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Saturday 26 January 2019

श्री बाणभट्ट कृत कादंबरी (प्रणय-कथा) : परिच्छेद -६ (भाग -२)

परिच्छेद - ६ (भाग -२)

"इन विचारों से प्रेरित मैं आगे बढ़ी, और उसके द्वितीय-तापसी सखा के समक्ष नमन करते हुए, मैंने पूछा : "उसका वंदनीय का क्या नाम है ? वह कौन मुनि-पुत्र है ? किस वृक्ष से यह (यष्टि) माला बुनी गई है ? क्योंकि अभी तक अज्ञात, इसकी सुवास दुर्लभ माधुर्य मुझमें महद उत्सुकता उदित करती है।

"एक मृदु स्मित (मुस्कान) संग, उसने उत्तर दिया : 'कन्ये, इस प्रश्न की क्या आवश्यकता है ? परंतु मैं तुम्हारी जिज्ञासा को प्रकाशित करता हूँ। सुनो !

"देवलोक में एक महर्षि श्वेतकेतु रहता है; उसका उत्तम चरित्र ब्रह्मांड में सुविख्यात है, उसके चरण सिद्ध, देव एवं दैत्यों द्वारा पूजित हैं; नलकुबेर को भी मात देती उसकी चारुता त्रिलोक-प्रिय है, और देवी-हृदयों को प्रमुदित करती है। एक समय, जब देवोपासना हेतु पुष्प-अन्वेषण करते हुए, जब वह नीचे स्वर्गिक-गंगा को गया, जो शिव के मंद-हास सम शुभ्र थी, जबकि उसका जल जैसे कि ऐरावत के मत्त द्वारा मयूर-अक्षियों द्वारा जड़ित था। निकट शुभ्र (श्वेत) सहस्र-कमल पर विराजमान लक्ष्मी ने सीधे उसे कुसुमों के मध्य नीचे देखा, प्रेम से निमीलित (अर्ध-बंद) नेत्रों द्वारा वह उसकी सुंदरता-पान कर गई, और प्रसन्नतापूर्ण अश्रु-भार द्वारा स्फुरित, और अपनी पतली ऊँगलियाँ अपने कोमल खुलते अधरों पर रखते हुए उसका उर मदन द्वारा विव्हलित था; अपनी दृष्टि मात्र द्वारा ही उसने उसका प्रेम जीत लिया था, एक पुत्र उत्पन्न हुआ, और इन शब्दों द्वारा उसको अपने अंक में लेते हुए, 'उसको ले लो, क्योंकि वह तुम्हारा है', उसने उसे श्वेतकेतु को दे दिया, जिसने पुत्र-जन्म के सभी संस्कार पूर्ण किए, और उसे पाण्डुरीक पुकारा, क्योंकि वह एक पाण्डुरीक (श्वेत) उत्पल में उत्पन्न हुआ था। अथापि (इसके अतिरिक्त) उपनयन पश्चात, उसने उसका कलाओं के सम्पूर्ण वृत द्वारा नेतृत्व किया। यह पाण्डुरीक है जिसको तुम देखती हो। और यह फुहार पारिजात पुष्पों से आती है, जो तब उदित हुआ था जब क्षीर-सागर देव एवं दैत्यों द्वारा मंथन किया गया था। अपने वचन-विपरीत उसने इसके कर्ण में कैसे एक स्थल प्राप्त कर लिया, मैं अब तुम्हें बताऊँगा। यह मास का चौदहवाँ दिवस था, उसने मेरे संग शिव-आराधना हेतु स्वर्ग से प्रारंभ किया, जो कैलाश की ओर चला गया था। मार्ग में, नंदन वन के समीप, जानुओं तक लटकते हारों द्वारा पूर्ण परिवीत (छिपी), केसर-कुसुमों से गुँथी, और वसंत-लक्ष्मी द्वारा दिए गए उधार दिए शुभ्र कर पर विश्राम करती, कुसुम-रस पिए हुए, अपने कर्ण में नव आम्र-पल्लव पहने हुए एक अप्सरा ने पारिजात की इस फुहार को लिया था, और नम्र झुकते हुए, पाण्डुरीक को यूँ संबोधन किया : 'महोदय, तुम्हारा यह रुप जो ब्रह्मांड-अक्षियों को प्रमुदित करता है, कृपया मुझे प्रार्थना करने दो, कृपया इस फुहार को अपने उपयुक्त शृंगार रुप में प्राप्त करो; कृपया यह अपने कर्ण के अग्र पर रखने दो, क्योंकि यह मात्र माला की विलासता ही है; अब पारिजात-जन्म को इसके पूर्ण आशीर्वाद संचय करने दो।' अपने इन वचनों पर उस प्रशंसनीया के नयन विनय से नीचे झुक गए, और वह उसपर ध्यान देते हुए चलने को उद्धत हुआ; परंतु जब मैंने उसे हमें अनुसरण करते हुए देखा, मैंने कहा, "मित्र, क्या हानि है। कृपया इस विनीत उपहार को स्वीकार कर लिया जाए और बलात् उसकी इच्छा-विपरीत, पल्लव ने उसका कर्ण-विभूषित किया। अब सर्व ही बताया जा चुका है कि वह कौन है, और यह क्या कुसुम है, और कैसे यह उसके कर्ण पर लगा हुआ है।" जब वह ऐसा बोल चुका, पाण्डुरीक ने मुझे एक मंद-स्मित द्वारा कहा : "आह, जिज्ञासु कन्ये, तुमने इस प्रश्न का कष्ट क्यों किया ? यदि इसकी मधुर सुवास संग कुसुम तुमको प्रिय है, क्या तुम इसे स्वीकार करती हो", और आगे बढ़ते हुए, उसने अपने कर्ण से इसे लिया और इसे मेरे कर्ण में रख दिया, इसपर भ्रमर के मृदु-गुँजन सहित, जैसे कि यह मदन हेतु एक प्रार्थना हो। सहसा उसका कर-स्पर्श की अपनी उत्सुकता में, एक आनंदातिरेक मुझमें उत्पन्न हुआ, एक द्वितीय पारिजात कुसुम भाँति जहाँ माला पड़ी हुई थी; जबकि उसने मेरे कपोल-स्पर्श करने के हर्ष में नहीं देखा कि अपनी कातरता सम ही अपनी कंपित ऊँगलियों से उसने अपनी माला गिरा दी थी; परंतु इससे पूर्व कि यह भूमि पर पहुँचे मैंने इसे पकड़ लिया, और लीला-क्रीड़ा में इसे अपने कंठ में रख लिया, जहाँ इसने सभी अन्यों के विपरीत एक कंठहार की शोभा धारण कर ली, जबकि मैंने उसकी भुजा द्वारा, जैसे कि वह थी, अपनी ग्रीवा-आलिंगन का अनुभव किया।

"जैसे कि हमारे उर अतएव परस्पर लिप्त थे, मेरी छत्र-धारिका ने मुझसे संवाद किया : "राजपुत्री, महारानी ने स्नान कर लिया है। यह समय लगभग गृह-गमन का है। क्या आप भी, अतएव, स्नान करोगी।" उसके शब्दों पर, एक नव-पाशित गज सम, नव-अंकुश के प्रथम-स्पर्श पर उद्दंड, मैं दूर-कर्षण में अनिच्छुक थी, और जैसे मैं स्नानार्थ नीचे गई, मैं किंचित ही अपने नयन हटा सकती थी, क्योंकि वे उसके मुख की अमृतमयी चारुता में डूबी प्रतीत होती थी, अथवा मेरे प्रमुदित कपोल-कुंज में पकड़ी गई, अथवा कामदेव के बाणों द्वारा घायल, अथवा उसकी रम्यता-रज्जु द्वारा कस कर सिले गए।

"इसी मध्य, द्वितीय युवा-मुनि ने यह देखकर कि वह आत्म-नियंत्रण खो रहा है, हल्के से उसकी भर्त्सना की : प्रिय पाण्डुरिक, यह तुम्हारे लिए अनुपयुक्त है। यह पथ साधारण नरों द्वारा गमित है। क्योंकि उत्तम आत्म-नियंत्रण में समृद्ध होते हैं। तुम क्यों निम्न-जाति नर सम अपनी आत्मा-उद्वेग को नियंत्रण करने में असफल हो ? अभी तक अज्ञात यह इंद्रिय-आक्रमण कहाँ से गया जिसने तुम्हें अतएव परिवर्तित कर दिया ? तुम्हारी पूर्व-दृढ़ता कहाँ है ? कहाँ है तुम्हारी इंद्रिय-विजय ? तुम्हारा संयम कहाँ है ? कहाँ है तेरी मन-शांति, वंशानुगत-पुण्यता, पार्थिव वस्तुओं की तुम्हारी असावधानी ? कहाँ है तेरी गुरु-शिक्षा, तुम्हारा वेद-अध्ययन, तुम्हारे तापसी-व्रत, तुम्हारा सुख-विद्वेष, व्यर्थ प्रमोदों प्रति तुम्हारी विरक्ति, तप हेतु तुम्हारा अनुराग, आनंद-वैराग्य, यौवन-उद्वेगों पर तुम्हारा शासन ? निश्चय ही, सब ज्ञान निष्फल है, पवित्र पुस्तकों का अध्ययन निष्प्रयोजन, उपनयन संस्कार ने अपना तात्पर्य खो दिया है, गुरुओं की शिक्षा पर विचार-अप्राप्ति, निपुणता अनुपयुक्त, ज्ञानार्जन कहीं नहीं लेकर जा रहा, क्योंकि तुम्हारे जैसे पुरुष भी अनुराग-स्पर्श द्वारा कलंकित होते हैं, और मूढ़ता द्वारा अतिक्रमण किए जाते हैं। तुमने यह भी नहीं देखा है कि तुम्हारे हाथ से माला गिर गई है, और दूर ले जायी गई है। दुर्भाग्य ! कैसे नरों में उत्तम बुद्धि अतएव अक्षम करती है। अपने यह हृदय संयमित करो, क्योंकि यह अयोग्य बाला इसे दूर ले जाने को लालायित है।

"इन वचनों पर कुछ लज्जा से उसने उत्तर दिया : ' प्रिय कपिंजल, तुम मुझको अतएव क्यों अन्यथा चिंतन करते हो ? मैं इस असावधान कन्या द्वारा मेरी माला ले जाने के अपराध को सहन करने वाला नहीं हूँ।' और अपने शशभृत (चंद्र) सम सुंदर मुख के साथ इसके मिथ्या क्रोध में, और भयानक क्रोध जो आवरण करने के अपने प्रयास से और अति-आभूषित, जबकि उसके अधर मुझे चूमने की कामना से कम्पित हो रहे थे, उसने मुझसे कहा, "चंचल बाला, तुम इस स्थान से मेरी माला वापस दिए बिना एक कदम भी नहीं चलोगी। तत्पश्चात मैंने अपने कंठ से मुक्ताओं की एक पंक्ति को शिथिल जैसे कि पुष्पार्पण जो काम के सम्मान में एक नृत्य प्रारंभ करता है, उसे उसके आगे बढ़े कर में रख दिया, जबकि उसके नयन मेरे मुख पर स्थिर थे, और उसका मस्तिष्क बहुत दूर था। मैंने स्नान प्रारंभ किया, परंतु कैसे मैंने शुरू किया मैं नहीं जानती, क्योंकि मेरी माता और मेरी सखियाँ कठिनता से बलात ही ले जा सकी थी जैसे कि एक सरिता प्रतिपथ (उल्टी) चलाई जा रही हो, और मैं मात्र उसी के बारे में सोचती हुई हर्म्य चली गई।

"और बाला-गृह में प्रवेश करते मैंने सीधे उसके बिछोह पर अपने दारूण में स्वयं से पूछना शुरु किया : "क्या मैं वास्तव में वापस गई हूँ, या अभी तक वहीं हूँ ? क्या मैं अकेली हूँ, या अपनी कन्याओं के साथ हूँ ? क्या मैं शांत हूँ या बोलना शुरु किया है ? क्या मैं जागृत या सुप्त हूँ ? क्या मैं रोती हूँ या अपने अश्रुओं को पीछे रोक लिया है ? क्या यह आनंद या दुःख है, कामना अथवा निराशा, दुर्भाग्य अथवा प्रसन्नता, दिवस या रात्रि ? क्या ये चीजें सुख या कष्ट हैं ?" यह सब मैं नहीं समझती हूँ। काम-पथ की अपनी अभिज्ञता में, मैं नहीं जानती कहाँ जाऊँ, क्या करूँ, सुनूँ, देखूँ अथवा बोलूँ, किसको बताऊँ, ही किसी साध्य को खोजूँ। कन्या-प्रासाद में आकर मैंने अपनी सखियों को द्वार पर विदाई दे दी, और अपनी परिचारिकाओं को बाहर निकाल दिया, और तब अपने सभी व्यवसायों को एक तरफ रख, मैं अपना मुख रत्न-जड़ित गवाक्ष के साथ सटाकर खड़ी हो गई। मैंने क्षेत्र पर दृष्टि की जो उसके अधिकार में था, वैभव से जड़ित, महद-संपदा में संपन्न, सुधा-महासागर द्वारा समृद्ध, पूर्ण-चंद्र उदय होने से विभूषित, और मनन करने में अत्युत्तम। मैंने उसके कार्य-कलापों के विषय में तदनंतर यहाँ तक कि महकती समीरों से भी पूछा, अथवा वन-फूलों की सुवास से, अथवा खग-गान से। उनके हेतु उसकी श्रद्धा के लिए तप के कठिन परिश्रम से भी मुझे ईर्ष्या हुई। उसके हेतु प्रेम की अंध-भक्ति में, मैंने एक मौन-व्रत लिया। मैंने तापसी परिधान की महिमा को श्रेय दिया, क्योंकि उसने उसे स्वीकार कर लिया, यौवन-रम्यता क्योंकि वह उसे धारण करता था, पारिजात कुसुमों की चारुता क्योंकि इसने उसके कर्ण को स्पर्श किया था, देव-लोक की प्रसन्नता क्योंकि वह वहाँ रहता था, और प्रेम की अजेय शक्ति क्योंकि वह अति सुंदर था। यद्यपि अति-दूरस्थ, मैं उसकी ओर मुड़ी जैसे कमल-कुंज सूर्य की ओर मुड़ते हैं। मैंने अपने कंठ पर उसकी माला धारण की जैसे उसकी अनुपस्थिति द्वारा पीड़ित जीवन-हानि के विरुद्ध एक रक्षा-कवच था। मैं निस्तब्ध खड़ी रह गई, यद्यपि एक रोमांच ने मेरे कपोल (गाल) पर एक गड्डा बना दिया, कर्ण-बाली के एक कदंब-पुष्प भाँति, जैसे कि यह उसके कर-स्पर्श किए जाने के आनंद से उठा हो, और मेरे कर्ण में पारिजात-पुष्पों की फुहार से, जो मुझे उसके विषय में मृदुता से बोला :

"अब मेरी तांबुल-वाहिका तारालिका जो स्नान-समय मेरे संग थी; वह मेरे पश्चात वापस किंचित विलंब से आई, और मेरी उदासी ने मृदुलता से उवाच किया : "राजकन्ये, उन देव-तुल्य तापसियों में एक जिसे हमने अच्छोडा सरोवर-तट पर देखा था जिसके द्वारा स्वर्गिक-तरु का यह कुसुम तुम्हारे कर्ण पर लगाया गया था, जैसे मैं तुम्हारा अनुसरण कर रही थी, अपनी अन्य आत्म-दृष्टि से ओझल हो गया, और पुष्पित लता-शाखाओं के मध्य से मंद-कदमों से चलता हुआ मेरे पास आया, तुम्हारे से संबंधित यह कहते हुए मुझसे पूछा : ' माणविका (किशोरी), यह कन्या कौन है ? किसकी पुत्री है ? उसका क्या नाम है ? और कहाँ वह जाती है ? मैंने उत्तर दिया : 'यह चंद्र-वंश की एक अप्सरा गौरी से उत्पन्न हुई है, और उसका पिता हंस सब गंधर्वों का नृप है; उसके चरण-नख सभी गंधर्वों की मुकुट-जड़ित कलगियों के सिरों द्वारा चमकते हैं; उसकी वृक्ष-नुमा भुजाऐं उसकी गंधर्व-भार्याओं के कपोलों पर प्रसाधनों द्वारा चिंतित हैं, और लक्ष्मी के पल्लव-कर उसकी चरण-पादुका निर्माण करते हैं। राजकुमारी का नाम महाश्वेता है, और अब वह गंधर्वों के आवास हेमकुंट-पर्वतिका के लिए निकल चुकी है।

"जब यह कथा मेरे द्वारा बताई जा चुकी, उसने एक क्षण शांति से विचार किया, और तब मेरी ओर एक अविचलित दृष्टि से दीर्घ देखते हुए, जैसे कि मृदुता से अनुनय कर रहा हो, उसने कहा : कन्ये, जैसे कि तुम युवा हो, तुम्हारा रूप निष्कपट वचन का है, और सत्यता एवं निष्ठा का मंगल-सूचक है। अतएव एक प्रार्थना करने का वचन दो। विनय से अपने कर को उठाते हुए, मैंने सादर उत्तर दिया : 'ऐसा किस कारण कहते हो ? मैं कौन हूँ ? जब तुम जैसे महात्मा नर, संपूर्ण ब्रहमांड के सम्मान को प्राप्त होते हैं, यहाँ तक कि अपनी पाप-नाशक दृष्टि एक मुझ जैसी पर डालने की कृपा करते हैं, उनका कृत्य पुण्य-विजय है - कहीं अधिक कि यदि एक आदेश देते हैं। अतएव स्वतंत्रता से कहो, कि क्या किया जाना है। मैं तुम्हारे आदेश से सम्मानित हुई हूँ।

"इस प्रकार उवाचकर, उसने मुझे एक मित्र, सहायक अथवा प्राणदायक सम एक करुणा-दृष्टि संग नमन किया, और निकट के एक तमाल तरु से एक पुष्प तोड़कर उसने तीर के पाषाणों पर कुचल दिया, अपने ऊपरी वल्कल अंशुक से एक पटलिका (पट्टी) की तरह अचानक पृथक कर दिया, और एक गंध-गज के मत्त सम मधुर तमाल रस के साथ, अपने कमल-हस्त की तर्जनी ऊँगली के नख के साथ लिखा, और यह कहते हुए मेरे हाथ में रखा : ' कृपया यह पत्र उस बाला को जब वह एकांत में हो, तुम द्वारा दिया जाए।" इन शब्दों के साथ उसने तांबूल-पेटिका से निकाला और मुझे दिया।

"जैसे ही मैंने उस वल्कल (छाल) पत्र को उसके कर से लिया, मैं उसके विषय में इस वार्ता संग भर गई, जिसने यद्यपि निशब्द, स्पर्श का आनंद-स्पर्श उत्पन्न किया, और यद्यपि मात्र कर्णों हेतु, एक रोमांच द्वारा मेरे सर्वांगों में अपनी व्यापक उपस्थिति लिए हुए था, जैसे कि यह कामदेव को आव्हान करने हेतु एक मंत्र था; और उसके पत्र में मैंने ये पंक्तियाँ देखी :

"एक मानसी-जन्मी ने एक मुक्ता-लता की अविश्वसनीय चमक द्वारा ललचा दिए मेरे उर ने एक क्लांत मृगया में अग्र-गमन किया है, तेरी उस मुक्ता माला से ललच कर।“

"इसके पठन द्वारा मेरे प्रेमासक्त मन में एक निकृष्टतर हेतु इससे भी अधिक परिवर्तन रचित हुआ, जैसे कि एक में जिसने जैसे कि अपनी धारणाओं को त्यागते हुए अपना पद त्याग दिया है; जैसे कि कृष्ण-पक्ष की एक रात्रि द्वारा एक अंध नर में; जिव्हा काटने द्वारा एक मूक मनुज में; जैसे कि एक मायावी ऐंद्रजालिक (जादूगर) द्वारा एक निर्बुद्धि मनुष्य में; जैसे कि ज्वर-विभ्रम द्वारा एक विमूढ वाचाल में; जैसे कि मारक-निद्रा द्वारा द्वारा हलाहल दिए गए में; जैसे कि नास्तिक-दर्शन द्वारा एक खल पुरुष में; जैसे कि प्रखर मदिरा द्वारा एक विक्षप्ति में; अथवा जैसे कि एक स्वामी-दैत्य के कृत्य द्वारा पाशित; इस प्रकार उद्विग्नता में इसने मुझे निर्माण किया, मैं एक नदी भाँति लहर रही थी। मैंने उसको पुनः अवलोकनार्थ तारालिका का सम्मान किया, जैसे कि एक ने महान पुण्य अर्जित कर लिया हो, अथवा जिसने स्वर्ग-आनंदों का आस्वादन कर लिया हो, अथवा एक देव द्वारा भ्रमण किया गया हो, अथवा उसका महानतम वरदान प्राप्त कर दिया हो, अथवा सुधा-पान कर लिया हो, अथवा त्रिलोकी की राज्ञी अभिषिक्त की गई हो। मैंने उसको इस प्रकार सम्मान से उवाच किया कि जैसे कि वह अभी तक अज्ञात हो, यद्यपि वह सदा मेरे साथ रहती थी, यदा-कदा ही बाहर जाती, और यद्यपि मेरी अंतरंग मित्र थी। मैंने उसपर देखा जैसे जग के ऊपर थी, यद्यपि वह पीछे ही थी, मैंने उसके कपोलों पर अलकों को स्नेह-स्पर्श किया, और स्वामिनी-सेविका की स्थिति को पूर्णतया नगण्य किया, पुनः-पुनः पूछते हुए, "कैसे वह तुम द्वारा देखा गया था ? उसने तुमसे क्या कहा ? तुम वहाँ कितने समय तक थी ? उसने कितनी दूर तक हमें अनुसरण किया ? और अपनी सभी परिचारिकाओं को बाहर निकालकर, मैंने पूरा दिवस उसके संग हर्म्य में बिताया, उस कथा को सुनते हुए। मेरी उर-ज्योति को सांझा करते व्योम-लंबित भास्कर-वृत्त गुलाबी हो गया था; लज्जित अरुण-दृष्टि हेतु कामना करती सूर्य-मरीचि की लक्ष्मी, और जैसे प्रेम द्वारा मूर्छित पीत हुई, अपनी कमल-शय्या को तैयार करते हुए; जलों पर पड़ती गुलाबी सूर्य-किरणें जैसे रक्तिम चूने से वर्णित हो, वन्य गज-दलों की तरह एकत्रित उत्पल कुंजों से उठी; दिवस के उनके आरोहण पश्चात् विश्राम-कामना करते हुए सूर्य के रथ-अश्वों की प्रमुदित हिनहिनाहट की एक गूँज के साथ, मेरु-पर्वत की कंदराओं में प्रवेशित हुए; जैसे मधु-मक्खियाँ रक्त-उत्पलों के बंद किसलयों में बंद हुई, कमल-कुंज उनकी लोचन निमील करते प्रतीत होते थे जैसे कि उनके हृदय मरीचिमाली की विदाई पर एक दुःख द्वारा कृष्ण हों; चक्रवाक-युग्ल प्रत्येक परस्पर का उर लेते, उत्पल-शाखाओं के खोखलों में सुरक्षा से छिपे हुए थे जिनके उन्होंने परस्पर खाऐ हैं, अब बिछड़े हुए हैं, और मेरी आतपत्र (छाता) धारिका ने मेरे पास पहुँच कर निम्न प्रकार से कहा : "राजकन्ये, उन तरुण तपस्वियों में से एक द्वार पर है, और कहता है वह एक माला माँगने हेतु आया है। "यद्यपि निश्चल, तापसी के नाम पर मैं द्वार पर पहुँचती सी प्रतीत हुई, और उसका आगमन कारण शंकित करते हुए, मैंने एक अन्य अनुरक्षिका को बुलाया, जिसको यह कहते हुए मैंने भेजा, 'जाओ और उसे प्रवेश कराओ।' एक क्षण पश्चात् मुझे तरुण मुनि कपिञ्जल दिखाई दिया, जो पुण्डरीक हेतु ऐसा है जैसे रम्यता हेतु तरुणाई, तरुणाई हेतु कामदेव, कामदेव हेतु मधु, वसंत हेतु दक्षिण मलय, और जो वास्तव में उसका एक सुयोग्य मित्र हैं; उसने वृद्धा परिचारिका का अनुसरण किया जैसे शशि-ज्योत्स्ना पश्चात अरुण-प्रकाश। जैसे ही वह निकट आया, उसकी उपस्थिति ने मुझे विपदा, उदासी, अन्यमनस्का, निवेदन, और अपूर्ण-कामना से विश्वास-लुप्त किया। श्रद्धा-सहित मैं उठी और आदर सहित उसके लिए एक आसन लाई; और जब वह इसे स्वीकार करने हेतु अनमना बाधित था, मैंने उसके चरण धोए और अपने ऊपरी परिधान के कौशेय किनारे पर उन्हें शुष्क किया; और तब उसके निकट नग्न-भूमि पर बैठ गई। एक क्षण हेतु उसने प्रतीक्षा की, जैसे कि उवाच करने को उत्सुक हो, जब उसने समीपस्थ तारालिका पर अपनी दृष्टिपात की। एक दृष्टि पर उसकी अभिलाषा जानकर मैंने कहा : "महोदय, यह मेरे साथ है। निर्भयता से कहो। "मेरे शब्दों पर कपिंजल ने उत्तर दिया : राजकन्ये, मैं क्या कह सकता हूँ ? क्योंकि लज्जा द्वारा मेरी वाणी संवाद-वृत्त को नहीं पहुँचती। अनुराग-रहित मुनि कितना दूर है जो अनुराग-भ्रम से जो अधीर आत्माओं में अपना आवास पाता है, और पार्थिव-सुखों हेतु कामना सहित कलंकित है और कामदेव की नाना रूप-क्रीड़ाओं से पूरित है। देखो यह सब कितना अप्रतीत है ? क्या दैव प्रारंभ हो गया है ! प्रभु आसानी से हमें एक उपहास-वस्तु बना देता है ! मैं नहीं जानता कि यह वल्कल-अंशुकों संग यदि यह उपयुक्त है, अथवा उलझी लटों हेतु प्रतीत, अथवा तप हेतु संधि, अथवा पुण्यता हेतु की शिक्षा संग अनुकूल ! ऐसा उपहास कदापि ज्ञात नहीं था ! मुझे तुम्हें कथा सुनानी चाहिए। कोई अन्य पथ दर्शित नहीं है; अन्य उपाय दिख रहा है; अन्य शरण हाथ में है; अन्य मार्ग मेरे समक्ष है। यदि यह अकथित रह जाता है, इससे भी महत्तर कष्ट उदित होगा। एक मित्र-जीवन अपनी स्वयं की हानि पर भी बचाया जाना चाहिए; अतः मैं कथा कहता हूँ
......क्रमशः   



हिंदी भाष्यांतर,

द्वारा
पवन कुमार,
(२६ जनवरी, २०१९ समय २१ :५१ रात्रि)