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Saturday 20 April 2019

श्री बाणभट्ट कृत कादंबरी (प्रणय-कथा) : परिच्छेद - ९ (भाग -१)

परिच्छेद - ९ (भाग -१)
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"गंधर्व-पार्थिवों को विदा कहकर, पूर्ण हर्ष, उत्सुकता विस्मय-पूरित उसने अपनी सेना-मध्य अपने कक्ष में प्रवेश किया; और शेष राजसदों को प्रणाम करके, उसने वैशम्पायन पत्रलेखा के संग अधिकतर दिवस बिताया, कहते हुए, 'महाश्वेता ने ऐसा कहा, ऐसा कादम्बरी ने, ऐसा मदालेखा ने, ऐसा तमालिका ने, ऐसा केयूरक ने।' कादम्बरी की सुंदरता की दृष्टि पर ईर्ष्यालु, राजन्य-महिमा उसमें हर्ष पा रही थी; उसके हेतु जैसे कि उस चमकती चक्षु वाली बाला की अबाधित चाह में एक मस्तिष्क में रात्रि-जागरण में ही बीत गई। अगली प्रातः सूर्योदय पर, अपना मस्तिष्क अभी तक निश्चित किए हुए वह अपने मण्डप में गया, और अचानक एक द्वारपाल संग केयूरक को आते देखा; और अपर यद्यपि दूर था, स्वयं भूमि पर पतित हो गया, जिससे कि उसका मुकुट कुट्टिम (फर्श) को साफ करता था, चन्द्रापीड़ चिल्लाया : 'आओ, आओ', प्रथम उसका त्रियक-दृष्टि से स्वागत करते हुए, तब अपने हृदय से, तब एक हर्षोन्माद के संग। तब अंत में उसने एक हार्दिक स्पष्ट-आलिंगन किया, और अपने स्वयं के साथ ही बैठा लिया। तब, एक स्मित-सुधा द्वारा चमकते शब्दों में, और बह निकले प्रेम संग उड़ेले गए, उसने सादर पूछा : 'कहो केयूरक, क्या देवी कादम्बरी कुशल से है और उसकी सखियाँ, और उसका परिचारक-गण, और देवी महाश्वेता?' एक अल्प-नमन संग, जैसे कि स्नान, अभिषिक्त मुस्कान द्वारा स्फूर्तित था  जिसे युवराज के गहन-वात्सल्य ने प्रोत्साहित किया था, सादर उत्तर दिया : "वह अब सकुशल है, जैसा कि मेरे स्वामी ने उसके हेतु पूछा है।' और तब उसने आर्द्र-वस्त्र में लिपटा एक मुड़ा हुआ मृणाल-पल्लव दिखाया, उत्पल-पर्णों द्वारा निमीलित इसके मुख के संग, और चन्दन-द्रव के एक लेप में तनु कमल-तंतुओं की मुद्रण द्वारा। उसने इसे खोला, और कादम्बरी द्वारा प्रेषित चिन्ह दिखाऐं , जैसे कि हरित-मणि के शुभ्र ताम्बूल-बीजों जैसे दूधिया, उनके खोल हटाने से और नूतन फुहारों से घिरे, एक शुका (तोती) के कपोलों सम पीले ताम्बूल-विटप, शिव-चन्द्र के एक ठोस अंश सम कर्पूर, और समृद्ध कस्तूरी-सुवास द्वारा प्रमुदित। उसने कहा, 'देवी कादम्बरी तुम्हें करबद्ध नमस्कार करती है जो उसके मुकुट का मुखमन करते हैं, और जो उसकी तनु-उँगलियों की मयूखों संग गुलाबी हैं; महाश्वेता ने एक अभिवादन और आलिंगन; मदालेखा ने एक आदर एवं मुकुट-रत्न की शशि-ज्योत्स्ना में अभिषिक्त भ्रू संग जो उसने पतित कर दी है; मत्स्य-आभूषण और भू-पतित अपने केशों की माँगों के सिरों द्वारा बालाऐं; और तारालिका, तुम्हारे चरणों की रज-स्पर्श करने हेतु दण्डवत। महाश्वेता ने तुमको यह सन्देश भेजा है : 'सत्य ही वे प्रसन्न हैं जिनके चक्षुओं से तुम कदापि ओझल नहीं होते हो। क्योंकि सत्य में इंदु भाँति तुम्हारे गुण, हिमित, शीतल हैं, तुम्हारी अनुपस्थिति में सूर्य-प्रकाश सम जलाते हैं। सत्य में सभी गत दिवस हेतु अभिलाषा करते हैं जैसे कि यह वह दिवस था जिसपर दैव ऐसे श्रम संग अमृत लाया है। तुम्हारे बिना गन्धर्व-राजधानी निस्तेज है जैसे कि एक भोजन का अंत हो। तुम जानते हो कि मैंने सर्वस्व त्याग दिया है, तथापि मेरी ईर्ष्या में, तुम्हें देखने हेतु अभिलाषा करता है जो इतना अनुपयुक्त दयालु है। इसके अतिरिक्त, कादम्बरी कुशलता  है। स्वयं कामदेव सम तुम्हारे स्मित आनन संग वह स्मरण करती है। क्योंकि उत्तमों द्वारा दर्शित को सम्मान दिया जाना चाहिए। और तुमको हम कैसे हैं, की पीड़ा को भुला देना चाहिए। क्योंकि तुम्हारा अपना श्रेष्ठ आचरण हमारे संवाद को यह साहस देता है। और यह शेष कंठ-भूषण है, जो तुमने अपनी शय्या पर छोड़ दिया था।" अतएव कहकर, उसने इसे अपने कटिबंध से शिथिल किया, जहाँ यह महीन सूत्रों के अंतरालों  निकली दीर्घ-मयूखों के कारण से दर्शित था, और चँवर-धारक के हस्त में इसे रख दिया।

"यह निश्चित ही, महाश्वेता-चरणों में श्रध्दा का परिणाम है कि देवी कादम्बरी अपने सेवक के स्मरण-सम्मान का इतना भार वहन करती है", चन्द्रापीड़ ने कहा, जैसे उसने सभी कुछ अपने शीर्ष पर रख लिया और स्वीकार कर लिया। कण्ठहार उसने ग्रीवा में धारण कर लिया, इसे एक उलेप, शीतल, रम्य और सुवास से अभिषिक्त कर, जैसे कि यह कादम्बरी के आसवित (शुद्ध) कपोलों की रम्यता के संग हों, अथवा उसकी स्मित-ज्योति द्रवित हो गई, अथवा उसका हृदय द्रवीभूत गया, या उसके गुण अग्र-प्रेषित हो रहे हैं। कुछ ताम्बूल लेकर, वह उठा खड़ा हो गया, और अपना वाम हस्त केयूरक के स्कंध पर रख लिया, और तब सभासदों को विदा किया, जो हर्ष में अपनी स्वाभाविक भक्ति व्यक्त कर रहे थे, और एक दीर्घकाल पश्चात् अपने गज गन्धमादन को देखने गया। वहाँ वह एक अल्प-काल हेतु रहा, और पश्चात् उसने स्वयं गज को एक अँजुली-भर तृण दी, जो उसके नख-प्रभा संग नुकीली होने से, उत्पल-पर्णों सम थी, वह अपनी अति-प्रिय अश्वशाला में गया। पथ पर अपनी सेना को देखने हेतु वह अपना मुख अब इस ओर करता था, अब उस ओर। द्वारपालों ने उसकी इच्छा समझकर, सभी को उसका अनुसरण करने से मना कर दिया, और परिचारक-गणों को हटाया, ताकि वह केयूरक संग अश्वशाला में एकाकी प्रवेश कर सके। विमूढ़ अश्वपालों ने नमन किया और भय से किंकर्त्तव्यविमूढ़ अपने निकास पर विदा हुए, और कुमार ने  सिंह समान भूरे इंद्रायुध के केसरों को पीछे धकेल उसके अंशुक को सीधा किया, जो एक ओर कुछ गिर गया था, और तब, रज्जु-बन्धन की खूँटी पर अपना चरण असावधानी से रखते हुए, और अश्वशाला-भित्ति के साथ झुकते, उसने उत्सुकता से पूछा : "केयूरक, मुझे बताओ कि मेरी विदाई पश्चात् गन्धर्व-प्रांगण में क्या हुआ? गन्धर्व-राजकन्या ने किस भाँति समय बिताया ? महाश्वेता और मदालेखा क्या कर रही थी ? वहाँ क्या वार्तालाप था ? तुम और परिजन कैसे नियुक्त किये गए थे ? और क्या मेरे विषय में कोई वार्तालाप था ? तब केयूरक ने सब बताया, ' देव, सुनो। तुम्हारी विदाई पश्चात्, कादम्बरी अपने परिजनों संग सौंध-शिखर पर चढ़ गई, नूपुरों संग बाला-प्रासाद में चली गई जो एक सहस्र हृदयों से उठे विदाई के ढोल सम ध्वनित थे; और अश्वारोही-दल की रज से धूसरित तुम्हारे मार्ग को उसने देखा। जब तुम नेत्र-ओझल हो गए, उसने अपना मुख मदालेखा के स्कंध पर रख दिया, और अपने प्रेम में, दुग्धोदधि (क्षीर-सागर) सम धवल दृष्टिपात से तुम्हारे पथ-क्षेत्र को सिंचित किया, और सूर्य-स्पर्श को हटाते हुए, जैसे की वे थे, एक शुक्ल-छत्र के ईर्ष्यालु छद्म-रूप में कल्पना करते इंदु संग वह वहाँ दीर्घ-काल तक रही। तब अनमनी सी स्वयं को पृथक कर लिया, और नीचे गई, और कक्ष में एक अल्प-विश्राम पश्चात् वह उठी और मनोहर क्रीड़ा-शैल में गया जहाँ तुम ठहरे थे। वह हव्य-कुसुमों में गुनगुनाती मधु-मक्षिकाओं द्वारा पथ-प्रदर्शित की जा रही थी; गृह-शिखण्डियों (मयूर) के क्रंदन से विस्मित, अपने नखों की वर्षा-सम मयूखों पर जैसे कि वे देखते थे, उसने नादों का परीक्षण किया, अपने कण्ठ के गिर्द शिथिल वलयों द्वारा; प्रत्येक चरण पर उसने अपना कर, कुसुमों द्वारा शुक्ल, लता-शाखाओं पर रखा, और मन तुम्हारे गुणों पर। जब वह क्रीड़ा-शैल पहुँची, उसकी परिचारिकाओं ने अनावश्यक उसे बताया : "यहाँ वर्षा से धुली शैल पर कुमार ठहरा था, एक हरित-मणि की मीन-शीर्ष में एक सारणी (नाल) से निकलती धारा द्वारा इसकी लता-कुञ्ज को फुहारें देती; सुवासित जल की सुगन्ध में डूबे भ्रमरों द्वारा आच्छादित एक स्थल में यहाँ  स्नान किया था; कुसुम-पराग से धूसरित, पर्वत-निर्झर के तीर पर उसने शिव-आराधना की थी; यहाँ उसने एक स्फटिक शिला पर भोजन किया था जिसने इंदु-ज्योत्स्ना को छिपा दिया था; चन्दन-रस द्वारा इस पर चिन्हित एक संकेत द्वारा यहाँ वह एक मौक्तिक शैल पर सोया था।" अतएव उसने दिवस व्यतीत किया, तुम्हारी उपस्थिति-चिन्हों को देखते हुए; और दिवसांत में, उसकी इच्छा के विपरीत महाश्वेता ने उस स्फटिक-निकेतन में उसके हेतु भोजन तैयार किया। और जब दिनकर अस्त हुआ तथा चन्द्र शीघ्र उदय हुआ, जैसे कि वह एक रक्तिम-मूँगा (चन्द्रकान्त) हो जिसे शशि-ज्योत्स्ना पिघला देगी, और अतएव चन्द्र-प्रतिबिम्ब के प्रवेश से भीत हुई, उसने अपने कर अपने कपोलों पर रखें, और जैसे कि विचार में हो, बंद-चक्षुओं से कुछ क्षण हेतु रही; और तब उठते हुए, अपने शयन-कक्ष में चली गई, किंचित ही अपने पग उठाती हुई जैसे कि वह शोभायमान दुर्बल चाल से चलती थी, इंदु-छाया उसके चमकते नखों को धारण करने से भारी प्रतीत होती। अपनी शय्या पर स्वयं को डालते हुए, वह एक कष्टप्रद शिरोदुःख (सिरदर्द) से ग्रसित हुई, और प्रासाद-दीपकों, चन्द्र-उत्पलों, और चक्रवाकों संग, उसने कटु-कष्ट में खुले नयनों संग रात्रि बिताई। और प्रभात में उसने मुझे बुलाया, और आलोचनात्मक ढंग से तुम्हारे सन्देश हेतु दर्शन के लिए मुझे आदेश दिया। 

"इन शब्दों पर, विदा होने हेतु चन्द्रापीड़ ने क्रंदन किया : 'एक अश्व ! एक अश्व !' और प्रासाद त्याग दिया। इंद्रायुध को शीघ्रता से पर्याणित (काठी कसी) किया गया, और अश्वपालकों द्वारा वृत्त में लाया गया, और चन्द्रापीड़ पत्रलेखा को पीछे बैठाकर आरोह हुआ, शिविर के अधिकार हेतु वैशम्पायन को छोड़ते हुए, अपनी भेरी को तजते हुए, और अन्य तुरंग पर बैठे केयूरक का अनुसरण करते, वह हेमकुण्ट गया। अपने आगमन पर, उसने कादम्बरी-प्रासाद के द्वार पर अवरोहण किया, द्वारपाल को अपना अश्व देते हुए, और पत्रलेखा द्वारा अनुचरित होते कादम्बरी की प्रथम-दृष्टि हेतु कुतूहलित, उसने प्रवेश किया और समक्ष आए एक वर्षधर (नपुंस) से पूछा कि देवी कादम्बरी कहाँ है। किंचित प्रणाम करते अपर ने उत्तर दिया कि वह मत्तमयूर क्रीड़ा-शैल के नीचे कमल-निकुञ्ज दीर्घिका के तीर पर हिम-गृह मध्य विचरण कर रही है; और तब केयूरक द्वारा उपदेशित हो युवराज, प्रमाद-वन के मध्य कुछ दूर गया, और दिवस को हरित होते देखा, अपनी मरकत-हरीतिमा संग कदली-कुंजों के विकिरण द्वारा प्रभा तृण में परिवर्तित होती प्रतीत हो रही थी; और उनके मध्य निरन्तर नलिनी-दल से आच्छादित हिमगृह में कादम्बरी को देखा। तब उसने कम्पित नयनों से परिचारिकाओं को देखा, जैसे कि वे एक के बाद एक रही थी, उन्होंने चन्द्रापीड़ की आगमन-सूचना दी, और प्रत्येक को नाम से पूछा : 'बताओ, क्या वह सत्य ही गया है।' शनै चमकती अक्षियों द्वारा जैसे ही उसने उसे देखा यद्यपि दूर ही था, और अपने स्तम्भ से बँधे एक नव-पाशित गज सम खड़ी होकर, और प्रत्येक अंग में काँपती हुई वह अपने कुसुम-आसन से उत्थित हुई।अपनी कुसुम-शय्या की सुवास द्वारा भृत्यों सम सभी गुनगुनाते भ्रमरों में वह छिपी थी; उसका ऊपरी परिधान भ्रम में था, और उसने वक्ष पर शोभित कण्ठहार धारण कर रखा था; वह अपनी ही छाया से एक बाहु का सहारा माँगती प्रतीत हो रही थी जैसे ही उसने अपना वाम हस्त रत्न-जड़ित कुट्टिम (फर्श) पर रखा; अपनी गिरती अलकों को परस्पर बाँधने के श्रम से आर्द्र हुए अपने दक्षिण कर से जल छिड़कने द्वारा स्वयं एक पुरस्कार सा लेती प्रतीत हो रही थी; विशेष चिन्ह के चन्दन-रस सम शीतल उड़ेले हर्ष उसके अन्त में प्रवेश कर गए और उनके साथ युग्म हो गए; उसने प्रसन्न आंसुओं की रेखा से अपने मृदु कपोल धोए, जिसको उसकी माला के रज ने धवल-वर्णित कर दिया था, जैसे कि उत्सुकता में उसके प्रिय का प्रतिबिम्ब उसके ऊपर गिर पड़ेगा; चन्द्रापीड़ के मुख पर स्थिर अपनी दीर्घ नयनों द्वारा वह अग्र खिंची सम प्रतीत हो रही थी, एक कटाक्ष दृष्टि में स्थिर कनिका (पुतली) संग, और उसका शीर्ष किंचित झुक गया था, जैसे कि उसकी भ्रू पर चन्दन तिलक के भार से हो।          

"और आगमन पर चन्द्रापीड़ ने प्रथम महाश्वेता को प्रणाम किया, तब शिष्टता से कादम्बरी को नमन किया, और जब वह अपना सम्मान वापस कर चुकी, और पुनः आसन पर स्वयं को बैठा लिया, और द्वारपालिका उसके हेतु रत्न-भासित पायों वाला एक सुवर्ण-आसन लाई, जिसे उसने चरण से दूर सरका दिया और भूमि पर ही निष्ठ हो गया। तब केयूरक ने पत्रलेखा का यह कहते हुए परिचय दिया : 'यह युवराज चन्द्रापीड़ की तांबूलवाहिका है और सर्वाधिक प्रियतम है।' और उसपर देखकर कादम्बरी ने सोचा : 'कैसे प्रजापति ने नश्वर प्रमदा के साथ महद पक्षपात किया है !'

"अब चन्द्रापीड़ ने शीघ्रता से आगमन की सभी औपचारिकताओं को पूर्ण करके चित्ररथ-दुहिता की अवस्था को देखा, और सोचा : 'निश्चय ही मेरा हृदय मन्द है, उसमें यह अब भी विश्वास नहीं कर सकता।' इसे ऐसा ही रहने दो। मैं तथापि उससे एक निपुणता से रचित वाणी से पूछूँगा। तब उसने उच्च-स्वर में कहा : 'राजकन्ये, मैं इस पीड़ा को जानता हूँ, इसके अनवरत दारुण के साथ, जो प्रेम कारण से तुमपर आया है। तथापि, तनु-बाला, यह तुमको हम जैसा पीड़ित नहीं कर रहा है। मैं प्रसन्नता से, स्वयं को अर्पित करके, तुमको स्वास्थ्य में पुनर्स्थापित कर दूँगा। क्योंकि तुम जैसे कम्पित होती हो, मुझे तुमपर दया आती है, और जैसे मैं काम-पीड़ा में पतित देखता हूँ, मेरा हृदय भी निस्सहाय दण्डवत गिरता है। क्योंकि तुम्हारी बाहु तनु अविभूषित हैं, और तुम अपने नेत्र में ज्वर की तीव्र-वेदना से एक जपाकुसुम सम एक लाल-कमल धारण करती हो। और तुम्हारे सन्ताप में तुम्हारे सभी परिजन निरन्तर रुदन करते हैं। अपने मंगल-आभूषण स्वीकार करिए क्योंकि जैसे भ्रमरों में लता शोभायमान होती हैं, ऐसे ही तुम्हें करना चाहिए।'

"तब यद्यपि अपने बाल-स्वभाव द्वारा मुग्ध कादम्बरी ने तथापि कन्दर्प (कामदेव) द्वारा उपदेशित एक ज्ञान से, इस अंधकार शेष व्यक्त व्यवहार द्वारा मन में सब अर्थ समझ लिया। तथापि अनुभव नहीं करते कि अपनी इच्छाओं में शालीनता के अवलम्बन से वह एक ऐसे बिंदु पर गई है, वह मौन रही। तथापि उसने बहाने से तत्क्षण एक स्मित का आलोक प्रेषित किया, जैसे कि मधुकरों द्वारा कृष्ण हुए उसके मुख को देखने हेतु, जो इसकी मधुरता के चारों ओर एकत्रित हुए थे। अतएव मदालेखा ने उत्तर दिया : 'कुमार, मैं क्या कहूँ ? यह संताप निश्चय ही कथन से परे है। इसके अतिरिक्त, इतने संवेदन प्रकृति की एक में क्या पीड़ा करने को उद्यत होगा ? यहाँ तक कि मृणालिनी किसलय भी अग्नि से विनिष्ट हो जाते हैं और शशि-ज्योत्स्ना भी तापित हो जाती है। क्या तुम उसके मानस में वातों की पवन द्वारा उत्पादित यंत्रणा को नहीं देखते हो? मात्र उसका धीरज-मन ही उसे प्राणवती बनाए हुए है।" परन्तु हृदय में मात्र कादम्बरी ने मदालेखा के शब्दों को कुमार को दिए उत्तर को स्वीकार किया। तथापि उसका मस्तिष्क उसके अर्थ के सन्देह से भ्रमित था, और कुछ काल महाश्वेता संग प्रीति में बिताकर, अंत में एक महद प्रयास से उसने स्वयं को आत्म में खींचा, और स्कन्धावार (शिविर) में जाने हेतु कादम्बरी के भवन को छोड़ा।

"जैसे ही वह अपने अश्व पर आरोह होने वाला था, केयूरक उसके पीछे आया, और कहा : 'देव, मदालेखा ने मुझे यह कहने का आदेश दिया है कि देवी कादम्बरी ने पत्रलेखा के प्रथम-दर्शन से जनित प्रीति से, उसे अपने पास रखने की इच्छा की है। वह उसे बाद में भेज देगी। उसका सन्देश सुनकर, तुमको निश्चय करना है। चन्द्रापीड़ ने उत्तर दिया, पत्रलेखा प्रसन्न और स्पृहणीय है कि उसने दुर्लभ देवी-प्रसाद प्राप्त किया है। उसे रख जाय।' ऐसा कहकर वह पुनः स्कन्धावार गमन को उद्यत हुआ।

"उसके आगमन के क्षण पर उसने पिता के समीप से एक अभिज्ञात (जाना हुआ) लेखहारक (पत्र लाने वाला) को देखा, और, अपने तुरंग  रोककर, दूर से ही प्रीति से विस्फारित (चौड़ी) चक्षुओं सहित पूछा : 'क्या सर्व-परिजन, सर्व-अन्तःपुर और मेरी माता संग मेरे तात कुशल से हैं ?' तब एक सादर आते हुए पुरुष ने कहते हुए, 'जैसा तुम कहते हो देव', दो पत्र उसको दिए। तब युवराज ने उनको अपने शीर्ष पर रखकर, और क्रम से खोलते हुए, इस प्रकार पढ़ा।

"उज्जैयिनी की ओर से आशीर्वाद। परम-महेश्वर महाराजाधिराज देव तारापीड़, जिसके चरण-अरविन्द सकल राजन्यों के शिखर-मुकुट बनते हैं, सर्व-सम्पदा निकेतन चन्द्रापीड़ का स्वागत करता है, उसके मस्तक का चुम्बन लेते हुए, जो उसके चूड़ामणि की मरीचि-चक्र का मुखमन लेता है। प्रजा कुशल से है। क्यों इतना दीर्घ बीत गया है जबसे हमने तुम्हें नहीं देखा है ? हमारा हृदय तुम्हारे हेतु महद उत्कण्ठित है। देवी और अन्तःपुर तुम्हारे हेतु क्लांत हैं। अतः इस लेख-वाचन का अल्प करना तुम्हारी प्रयाण (यात्रा, विदाई) का कारण बने।' और शुकनास द्वारा प्रेषित द्वितीय पत्र में उसने महत्त्व सम शब्द पढ़े। इस अवसर पर वैशम्पायन भी गया और अपने सम प्रभाव के पत्रों को दिखाया। अतः शब्दों के साथ हुआ जाय, 'जैसे कि मेरे तात आदेश करते हैं', वह तुरन्त अश्वारूढ़ हुआ, और विदाई-मृदंग (पटह) बजने का कारण दिया। अपने समीप स्थित और महती आश्वीय (अश्व-दल) से परिवृत महाबलाधिकारी (सेनापति) बलाहक-पुत्र मेघनाद को आदेश दिया : 'तुम पत्रलेखा संग आना। केयूरक निश्चित ही उसे यहाँ तक ले आएगा, और उसके मुख द्वारा देवी कादम्बरी को प्रणाम के संग एक सन्देश भेजा जाना चाहिए। सत्य ही मृत्यों (नश्वरों) की प्रकृति त्रिभुवन-निंदा के उपयुक्त है, क्योंकि यह अविनीत, निष्परिचय (अमित्र) और दुर्ग्रह है, जिससे नरों की प्रीतियाँ अकस्मात टकराती हैं, वे अपना पूर्ण-मूल्य आकस्मिक मृदुलता पर स्थापित नहीं करते हैं। अतएव, मेरे गमन द्वारा, मेरा स्नेह एक कपट कूट-जाल बन गया है; मेरे विश्वास ने मिथ्या-वर्णों में निपुणता अर्जित कर ली है; मेरी आत्म-भक्ति मात्र एक बहाने की मृदुता धारण करते अधम-धूर्तता में डूब गई है। परन्तु मेरा पर्याप्त है। देवी जो यद्यपि दिव्य-योग हेतु है, ने एक अनुपयुक्त वस्तु हेतु अपना प्रसाद दिखाया है। क्योंकि महदियों (महात्माओं) की कृपालु अमृत-दृष्टि, जब वे वृथा अनुपयुक्त वस्तुओं पर पड़ती है; बाद में लज्जा का कारण बनती हैं। और तथापि मेरा उर उस (देवी) के प्रति जैसा महाश्वेता के प्रति मन्थर (लज्जा) के प्रबल-भार से झुका नहीं है। क्योंकि देवी निश्चय ही गुणों की एक मिथ्या अवधारणा संग, जो मैं नहीं रखता हूँ, पक्षपात से अपने में वर्णित करके अपने को बहुदा दोष देगी। तब मैं क्या करूँगा ? मेरी अभिभावक-आज्ञा अधिक महत्त्वपूर्ण है तथापि यह मात्र मेरी देह नियंत्रित करती है। परन्तु मेरे हृदय ने अपनी हेमकुण्ट-निवास की ही अभिलाषा में देवी कादम्बरी संग सहस्रों-जन्मान्तरों में रहने का दास्य-पत्र लिख दिया है, और उसके अनुग्रह ने इसे सशक्त पकड़ा है जैसे कि एक वनवासी को गहन अरण्य ने। तथापि मैं अपने पिता के आदेश पर जाता हूँ। सत्य ही इस कारण से चाण्डाल चन्द्रापीड़ जनकथा कीर्ति में एक प्रसंग होगा। तथापि मत सोचो कि यदि वह जीवित रहता है, तो देवी के अरविन्द-चरणों की आराधना के हर्ष का पुनः-आस्वादन किए बिना विश्राम  करेगा। नमित शीर्ष से प्रणाम करना और महाश्वेता के चरणों की प्रदक्षिणा करना और मदालेखा को एक पूर्ण-प्रणाम करके बताना कि कण्ठ-ग्रहण अर्पित किया गया है; और तमालिका को एक गाढ़-आलिंगन दिया गया है, और मेरी ओर से कादम्बरी के परिजनों का कुशल पूछना। और हेमकुण्ट मेरे द्वारा करबद्ध सम्मानित किया जाय। और यह सन्देश देकर उसने स्कन्धावार पर वैशम्पायन को नियुक्त किया, और अपने मित्र को सेना को बिना अधिक कष्ट दिए शनै प्रस्थान का आदेश दिया। मुख्यतया तरुण तुरंगों पर आरूढ़ हुई, जो कान्त शूलों का लतावन धारण किए अपने खुर-तांडव से पृथ्वी को खण्डित करते और जैसे कि वे चलते थे अपनी हर्षित ह्रेषा (हिनहिनाहट) द्वारा कैलाश को कम्पित करते; और यद्यपि कादम्बरी के अभिनव वियोग में उसका उर शून्य था, अपनी सेना द्वारा अनुगमन होते तब वह अश्वारूढ़ हुआ। उसने उज्जैयिनी मार्ग के विषय में अपनी पर्याण (काठी) से चिपके लेखहार (पत्रवाह) से पूछा।

"और मार्ग पर उसने वन में एक शोणित ध्वजा देखी, जिसके निकट एक वृद्ध द्रविड़ तपस्वी द्वारा रक्षित दुर्गा मन्दिर था, जिसने वहाँ अपना आवास बनाया था।

"अवरूढ़ होकर, उसने प्रवेश किया, और देवी के समक्ष भक्तिभाव से प्रणाम किया; और एक प्रदक्षिणा करके पुनः प्रणाम करके, स्थल के प्रशांत दृश्य के कुतूहल द्वारा उसने परिभ्रमण किया, और एक ओर एक कुपित धार्मिक द्रविड़ तपस्वी को अपने ऊपर गुर्राते और चिल्लाते हुए देखा और दृष्टिपात पर कादम्बरी-विरह के उत्कण्ठा-उद्वेग से उपजे सुचिर (दीर्घ) हास को एक क्षण उसे सह सका; परन्तु उसने अपने सैनिकों को नियंत्रित किया जो हँसे जा रहे थे, और तपस्वी संग कलह करना प्रारम्भ कर रहे थे; और किसी प्रकार बड़ी कठिनता से अनेक प्रिय आलापों शत अनुनयों से उसने उसको शांत किया, और उससे क्रम से जन्मभूमि, जाति विद्या, पत्नी सन्तानें, विभव (धन), वय उसकी प्रवज्या (तपस्वीपन) का कारण पूछा। पूछने पर अपर ने स्वयं का विवरण  दिया, और राजपुत्र उसके द्वारा अति-आनन्दित हुआ जब उसने वाचालता से गत अतीव अपने शौर्य, रूप, धन का वर्णन किया, और अतएव अपने हृदय-विरह से आतुरता हटाकर विनोद को प्राप्त किया। और उसके साथ मित्रता करके उसको ताम्बूल दिलवाया। सूर्य के सात अश्वों (सप्त-सप्ति) के विगत-श्रम से अस्त (सूर्यास्त) होने पर राजकुमारों ने निकट वृक्षों के नीचे आवास डाल लिया, शाखाओं पर अश्वों के सुवर्ण-पर्याण टाँग दिए; अश्व पृथ्वी पर लौटने से अपने धूसरित केसरों को झाड़ते हुए अपने ऊपर हुए महाद्योगों को दिखा रहे थे, और कुछ मुखभर तृण लेने, जल पीने और तरोताजा होने के पश्चात् उनको उनके समक्ष भूमि पर गाड़े भालों से बाँध दिया गया; दिवसगमन द्वारा खिन्न सैनिक-जनों ने एक रक्षक नियुक्त करके, वाजियों के समीप ही पर्ण-ढ़ेरों पर ही प्रसन्नता से सोने के लिए चले गए; विराजमान सेना-निवेश एक दिवस सम ही पीत था क्योंकि अनेक पावकों की प्रभा द्वारा तम-पान कर लिया गया था, और चन्द्रापीड़ परिजनों द्वारा उसके हेतु संयत एक स्थल पर जहाँ इंद्रायुध को बाँधा गया था एक शय्या पर चला गया। परन्तु लेटने के तत्क्षण ही उसका हृदय दुःखासिका (आकुलता) से ग्रसित हो गया और पीड़ा-पाशित उसने राजलोकों को विसर्ज किया, और अपने अति-वल्लभों को भी, जो उसके निकट खड़े थे, कुछ नहीं कहा। निमीलित (बंद) लोचनों संग मन में वह पुनः-पुनः किंपुरुष-भूमि पर गया। अनन्य-चेतस से उसने हेमकुण्ट का स्मरण किया। उसने महाश्वेता-प्रासादों के अकारण बन्धुत्व पर चिंतन किया। बारम्बार कादम्बरी दर्शन हेतु अपनी जीवित अभिलाषा की। उसने मदालेखा के परिचय की निरत कामना की, जो स्पृहा से अति-पेशल (कोमल) थी। तमालिका-दर्शन की आकांक्षा की। केयूरक-आगमन हेतु उसने देखा। हिमगृह को उमंग में उसने मनन किया। उसने शेषहार पर विचार किया जो अपनी बन्धु-प्रीति से भी अधिक प्रिय था। उसने अपने पीछे खड़ी पुण्य-भागिनी पत्रलेखा का मनन किया। और अतएव उसने रात्रि अनिद्रा बिताई; पर उषाकाल में जागकर उसने द्रविड़ धार्मिक की इच्छा उसके मनोरथ के अनुसार धन देकर पूरित की, और अति-रमणीय प्रदेशों में से भ्रमण करते हुए, कुछ दिवसों में उज्जैयिनी पहुँचा।       

जैसे ही उसने नगरी में प्रवेश किया, उसके आकस्मिक आगमन के द्वारा, नमस्कार में सीमांत-पुरवासियों द्वारा, अपने भ्रम और अति-हर्ष में एक अतिथि को अर्ध-कमल देने हेतु, सहस्रों अंजुलियाँ उठाई गई। नृप ने अपने परिजनों से, जो  बताने हेतु शीघ्रता कर रहे थे कि चन्द्रापीड़ द्वार पर है, और आकस्मिक हर्ष से विव्हलित थे, सुनकर हर्ष-भार से अपने पुत्र को मिलन हेतु गया। मन्दर भाँति उसने एक आकाश-गंगा सम निर्मल मलमल का  अपना उत्तरीय खींच लिया जो गिर रहा था, मुक्ता-फल सार के अपने जल-बिंदु वर्षा से, कल्प-पादप सम उसने हर्ष-अश्रु वर्षा किए; वह एक सहस्र मुखियों द्वारा अनुसरित था जो उसके चारों ओर थे - जो वय के साथ श्वेत चोटी लिए, चन्दन से अभिषिक्त, बिन-कटे क्षौम-वस्त्र धारण किए, कवच, किरीट और मालाऐं, खड़ग लिए हुए, दण्ड, छत्र  चँवर लिए हुए, पृथ्वी को कैलाशों और क्षीर-सागरों में समृद्ध बना रहे थे। पिता को दूर से ही देखकर कुमार अश्व से अवरूढ़ हुआ, और  अपने  चूड़ामणि मरीचिमाली से (मुकुट-रत्नों की किरणों द्वारा पहनाई माला युक्त शीर्ष से) भू-स्पर्श किया। तब उसकी निकटता को विचारकर, उसके तात ने अपनी बाहें फैलाई, और उसको गाढ़-आलिंगन कर लिया; और जब वह वहाँ उपस्थित सभी सम्मानीय पुरुषों को अपना आदर प्रस्तुत कर चुका, वह महाराज द्वारा विलासवती के भवन में ले जाया गया। उसके आगमन का उस तथा सर्व-परिवार द्वारा अभिनन्दन किया गया, और जब वह आगमन के सभी मंगलचार कर चुका, वहाँ दिग्विजय सम्बन्धी कथाओं में कुछ काल रहकर, तब वह शुकानस को देखने गया। क्रम में कुछ देर वहाँ स्थित हो, उसने उसे बताया कि वैशम्पायन स्कन्धावार में है और कुशल है, और मनोरमा के पास गया, और तब परवश की तरह विलासवती के निकेतन में सर्व-स्नानादि करके मध्याह्न में वह निज-भवन गया, और वहाँ चाह-पीड़ित मानस से उसको अपना भवन अवन्तीनगर और वास्तव में गन्धर्वराज-पुत्री के बिना सकल महीमंडल शून्य प्रतीत हुआ, और इस प्रकार अपनी वार्ता श्रवण-उत्सुकता में पत्रलेखा के आगमन की प्रतीक्षा की जैसे कि एक महोत्सव हो और एक वर-प्राप्ति काल, अथवा अमृत उत्पत्ति-समय हो।

......क्रमशः   



हिंदी भाष्यांतर,

द्वारा
पवन कुमार,
(२० अप्रैल, २०१९ समय १७:३१ सायं)