Kind Attention:

The postings in this blog are purely my personal views, and have nothing to do any commitment from Government, organization and other persons. The views in general respect all sections of society irrespective of class, race, religion, group, country or region, and are dedicated to pan-humanity. I sincerely apologize if any of my writing has hurt someone's sentiments even in the slightest way. Suggestions and comments are welcome.

Sunday 28 February 2016

उद्योग बृहत्तर

उद्योग बृहत्तर
------------------

किस भाँति लिखूँ जब तन-मन, दोनों ही नहीं स्वस्थ

तन पीड़ित, मन बोझिल, सुस्त एवं है अल्प-चिंतक॥

 

तथापि इच्छा है, हिम्मत कर स्व को करूँ सुस्थापित

तब सर्व दुखन-पीड़ा भूल, कर कुछ स्वस्थ-चिंतन।

माना निज की अल्पता से, सहानुभूति ही है किंचित

 पर फिर भी यूँ ही न छोड़ सकता एकाकी-अन्त्यज॥

 

माना शक्ति क्षीण ही, लेकिन कुछ है कर्त्तव्य-चमक

कहती चले चलो तुम, अग्र-मार्ग मैं दिखाऊँगी स्वयं।

जरा सी पीड़ा से वीर-हिम्मती, माना न करते हैं हार

फिर तूलिका है ही, जो देती सदा निर्भयता-साहस॥

 

मैं यूँ विराम सी अवस्था में था, पिछले कई दिनों तक

हिम्मत कर के, कार्यालय-कर्म तो शनै किया आरंभ।

किंतु प्रातः भ्रमण, व्यायाम व लेखन तो हैं पूर्ण बाधित

 चाह कर भी लेखन नहीं कर पा रहा हूँ पुनः शुभारंभ॥

 

मस्तिष्क का ऊपरी भाग, दर्द को कराता है अनुभूत

काया-अंग अपनी पीड़ा के प्रतिक्षण हैं चुभोते नश्तर।

रह-२ कर मन-बुद्धि, अजीब-अहसास से रूबरु होते

 क्षीण अनुभव कराते, किंचित विश्राम से न ठीक होते॥

 

फिर भी साहस कर, कुछ पठनरत हूँ अबाधित सतत

राहुल सांकृत्यायन का 'जय-यौधेय', 'स्वामी घुमक्कड़'।

दोनों लेखन पूर्ण, कुछ अल्पज्ञों को राह दिखाने समुचित

 राहुल स्वस्थ-चिंतक हैं, वृहद-ज्ञानकोषी व हितैषी दीर्घ॥

 

स्व है सर्व-मनुजता को समर्पित, बाहर तम से निकाले

अंध को नेत्र दे, विश्व के चलन-संचालन के पेंच बताते।

कैसे कुछ समर्थों ने मानवता बनाई है दासी स्वार्थवश

 बहु-नर समूहों को अभाव-जीवन गमन किया विवश॥

 

महद साहस की बात है कहना, जो मंथन-दर्शित सत्य

अतिश्योक्ति तो बहुत करते हैं, स्व-स्तुति में ही व्यस्त।

 ज्ञानार्जन भी उचित, उससे अधिक सर्व-हित में प्रयोग

सर्वस्व यहाँ सर्वजन का है, अधिकारी समस्त साधन॥

 

कुछ व्यवस्था बनाई समर्थों ने, थोप दिया मनुजता पर

कुछ विरोध होते रहें, पर विषमता फिर भी निर्बाधित।

कुछ महानर अवतरित होते, बोझ न्यून का यत्न करते

फिर भी स्वार्थी मन न मरता, बस शरीर चोले बदलते॥

 

नर-दुर्बलता स्व शत्रु-प्रबल, अन्य को भी करती पीड़ित

भाड़ में जाए अन्य सब, यहाँ तो सर्वोपरि हैं अपने हित।

अति-आनंद स्व की सादगी में, जब निज के होकर जीते

अन्यों को आत्म सा समझे, सर्व-कल्याणार्थ प्रेरित होते॥

 

मानव प्रगति है मन के प्रयत्नों से, और चेष्टा सच्ची साथी

यह सफलता लाती निकट, मानव का कद भी बढ़ाती।

संगियों में सम्मान मिलता है, अनुजों को प्रेरणा उपलब्ध

निज-जीवन तो सुफल ही है, अतः लाभ ही लाभ शुभ॥

 

मेरी इस मन-गुम्फा से बाहर, निकास का मार्ग दिखा दे

इस पीड़ित मन-देह का कष्ट-क्षोभ हटा, स्वस्थ बना दे।

एक विचक्षण सा मनोचिंतन, कुछ तूलिका तो चलवा दे

कुछ शुभाक्षरों का कर आह्वान, सार्थक-मधुर घड़वा दे॥

 

फिर समर्थ सतत सुलेखन में, जब होते अकाल-असहाय

तब कौन प्रेरणा संग रहती, प्राण-शक्ति फिर देती साथ।

बनते सबल सर्वदा मन से, यूँ ही कष्ट में नहीं लड़खड़ाते

निर्विघ्न चलते जाते बुद्धिमता से, लक्ष्य में गतिमान रहते॥

 

अतः यथाशीघ्र स्व-स्वस्थ करो, सोचो कुछ उद्योग बृहत्तर

जीवन है चलने का ही नाम, बीते क्षणों का चित्रांकन कर।

विराम नहीं यहाँ, चलते रहोगे तो कुछ सुख अवश्यंभावी

स्व तो निश्चित ही सुधरेगा, संभावना अन्यों की प्रगति भी॥


पवन कुमार,
28 फरवरी, 2016 समय 21:25 रात्रि  
(मेरी डायरी दि० 19 जुलाई, 2014 समय 10:50 प्रातः से)

Saturday 20 February 2016

उलाहना

उलाहना 
-----------

मेरा बहुत सा सामान तुम्हारे पास पड़ा है 
बता दो इसकी सूची व किस उद्देश्य से है ? 

थोड़ा सा सामान देकर तूने जग में भेज दिया  
बहुत कुछ तो अपने पास ही रख लिया। 
क्या है तेरे मन की मंशा  
फिर क्यों न इससे परिचय ही कराता ?

मेरा क्या है निज जो दत्त है, या फिर तेरे पास भी 
 शायद तू ही जाने, कितना अभी योग्यता में है मेरी ?
देगा शनैः-२ देख सामर्थ्य व मन की प्रगाढ़-आकांक्षा 
लेकिन अभी तो खिलौनों से ही मन रहा हूँ बहला। 

कितना हूँ योग्य - ग्राह्यी, कितने हेतु सुपात्र 
कितना है आँका, उसका परिणाम तो नहीं विदित। 
तू रहस्यमयी मेरी बुद्धि शून्य, कैसे प्रवेश हो गुफ़ा में तेरी 
सर्वत्र साँसत, तम-अविवेक, तव-प्रकाश भी दर्शित नहीं। 

क्या है यह वजूद, कैसे हो प्रयोग, नियम तो बताए नहीं 
मार दिया धक्का बिना योग्य किए, यह तो बड़ा न्याय नहीं। 
माना किञ्चित स्व-प्रयासों से, अल्प-शिक्षित किया स्वयं को 
पर कितना पूर्ण ज्ञान व अनुभव, बहुत दूर ही मुझसे तो। 

माना आरम्भ-स्थिति में तो, सबको प्रेषित करना ही होता  
फिर क्या दर्जों को आगे बढ़ने का भी नियम नहीं होता ?
कोई सुयोग्य शिक्षक भी तो नज़र नहीं आता 
कोई कुछ बताता है तो पूर्ण समझ नहीं आता। 

समय उसने बिता लिया, अनाड़ी छोड़ दिए शिष्य  
शिष्य भी फिर अज्ञानी, मूढ़ी है व अपने में ही मस्त। 
नहीं उन्हें अपनी अधो-स्थिति, अनाड़ीपन का ही ज्ञान 
धरा पर बोझ बने, अपने को यूँ ढोए जाते अजान।  

कितनी संभावनाऐं भरी हैं, इस मानव-शिशु में तूने 
कम से कम उनका तो परिचय मुझसे करा दे। 
बहुत दार्शनिकों को विचारता, पल्ले न पड़ता बहुत  
क्या मार्ग कर्म-बद्ध ज्ञानार्जन का, कैसे विचार फलीभूत ? 

प्रबुद्ध तो अनेक भेजे यहाँ पर, उन्होंने स्व-छाप है छोड़ी 
मुझसे क्या शिकायत है मौला, जो तेरी अनुकम्पा नहीं। 
मुझे नहीं ज्ञात वह स्व-संचालित या तेरी प्रेरणा-रहमत 
कुछ सफल अवश्य ही, समझने भूल-भलैया, काल-चक्र। 

माना कि बहुत विविधताऐं हैं, उनके मनन-मंतव्य में 
फिर भी तो उन्होंने परिभाषित करने का किया यत्न है।  
शायद न हो वह भी पूर्ण ब्रह्म-चिंतन, माधुर्य 
तो भी पार जाने की जगी है इच्छा-सामर्थ्य। 

होती स्वार्थ-कुवृत्ति, स्व भौगोलिक-सामाजिक स्थिति से ही  
मानव चाहे मनन में ही क्यों न हों, प्रवृत्ति अति-दूर न होती। 
कुछ बह जाते स्व-हित साधन को, सर्व-विकास को तिलांजलि  
शक्ति-सम्पन्न प्रभाव छोड़ने में, नियम-कानून अनुरूप अवली।  

कुछ मनीषियों का चिंतन व अनुचरों का सहयोग 
ऐसी जग-व्यवस्था बनाते जो उनके हेतु हो अनुरूप। 
फिर भी हैं बहुत निस्वार्थी, चिंतन सर्वजन हिताय 
जिसमें निहित सबको अग्र-बढ़ाने का हो भाव। 

दर्शन की बहुत धाराऐं, अपने ही रंग से परिभाषित 
अनेक बना दिए समूह, स्पर्धा हुई अनुचर-विस्मित।  
हर एक अपने को श्रेष्ठ मनवाने को उतावला ठान 
चाहे असली आचरण देखा ही नहीं या व्यर्थ-अभिमान। 

क्या मानूँ कैसे इस जग की है संचालन प्रवृत्ति 
क्या है स्व-चलायमान या कुछ योग्यों की युक्ति। 
कौन है वे जो इसको नियम-कानून देते 
फिर हम चाहे न चाहे, उनमें ही हैं बहे। 

फिर कितने हैं वे परम आदर्श के प्रवाहक 
कितने उचित व्यवस्था देने का करते यत्न। 
सब समय अपना व्यतीत करते जकड़नों में,
 उचित जानकर भी बहुदा भीक ही रहते। 

स्व-यश कामना व प्रभुओं का समर्थन 
बहुत आमजन को न देते सहारा-प्रयत्न। 
वे लघु, ऐसा ही रहने दो, हम योग्य-अभिमानी 
कयास स्व-हितार्थ, जबकि प्रकृति-साधन सार्वजनिक। 

अपनी ढफ़ली अपना राग, सब मुग्ध अपनी धुन 
चाहे ज्ञात हो या न, फिर भी जीवन धकाने में व्यस्त । 
पर कुछ तो अपने समूहों को बढ़ाने में प्रयासरत 
उनके मनीषी, शुभ-चिंतक, बुद्धि-तत्व से देते समर्थन। 

क्या मानूँ चिंतकों का चिंतन यदि न वह सार्वभौमिक  
जब सारे कायदे स्व-हित में ही, स्व-नाम की स्तुति मात्र। 
फिर क्या उन जैसा ही बनना चाहता या उद्देश्य महत्तर 
  क्या बन सकता आम-जन सेवक, स्वतः सर्व-जन निहित।  

कौन ये दार्शनिक क्या साध्य, है भी कुछ गुणवत्ता  
या फिर रहते उसी प्रकार में, जिसमें यथा-स्थिति ही। 
कितने उनमें सुयत्न करते, जग को रमणीय बनाने 
उसमें अपने परिश्रम से उचित ज्ञान को ही बखानते। 

नहीं इच्छा फिर श्लाघा की, न ही शिष्य बनाने की 
जिसे उचित लगे संग हों ले, यह विधा सूफ़ियाने की। 
किस श्रेणी का जीव हूँ प्रभु, मुझे मम परिचय दो  
निकाल बवाल से दिखा कुछ सत्य, मेरी साध करो। 

क्या अनुपम सम्भव है, क्या उसका कुछ मतलब 
क्या है वह परम-स्थिति, पार नहीं जिसके ऊपर। 
मैं सीखूँ वे पाठ जो मेरी वर्तमान स्थिति से हैं अग्र 
अतः उलाहना प्रथम पंक्ति से ही, रचना में है इंगित। 

मेरा सामान-संभावनाऐं, सब ही तो तेरे पास पड़ी  
यदि मुझमें ही छिपा दी, तो उसका मुझे ज्ञान नहीं। 
तुमसे यूँ गुजारिश, मेरा वह सामान दो लौटा 
सब तेरा, पर कुछ प्रयोग मैं भी करना चाहता। 

क्या हदें सम्भव मैं भी तो जानूँ, कितना देने में समर्थ  
बौरा बना रख दिया, अपनी संतान से है न न्याय। 
विचरूँ अत्र-तत्र मद सम, न कभी स्व में ध्यान ही लगा 
रहमत की करता प्रतीक्षा, पर तुमको समय ही न मिला। 

 अध्ययन कुछ तो बताता, पर चिंतन उससे अलग ही 
बहुत तो समझ असक्षम, अतः विस्तार बहुत सीमित ही। 
इतना फैलाव व मम लघु-आँचल, दोनों में न सामंजस्य
कैसे हो मेरा भी विकास, इस परम-तत्व को दो प्रयास। 

समय सीमित, ऊर्जा परिमाणित, उस पर चेष्टा-अभाव   
कैसे बदलाव सार्थक दिशा में, इसपर न दृष्टि-प्रसार। 
बढूँ चिंतन-मार्ग में प्रभु, अतः बुद्धि निर्मल दे बना 
पर न स्वार्थी तथाकथित सम, जग को ललिततर बना। 

कर्त्तव्य-चिंतन श्रम-आहूति, हर मनुज को बना योग्य 
दूर विरोध सर्व-विकास, उनमें निर्माण परस्पर सहयोग। 
मम विवेक का भी हो योगदान, ऐसा तू शख़्श बना 
न रुकूँ तेरे पथ में ओ मौला, भौतिक वपु से अग्र ले जाना। 

तपा दूँ तन-मन, दे प्रेरणा, बना यात्री राहुल सांकृत्यायन सा  
वृतांत चित्रण का इतना महद प्रयास, निश्चय ही है स्तुत्य। 
न मात्र अनुभव अपितु उचित-चिंतन, आलोचना सटीक-निर्भीक 
नज़रें पैनी, भाव सर्व-हितैषी, ज्ञान-विस्तृत अर्जित बाँटा विसरण। 

क्या उचित, चिंतन-प्रेरणा से, हो सकता कुछ निर्भीक मैं भी   
कर सकूँ प्रयास कुछ के जीवन में जीवन फूँकने का ही ?
माना बहुत समर्थ पूर्व से ही, उन्हें न तुम्हारी आवश्यकता 
तो भी मनुज बहुतेरे, विकास का मुख ताक़ रहे सदा।  

धन्यवाद। 

पवन कुमार,
20 फ़रवरी, 2016 समय 22:42 रात्रि 
(मेरी डायरी दि० 28 जून, 2014 समय 10:25 से)   

Saturday 13 February 2016

निर्मल-स्पंदन

निर्मल-स्पंदन
-----------------

ब्रह्म-मुहूर्त रात्रि अंतिम-प्रहर, मैं जागृत, अधिकांश जग है सुप्त

एकांत, प्रारंभ किया लेख संग चिंतन, मननशील होने को मुग्ध॥

 

निर्मल-मन निर्लेष-आत्मा, कोरा स्लेट-पटल, चित्रांकन अद्भुत

विचार-लेखा कैसे उकेरेगी, अज्ञात है पर प्रयास-अवस्था निरत।

किस क्षण बुद्धि-कोष्टक कर्मभूत होगा, कलम को संकेत उकेर

गति मिलेगी स्वतः निर्द्वन्द्व ही, स्पंदन-निरूपण से अनुपम मेल॥

 

मन-प्रेरणा तो प्राण-भूता, अवस्था परिवर्तन है अवचेतन से चेतन

नहीं सहन है स्व अल्प-प्रयोग, मिला मानव यंत्र एक अमूल्य भेंट।

असंख्य प्रयास-परिणाम से है उपस्थिति, कर्म हेतु वाँछित निर्देश

यह चालक-संचालक तुम्हीं हो, कर्त्तव्य-परायण हेतु परम-प्रवेश॥

 

क्या संभावनाऐं हैं इस निपुण-यंत्र में, प्रवर्धित मन-ऊर्जा ही प्रयोग

ज्ञान-चक्षु खुलें तो दर्शन को अनुपम, जगत-सौंदर्य संग है संयोग।

अन्याय-न्याय विस्तृत धरा-पटल पर, स्वार्थ-निस्वार्थ के कई खेल

प्रश्न किस परम-उद्देश्य में परिलक्षित, संचारण सर्व-हित से मेल॥

 

कौन हैं मनन उच्च-प्रक्षेपण प्रेरक, तज सब स्व-दुर्बलता तन-मन

आत्मा बन सके एक सक्षम परम सम, सर्वदा रत उद्योग निर्मल।

अनेक तप-लीन हैं अपने ईष्ट में, पाया वरदान तो न किया आदर

गर्व-मद-मोह-स्वार्थ-काम में लिप्त थे, मूल-श्रम हुआ असार्थक॥

 

तब क्या उद्देश्य मनन-कर्म का, सफल होते भी न आए भद्र-भाव

अपने ही वार में है फँस जाता, जगत से हटाने को देव लगते दाँव।

अनेक देवासुर-दृष्टांत समक्ष हैं, अनुपम वर मिला पर प्रयोग निकृष्ट

वही देव तब अरि हो जाते, पोसा अपयश, अतिरिक्त जीवन-वध॥

 

हम विद्या-ग्राही, कुछ विधि सीखते हैं, शस्त्र-शास्त्र का ज्ञानार्जन

किञ्चित हों प्रक्रिया में मृदुल-मन, पर क्या रहते हैं दीर्घ तत्सम।

जब `विनय ददाति विद्या', तो क्या अनिष्टचारी हैं अज्ञानी- अधम

 कितने समय एक रह सकता सत्व-भाव में, चरित्र का है दर्पण॥

 

स्व-विश्व बृहद का ही अंश, निज-दशा का अनुरूप प्रभाव प्रखर

सहायक बनो ललित-वृत्त निर्माण में, एक कुटीर सर्वार्थ सुखकर।

प्रत्येक अणु से सकल स्रष्टि-रचना, उपयुक्तता ही है मुख्य कारक

जैसा है मन-चित्रण, उकेरे तथैव, लक्षित होंगे कल्याण-सहायक॥

 

सब भगाने को तत्पर, करो कर्म-युद्ध, पर मंशा कुछ परम-फुहार

रोको स्वयं को, लगा लो बुद्धि, जीवन मिला तो कर्मठता-पुकार।

निर्बल तन-मन संग सदा भ्रमित, अनुरूप अलब्ध, कर्त्तव्य निर्माण

 आत्म-चिंतन संग योग हो सुप्रयत्न, मार्ग-प्रशस्त संभावना है अपार॥

 

जीव-प्रक्रिया है योग- वियोग की, हरक्षण लब्ध निर्णय को उपयुक्त

संचित क्या करते प्राण-गति में, अंत में जुड़ता चला जाता है सहज।

क्यों सदा विरोधाभास में ही गमन, स्व- मन इंगित करो लक्ष्य-परम

स्व-हित सर्वहित में निहित ही है, क्यों लुब्ध-प्रवृत्ति से लिपटो व्यर्थ॥

 

क्यों स्व लघुतर में ही प्रेषित, द्वार खुलें वृहद ब्रह्माण्ड अति-प्रस्तुत

एक-२ मण्डल प्रेरक हम अल्प का, स्मितमय बनकर बनें बेहतर।

स्व-उपार्जन कर्त्तव्य महद उद्देश्यार्थ, सार्थक-सिद्धि है नित्य वाँछित

महाजन- प्रभावित सामान्य अनुचरण, अवसर है, न करो निष्फल॥

 

माना स्व अत्यल्प, क्षण-भंगुर, निम्न-अज्ञानी पर दिशा तो करनी तय

तुम वृहद अनंत-काल वासी, इसी के अणुओं में रहोगे सदा-समय।

क्यों बनते संकुचित सदा रुदन-कुयत्न में, कभी पूर्ण झोंककर देखो

युद्ध स्व-संग उच्च शिखर चढ़ाई हेतु, न स्वीकार सड़कर मृत्यु हो॥

 

दृष्टि विकसित करो अनुपम-आनंद हेतु, नित्य-चेष्टा ही रखेगी समृद्ध

मत हों अपघटित लघु-मारक तृष्णा में, मुक्ति-द्वार खुलेंगे अनिरुद्ध।

असंख्य नर सदैव रत महद उद्देश्य, अंतः-प्रेरणा से विकास-सहयोग

आनंद अवश्यमेव प्रस्तुत होते रहेंगे, बस अडिग रहो सतत उद्योग॥

 

निर्मल-स्पंदन वसंत-मुकुल को ऊर्जा, विकसित सौरभ कुसुम-वैभव

संभालो वर्तमान वही मार्ग अनुपम, न अवरुद्ध होने दो प्रवाह सतत॥


पवन कुमार
13 फरवरी, 2016 समय 23:52 म० रा०  
(मेरी डायरी दि० 19 जनवरी, 2016 समय 5:54 प्रातः से)

Sunday 7 February 2016

जीवन-निजता

जीवन-निजता
-----------------

मैं यूँ विचार में बह रहा, वहाँ जगत अपनी गति से बढ़ रहा

कदम मिला न रहा उसके संग, तो संपर्क छूटा सा है रहा॥

 

हम व्यस्त स्वयं में, वहीं निजी पिछड़ा, इसका कोई होश न

आवश्यकता अपनी अवश्य है पर औरों के भी लगते कुछ।

क्या कुछ पढ़-लिखने, व्यवसाय-नाम, दूजों से कट जाना है

कैसा विरोधाभास, यहाँ कुछ प्रगति वहाँ वे छूटे जा रहे हैं॥

 

यह निर्मोह कहाँ से उपजता, पहले तो एक थाली से खाते थे

अब संपर्क कुछ और पा लिए, क्या पुरातन-आवश्यकता है?

यह क्या है मोह भंग या स्थिति-परिवर्तन या वे हैं निरोपयोगी

अच्छे स्वार्थी हो नर, निज पड़ी तो संग हो अन्यथा दूर हैं ही॥

 

पर क्या जगत मेरी इच्छा से चलता, कदापि न सब हैं स्वछंद

समझाने-बुझाने का भी असर न, क्योंकि संस्कार आंतरिक।

सुन लेते हैं, विचारते भी, पर करते मन की, यही बड़ी दुविधा

पता अनुचित किंतु आलस्य-अधीन, अवनति में जकड़े पड़े॥

 

पर यह तनिक स्व को श्रेठ बताने की इच्छा, गर्व-ग्रसित किए

शायद इससे अन्य दूर हटते, यद्यपि न बोलते, मन की करते।

तुम सम वे भी निज सोच में डूबे होते, माना वह उचित न हो

ज्ञानेन्द्रि-रंध्र यदि खुलें, तो शायद कुछ प्रकाश दृष्टिगोचर हो॥

 

क्यों चाहे-अचाहे ही कुछ अपना सतत दूर हो रहा है हमसे

उम्र बढ़ती चाहे सदा युवा रह चाहें, असहाय समय ताकते।

बच्चे बड़े हो रहे, न ध्यान दे पा रहें, यह खीजना स्वाभाविक

एक दिन वे बड़े हो, पंख पाकर पंछी भाँति ही जाते हैं उड़॥

 

किसका नीड़, कैसा परिवार, सब अपनी निजता में ही लीन

न ध्यान अपनों से मिलन का, वे भी क्या तुम हेतु बैठे रिक्त?

कभी-२ औपचारिकता मात्र से, हाल-चाल यूँ ही लेते हैं पूछ

माना अन्यों से निकटतर हैं होते, तो भी निज मालिक सब॥

 

कुछ बिछुड़ जाते सदा हेतु, बहुत समय तक खालीपन पाते

क्यों विव्हल हो जाते, जब जीते-जी कुछ खास खबर न पाते?

जीवन एक निजता का नाम, अपने संग ही खत्म हो जाता है

इसमें कुछ अल्प योगदान कर पाते तथापि सदा खुद में हैं॥

 

कैसी यह हठ-धर्मिता है, ज्ञात हुए भी कि स्वयं-सुधार माँगते

अपनी निम्न-ग्रंथि ऐसी बना ली, न नीयत होती है सुलझाने में।

हम बेशक तो रहें असफल, खाऐं गाली पर न तजते हैं मूढ़ता

कोई कब तक करे बल प्रयोग, औरों की क्या तुम्हीं विवशता?

 

कोई अन्य क्यूँ नियंत्रण करे तव जीवन, क्या विवेक न है तुममें

क्यों बनते यार डंडे खाने के, देखो बाद में रोओगे-पछताओगे।

देखकर सुधार लो स्वयं को, बहुत नादानियाँ पहले ही कर ली

एक सम्मानित स्थल पर हो, परिष्करण करो बनो विश्वस्त भी ?

 

अध्याय-लेख आरंभ में विचार था, सर्वत्र न है समुचित ही ध्यान

न लिख रहा कुटुंब-समाज, देश-दुनिया पर और स्व-अनुभव।

यहाँ यह पकड़ा वहाँ छूटा, संसार में सर्वांगीणता नहीं है दर्शित

अति वृहदता वाँछित है प्रगति में, एक दिन में ही लें कई जन्म॥

 

वैसे भी कितना समय दे पाते हैं, तमाम बिखरे अध्यायों में इन

पर कुछ सामंजस्य तो रखो, ताकि नज़र सब ओर हो विस्तृत।

जितना बन पाए कसर न छोड़ों, क्योंकि पूर्णता हेतु ही कदम

ज्ञान-दीपक सदा प्रज्वलित हो, तमाम सुख उससे ही फलित॥

 

कुछ और साधु प्रयास करो।

तमाम जीवन-आयामों को लेखनी में उतारो॥

 शाबाश॥


पवन कुमार,
7 फरवरी, 2016 समय 20:06 रात्रि  
(मेरी डायरी दि० 11 दिसम्बर, 2014 समय 9:19 प्रातः से)