मन में, हर्षित मुझको  करता जा। 
मैं बसता तुझमें और तू मुझमें, कहीं दूरी नज़र नहीं आती 
मधुर गीत तेरे गाने से, छवि तेरी चहुँ ओर दिखती।  

अहसान तेरा  होगा मुझ पर, अगर मुझसे मेरी पहचान करा जा   
कान  बहुत तरस गए हैं मेरे, धुन प्यार की एक सुना तो जा। 
इस दिल की तो यही है आशा, किस्सा मेरा सुनता जा 
और कुछ क्षण सुख के भी होवें, उनका दर्शन कराता जा। 

बिन तेरे कुछ नहीं हूँ मैं, तेरी तड़पन मुझको है 
फिर आस मिलन की मन में आई, ऎसी धड़कन मुझमे है। 
जग की क्या फ़िर बात करें, अपनी ख़त्म नहीं होती  
कैसे होगा गुजर हमारा, समय इसी में  बीते है। 

कालातीत हो जाए जीवन, स्पंदन इसका साथी हो 
धड़कनें बन जायेँ मीत फ़िर, हर क्षण प्रसन्नचित्त हो। 
कार्य होवें कुछ ऐसे, जिन पर गर्व अनुभूति हो 
फिर पट जाये सब दूरी, ऐसी एक दृष्टि हो। 

सुन्दरता को मन में देखूँ, आचरण में भी आ जाए 
ख़ुशी केवल अपनी ही नहीं,  ध्यान दूजों का भी हो जाए। 
दुनिया में तो नहीं होती, दोस्ती ऐसे ही किसी से भी 
अंतरंग जब उनको समझोंगे, अहसास उन्हें भी कुछ होगा। 

समपर्ण-भाव जब मन में आए, क्यों नाहक ईर्ष्या, द्वेष मेँ समय गवाएँ   
ऐसी अगर भावना लाए, हम सबका जीवन महकाऐं।  
फिर होगा 'आत्मवत् सर्व-भूतेषु ' का प्रयोग  
और होगी मन की प्रतिष्ठा शिखर पर, अपने गुणों के कारण ही। 

मैं उन जैसा वे मेरे जैसे,  फ़र्क बस विचारों का हैँ
कहीं पर वो जरा भारी तो कहीं हम, यह अन्तर भी क्या अन्तर है। 
फिर क्यों केवल शिकायतों का पुलिंदा बनें हम
और व्यर्थ दुखाऐं क्यों मन को हम ? 

जब अच्छे काम पड़े हैं इतने, शक्ति क्यों लगती अनुपयोगी पर 
अच्छी सौदेबाजी नहीं है यह और चीजोँ की पहचान नहीं है। 
प्राथमिकताएं अपनी पहचानना सीखों, फ़िर कुछ तो जान ही जाओगे 
स्वयं के परम-मित्र बनकर, बाह्यों से बहुत अधिक पाओगे। 

माँ सरस्वती की आराधना करो 
वही सहायक होगी मंजिल को पहचानने मेँ। 

पवन कुमार,
07 मई, 2014 समय 23:59 म० रा० 
(मेरी शिलौंग डायरी दि० 20 फरवरी, 2001 समय 12 :52 म० रा० से )



Friday 2 May 2014

आत्म-बोध

आत्म-बोध

जब मन का अपना विचार हुआ तो मनन करन का ज्ञान हुआ 
बेढंगी जीवन-चाल से निकल, कुछ सार्थक जीने का बोध हुआ। 

कैसा जीना, कैसा मरना, यह जीना भी क़ोई ज़ीना है 
जब दुनिया तो इतना बढ़ जाती, तू व्यर्थ ताने अपना सीना है। 
है कोई सबक याद तुझे उन्नति का, या यूँ ही गर्व में जीते हो 
दुनिया के फंदें तो समझे नहीं, बस यूँ ही व्यर्थ गँवाते हो। 

मन को कभी न मीत बनाया, न कभी तो आत्म-बोध हुआ 
सोचा बस यूँ ही कट जाएगी, अब निकट पड़ी तो भय हुआ। 

मीराओं के कृष्ण तो आकर बंशी - तान सुनाते हैं 
अपनी मनोरम लीलाओं से उनका मन बहलाते हैँ। 
लेकिन मैं मूर्ख तो प्रेम शब्द को क्या जानूँ 
जैसे आया वैसे जी लिया, इसे क्या समझूँ व क्या जानूँ।  

तेरी ही लीला का मुझे तो क़भी भी न अहसास हुआ 
संवेदनहीन जीवन जीने का कभी न मुझको कष्ट हुआ। 

वे जब बेहतर ढंग से जीते, क्या कभी अपना भी ध्यान किया 
निज दुर्बलताओं को क्या कभी देखा, या इन पर मनन किया। 
बहुत पिछड़ गए हो बन्धु, दया या गुस्सा क्यों नहीं आता 
सुस्ती छोड़ आगे बढ़ने को, कदम तेरा क्यों न बढ़ जाता।

मुझ पर तुम अहसान करो तो प्रभु, तेरी दया का पात्र हुआ 
चलूँ नेक रास्ते पर तेरे और कदम -कदम पर ध्यान हुआ। 

प्रभु ! प्रगति पर ध्यान लगवाओ, रहमत रखो 
मुझे आगे बढ़ने के लिये सदा प्रोत्साहित करो। 
हमेशा अच्छा सोचूँ , बुराइयों त्यागूँ ,
सदा तेरा ध्यान रखूँ, व ज्ञान का मार्ग न छोड़ूँ।  

धन्यवाद। 

पवन कुमार ,
2 मई, 2014 समय 23:11 रात्रि 
(मेरी डायरी दि० 14.12.2001 समय 11:35 म ० रा ० )